Read this article in Hindi to learn about the role of China in world politics.

विश्व में राजनीतिक व आर्थिक शक्ति के वैकल्पिक केन्द्र (Alternative Centers of Political and Economic Power in the World):

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद विश्व राजनीति का जो स्वरूप उभरा, उसे द्विध्रुवीय विश्व व्यवस्था के नाम से जाना जाता है । इस व्यवस्था के अन्तर्गत अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी पूँजीवादी गुट तथा सोवियत संघ के नेतृत्व में साम्यवादी गुट शक्ति के दो प्रमुख केन्द्र थे ।

यद्यपि गुटनिपेक्ष देशों का तीसरा समूह था लेकिन शक्ति व प्रभाव की दृष्टि से इन्हीं दोनों गुटों के आपसी संबन्धों ने विश्व राजनीति के स्वरूप का निर्धारण किया । चूंकि इन दोनों गुटों के सम्बन्ध तनावपूर्ण थे तथा दोनों ही अपने प्रभाव के विस्तार में प्रयासरत थे, अत: विश्व राजनीति वास्तव में शीत युद्ध की राजनीति का रूप धारण कर गयी ।

1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद शीत युद्ध का अन्त हुआ तथा विश्व राजनीति में एकध्रुवीयता का समावेश हुआ क्योंकि अब अमेरिका ही एकमात्र महाशक्ति रह गया था । 1990 का दशक विश्व राजनीति में अमेरिका के प्रभाव के विस्तार का दशक है ।

ADVERTISEMENTS:

लेकिन वैश्वीकृत अर्थव्यवस्था का लाभ लेकर 21वीं शताब्दी में कतिपय अन्य देश व क्षेत्रीय समूह भी नई आर्थिक शक्ति के रूप में उभरे । इनमें चीन भारत आसियान तथा यूरोपियन संघ का स्थान प्रमुख है । आर्थिक शक्ति व राजनीतिक शक्ति एक-दूसरे की पूरक होती हैं । अत: इन देशों व संगठनों के राजनीतिक प्रभाव में भी वृद्धि हुई ।

यही देश व संगठन विश्व राजनीति में राजनीतिक व आर्थिक शक्ति के वैकल्पिक केन्द्र है । शक्ति के इन नये केन्द्रों को विश्व राजनीति में बहुध्रुवीयता का संकेत माना जा सकता है । अत: भविष्य में अमेरिका के साथ-साथ विश्व व्यवस्था के प्रबन्धन में शक्ति के इन नये अभिकर्त्ताओं की भी महत्वपूर्ण भूमिका होगी । 

उत्तर-माओ काल में एक आर्थिक शक्ति के रूप में चीन का उदय (China’s Rise as an Economic Power in North-Mao Period):

I. साम्यवादी क्रान्ति (Communist Revolution):

चीन विश्व का सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश है । चीन की वर्तमान जनसंख्या 135 करोड़ है । द्वितीय विश्व युद्ध के समय चीन की अर्थव्यवस्था जर्जर हो चुकी थी तथा वहाँ गरीबी बेरोजगारी असमानता तथा शोषण की समस्याएँ गम्भीर रूप धारण कर गयी थी । जापान ने उत्तरी चीन के बड़े क्षेत्र पर कब्जा कर रखा था ।

ADVERTISEMENTS:

1937 से 1945 तक चले इस द्वितीय जापान-चीन युद्ध में 20 मिलियन चीनी नागरिक मारे गये थे तथा चीन आर्थिक दृष्टि से भी बहुत कमजोर हो गया था । 1945 में जापान की पराजय के उपरान्त चीन जापान के नियंत्रण से तो मुक्त हो गया लेकिन वहाँ च्यांग काई शेक की राष्ट्रवादी सरकार तथा माओत्से तुंग के नेतृत्व में साम्यवादियों के मध्य गृह युद्ध छिड़ गया ।

इस गृह युद्ध में कम्युनिस्टों को विजय प्राप्त हुई तथा नवम्बर 1949 में कम्मुनिस्टों की लाल सेना ने चीन की मुख्य भूमि पर कब्जा कर लिया । परिणामस्वरूप च्यांग काई शेक की राष्ट्रवादी सरकार को चीन की मुख्य भूमि से भागकर फॉरमोसा (वर्तमान में ताइवान) में शरण लेनी पड़ी । आज भी ताइवान में राष्ट्रीय सरकार कार्यरत है । 1949 के इस सत्ता बदलाव को चीन की साम्यवादी क्रान्ति के नाम से जाना जाता है ।

भारत तथा साम्यवादी देश सोवियत संघ ने चीन की साम्यवादी क्रान्ति का स्वागत किया, जबकि अमेरिका तथा अन्य पूँजीवादी देशों ने विरोध व्यक्त किया तथा साम्यवादी सरकार को मान्यता प्रदान नहीं की । अमेरिका तथा उसके साथी फॉरमोसा की राष्ट्रवादी सरकार को ही चीन की वास्तविक सरकार मानते रहे ।

अमेरिका तथा पश्चिमी देशों के विरोध के कारण 1971 तक वास्तविक शासक होने के बावजूद भी साम्यवादी चीन को राष्ट्रवादी चीन के स्थान पर संयुक्त राष्ट्रसंघ की सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता नहीं प्राप्त हो सकी । 1971 में साम्यवादी चीन तथा अमेरिका के सम्बन्धों में सुधार के बाद साम्यवादी चीन को सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता प्राप्त हो सकी ।

ADVERTISEMENTS:

II. साम्यवादी अर्थव्यवस्था (Communist Economy):

1949 की साम्यवादी क्रांति के उपरान्त चीन में माओ के नेतृत्व में सोवियत संघ की साम्यवादी अर्थव्यवस्था के तर्ज पर एक राज्य नियंत्रित अर्थव्यवस्था की स्थापना की गयी । निजी तथा विदेशी स्वामित्व वाले कारखानों उद्योगों बैंकों यातायात व अन्य ढांचागत सुविधाओं को राज्य के नियंत्रण में ले लिया गया । बड़े जमींदारी की भूमि का अधिग्रहण कर उसे भूमिहीन किसानों में बाँट दिया गया ।

सोवियत संघ की भांति योजनाबद्ध तरीके से औद्योगिक व तकनीकि विकास पर विशेष जोर दिया गया । लेकिन चीन की बढ़ती जनसंख्या तथा पूंजी के अभाव में आरंभ में आर्थिक विकास में चुनौतियों का दामना करना पड़ा । सोवियत संघ ने 1950 के दशक में चीन के विकास में बहुत अधिक सहायता पहुंचाई ।

इन कठिनाइयों के बावजूद 1950 से 1980 तक चीन की नियंत्रित अर्थव्यवस्था की उपलब्धियाँ महत्वपूर्ण हैं । साम्यवादी क्रान्ति के कारण चीन की जनता में व्यापक उत्साह व सक्रियता का संचार हुआ जिसे चीनी साम्यवादी नेतृत्व ने देश के विकास तथा प्रगति में प्रयोग किया ।

चीन ने इस अवधि में अनेक ढाँचागत सुविधाओं जैसे बांधों आदि का निर्माण किया जिससे कृषि उत्पादन बढ़ने के साथ-साथ बाढ़ की समस्या से निजात मिली । नागरिक सुविधाओं जैसे चिकित्सा शिक्षा आवास गरीबी निवारण आदि के लिये प्रशासनिक तंत्र व सुविधाएँ विकसित की गयीं ।

नागरिकों को काम का अधिकार तथा असहाय स्थिति में सहायता पाने का अधिकार दिया गया । चीन की क्रान्ति वास्तव में जनता की क्रान्ति थी अत: जनता ने देश के विकास में अभूतपूर्व योगदान दिया । चीन ने सही अर्थों में अपनी बड़ी जनसंख्या का सकारात्मक उपयोग किया । परिणामत: चीन की गणना विश्व की बड़ी शक्तियों में की जाने लगी ।

उक्त आर्थिक उपलब्धियों के बावजूद चीन की राजनीतिक व्यवस्था एकदलीय केन्द्रीकृत शासन की बुराइयों से ग्रसित बनी रही । प्रतियोगी प्रजातंत्र का चीन में आज तक सदैव अभाव रहा है, क्योंकि साम्यवादी पार्टी के अलावा अन्य किसी दल या राजनीतिक समूह के गठन की अनुमति नहीं है ।

चीन में नागरिक स्वतंत्रताओं तथा मानवाधिकारों का अभाव है । विचार अभिव्यक्ति की आजादी का कोई तात्पर्य नहीं है, क्योंकि समाचार पत्रों व मीडिया पर सरकार अथवा साम्यवादी दल का नियंत्रण है । माओ के शासनकाल में सांस्कृतिक क्रान्ति हुई उसमें साम्यवादी पार्टी के विरोधियों का व्यापक स्तर पर सफाया किया गया ।

चीन में आर्थिक सुधार: आर्थिक उदारीकरण तथा खुले द्वार की नीति (ओपेन डोर पॉलिसी):

1970 के दशक के अन्तिम वर्षों में चीन में विगत अनुभवों तथा बदली हुई परिस्थितियों के आलोक में कतिपय उदारवादी आर्थिक सुधार किये गये ।

इन सुधारों की पृष्ठभूमि में निम्न तीन कारण थे:

प्रथम, 1971 में चीन व अमेरिका के सम्बन्धों में सुधार हुआ तथा राष्ट्रवादी चीन के स्थान पर साम्यवादी चीन को सुरक्षा परिषद् की सदस्यता प्राप्त हो गयी । इससे विश्व में चीन का एकाकीपन समाप्त हो गया । चीन के नेताओं ने विभिन्न देशों से सांस्कृतिक व व्यापारिक सम्बन्धों का विकास किया तथा पश्चिमी देशों की उल्लेखनीय आर्थिक व तकनीकी प्रगति का अनुभव प्राप्त किया ।

द्वितीय, चीन को विश्व में एक सम्पन्न व शक्तिशाली राष्ट्र बनाने की इच्छा को विभिन्न स्तरों पर व्यक्त किया गया तथा स्वीकार किया गया । 1973 में साम्यवादी पार्टी ने चीन की अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों का आधुनिकीकरण करने तथा चीन को एक शक्तिशाली समाजवादी राज्य बनाने का प्रस्ताव स्वीकार किया ।

तृतीय, सितम्बर 1976 में चीनी क्रान्ति के नायक तथा शीर्ष नेता माओ का निधन हो गया तथा चीन में जो नया नेतृत्व आया वह आधुनिक उदारवादी विचारों से प्रेरित था । नये नेतृत्व ने स्वीकार किया कि अर्थव्यवस्था का उदारीकरण व आधुनिकीकरण किये बिना चीन एक सम्पन्न राष्ट्र नहीं बन सकता ।

अत: 1978 में नये नेता डेंग शियाओ पेंग ने आर्थिक उदारीकरण व सुधारों का नया कार्यक्रम लागू किया जिसे ओपेन डोर पॉलिसी के नाम से जाना जाता है । इन आर्थिक सुधारों को ‘दूसरी क्रान्ति’ की सज्ञा भी दी जाती है, क्योंकि ये सुधार चीन की साम्यवादी विचारधारा से मौलिक रूप से भिन्न थे । चीन के नये नेता डेंग का मानना था कि अर्थव्यवस्था के विकास का लक्ष्य महत्वपूर्ण है, चाहे उसके लिये कोई भी साधन अपनाएँ जाएँ ।

उदारवादी आर्थिक सुधारों के मुख्य बिन्दु (Major Points of Liberal Economic Reforms in China):

1978 के चीन के आर्थिक सुधार ओपेन डोर पॉलिसी का अंग थे, जिनकी मुख्य विशेषताएं अग्रवत् हैं:

1. साम्यवादी शासन के अंतर्गत चीन में सामूहिक खेती की व्यवस्था को लागू किया गया था जिसमें किसान मजदूर की तरह काम करते थे तथा उन्हें अधिक परिश्रम करने पर भी निजी लाभ की कोई गुंजाइश नहीं थी । नये सुधारों के अन्तर्गत सामूहिक खेती को समाप्त कर किसानों को भूमि का मालिक बना दिया गया जिससे निजी लाभ की प्रत्याशा में कृषि उत्पादन तथा सम्बन्धित उद्योगों में तेजी से वृद्धि हुई ।

2. औद्योगिक विकास के लिये विदेशी पूँजी तथा तकनीकि को आकर्षित करने के लिये शंघाई तथा अन्य तटीय क्षेत्रों में विशेष आर्थिक क्षेत्रों अथवा स्पेशल इकॉनोमिक जोन की स्थापना की गयी जहाँ विदेशियों को उद्योग लगाने के लिये अनेक सुविधाएं तथा रियायतें दी गयीं । ये विशेष आर्थिक क्षेत्र चीन के तीव्र आर्थिक विकास के अग्रदूत माने जा सकते हैं । इससे औद्योगिक विकास के साथ-साथ विदेशी मुद्रा भण्डार में भी बढ़ोत्तरी हुई । जनवरी 2007 में चीन का विदेशी मुद्रा भण्डार बढ़कर 820 अरब डॉलर हो गया था ।

3. वैश्वीकरण की आवश्यकताओं के अनुरूप विश्व व्यापार में भागीदारी बढ़ाने के लिये चीन 2001 विश्व व्यापार संगठन का सदस्य बन गया । इससे चीन के द्विपक्षीय व्यापार को बढ़ावा मिला । चीन ने 2004 में अपने बीमा क्षेत्र को विदेशी कम्पनियों के लिये खोल दिया । इसी तरह 2006 में विदेशी कारों के आयात को सरल बनाया गया । अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों जैसे दूरसंचार, बैंकिंग, होटल उद्योग आदि को भी विदेशी व निजी पूंजी निवेश हेतु खोला गया । इससे आर्थिक क्षेत्र में प्रतियोगिता का समावेश हुआ तथा विकास व गुणवत्ता दोनों में बढ़ोतरी हुई ।

4. चीन ने केवल घरेलू स्तर पर विदेशी पूँजी को बढ़ावा नहीं दिया वरन् विदेशों में भी अपने पूँजी निवेश को बढ़ावा दिया । चीन ने विश्व के सभी क्षेत्रों में ढाँचागत सुविधाओं ऊर्जा संसाधनों आदि के क्षेत्र में अपनी पूँजी लगाकर केवल लाभ ही नहीं कमाया वरन् व्यापार व प्रभाव को बढ़ाकर अपने सामरिक हितों को आगे बढ़ाया ।

5. इन सुधारों के द्वारा साम्यवादी विचारधारा के विपरीत सम्पत्ति के निजी अधिकार को मान्यता प्रदान की गयी । 2007 में सम्पत्ति कानूनों में बदलाव कर निजी सम्पत्ति की सुरक्षा को सुनिश्चित किया गया । यह व्यवस्था की गयी कि यदि किसी नागरिक की सम्पत्ति को सरकार द्वारा जनहित में अधिग्रहीत किया जायेगा तो उसे उचित मुआवजा दिया जायेगा । अनुचित ढंग से किसी को भी निजी सम्पत्ति से वंचित नहीं किया जायेगा ।

उदारवादी आर्थिक सुधारों के प्रभाव (Impact of Moderate Economic Reforms in China):

1978 में ओपेन डोर पॉलिसी के अन्तर्गत चीन में उदारवादी आर्थिक सुधारों का जो सिलसिला शुरू हुआ, लगभग 35 वर्षों में उनके महत्वपूर्ण परिणाम सामने आये हैं, जो निम्नलिखित हैं:

1. गत 35 वर्षों में चीन ने लगभग 9 से 10 प्रतिशत आर्थिक विकास दर अर्जित की है । इसका परिणाम यह हुआ कि 2010 में चीन जापान को हटाकर अमेरिका के बाद विश्व की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है । 2013 में विश्व व्यापार में चीन की हिस्सेदारी 6 प्रतिशत है ।

इलेक्ट्रानिक वस्तुओं विशेषकर डी वी डी प्लेयर, माइक्रो ओवेन, तथा फोटोकॉपियर के विश्व उत्पादन में चीन की हिस्सेदारी दो-तिहाई है । इस तीव्र आर्थिक विकास के कारण चीन की गणना विश्व की उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं में की जाने लगी है ।

विदेशों में पूँजी निवेश में भी चीन एक अग्रणी देश है । चीन वर्तमान में बड़े अर्थव्यवस्थाओं के समूह जी-20 तथा ब्रिक्स का सदस्य भी है तथा विश्व व्यवस्था के प्रबन्धन में भी इन मंचों के द्वारा महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर रहा है । इस अवधि में चीन ने अपनी रक्षा सेनाओं का भी आधुनिकीकरण किया है । वर्तमान में उभरते चीन की तुलना विशालकाय व शक्तिशाली समुद्री जीव ड्रेगन से की जाती है ।

2. चीन ने इस अवधि में विकास के लिये उच्च स्तरीय ढांचागत सुविधाओं जैसे दूरसंचार रेल व सड़क यातायात ऊर्जा संसाधनों आदि का नेटवर्क विकसित किया है, जो आगे के विकास का आधार है । आवास, शिक्षा तथा चिकित्सा सुविधाओं का भी तेजी से विकास किया गया है ।

3. तीव्र आर्थिक विकास के कारण चीन में एक बड़े मध्यम व उच्च वर्ग का विकास हुआ है, जो चीन के आर्थिक विकास को गति देने में महत्वपूर्ण है । इसका एक नकारात्मक परिणाम यह है कि चीन में पहले की तुलना में आर्थिक विषमताएं बड़ी हैं । अधिक जनसंख्या के कारण बेरोजगारी की समस्या भी बनी हुई है ।

4. गत बीस वर्षों में नागरिकों के जीवन स्तर में तेजी से सुधार हुआ है । नागरिक सुविधाओं की उपलब्धता जैसे आवास चिकित्सा शिक्षा आदि की उपलब्धता व गुणवत्ता में सुधार हुआ है । इसी अवधि में चीन में 200 मिलियन लोगों को गरीबी की रेखा से ऊपर उठाया जा चुका है । गरीबी निवारण में यह एक विश्व कीर्तिमान है ।

उल्लेखनीय है कि उक्त आर्थिक उपलब्धियों के बावजूद आज भी चीन में एक केन्द्रीकृत व एकदलीय साम्यवादी राजनीतिक व्यवस्था अस्तित्व में है । नागरिक स्वतंत्रताओं का नितान्त अभाव है । 1989 में बीजिंग के थियाननमैन चौक में लोकतंत्र समर्थक युवाओं के आन्दोलन को बर्बरतापूर्ण ढंग से कुचल दिया गया था । यहाँ सोवियत संघ की भाँति राजनीतिक सुधारों को लागू नहीं किया गया है ।

परिणामत: चीन की अर्थव्यवस्था जहाँ एक ओर पूंजीवादी व उदारवादी सिद्धान्तों पर चल रही है उसकी राजनीतिक व्यवस्था अलोकतांत्रिक एकदलीय शासन प्रणाली पर आधारित है । चीन की राजनीतिक व्यवस्था त अर्थव्यवस्था के मध्य यह सामंजस्य अथवा विरोधाभाष कब तक चलेगा, यह कहना मुश्किल है ।

फिर भी गत 35 वर्षों में चीन की आर्थिक प्रगति तथा विश्व व्यवस्था में उसका बढ़ता हुआ प्रभाव वर्तमान विश्व राजनीति का एक महत्वपूर्ण तत्व है । पश्चिमी देशों में ड्रेगन को बुरी शक्ति का प्रतीक माना जाता है, जबकि चीनी संस्कृति में उसे सौभाग्य, विवेक व सकारात्मक शक्ति का प्रतीक माना जाता है ।

Home››Political Science››China››