उपनिवेशवाद: अर्थ, आधार और महत्व | Read this article in Hindi to learn about:- 1. उपनिवेशवाद का परिचय (Introduction to Colonialism) 2. उपनिवेशवाद का अर्थ (Meaning of Colonialism) 3. विशेषताएं (Importance) 4. संदर्भ (Context) 5. वर्ग संघर्ष तथा राष्ट्रीय मुक्ति संग्राम (Class Struggle and National Liberation Struggle) 6. सामाजिक संरचना के रूप में उपनिवेशवाद (Colonialism as a Social Formation) and Other Details.
Contents:
- उपनिवेशवाद का परिचय (Introduction to Colonialism)
- उपनिवेशवाद का अर्थ (Meaning of Colonialism)
- उपनिवेशवाद की विशेषताएं (Importance of Colonialism)
- उपनिवेशवाद का संदर्भ (Context of Colonialism)
- वर्ग संघर्ष तथा राष्ट्रीय मुक्ति संग्राम (Class Struggle and National Liberation Struggle)
- सामाजिक संरचना के रूप में उपनिवेशवाद (Colonialism as a Social Formation)
- उपनिवेशवाद का आधार (Basis to Colonialism)
- औपनिवेशिक विरासत (Colonial Legacy)
- उपनिवेशवाद के प्रभाव (Impacts of Colonialization)
- विभिन्न औपनिवेशिक नीतियां तथा प्रकार (Forms and Varying Colonial Policies)
- उपनिवेशवाद स्थापित करने के विभिन्न तरीके (Different Methods of Establishment of Colonialism)
1. उपनिवेशवाद का परिचय (Introduction to Colonialism):
द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् से उपनिवेशवाद का मुद्दा अत्यधिक विस्फोटक बन गया है । इस युद्ध ने सदियों पुरानी उपनिवेशवादी व्यवस्था की नीव को हिला कर रख दिया । 1945 में जापान का आत्मसमर्पण, वि-उपनिवेशीकरण की व्यवस्था का प्रारंभ था । इसके बाद विश्व की आधी से अधिक आबादी ने उपनिवेशवाद से छुटकारा पाने के लिए विदेशी शासन से स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए संघर्ष प्रारंभ कर दिए ।
पिछली तीन शताब्दियों में अतर्राष्ट्रीय राजनीति में उपनिवेशवाद प्रमुख विशेषताओं में से एक था । अंग्रेजों, डचों तथा फ्रासीसियों के साथ-साथ स्पेन तथा पुर्तगाल ने भी अपने उपनिवेश बसाने शुरू कर दिए । इस प्रक्रिया में ब्रिटेन अपनी शक्तिशाली नौ परिवहन शक्ति तथा औद्योगिक क्रांति के बल पर इस क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण शक्ति के रूप में उभरा ।
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अंग्रेजों ने भारत पर धीरे-धीरे अपना शासन स्थापित किया जबकि फ्रांस ने अल्जीरिया तथा इंडो-चाइना के क्षेत्रों पर अपना आधिपत्य स्थापित कर उपनिवेशों को अपने अधीन कर लिया । उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम चतुर्थांश में उपनिवेशवादी शक्तियों में अधिक-से-अधिक उपनिवेशों को हथियाने की होड़ सी लग गई ।
इन शक्तियों ने आपस में लगभग पूरी दुनिया को बांट लिया । इन देशों ने तत्कालीन उपनिवेशों पर अपने आधिपत्य को मजबूत करने के साथ-साथ अफ्रीका तथा एशिया के नए उपनिवेशों पर भी कब्जा कर लिया । बाद में जर्मनी, इटली जापान तथा अमेरिका भी उपनिवेशों की इस होड़ में शामिल हो गए ।
इस प्रकार, उन्नीसवीं शताब्दी के अंत तथा बीसवीं शताब्दी के प्रथम दशक में उपनिवेशवाद अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंच गया । आर.जे. हॉरवथ के शब्दों में ‘उपनिवेशवाद विशिष्ट आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक शक्तियों का मिश्रण है जिसके द्वारा एक साम्राज्यवादी शक्ति, अन्य क्षेत्र के लोगों पर अपना नियंत्रण रखती है तथा इसका विस्तार करती है’ ।
जे.ए. हॉब्सन कहते हैं- ‘उपनिवेशवाद एक स्वाभाविक मानवीय प्रवृत्ति है, इसकी कसौटी उपनिवेशी शक्तियों द्वारा औपनिवेशिक लोगों के प्राकृतिक तथा सामाजिक वातावरण में परिवर्तन करके उनकी सभ्यता को परिवर्तित करके उन लोगों को सभ्य बनाना है’ ।
2. उपनिवेशवाद का अर्थ (Meaning of Colonialism):
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विश्व में उपनिवेशवाद का इतिहास लगभग पांच शताब्दी पुराना है । अपने विकास की प्रक्रिया में यह विभिन्न चरणों से गुजरा है तथा इसके प्रत्येक चरण की अपनी अलग विशेषताएं हैं । उपनिवेशवाद शब्द की अलग-अलग परिभाषाएं दी गई हैं ।
हॉब्सन उपनिवेशवाद को किसी देश द्वारा किसी दूसरे विदेशी निर्जन या कम आबादी वाली भूमि पर स्थानांतरण के रूप में परिभाषित करते हैं, प्रवासी लोग नागरिकता के अधिकारों को भी अपने साथ ले जाते हैं या फिर स्थानीय स्वशासन जैसी स्थानीय संस्थाओं पर अपना पूर्ण नियंत्रण स्थापित करते हैं ।
उपनिवेशवाद की बहुत सी परिभाषाएं मूल्यों तथा भावनाओं पर आधारित हैं, जिनका यहां उल्लेख किया गया है । पश्चिमी संकल्पना के अनुसार- ‘उपनिवेशवाद एक लंबे समय के लिए विदेशी भूभाग पर सत्ता स्थापित करना और उसे बनाए रखना है और यह भूभाग सत्ताधारी शक्ति से अलग और इसके अधीन होता है, इसमें साम्राज्यवादी शक्ति से बहुत दूर, एक भिन्न प्रजाति के लोगों के निवास स्थान पर शासन स्थापित करना सम्मिलित है ।’
यह प्रक्रिया यूरोपीय शक्तियों द्वारा अफ्रीका तथा एशिया पर विशेष रूप से उनकी भिन्न प्रजाति के लोगों पर प्रत्यक्ष नियंत्रण की व्यवस्था को व्यक्त करती है । प्रोफेसर मनोरंजन मोहती ने उपनिवैशवाद की कुछ वैध विशेषताओं का उल्लेख किया है ।
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उनका कहना है कि इस प्रक्रिया में एक विदेशी अल्पसंख्या के लोग अपनी जातीय तथा सांस्कृतिक श्रेष्ठता के दावे के साथ भौतिक रूप से पिछडी मूल जनसंख्या पर प्रभुत्व जमाते है ।यह मशीनीकृत ईसाई सभ्यता का गैर-मशीनीकृत, पिछड़ी जीवन की धीमी रफ्तार की सूचक सभ्यता पर, पहली सभ्यता का दूसरी सभ्यता पर प्रभुत्व है ।
वामपंथी विचारक उपनिवेशवाद की एक बुराई मानते है और इसे किसी भी आश्रित राष्ट्र की आर्थिक या सैनिक दासता के रूप में परिभाषित करते है तथा इसे स्वदेशी लोगों के विनाश तथा उनके अधिकारों के पाश्विक हनन के रूप में देखते हैं ।
उपनिवेशवाद, विकसित पूंजीवादी समाजों द्वारा विश्व के पिछड़े क्षेत्रों के लोगों पर उनकी निर्भरता के परिणामस्वरूप एक जटिल आर्थिक तथा राजनीतिक प्रभुत्व है । संक्षेप में यह एक ऐसी व्यवस्था है जो श्रेष्ठ तथा पिछड़ों के आपसी संबंधों पर आधारित है ।
यह व्यवस्था एशिया तथा अफ्रीका में विद्यमान है और इसके आधार पर करोडों लोगों पर तब तक प्रभुत्व स्थापित किया गया जब तक उन्होंने औपनिवेशिक शक्तियों के लोगों के समान अपनी स्थिति का दावा नहीं किया । यह नियंत्रण की व्यवस्था है जिसे विकसित शक्ति या देशों ने पिछड़े लोगों पर लागू किया है और इस व्यवस्था में इन शक्तियों का एकमात्र उद्देश्य अपने हितों को बढ़ावा देना है ।
उपनिवेशवाद एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके अंतर्गत औपनिवेशिक राष्ट्र उपनिवेश के आर्थिक, प्राकृतिक तथा मानवीय संसाधनी का प्रयोग अपने हितों के लिए करता है और अपने इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए इन राष्ट्र पर अपना नियंत्रण स्थापित करता है । ये शक्तियां किस प्रकार इन क्षेत्रों में अपनी सर्वोच्चता स्थापित करती है ।
यह एक अलग प्रश्न है, परंतु औपनिवेशिक शक्तियां उपनिवेशों का अत्यधिक शोषण करती है और यहां के लोग इस शोषण के मजबूर दर्शक मात्र बन कर रह जाते हैं । उपनिवेशवाद की एक अन्य परिभाषा जो एक लंबे समय से मान्य है जे.पी. हॉब्सन ने दी है और उन्होंनें यह परिभाषा अपनी पुस्तक इंपीरियलिज्म : ए स्टडी में दी है ।
जैसाकि ऊपर उल्लेख किया गया है । अफ्रीका में उपनिवेशवाद के चार अलग रूप हैं: कंपनी, प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष तथा उपनिवेशी उपनिवेशवाद के प्रकार के आधार पर शासन के स्वरूप में कुछ-कुछ भिन्नता थी ।
3. उपनिवेशवाद की विशेषताएं (Importance of Colonialism):
(i) औपनिवेशिक शक्तियों की राजनीतिक व्यवस्थाएं अलोकतांत्रिक थीं:
उपनिवेशवादी शासन के स्वरूप की भिन्नता अर्थहीन थी क्योंकि सभी औपनिवेशिक व्यवस्थाएं अलोकतांत्रिक थी । औपनिवेशिक सरकारें लोगों की सहभागिता को स्वीकार नहीं करती थी । नीतियों तथा निर्णयों के निर्धारण में लोगों का नाममात्र का हस्तक्षेप था या इस व्यवस्था में लोगों की कोई भूमिका ही नहीं थी । उन लोगों के लिए लाभकारी मामलों में भी यह व्यवस्था अलोकतांत्रिक ही रही क्योंकि लोगों को औपचारिक रूप से अपनी राय व्यक्त करने की कोई व्यवस्था नहीं थी ।
(ii) कानून और व्यवस्था:
शांति व्यवस्था को बनाए रखना औपनिवेशिक शासन का प्राथमिक उद्देश्य था । औपनिवेशिक शासन को अफ्रीकी लोगों की इच्छा के बिना उनपर थोपा गया । लोग प्रतिनिधित्व के बिना शासित होने से स्वाभाविक रूप से प्रसन्न नहीं थे ।
औपनिवेशिक शासन को प्राय: अपने शासन के विरुद्ध प्रतिरोध का सामना करना पड़ता था । इसलिए शांति तथा व्यवस्था को बनाए रखना औपनिवेशिक सरकारों की सर्वोच्च प्राथमिकता बना रहा जिसके कारण उपनिवेशों के अधिकतर धन का व्यय शिक्षा, आवास तथा स्वास्थ्य के स्थान पर पुलिस तथा सेना के विकास व उसे बनाए रखने पर हुआ ।
(iii) उपनिवेशवादी सरकारें निर्बल थीं:
अधिकतर उपनिवेशवादी सरकारों के पास धन का अभाव था । यूरोपीय औपनिवेशिक शक्तियां अपने उपनिवेशों को अफ्रीका के शासन पर सारा धन व्यय नहीं करने देना चाहती थी । प्रत्येक उपनिवेश औपनिवेशिक शासन के अभियानों पर होने वाले खर्च के लिए, अधिकाधिक धन उगाहने के लिए उत्तरदायी था ।
उपनिवेशों का साधन सन्न होना भी अर्थहीन था क्योंकि शांति तथा व्यवस्था के परे सरकारी व्यवस्था को विकसित करने के लिए आवश्यक आय तथा करों का अभाव था । इसका अर्थ था कि औपनिवेशिक सरकारें न तो सड़क तथा संचार जैसी आधारभूत संरचनाएं प्रदान करने में सक्षम थी और न ही वह शिक्षा, स्वास्थ्य सुरक्षा तथा आवास जैसी आधारभूत सुविधाएं प्रदान करने में सक्षम थी ।
(iv) औपनिवेशिक सरकारें बांटो तथा राज करो की नीति का अनुसरण करती थीं:
सामर्थ्य के अभाव तथा कानून व व्यवस्था पर अत्यधिक जोर देने के कारण औपनिवेशिक शासन सभी प्रकार से बांटो तथा राज करो की नीति का अनुसरण करते थे और जानबूझकर ऐसी नीतियों का कार्यान्वयन करते थे जिससे देशी शक्तियों का नेटवर्क तथा संस्थाएं कमजोर होती थी ।
मॉडयूल टेन : अफ्रीकन पालिटिक्स एड गवर्नमेट्स से स्पष्ट होता है कि अफ्रीका के कई हिस्सों में उत्तर-उपनिवेशवाद के जातीय संघर्षों की जड़ में किस प्रकार से भाषा धर्म तथा जाति के आधार पर विभाजन के लिए औपनिवेशिक नीति उत्तरदायी थी तथा इन नीतियों के परिणामस्वरूप किस प्रकार सामूहिक विभिन्नताओं को बढ़ावा देकर संघर्ष उत्पन्न किया गया ।
4. उपनिवेशवाद का संदर्भ (Context of Colonialism):
उपनिवेशवाद का संदर्भ आधुनिक वर्ग के पूर्ण अर्थ के रूप में सामाजिक प्रभुत्व की व्यवस्था पर बल देता है । जिसका 1920 के दशक में कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के प्रसार तथा दलों के संघर्ष और प्रचार के द्वारा पूरे विश्व में व्यापक प्रयोग हुआ । अपने लंबे इतिहास में उपनिवेशवाद का संबंध अठारहवीं शताब्दी से उत्पादन के एक प्रकार के रूप मेख परिलक्षित नहीं होता है ।
इसकी प्रमुख विशेषता, उत्पादित माल के अधिशेष को उत्पादन के विभिन्न साधनों द्वारा अपने उपनिवेशों में विनियोजित करना है । उपनिवेशों में उत्पादन के आधिक्य का विनियोजन, महानगरीय बुर्जुओं के उत्पादन के साधनों या उत्पादन की सीमा पर आधिक्य के विनियोजन के प्रकार या फिर उपनिवेशवाद की तीसरी या वित्तीय साम्राज्यवाद की अवस्था के अतिरिक्त नहीं है ।
इस प्रकार, उपनिवेशवाद अपने मूल अर्थ में पूंजीवाद से भिन्न है जिसमें अधिशेष का विनियोजन स्वामित्व के साधनों या साधनों पर नियंत्रण तथा उत्पादन की परिस्थितियों के द्वारा किया जाता है । उदाहरणार्थ भारत में अंग्रेजों के उपनिवेशवाद की एक लंबी समयावधि में ब्रिटिश सरकार ने लगभग 100 वर्षों तक शोषण के संबंधों या सामाजिक अधिमूल के उत्पादन के तरीकों का प्रयोग नहीं किया ।
इसके अतिरिक्त उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम 50 वर्षों के दौरान एक बार उत्पादन के नए संबंधों की स्थापना होने के पश्चात् इसके विकास को न तो उन्होंने बढ़ावा दिया और न ही उनके विकास में बाधा डाली । मार्क्सवादी तभी से उपनिवेशवादी शासन की वास्तविकता तथा अवधारणा के बारे में अधिकाधिक मूल्यांकन करते रहे हैं ।
असमान विनिमय के एक महत्त्वपूर्ण संदर्भ के संबंध में आरघिरी इमेनुअल का अत्यधिक महत्त्वपूर्ण योगदान है । समीर अमीन तथा गुडर फ्रेंक के साथ मिलकर कार्य करने वाले अन्य विचारक हमजा अलवी ने इस विषय पर कई वर्षों तक मौलिक तरीके से कार्य किया है । समकालीन वर्षों में ए.के. बागची ने इस क्षेत्र में प्रमुख कार्य किया है ।
यद्यपि, उनका मुख्य कार्यक्षेत्र तीसरे विश्व के आर्थिक पिछड़ेपन तथा अल्पविकास से संबंधित है परंतु उनके कार्यकलाप औपनिवेशिक तथा उत्तर-उपनिवेशी दोनों ही कालों तक विस्तृत हैं । इस विषय पर बिपिन चंद्रा तथा जयरस बानाजी के लेखों का भी उल्लेख किया जा सकता है । 1970 के दशक के प्रारंभ से ‘देश विशेष तथा उसके विशिष्ट पहलुओं के बारे में उत्कृष्ट लेखों की बाद सी आ गई है ।’
उपनिवेशवाद के सांस्कृतिक संदर्भ के बारे में ए केबरेल, फ्रेज फेनन, रेनेटो कोंस्टेंटिनों तथा एडवर्ड सैद के द्वारा चर्चा की गई है । इस क्षेत्र में निरंतर प्रगति हो रही है । औपनिवेशिक राज्य तथा औपनिवेशिक राजनीतिक संस्थाएं तथा उनके औपनिवेशिक आर्थिक तथा राज्य संरचनाओं एवं महानगरीय राज्य संरचना राजनीतिक व्यवस्था, तथा राजनीतिक संस्थाओं के संबंधों पर तथा औपनिवेशिक विचारधारा पर गहन चर्चा अभी बाकी है ।
हाल ही के एक मार्क्सवादी लेखक ने कई उदाहरणों में महानगरीय पूजी के वर्गीय हितों तथा पूर्वपूंजीवादी संबंधों के संरक्षण के लिए उपनिवेशवाद की आलोचना की है तथा जोर देकर कहा है कि उपनिवेशवाद को वर्तमान पूर्व-पूंजीवादी संगठनों के विश्वस की कोई आवश्यकता नहीं थी ।
सैद्धांतिक रूप से, निस्सदेह यह विचार गलत नहीं है कि एक औपनिवेशिक समाज में पूर्ण औपनिवेशिक प्रकार तथा उत्पादन के संबंध बने रह सकते है । परंतु ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार अधिकतर मामलों में उपनिवेशवाद पूर्व औपनिवेशिक उत्पादन के प्रकार तथा उत्पादन के संबंधों को संरक्षित करता है । यह इनमें परिवर्तन करता है इनका समूल नाश करता है तथा उपनिवेशवाद के एक अभिन्न हिस्से के रूप में इनकी पुन: संरचना करता है ।
औपनिवेशवादी प्रक्रिया द्वारा परिवर्तित होकर उत्पादन के ये संबंधों किसी प्रकार से पूर्व औपनिवेशिक और पूर्व पूंजीवादी प्रकारों के घटक प्रतीत होते हैं । ये वास्तव में औपनिवेशिक काल की रचना होती है । ब्रिटेन के समान एक ऐसी उपनिवेशी अर्थव्यवस्था की व्याख्या करने में असफलता के कारण जो पूंजीवादी नहीं है कई लेखक अधिशेष की अवधारणा या पूर्व पूंजीवाद को संरक्षण या फिर पूर्व उपनिवेशवादी निर्माण से सहमत हैं ।
उनका मानना है कि जो विशेषताएं औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था की नहीं हैं और जो पूंजीवादी नहीं हैं, वे पूर्व पूंजीवादी तथा पूर्व-औपनिवेशिक होनी चाहिए । ये अधिशेष उपनिवेशवाद के साथ ऐतिहासिक विकास के अवशिष्ट तत्त्व बन गए । इसने अपने हितों के लिए न तो उन्हें संरक्षित किया और न ही उन्हें नष्ट किया ।
भारत इंडोनेशिया मिस्र और लैटिन अमेरिका जैसे औपनिवेशिक देशों में कृषक समाज के संबंधों के विकास ने इस प्रकार के परिवर्तन के उदाहरण प्रस्तुत किए है । उदाहरणार्थ- भारत में मुगल काल से चली आ रही कृषक संबंधों की अर्धसामती संरचना में परिवर्तन कर दिया था ।
परंतु औपनिवेशिक परिस्थितियो में यह जबसे घटित हुआ था तब भी इसका परिणाम एक अर्धसामती औपनिवेशिक राज्य के अधीन अर्ध औपनिवेशिक कृषि वैश्विक पूंजीवादी बाजार, भूस्वामी, व्यापारी तथा सूदखोर तथा कई पूंजीवादी विशेषताओं-बुर्जुआ संपत्ति संबंधों वाणिज्यीकरण तथा पूंजीवादी कृषि के अन्य तत्त्व थे ।
यह पूर्व औपनिवेशिक कृषि को पूंजीवादी कृषि में परिवर्तित करने के दो गंभीर तथा व्यापक प्रयासों का परिणाम था । पूर्व औपनिवेशिक कृषि के पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में परिवर्तन को बहुत जल्दी महसूस किया गया और इसका विवरण मार्क्स ने अपनी पुस्तक दास कैपिटल में स्पष्ट रूप से दिया है । यह कहा जाता है कि उपनिवेशवाद की प्रक्रिया में उपनिवेशों में मौलिक परिवर्तन हुए और इसके परिणामस्वरूप औपनिवेशिक समाजों का निर्माण हुआ ।
इसके अतिरिक्त उपनिवेशवाद ने उपनिवेशों को विश्व के साथ एकीकृत करके इन्हें विश्व का एक अभिन्न हिस्सा बनाया । परंतु क्या इस एकीकरण के कारण एक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था तथा संरचना का विकास हुआ हम भारत के उदाहरण को देखते हैं । उन्नीसवीं शताब्दी के दौरान उपनिवेशों के औपनिवेशिक परिवर्तन विशेषकर भारत को पूंजीवादी बनाने के नारे को कार्यान्वित करने के लिए, कृषि, व्यापार तथा उद्योगों में पूंजीवादी विकास के घटको पर बल दिया गया । आज भी इसका यह रूप अस्पष्ट है ।
उपनिवेशों के पूंजीवादी विकास की सुस्पष्ट कमियों को तत्कालीन प्रारंभिक अवस्था की निर्धनता के लिए उत्तरदायी माना जाता है । जिससे उपनिवेशवाद ने अपना कार्य किया तथा उपनिवेशों में सामाजिक, आर्थिक, भौगोलिक, जनसांख्यिकी परिस्थितियों को उत्तरदायी माना जाता है । इससे पूंजीवाद को यहां पर अपनी जड़े जमाने और इन पर नियंत्रण स्थापित करने में बहुत समय लगा ।
उपनिवेशवाद एक वैश्विक व्यवस्था है । मार्क्स यह देख पाने में असफल रहे कि जहां पूंजीवाद एकल वैश्विक व्यवस्था है तथा उपनिवेश इसके आधारभूत घटक बन चुक हैं, वहां उपनिवेश उसी प्रकार से पूंजीवादी नहीं बन सकते जिस प्रकार से यह महानगरों में विद्यमान हैं ।
पूंजीवादी एक वैश्विक व्यवस्था है परंतु उपनिवेशों तथा महानगरों दोनों जगह इसके स्वरूप में भिन्नता है । यह वह साम्राज्यवाद नहीं है जो अत्यधिक उत्पादन के सिद्धांत के साथ-साथ, पूंजीवादी दिशा में उपनिवेशों का विकास तथा परिवर्तन करता ।
यह वैसा ही है जैसा मार्क्स ने उल्लेख किया है । परंतु क्योंकि ऐसा साम्राज्यवादी परिस्थितियों के अंतर्गत हुआ । साम्राज्यवाद ने न तो उपनिवेशों को महानगरों के विभाजित रूपों में परिवर्तित किया और न ही इनका विकास करने में सफल रहा । इसने इनके अल्पविकास का कारण बनकर इन्हें औपनिवेशिक समाजों में परिवर्तित कर दिया ।
यह कहा जा सकता है कि साम्राज्यवाद ने उपनिवेशों में पूंजीवादी संबंधों तथा पूंजीवादी संपत्ति की तो शुरुआत की परंतु पूंजीवाद के विकास की ओर ध्यान नहीं दिया । इसने पुरानी अर्थव्यवस्था, सामाजिक संरचना तथा गठन को जड से उखाड़ दिया इसमें परिवर्तन किया परंतु नवीन औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था तथा सामाजिक परिवर्तन औद्योगिक क्रांति का हिस्सा बने बिना, इसमें सहायक नहीं हैं । उपनिवेश पूंजीवादी विकास के आधारभूत लाभ का उपयोग किए बिना विशेष रूप से औद्योगिक क्रांति का हिस्सा बने बिना, वैश्विक पूंजीवाद से जुड़ा है ।
उपनिवेशवाद का अर्थ है- व्यापार तथा उद्योग, कृषि तथा बैंकिग में पूंजीवादी संरचना बुर्जुआवादी राज्य संरचना कानूनी तथा संपत्ति संबंधों या उत्पादन के संबंधों का आविर्भाव परंतु इसमें पूंजीवादी उत्पादन का विकास या उत्पादक शक्तियां सम्मिलित नहीं है । उत्पादन के पूंजीवादी प्रकार में उत्पादन के पूंजीवादी संबंध ही सम्मिलित नहीं हैं अपितु इसमें कृषि तथा उद्योगों की उत्पादक शक्तियां भी सम्मिलित हैं ।
यहां पर उत्पादन की सामाजिक शक्तियों के सतत् क्रांतिकारी विकास के बिना, पूंजीवादी विकास संभव नहीं है । यहां पर उत्पादन के सभी पूर्ववर्ती प्रकारों पर पूंजीवादी की सर्वोच्चता कायम हो गई है । इस प्रकार, इन सबके बावजूद पूंजीवाद का अर्थ उत्पादन की शक्तियों का विकास है ।
उपनिवेशों की उत्पादन की शक्तियों में क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं हुआ था यद्यपि उद्योगों का विघटन भी नहीं हुआ था; अधिकतर उपनिवेशों में केवल उन उपनिवेशों को छोड़कर जहां नियंत्रित बागान व्यवस्था शुरू हुई, वहां पर अर्ध-सामंतवाद की निरंतर वृद्धि के साथ-साथ उत्पादन में गतिहीनता आई । इस प्रकार उपनिवेशवाद पूंजीवाद से भिन्न सामाजिक विकास की एक प्रगतिशील अवस्था नहीं था ।
यह महानगरीय पूंजीवाद का एक प्रतिरूप, परंतु नकारात्मक प्रतिरूप है जो विपरीत उत्पादन की शक्तियों का विकास करता है तथा उत्पादन के संबंधों तथा उत्पादन की शक्तियों के बीच इस विकास से उत्पन्न होने वाले विरोधाभासों के कारण इसे उखाड़ फेंका गया । दूसरी ओर उपनिवेशवाद को उखाड़ फेका जाना चाहिए क्योंकि यह विकास के स्थान पर उत्पादन की शक्तियों का दमन करता है ।
इसके आंतरिक विरोधाभास का परिणाम, उत्पादन की शक्तियों का विकास न होकर, उनके विकास का अभाव है । यदि पूंजीवाद के अंतर्गत सामाजिक परिवर्तन उत्पादन के संबंधों तथा उत्पादन की शक्तियों के बीच विरोधाभासों का परिणाम है तो उपनिवेशवाद के अंतर्गत पूंजीवाद में सम्मिलित उत्पादन की सभी शक्तियाँ तथा औपनिवेशिक संबंधों के बीच विरोधाभास इसका परिणाम है । वर्षों से हमजा अलवी, उपनिवेशवाद को उत्पादन के एक भिन्न प्रकार के रूप में देखने का प्रयास कर रहे हैं ।
उन्होंने उपनिवेशवाद को ”औपनिवेशिक पूंजीवाद” के रूप में वर्णित किया है । यह उत्पादन का एक पूंजीवादी प्रकार है जिसकी अपनी विशिष्ट औपनिवेशिक संरचना है । उनके अनुसार उत्पादन के प्रकार के रूप में इसकी दो मुख्य विशेषताएं- ग्रामीण अर्थव्यवस्था को बाहरी एकीकरण. आंतरिक विच्छेदन तथा पूजी के पुन: उत्पादन की अधिकता को उपनिवेश में नहीं अपितु महानगरों में उपयोग करना है ।
हमारे दृष्टिकोण से उपनिवेशवाद उत्पादन की नकल को प्रदर्शित या निर्मित नहीं करता है । यह एक सामाजिक परिवर्तन है जिसमें उत्पादन के विविध प्रकार उत्पादन के संबंध तथा शोषण के प्रकार एक साथ विद्यमान है ।
इस प्रकार की व्यवस्था में सामंतवाद, अर्ध-सामंतवाद, दासता, बंधुआ मजदूरी, लघु वस्तुगत व्यापारिक उत्पादन और सूदखोरी, शोषण के साथ-साथ कृषक औद्योगिक तथा वित्तीय पूंजीवाद एक साथ विद्यमान रहता है । यद्यपि, इसका शांतिपूर्ण या गैर-विरोधात्मक होना आवश्यक नहीं है ।
विभिन्न उपनिवेशों में अलग-अलग समय और भिन्न अवस्था में उपनिवेशवाद की विभिन्न चरणों की व्यवस्थाओं का मिश्रण विद्यमान रहा है । निस्संदेह उत्पादन के सभी प्रकारों के अलग-अलग प्रकार महानगरीय पूजी के अधीन हैं । उपनिवेशवाद को संपूर्णता या एकीकृत संरचना के रूप में भली-भांति देखा जा सकता है ।
सभी नवनिर्मित संस्थाएं तथा संरचनाएं एवं परिवर्तन परस्पर संबंधित तथा एक-दूसरे को प्रोत्साहित करने वाले नेटवर्क की स्थापना करते हैं तथा औपनिवेशिक संरचना के निर्माण में सहायक होते हैं । उपनिवेशवाद को एक संरचना के रूप में देखने के लिए हमें यह ध्यान रखना होगा और इस बात को समझना होगा कि यह स्वयं का पुनरुत्पादन तब तक करती रहती है जब तक नष्ट नहीं हो जाती ।
हाल के वर्षों में उपनिवेशवाद की संरचनात्मक तथा मौलिक विशेषताओं के बारे में विस्तृत विवरण, व्याख्या, स्थापना और परिभाषा दी गई है और इनका सही नामकरण भी किया गया है परंतु अभी तक सभवत: कोई भी मौलिक प्रगति नहीं हुई है ।
परंतु अभी भी औपनिवेशिक संरचना का कोई भी वास्तविक सिद्धांत नहीं है शायद इससे अधिक विशेषताओं का प्रतिपादन नहीं किया जा सकता तथा उपनिवेशवाद से संबंधित ठोस प्रतिपादन के लिए हमें औपनिवेशिक संरचना के प्राचलों के अंतर्गत, कार्यप्रणाली के रूप में औपनिवेशिक हितों, नीतियों, अतिरिक्त विकास के रूपों तथा उत्पादन के प्रकार, राज्य तथा इसकी संस्थाएं, संस्कृति तथा समाज विचार तथा विचारधाओं का अध्ययन करना होगा जो अपने आप को परिभाषित करते है ।
उपनिवेशवाद के संबंध में चार मौलिक विशेषताओं का वर्णन इस प्रकार किया गया है:
पहली आधारभूत विशेषता उपनिवेश का वैश्विक पूंजीवादी व्यवस्था के साथ अधीनस्थ या सहायक की भूमिका में मिल जाना है । अधीनस्थ का अर्थ है कि उपनिवेश की अर्थव्यवस्था तथा समाज के मूलभूत पहलू इसकी अपनी आवश्यकताओं या इसके प्रभावी सामाजिक वर्गों के हितों से निर्धारित नहीं होते अपितु इसकी महानगरीय अर्थव्यवस्था के हितों तथा आवश्यकताओं एवं इसके पूंजीवादी वर्गों के द्वारा निर्धारित होते हैं ।
इस बात को ध्यान में रखना आवश्यक है कि उपनिवेश की अर्थव्यवस्था तथा समाज की अधीनता महत्वपूर्ण या निर्णायक पहलू है तथा वैश्विक व्यवस्था या वैश्विक पूंजीवाद के साथ ही एकीकृत तथा संबंधित नहीं है । वैश्विक व्यवस्था के साथ एकीकरण या संबंध पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के बावजूद भी सत्य नहीं है और इस प्रकार के संबंध स्वत: ही उपनिवेशवाद या अर्ध-उपनिवेशवाद को चालित करते हैं ।
नव-स्वाधीन पूंजीवादी देशों का नेतृत्व करने वाले (जिन्हें नव-उपनिवेशवादी कहा जाता है) पहलू का प्राय: अभाव रहा है । यह 1840 के बाद माचू चीन तथा 1868 के बाद जापान के बीच अंतर का सैद्धांतिकरण करने की असफलता का भी निर्धारण करते हैं । इस असफलता के कई स्रोतों में से एक निर्भर या स्वतंत्र कमजोर या शक्तिशाली राज्य की प्रकृति और भूमिका पर ध्यान देने की असफलता है ।
उपनिवेशवाद की दूसरी विशेषता में औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था के आंतरिक अलगाव के असमान विनिमय तथा इसके विभिन्न हिस्सों के जुड़ाव की जुड़वा अवधारणा सम्मिलित है और यह व्यवस्था महानगरीय व्यवस्था के साथ वैश्विक बाजार तथा साम्राज्यवादी वर्चस्व के माध्यम से चलती है ।
उदाहरणार्थ- औपनिवेशिक कृषि उपनिवेशवादी औद्योगिक क्षेत्र से प्रत्यक्ष रूप से जुड़ी नहीं होती है, इसके बजाय ये वैश्विक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के साथ जुड़ जाती है और महानगरीय बाजार के साथ जुड़ी होती है जहां इसके उत्पादन का क्रय होता है ।
महानगरीय अर्थव्यवस्था के औद्योगिक उत्पादन उपनिवेशों को भेजे जाते हैं जहां पर ग्रामीण बाजारों में इनका क्रय होता है इस प्रकार से वस्तुओं को एक स्थान से दूसरे स्थान पर बेचकर उस माल को समाप्त किया जाता है । इस प्रकार उपनिवेश एक विच्छेदित सामान्य वस्तुगत उत्पादन को भोगने वाला बन जाता है ।
उपनिवेशवाद की तीसरी विशेषता एकपक्षीय निर्यात द्वारा धन का निकास या सामाजिक अधिमूल्य का एकपक्षीय हस्तांतरण है । उपनिवेशवाद के इस पहलू की प्रारंभिक राष्ट्रवादियों ने आलोचना करने के साथ-साथ उन्होंने भारत की गरीबी तथा अर्थव्यवस्था के पिछड़ेपन की व्याख्या की ।
उपनिवेशवाद की भूमिका पर मार्क्स के पुनर्विचार इस पहलू से अत्यधिक प्रभावित थे । 1950 के दशक में पॉल बर्न द्वारा एक बार फिर से उपनिवेशवादी-अल्पविकास की चर्चाओं में सामाजिक अधिमूल्य की उपयोगिता का प्रश्न मुख्य बिंदु बन गया ।
प्रारंभिक भारतीय राष्ट्रवादियों के साथ-साथ समकालीन लेखकों ने भी उपनिवेशों में सोना तथा नागरिक सेवाओं पर होने वाले खर्च को अधिमूल्य के बाहरी निकास के रूप में प्रस्तुत किया । इस दृष्टिकोण को वैश्विक पैमाने पर पूजी के संचय की पद्धति के रूप में पुन: व्यक्त किया जाता है परंतु इसका संचय विदेश में होता है ।
उपनिवेशवाद की चौथी आधारभूत विशेषता विदेशी राजनीतिक प्रभुत्व या उपनिवेशवादी राज्य की भूमिका तथा अस्तित्व है । औपनिवेशिक संरचना में यह एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं । उन्नीसवीं शताब्दी में, कड़वे राजनीतिक अनुभवों के पश्चात् अधिकतर राष्ट्रवासियों ने इन विशेषताओं को स्वीकार किया तथा मार्क्सवादियों ने अपने मूल्यांकन में इसे महत्वपूर्ण स्थान दिया ।
परंतु उपनिवेशवादी राज्य की पूर्ण ऐतिहासिक भूमिका का मूल्यांकन अभी भी अधूरा है । औपनिवेशिक राज्य तथा औपनिवेशिक समाजों के साथ इसके संबंधों की प्रकृति के ऐतिहासिक अध्ययन के लिए वास्तव में औपनिवेशिक राज्य के सिद्धांत की तत्काल आवश्यकता है । इस प्रकार के अध्ययन से उपनिवेशवाद के बारे में एक बेहतर समझ के विकास के साथ-साथ पूर्व-औपनिवेशिक राज्यों तथा समाजों के श्रेष्ठ मूल्यांकन को भी बढ़ावा मिलेगा ।
औपनिवेशिक संरचना के संबंध के मानक औपनिवेशिक राज्य से सुरक्षित, निर्धारित तथा स्थापित हुए हैं । औपनिवेशिक राज्य कई पहलुओं में पूंजीवादी राज्य से भिन्न है । यह आर्थिक आधार पर स्थापित अधिसंरचना नहीं है अपितु यह आर्थिक आधार की रचना के निर्माण में सहायक होते हैं और यह उपनिवेशवाद के आर्थिक आधार का एक हिस्सा है ।
यह केवल सत्ताधारी वर्ग को आधे मूल्य प्राप्त करने में ही सहायक नहीं है बल्कि यह स्वयं अधिमूल्य के अतिरिक्त विनियोग का एक प्रमुख माध्यम है । पूंजीवाद के अंतर्गत सत्ताधारी वर्ग वह है जो, राल्फ मिलिबैंड के शब्दों में, उत्पादन के साधनों पर नियंत्रण रखता है तथा उसका स्वामी होता है, जो आर्थिक शक्ति को प्रभुत्व के साधन के रूप में उपयोग करने में सक्षम बनाता है । उपनिवेशवाद की प्रक्रिया में ।
मामला इसके विपरीत है, जिसका कारण औपनिवेशिक राज्य पर इसका नियंत्रण है । इस प्रक्रिया में महानगरीय सत्ताधारी वर्ग औपनिवेशिक समाज पर नियंत्रण करने में उसे अपने अधीन करने तथा उसका शोषण करने में सक्षम होते हैं । दूसरे शब्दों में उपनिवेश के उत्पादन के साधनों पर औपनिवेशिक सत्ता के नियंत्रण के कारण केंद्रीय सत्ताधारी वर्ग उपनिवेश में राज्य सत्ता तथा सामाजिक आधिक्य को नियंत्रित नहीं करता ।
इसके स्थान पर उपनिवेश में सत्ताधारी वर्ग राज्य सत्ता को इसके स्थान पर उपनिवेश तथा इसके उत्पादन को नियंत्रित करने के कारण इसके उपभोक्ताओं को अपने अधीन करने में सक्षम होता है । पूंजीवादी राज्य एक वर्ग पर दूसरे वर्ग के प्रभुत्व तथा कानून के प्रवर्तन का साधन होता है ।
औपनिवेशिक राज्य पूरे औपनिवेशिक समाज पर प्रभुत्व के लिए केंद्रीय सत्ताधारी वर्ग की संगठित शक्ति होती है । यह उच्च वर्ग के मूल्य पर औपनिवेशिक राज्य को फैक्ट्री अधिनियम, काश्तकार तथा गैर-सूदखोरी अधिनियम अल्पसंरक्षक समुदायों के समर्थन इत्यादि जैसे कुछ विशिष्ट सुधारों को करने में सक्षम बनाता है ।
इस प्रकार कुछ समय के लिए औपनिवेशिक राज्य कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में भूस्वामी तथा काश्तकार, पूंजीवाद तथा श्रमिक एवं उच्च वर्ग तथा निम्न वर्गों को एक-दूसरे के विरुद्ध कर देता है । यह सभी प्रकार की बहुसंख्या को अल्पसंख्या के विरुद्ध भड़काते है । दूसरी ओर, इसका यह भी अर्थ है कि उच्चतम वर्ग तथा औपनिवेशिक समाज के सस्तर उपनिवेशवाद को उखाड़ फेंकने में सक्षम है ।
पोलैड तथा मिस्र के समान उपनिवेशवाद के विरुद्ध संघर्ष का नेतृत्व बड़े-बड़े किसान व जमीदार भी कर सकते हैं । यह उन्नीसवीं शताब्दी के अंत: से आज तक साम्राज्यवादी प्रशासकों तथा विचारधारा के लिए (यह सिद्धांत कि राष्ट्रवाद देशी तथा विदेशी अभिजनों के बीच शक्ति संघर्ष का परिणाम है) राष्ट्रवाद के अभिजात सिद्धांत के आकर्षण की व्याख्या करता है ।
यह सिद्धांत औपनिवेशिक देशी अभिजात वर्ग को साम्राज्यवादी सत्ताधारी वर्ग के समान मानकर उपनिवेशवाद तथा साम्राज्यवादी सत्ताधारी वर्ग की वास्तविकता को धुला कर देता है । इस सिद्धांत का मानना है कि दोनों समान रूप में औपनिवेशिक लोगों पर अत्याचार करते थे और जिस प्रकार से देशी अभिजात्य वर्ग दमन करता था, उससे उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष में कोई राजनीतिक अतर नहीं था ।
साम्राज्यवादी प्रशासक तथा बुद्धिजीवी, इस अभिजात वर्ग के सिद्धांत पर वास्तविक साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन की वैधता पर प्रश्नचिह्न लगाने का प्रयास करते है यह कार्य आज भी निरंतर कभी उग्रवादी अवस्थिति तो कभी पारिभाषिक शब्दावली के साथ निरंतर हो रहा है । इस घुध लेपन के पार देखने के लिए एक ओर तो सत्ताधारी वर्गों तथा शोषित वर्गों की अवधारणा तो दूसरी ओर, उपनिवेशवादी राज्य की प्रकृति तथा औपनिवेशिक सत्ताधारी वर्ग या वर्गों की अवधारणा का उपयोग करना आवश्यक है ।
औपनिवेशिक राज्य की प्रकृति विजित देश के प्रभावी वर्ग द्वारा निर्धारित होती है । परंतु अर्ध-औपनिवेशिक राज्य की वर्गीय प्रकृति अर्ध-औपनिवेशिक राज्य के प्रभावी राजनीतिक वर्ग की वर्गीय प्रकृति से निर्धारित होती है । इस संबंध में औपनिवेशिक राज्य पूर्व-औपनिवेशिक राज्य के अत्यधिक निरंकुश राज्यों से भिन्न हैं ।
निरंकुश राज्य में यद्यपि, राज्य दमनकारी है, परंतु देशी समाज का एक अवयव है यह एक विदेशी समाज या सत्ताधारी वर्ग या सामाजिक आधिक्य के निर्यात के लिए अपने समाज की अधीनता के प्रवर्तन का एक साधन नहीं है । (इसी के आधार पर दादा भाई नौरोजी तथा अन्य भारतीय राष्ट्रवादी औपनिवेशिक राज्य तथा मुगल राज्य के बीच अतर करते थे) ।
यहां ध्यान देना चाहिए कि औपनिवेशिक राज्य भौतिक रूप से एक बुर्जुआ राज्य है । जिसके परिणामस्वरूप- अपने विभिन्न चरणों में यह बुर्जुआ कानून तथा कानूनी संस्थाओं के साथ-साथ बुर्जुआ संपत्ति के संबंधों कानून के शासन तथा नौकरशाही प्रशासन को आरंभ करता है ।
इसलिए महानगरीय बुर्जुआ राज्य के संबंध में यह निरंकुश हो सकता है और अफ्रीका तथा एशिया में कई उपनिवेशों के समान यह निरंकुश या भारत के समान अर्धनिरंकुश हो सकता है । यह उपनिवेशों में एक सीमा तक अपने लिए संवैधानिक स्थान का निर्माण भी कर सकता है ।
यह संगीन (बेटन) के द्वारा शासन कर सकता है या औपनिवशिक समाज के चरित्र तथा इसकी राजनीति के रूप में भी, औपनिवेशिक समाज के आकार, इत्यादि के चरित्र पर निर्भर एक अर्ध-वर्चस्व के चरित्र को स्वीकार करते है या कर सकते हैं । फिर भी कुछ पूर्व औपनिवेशिक या उत्तर औपनिवेशिक राज्यों में विशेष पहलुओं में इसकी सर्वोच्चता तथा राज्य की बुर्जुआ प्रकृति इसके आधारभूत औपनिवेशिक स्वरूप और इसके नकारात्मक चरित्र को परिवर्तित नहीं करती ।
5. वर्ग संघर्ष तथा राष्ट्रीय मुक्ति संग्राम (Class Struggle and National Liberation Struggle):
उपनिवेशवाद को एक संरचना के रूप में देखते हुए जिसमें औपनिवेशिक राज्य सम्मिलित है, उपनिवेश में हम वर्गीय संरचना, वर्गीय-निरपेक्षता वर्गीय विरोधाभास, वर्गीय संघर्ष तथा उपनिवेशवाद के साथ इसके संबंधों को पूर्ण रूप में समझते हैं । इससे हम औपनिवेशिक परिस्थितियों में विभिन्न वर्गों तथा सस्तरों में राजनीति की भूमिका तथा राजनीति को परिभाषित करने में सक्षम हो पाते हैं । यहां पर उपनिवेशवाद को उत्पादन के एक भिन्न रूप में न देखने की महत्ता का भी पता चलता है । यदि हम ऐसा करते हैं तो मुख्य विरोधाभास उत्पादन के प्रकार में सम्मिलित वर्गों के बीच रहेगा ।
इसका अर्थ होगा कि औपनिवेशिक राज्य का विरोध करने के बावजूद देशी शोषक वर्गों के साथ इसके समर्थन के कारण देशी वर्गों के बीच मुख्य अंतर्विरोध होगा और यदि केंद्रीय बुर्जुआ उपनिवेश में उत्पादन के साधन के नियंत्रक, स्वामी या पूंजीवादी के रूप में उपस्थित रहते है तो देशीय श्रमिक वर्ग तथा केंद्रीय बुर्जुआ के बीच प्राथमिक अविरोध रहेगा जब तक कि बुर्जुआ भी गावो में भूस्वामी या पूंजीवादियों के रूप में कार्य नहीं करता ।
दूसरी ओर, उपनिवेश के उत्पादन के विभिन्न प्रकारों के सहअस्तित्व की अवधारणा देशी वर्गों तथा स्तरों एवं उनके आपसी संबंधों तथा वर्गीय प्रतिरोध की पहचान करने एवं उनका मूल्यांकन करने में सक्षम बनाएगी । इससे हम उनके आपसी संबंधों को सीधा तथा उन तरीकों को देख पाएंगे, जो उपनिवेशवाद के द्वारा निर्धारित होते है ।
उपनिवेशवाद के उत्पादन के प्रकार की अवधारणा से हम कुछ भी समझ नहीं पाएंगे । इन सबके बावजूद उत्पादन के प्रकार की प्रमुख महत्ता यह है कि इससे हमें दी अवस्था में समाज के महत्वपूर्ण वर्गों की भूमिका को पहचानने तथा उनके प्राथमिक विरोधाभासों को समझने में सहायता मिलती है ।
उपनिवेशवाद के अंतर्गत उत्पादन के औपनिवेशिक प्रकार की अवधारणा कई प्रकार की वर्गीय संघर्ष अवधारणा तथा इस पर आधारित राजनीति मुख्य विरोधाभास की समस्या के रूप में प्रदर्शित हो सकती है । दूसरी ओर, औपनिवेशिक संरचना को देखने का हमारा तरीका औपानवेशिक संरचना को प्राथमिक सामाजिक विरोधाभासों में से एक बनाता है ।
यदि उपनिवेशवाद में एक विदेशी सत्ताधारी वर्ग पूरे औपनिवेशिक समाज पर नियंत्रण स्थापित करता है और कोई भी देशी वर्ग इस व्यवस्था में सम्मिलित नहीं है या राज्य व्यवस्था में साझेदार नहीं है तो इस स्थिति में उपनिवेशवाद के विरुद्ध संघर्ष को एक वर्गीय-संघर्ष नहीं माना जा सकता बल्कि यह राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम है, यह संघर्ष देश का जनसंघर्ष है ।
इसके प्रतिमान वर्ग संघर्ष के प्रतिमानों से बिल्कुल भिन्न है । इसलिए भारतीय श्रमिकों तथा किसानों को ब्रिटिश शासन के विरुद्ध एक वर्गीय शत्रु के रूप में नहीं अपितु एक सामाजिक शत्रु भारतीय जनता के शत्रु और भारतीय सामाजिक विकास के शत्रु के रूप में लड़ाई लड़नी पड़ी थी ।
उपनिवेशों में वर्गीय संघर्ष, उत्पादन के बहुविध प्रकारों से उत्पन्न होने वाले विरोधाभासों तथा मुद्दों का समाधान करने की एक इकाई के रूप में होने चाहिए । इन संघर्षों को औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध प्रमुख निर्माणकारी खंड या प्रारंभकर्ता नहीं बनना चाहिए ।
इसीलिए वर्ग राष्ट्रीय आंदोलन में वर्गीय संगठनों के रूप में नहीं अपितु आम लोगों के रूप में सम्मिलित होते हैं । राष्ट्रीय स्वतंत्रता संघर्ष, वर्गीय संगठनों या वर्गों का एक गठबंधन या संयुक्त मोर्चा न होकर एक जनआंदोलन है । आंतरिक वर्गीय संघर्ष भी साथ-साथ होते रहते है और व्यवस्थित भी होते रहते हैं ।
ये संघर्ष इतने उग्र नहीं होते कि इन्हें उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष के रूप में परिवर्तित किया जा सके (इसलिए यह भारत इंडोनेशिया तथा मिस्र के साथ-साथ चीन तथा वियतनाम के संबंध में भी जापान विरोधी संघर्ष के चरण में सत्य है ।
उदाहरणार्थ चीनी कम्यूनिस्ट पार्टी-श्रमिकों किसानों, छोटे बुर्जुआ तथा राष्ट्रीय बुर्जुआ के वर्गों का गठबंधन नहीं था और न ही यह किसानों, छोटे बुर्जुआ तथा राष्ट्रीय बुर्जुआ के वर्गीय संगठन के साथ गठबंधन में सम्मिलित हुई । यह चीनी लोगों का प्रतिनिधित्व करने वाला सर्वहारा दल था जो सभी की ओर से उपनिवेशवाद के विरुद्ध कार्य करता था ।
अपने प्रारंभिक चरण में यह राष्ट्रवादी, उपनिवेशवाद विरोधी एक राजनीतिक संघर्ष है, जिसमें आर्थिक मांगें समाहित है और यह वर्ग संघर्ष के रूप में भी नहीं है परंतु इसमें ऐसे मुद्दे निहित है जिनके द्वारा लोगों को उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष में अपनी सहभागिता तथा भविष्य में अपने स्वतंत्र समाज के स्वप्न को समझने के आधार का ज्ञान होता है ।
वर्गीय रचना के अंतर्गत उपनिवेशवाद की तुलना में प्राथमिक अंतर्विरोध ने आंतरिक वर्गीय संघर्ष की स्थिति स्थापित करने में सहायता प्रदान की । इस प्रकार के मूल्यांकन ने श्रमिकों तथा पूंजीपतियों के बीच के विरोधाभासों को गौण बनाने के साथ-साथ इस विचार का भी विरोध किया कि औपनिवेशिक समाजों में सामंतवाद विरोधी संघर्ष प्राथमिक विरोधाभासों की अभिव्यक्ति है तथा इसकी स्थिति भी उपनिवेशवाद के समान है ।
यहां पर उपनिवेश तथा अर्ध-उपनिवेश के राजनीतिक संघर्षों में एक प्रमुख अतर व्याप्त है । अर्ध-औपनिवेशिक राज्य में, उत्पादन के ये सामंती या अर्ध सामंती रूप तथा उससे उत्पन्न होने वाले विरोधाभास प्राथमिक हो सकते है। एक औपनिवेशिक राज्य में देशी शोषक वर्ग कभी-कभी औपनिवेशिक शक्तियों के वरिष्ठ सहभागियों के रूप में राज्य की सत्ता पर नियंत्रण रखता है ।
उपनिवेशवाद अपने प्रारंभ से ही सामाजिक निर्माण या संरचना के रूप में आंतरिक विरोधाभासों से घिरा रहा है और इसकी विशेषताएं समय-समय पर परिवर्तित होती रही हैं । उपनिवेशवाद के प्रत्येक चरण में औपनिवेशिक राज्य की सभी नीतियां इन आंतरिक विरोधाभासों के समाधान के प्रयास के रूप में ही निर्धारित होती रही है। यह कहा जा सकता है कि उपनिवेशवाद तथा औपनिवेशिक राज्य एवं इसकी नीतियों को उपनिवेशवाद के असंख्य आंतरिक विरोधाभासों के अध्ययन के द्वारा सही रूप से स्पष्ट किया जा रहा है ।
1840 तथा 1850 के दशक में, पूंजीवाद के वास्तविक रूप के वर्गीय विरोधाभासों का यह बाहरी रूप था और इसी के आधार पर मार्क्स ने पूंजीवाद का वैज्ञानिक अध्ययन किया । भारत में उपनिवेशवाद के प्रथम चरण के आंतरिक विरोधाभास 1760 के दशक के अंत तक सामने आए । इसने एडम स्मिथ तथा कार्ल मार्क्स को पूंजीवाद की मौलिक विशेषताओं को समझने में सहायता दी ।
दूसरी ओर दूसरे चरण का आंतरिक अतर्विरोध मुक्त व्यापार था । 1860 के दशक में जब मार्क्स ने भारत की दुर्दशा के बारे में लिखा तब तक यह स्पष्ट रूप से परिलक्षित नहीं हुआ था इसीलिए मार्क्स हस्तशिल्प तथा कृषि के अतिरिक्त अन्य वर्गों पर पड़ने वाले कुप्रभाव को पूर्णत: समझ नहीं पाए । भारत तथा आयरलैंड के मामले में बाद में थोड़ा सा ठीक विवरण दिया है ।
प्रारंभिक भारतीय राष्ट्रवासियों को उपनिवेशवाद के वास्तविक रूप को समझने में 1870 के दशक से प्रारंभ होने वाली घटनाओं ने महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की । इस काल में उपनिवेशवाद के आंतरिक विरोधाभासों से वे अवगत हुए । कुछ विरोधाभासों को सामने लाकर उपनिवेशवाद के इस पहलू से उपनिवेशवाद के वास्तविक रूप की विशेषताओं पर प्रकाश डाला जा सकता है ।
उपनिवेशवाद के प्रथम चरण की कुछ विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:
(i) शोषण का लूट-खसोट का तरीका बनाम शोषण का पुनरोत्पादन,
(ii) बंगाल का शोषण बनाम बंगाल की अर्थव्यवस्था का पुनरोत्पादन,
(iii) ईस्ट इंडिया कंपनी का लाभ बनाम कंपनी का लाभ,
(iv) कंपनी या इससे संबंधित हितों के लिए भारत का शोषण बनाम उभरते औद्योगिक बुर्जुआ तथा महानगरों की विकासशील अर्थव्यवस्था के लिए भारत का शोषण ।
(v) कंपनी का लाभांश तथा संपन्नता बनाम भारत में क्षेत्रीय विस्तार भविष्य के आशाजनक लाभ तथा स्थापित साम्राज्य की सुरक्षा ।
(vi) लघु-कालीन शोषण बनाम दीर्घकालीन शोषण, अर्थात् सोने का अंडा देने वाली मुर्गी को मारना नहीं था ।
उपनिवेशवाद के दूसरे तथा तीसरे चरण के दौरान, विरोधाभासों ने अलग रूप धारण कर लिया । भारत के आधारभूत पहलुओं में परिवर्तन करना आवश्यक था ताकि भारत की अर्थव्यवस्था व्यापक पैमाने पर पुनरोत्पादक बन सके तथा उद्योग तदंतर ब्रिटेन के लिए पूंजी का अर्थप्रबंध करने में सहायक हो सकें । इस कारण ब्रिटेन को भारत का विकास करने की आवश्यकता थी ।
यह वित्तीय अवरोधो के बाधक के रूप में दृष्टिगत हुआ । भारत की गतिहीन अर्थव्यवस्था के कर आशिक रूप से बढ़ रहे थे । इन विरोधाभासों ने पूर्ण विकास के प्रयासों को संकुचित तथा छोटा बना दिया । इसके परिणामस्वरूप उपनिवेश आशानुरूप उपयोगी नहीं रहे । भारतीय समाज के किसान तथा अन्य वर्गों ने संभावित करो को सीमित किया जिससे भारत के लोगों में असंतोष की भावना व्याप्त हो गई ।
इसी प्रकार के विरोधाभास नागरिक तथा सैनिक खर्चों एवं विकासात्मक खर्चा के बीच व्याप्त थे । ये विरोधाभास भारत के विकास की आवश्यकता तथा साम्राज्यवादी नियंत्रण की आवश्यकता हैं । भारत में कृषि के विकास की भी आवश्यकता थी । भारत के किसानों को ब्रिटिश माल के उपभोक्ता कृषि में निवेश आवश्यक कच्चे माल तथा सामान्य रूप से व्यापक पैमाने पर कृषि के विकास के लिए सहायता करनी पड़ी ।
दूसरे शब्दों में किसान औपनिवेशिक राज्य का मुख्य आधार या पुनरोत्पादक उपनिवेश का मुख्य सहारा बने हुए थे । इस विरोधाभास का अंतिम परिणाम यह था कि कृषि के विकास की सभी पूंजीवादी योजनाओं ने इसके सामंतीकरण को बढ़ावा दिया और अधिकतर ब्रिटिश अधिकारियों ने सूदखोरों का दुरुपयोग किया । सरकार राजस्व प्राप्ति के लिए तथा किसान अपने अस्तित्व के लिए भी इस पर निर्भर हो गए ।
अनौद्योगिकरण (भूमि पर दबाव) तथा कृषि के विकास ने निष्ठुर लगान तथा सामंतीकरण को बढ़ावा दिया । भुगतान संतुलन में भी विरोधाभास व्याप्त था । आर्थिक विकास की आवश्यकता (भारत को एक पुनरोत्पादक उपनिवेश बनाना) तथा उपनिवेशवाद के वस्तुगत परिणामों के बीच संकटकालीन विरोधाभासों ने विपरीत परिणामों को उत्पन्न किया ।
इसके कारण उपनिवेशवाद तथा भारतीय लोगों के बीच मौलिक विरोधाभासों में वृद्धि हुई जिसने राष्ट्रीय मुक्ति के लिए संघर्ष को प्रोत्साहित किया । इसी प्रकार भारत को एक उपयोगी उपनिवेश बनाने के लिए किए गए सीमित परिवर्तनों ने सामाजिक शक्तियों के विद्रोह को प्रोत्साहित किया इन सामाजिक शक्तियों ने उपनिवेशवाद का विरोध करना प्रारंभ कर दिया तथा इसके विरुद्ध एक संघर्ष को गठित किया ।
6. सामाजिक संरचना के रूप में उपनिवेशवाद (Colonialism as a Social Formation):
प्राय: उपनिवेशों में उपनिवेशवाद के दौरान उत्पन्न होने वाले अल्पविकास तथा आर्थिक बाधाओं को विकास के परंपरागत पिछड़ेपन या पूर्वउपनिवेशवाद की अभिव्यक्ति या पूर्व औपनिवेशिक इतिहास के अवशेषों के रूप में देखा जाता रहा है । अब भी वे इसे ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य तथा उपनिवेशवाद की भूमिका की समझ से बाहर रखते है ।
अन्य इतिहासकार उपनिवेशवाद की आधुनिकता के एक प्रयास के रूप में देखते है जो भारत जैसे देशों के मामलों में सफल नहीं हुआ । इसका कारण इन देशों का पूर्व पिछड़ापन था जिसने इस समाज को आधुनिक तथा परंपरागत दो समाजों में विभाजित कर दिया था । वास्तव में उपनिवेशवाद के अंतर्गत उपनिवेशों में मूलभूत अतर आए । ये उपनिवेश धीरे-धीरे आधुनिक पूंजीवाद के विश्व में समाकलित हो गए ।
राजनीतिक स्वतंत्रता के पश्चात् यह प्रक्रिया उनके पूर्व औपनिवेशिक अतीत का हिस्सा नहीं थी, यह औपनिवेशिक काल, वह काल जिसमें आधुनिकता बाहर से आई थी, की रचना थी । ये परिस्थितियां परंपरागत समाजों के पूर्व-औपनिवेशिक परंपरागत समाजों से औपनिवेशिक समाजों में क्रम विकास की परिस्थितियों को व्यक्त करती है ।
7. उपनिवेशवाद का आधार (Basis to Colonialism):
उपनिवेशवाद का आधार आर्थिक शोषण या उपनिवेशों के सामाजिक आधिक्य का विनियोजन है । आधिक्य के विनियोग के प्रकार या वह तरीका जिसके आधार पर औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था तथा समाजों को अपने अधीन बनाए रखा गया तथा उपनिवेशवादी देश के हितों के लिए प्रयोग किया गया उसमें समय के साथ परिवर्तन आते गए और जैसे-जैसे इन तरीकों में परिवर्तन आए वैसे-वैसे ही औपनिवेशिक नीतियों (तथा औपनिवेशिक राज्य तथा इसकी संस्थाओं संस्कृति विचारों तथा विचारधाराओं) में परिवर्तन आते गए ।
इस प्रकार उपनिवेशवाद को एक निश्चित अपरिवर्तित संरचना के रूप में नहीं देखा जा सकता । यह प्रक्रिया विभिन्न अवस्थाओं से गुजरी जोकि अतिरिक्त विनियोजन के प्रकारों से संबंधित रही है । ऐतिहासिक रूप से उपनिवेशवाद तीन विभिन्न अवस्था से गुजरा ।
प्रत्येक चरण में औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था समाज तथा राजनीति को अपने अधीन रखने के तरीके अलग-अलग रहे तथा इसी प्रकार विभिन्न औपनिवेशिक नीतियों विचारधाराओं के प्रति लोगों की प्रतिक्रिया व उन पर इनके प्रभाव भी अलग-अलग रहे (एक चरण से दूसरे चरण में परिवर्तन का आशिक कारण महानगरीय सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक विकास की पद्धतियों में परिवर्तन तथा वैश्विक अर्थव्यवस्था तथा राजनीतिक भूमिका में होने वाला परिवर्तन था) । सभी उपनिवेशों में से उपनिवेशवाद के चरण इसी प्रकार घटित नहीं हो रहे थे ।
उपनिवेशवाद के चरण के दौरान, उपनिवेशवाद के मूल उद्देश्य थे:
(i) अन्य यूरोपीय उद्योगपतियों व्यापारियों तथा उपनिवेश के व्यापारियों तथा निर्माताओं को एक किनारे करके उपनिवेश के व्यापार पर एकाधिकार करना,
(ii) राज्य सत्ता का प्रयोग करके आधिक्य या राजस्व का प्रत्यक्ष विनियोजन,
(iii) लूट के तत्त्व तथा आधिक्य पर प्रत्यक्ष नियंत्रण बहुत शक्तिशाली था,
(iv) उपनिवेश में महानगरीय निर्माताओं का आयात नहीं था ।
व्यापार के जरिये शोषण:
महानगर में नवनिर्मित विकासशील औद्योगिक तथा वाणिज्यिक हित तथा उनकी विचारधारा ने उपनिवेश के शोषण के प्रकार पर इस दृष्टिकोण से हमला किया कि वह इसका उपयोग अपने हितों के लिए करेंगे । इसके अतिरिक्त क्योंकि यह स्पष्ट हो गया था कि औपनिवेशिक नियंत्रण एक लंबे समय तक चलने वाली अवधारणा बन गया था तब महानगरीय पूंजीवादी वर्ग ने एक इकाई के रूप में अतिरिक्त विनियोजन के उन तरीकों की मांग की जो उस सोने की मुर्गी को नष्ट करें ।
यह समझा गया कि अन्य रूपों के स्थान पर अपने पुनरुत्पादन के लिए स्थितियों का पुन: निर्माण अतिरिक्त विनियोजन की लूट से अधिक सक्षम नहीं है । यही आलोचकों के औपनिवेशिक शोषण का मर्म है और यह आलोचना प्रथम चरण के दौरान अधिकतर उदारवादियों तथा उग्र लोकतंत्रवादियों द्वारा की गई ।
अंत में उपनिवेश की आर्थिक संरचना तथा प्रशासनिक नीतियां कभी-न-कभी महानगरीय औद्योगिक बुर्जुआ के हितों से प्रभावित होती थी । उपनिवेश में औद्योगिक बुर्जुआ के हित अपने उत्पादन की खपत के लिए बड़े से बड़ा बाजार ढूंढने में जुटे थे ।
इसके लिए कई कारणों से उपनिवेश के निर्यात को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता थी, जो इस प्रकार है:
उपनिवेश के आयतों में अधिकाधिक वृद्धि तभी संभव थी जब इन आयतों की अदायगी के लिए निर्यात को बढ़ावा दिया जाए और यह निर्यात केवल कृषि तथा खनिज संसाधनों का ही हो सकता था । उपनिवेशों के निर्यातों के निकास के लिए अदायगी करनी पड़ती थी । दूसरे शब्दों में उपनिवेशों में कार्य करने वाले यूरोपीय की पेशनों तथा बचतों तथा व्यवसायिक लाभों के निर्यात के लिए विदेशी विनिमय को प्राप्त करना पड़ता था ।
महानगर कच्चे माल तथा खाद्य पदार्थों के गैर-साम्राज्यिक स्रोतों पर निर्भरता को कम करना चाहते थे । अत: उपनिवेश मैं कच्चे पदार्थों के उत्पादन को प्रोत्साहन जाने की आवश्यकता थी तथा औपनिवेशिक शासकों को उपनिवेश को ऐसा करने में सक्षम बनाना था ।
उपनिवेश को कृषि तथा खनिज संसाधनों के पुनरुत्पाद के रूप में विकसित होना था । एक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के अधीनस्थ सहायक के रूप में विस्तृत पुनरुत्पादन के दृष्टिकोण से उपनिवेश को वस्तुओं के बाजार तथा कच्चे माल के आपूर्तिकर्ता दोनों की ही भूमिका निभानी पड़ी ।
प्रशासनिक क्षेत्र में प्रमुख परिवर्तन हुए । औपनिवेशिक शासन अब अधिक विस्तृत तथा व्यापक होने के साथ-साथ दूर-दूर तक व्याप्त हो गया था ताकि दूर-दराज के गावों तथा शहरों तक महानगरीय उत्पादनों को पहुंचाने तथा वहां से कृषक उत्पादों को लाने में सहायता मिल सके ।
दूसरे शब्दों में आधुनिक शिक्षा को प्रोत्साहन देने के पीछे यह कारण था कि औपनिवेशिक लोगों में वफादारी की संस्कृति तथा पुनरुत्पादन को बढ़ावा दिया जा सके । उपनिवेशों में कई बुद्धिजीवियों ने विपरीत कारणों से सामाजिक तथा सांस्कृतिक आधुनिकता को अपनाया ।
उपनिवेशवाद के चरण ने साम्राज्यवादी नेताओं के वर्गों तथा प्रशासकों के बीच एक उदारवादी साम्राज्यवादी विचारधारा उत्पन्न की जो प्रशिक्षण की बात करते थे । यह माना जाता था कि यदि एक बार औपनिवेशिक लोग शासन-व्यवस्था, व्यवसायिक समझौते की पवित्रता स्वतंत्र व्यापार तथा आर्थिक विकास को सीख जाए और यह बाते उपनिवेशवाद के इस चरण में उनके दिमाग में बैठ जाए तो उपनिवेशी ताकतों के प्रत्यक्ष राजनीतिक तथा प्रशासनिक नियंत्रण के समाप्त होने के बाद भी ये गुण स्थायी रूप से बने रहेंगे ।
आर्थिक विकास का पहले वाला सिद्धांत बल देता था:
(1) कानून व्यवस्था,
(2) निजी संपत्ति,
(3) विदेशी पूंजी का निवेश ताकि उपनिवेश में पूंजी की कमी से निपटा जा सके तथा घरेलू उद्यम के लिए उदाहरण पेश किया जा सके,
(4) यातायात साधनों का विकास,
(5) विदेशी व्यापार को प्रोत्साहन,
(6) आधुनिक शिक्षा जिससे कि औपनिवेशिक लोग विकास की इन अवधारणाओं को समझने में सक्षम बन सकें, तथा
(7) आधुनिक संस्कृति जिससे कि बचत तथा उद्यम की आदतों को बढ़ावा मिले ।
इसी कारण अल्पविकास का कोई साम्राज्यवादी सिद्धांत नहीं है । अल्पविकास विकास के विशिष्ट सिद्धांतों के प्रयोग का परिणाम था । इस चरण के दौरान आधिक्य निष्कर्षण के पूर्व प्रकार जारी रहे तथा इस चरण में कार्यों की पूर्णता में एक बाधा बन गए ।
यूरोप, उत्तरी अमेरिका तथा जापान के कई देशों के उद्योगों में वैज्ञानिक ज्ञान के अनुप्रयोग के परिणामस्वरूप औद्योगीकरण में तीव्र वृद्धि तथा अतर्राष्ट्रीय यातायात के साधनों में क्रांति के चलते वैश्विक अर्थव्यवस्था के एकीकरण जैसे कई महत्त्वपूर्ण परिवर्तनों के फलस्वरूप उपनिवेशवाद के नए चरण का सूत्रपात हुआ ।
8. औपनिवेशिक विरासत (Colonial Legacy):
1947 के पश्चात् भारत का विकास तथा नीतियां, अल्पविकास की पद्धतियां तथा वंशगत संरचना, एवं औपनिवेशिक विकास की बाधाओं से अनुकूलित होती रही हैं और उन पर निर्भर रही हैं । इसी समय में भारत के विकास पर जोर तथा रणनीतिक उद्देश्य एवं इसकी नीतियां भारतीय आंदोलन की शासकीय विचारधारा से गहन रूप से प्रभावित थी जिन्होंने विकास की रूपरेखा जोकि उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम चतुर्थांश से विकसित हो रही थी, से औपनिवेशिक शासन को उखाड़ फेंका ।
भारत के अल्पविकास का कारण सांस्कृतिक या पूर्व औपनिवेशिक अतीत नहीं था । अठारहवीं शताब्दी का भारत अल्पविकसित न होकर अतिविकसित था । वैश्विक पैमाने पर जिस समय अठारहवीं शताब्दी और विशेषकर 1850 के पश्चात् अधिकतर वैश्विक विकास की घटनाएं परिलक्षित हुईं, उस समय भारत कई अन्य अर्थव्यवस्था से अधिक विकसित था ।
वास्तव में, मुगल भारत तथा तत्कालीन पूर्व औपनिवेशिक यूरोप तथा जापान की परिस्थितियों में अधिक अतर नहीं था । भारत की अर्थव्यवस्था औपनिवेशिक शासन के अंतर्गत और इसके कारण ही समकालीन संदर्भ में अल्पविकसित बन गई । भारत में औपनिवेशिक संरचना की चार मूल-विशेषताओं की चर्चा आगे के खंड में की गई है ।
9. उपनिवेशवाद के प्रभाव (Impacts of Colonialization):
i. कृषि (Agriculture):
भारत की कृषि तथा औद्योगिक विकास के लिए उपनिवेशवाद एक बाधा बन गया था । वर्षों तक, विशेषकर बीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक पचास वर्षों के दौरान, जब उपनिवेशवाद के प्रभाव को पूरी तरह अनुभव किया गया कृषि में गति हीनता के साथ विकृति भी रही । 1911-41 के वर्षों के दौरान प्रति व्यक्ति आय गिरकर 0.72 प्रतिशत हो गई ।
इसी समय प्रति व्यक्ति खाद्यान्न की स्थिति भी दयनीय हो गई । प्रतिवर्ष 1.14 की दर से इसमें 29 प्रतिशत की कमी हुई । यद्यपि कृषि संबंधी उत्पादन में जो भी निरपेक्ष वृद्धि हुई वह गैर खाद्यान्न की कमी को पूरा करने में असफल रही और इसका मुख्य कारण फसल के क्षेत्रफल में वृद्धि था ।
1911-1941 के दौरान प्रति एकड़ कृषि उपज में वृद्धि की दर शून्य रही थी । कृषि में गतिहीनता के कारण को इस तथ्य से व्याख्यायित किया जा सकता है कि उपनिवेशवाद ने भारत में कृषि संरचना को परिवर्तित करके इसे निष्ठुर लगान की व्यवस्था में परिवर्तित कर दिया ।
भूमि के स्वामी किसान, महाजन के जाल में फंसते चले गए और अपनी भूमि पर से उनका नियंत्रण जाता रहा । इस मामले का मर्म यह था कि कृषक आधिक्य अब गलत हाथों में जाने लगा था । कुछ छोटे कृषकों के अतिरिक्त किसी अन्य प्रकार के पूंजीवादी कृषक व्यवसाय का विकास न होना इसका एक परिणाम था ।
दूसरे, छोटे किसानों की व्यापक संख्या काश्तकारी तथा बंटाईदारों के पास कृषि में सुधार में निवेश के लिए किसी भी प्रकार के प्रोत्साहकों तथा संसाधनों का अभाव था । इसके अतिरिक्त किसानों के कुछ वर्ग यदि लंबे समय की बचतों को जमा कर भी लेते थे तो प्राय: उनकी यह पूजी खर्च हो जाती थी ।
ii. उद्योग (Industry):
भारत के आर्थिक पिछड़ेपन का एक अन्य कारण इसके उद्योगों की दशा था । उन्नीसवीं शताब्दी के पहले पचास वर्षों में इसके शहरी हस्तशिल्प का विनाश हुआ । रेलवे के निर्माण के पश्चात् भारतीय शिल्पकारी के उद्योगों के पतन में और भी तेजी आ गई । उन्नीसवीं शताब्दी की अंतिम अर्ध-शताब्दी में आधुनिक उद्योग विकसित होना शुरू हो गए थे परंतु उनकी प्रगति अत्यधिक धीमी तथा मद थी ।
औपनिवेशिक काल के अंत तक उद्योग तथा तकनीक का स्तर धीमा ही रहा । उन्नीसवीं शताब्दी के दौरान औद्योगिक विकास सूती तथा जूट के वस्त्रों तक ही सीमित था । रेलवे के निर्माण मेख तीव्र विकास तथा विदेशी व्यापार में वृद्धि को दो सकारात्मक तत्त्वों के रूप में देखा जाता रहा है । रेलवे का भी घरेलू अर्थव्यवस्था के पिछड़ेपन या प्रगति से कोई संबंध नहीं था ।
इन्होंने भारत के नहीं अपितु ब्रिटेन के स्टील तथा मशीन उद्योग को प्रोत्साहित किया । इन्होंने ब्रिटेन के ही हितों की पूर्ति की । इनके औद्योगिक तथा आर्थिक संसाधनों का आधार जिनकी बाहरी अर्थव्यवस्था तथा उसकी ब्रिटेन के साथ प्रतिस्पर्धा थी का निर्यात वापस ब्रिटेन को कर दिया जाता था ।
10. विभिन्न औपनिवेशिक नीतियां तथा प्रकार (Forms and Varying Colonial Policies):
अपने उपनिवेशों के प्रति अपनाई गई नीतियों की लेकर विभिन्न औपनिवेशिक शक्तियों के बीच व्यापक अतर रहे हैं । यहां सभी औपनिवेशिक शक्तियों की नीतियों की चर्चा करना संभव नहीं है । इसलिए हम यहां पर औपनिवेशिक शक्तियों द्वारा अपने उपनिवेशों के प्रति अपनाई गई नीतियों के विचार को समझने के लिए कुछ प्रमुख शक्तियों जैसे ब्रिटेन, फ्रांस, बेल्जियम तथा पुर्तगाल की चर्चा कर सकते हैं ।
I. ब्रिटिश नीति (British Policy):
ग्रेट ब्रिटेन ने अपने उपनिवेशों के प्रति बहुत ही लचीली नीति का पालन किया । उसने उपनिवेशों के साथ केवल अपनी मातृभूमि के हिस्से के रूप में ही नहीं अपितु ऐसे देशों के रूप में व्यवहार किया जिसके जीवन जीने के अपने विशेष तरीके थे और जो उसके स्वायत्त विकास को बढ़ावा दे रहे थे । उसने उपनिवेश के लोगों को स्वशासी परिषदों, नागरिक सेवाओं तथा न्यायपालिका में शामिल किया ताकि उन्हें स्वशासन का प्रशिक्षण प्रदान करके उन्हें अंतत: स्वतंत्रता के लिए तैयार किया जा सके ।
1947 में भारत तथा वेस्टइंडीज से प्रारंभ करके अपनी दीर्घकालीन रणनीति के अंतर्गत ब्रिटेन ने अधिकतर देशों को स्वतंत्रता प्रदान कर दी । हालांकि, रोडेशिया, केन्या तथा ब्रिटिश गुयाना जैसे उपनिवेशों में एक बड़ी संख्या में श्वेत निवासियों की उपस्थिति के कारण ब्रिटैन को कुछ कठिनाइयों का सामना भी करना पड़ा ।
ब्रिटिश उपनिवेशवाद के प्रभाव:
भारत के सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक जीवन पर ब्रिटिश उपनिवेशवाद का गहन प्रभाव पड़ा ।
उपनिवेशवाद के प्रभाव इस प्रकार हैं:
(i) ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों के हितों को पूर्णतया अनदेखा करके अपने लाभ के लिए भारत के मानवीय, भौतिक तथा प्राकृतिक संसाधनों का खूब दोहन किया ।
(ii) ब्रिटिश उपनिवेशवाद ने भारत के लोगों को अत्यधिक निर्धनता के गर्त में धकेल दिया, जिसके परिणामस्वरूप स्वतंत्रता के समय भारत की बहुसंख्या गरीबी रेखा के नीचे रह रही थी ।
(iii) अपने औपनिवोशक शासन को पूर्ण रूप से स्थापित करने के लिए ब्रिटेन ने फूट डाली तथा शासन करो की नीति का पालन किया जिससे भारतीय कभी भी संगठित न हो सके ।
(iv) आर्थिक क्षेत्र में ब्रिटिश उपनिवेशवाद ने भारतीय हस्तशिल्प तथा चरखे को नष्ट कर दिया जो भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ था । बहुत से कारीगरों को अपने पूर्वजों के व्यवसाय को छोड़कर कृषि को अपनाने के लिए मजबूर होना पड़ा । इसके कारण कृषि भूमि पर दबाव में बढ़ोतरी हुई जिसके परिणामस्वरूप भूमि का विखंडन हुआ और भारत की गरीबी में वृद्धि हुई ।
ब्रिटिश औपनिवेशिक नीतियों ने भारत में प्राय: पड़ने वाले अकालों तथा भारत के दु:खों की बढ़ोत्तरी में महत्वपूर्ण योगदान दिया । ब्रिटिश सरकार ने कृषि के विकास के लिए सिचाई सुविधाओं के विकास पर कोई ध्यान नहीं दिया । ब्रिटिश उपनिवेशवाद ने भारतीय कुटीर उद्योगों तथा हस्तशिल्पों पर गंभीर प्रहार किया ।
भारत में अपने निवास के दौरान औपनिवेशिक शक्तियों ने यह स्पष्ट किया कि क्योंकि भारत के लोग शिक्षा का प्रसार नहीं चाहते हैं इसलिए भारत के लोग अनपढ़ तथा अज्ञानी ही रहेंगे । ब्रिटीशों ने भारतीय इतिहास तथा संस्थाओं की जानबूझकर गलत व्याख्या की ताकि भारतीय लोगों को अपने इतिहास पर भरोसा न रहे ।
इस प्रकार ब्रिटिशों ने एक ओर भारतीयों में हीन भावना विकसित करने का प्रयास किया तो दूसरी ओर अपनी सर्वोच्चता का डका पीटा । ब्रिटिश उपनिवेशवाद ने भारत में जातिवाद तथा सांप्रदायिकता को बढ़ावा दिया ।
II. फ्रांसीसी नीति (French Policy):
फ्रांसीसियों ने ब्रिटिश नीति से बिल्कुल अलग नीति का अनुसरण किया । द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् क्रास ने अपने उपनिवेशों को दी जाने वाली सहायता राशि में वृद्धि कर दी और बहुत से सुधार भी किए, परंतु फ्रांस अपने इन उपनिवेशों को स्वतंत्रता प्रदान नहीं करना चाहता था ।
उसकी इस नीति के परिणामस्वरूप फ्रांस के इंडो-चाइना तथा अल्जीरिया को अपनी स्वतंत्रता के लिए हिंसक संघर्ष का सहारा लेना पड़ा । गिनी मामले में भी फ्रांसीसी नेतृत्व ने 1958 में अपने निर्णय को सहमति प्रदान नहीं की और इसे अवैध घोषित कर दिया ।
इसके बाद के वर्षों में अपने व्यवहार में उन्होंने कुछ परिवर्तन किए । उन्होंने अमेरिका के बहुत से उपनिवेशों को स्वतंत्रता प्रदान की और स्वतंत्रता के पश्चात् इन उपनिवेशों के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध स्थापित करने का प्रयास किया ।
III. बेल्जियम नीति (Belgium Policy):
बेल्जियम की नीति ब्रिटेन तथा फ्रांस द्वारा अपनाई गई नीति से बिल्कुल भिन्न थी । उसने अपने उपनिवेश (कांगो) के लोगों को न तो स्थानीय प्रशासन (जैसाकि ब्रिटिश सरकार ने किया) और न ही साम्राज्यवादी केंद्र (जैसाकि फ्रांसीसी सरकार ने किया) के साथ जोड़ा । बेल्जियम ने एक विशिष्ट वर्ग के निर्माण के लिए कोई कदम नहीं उठाए ।
ऐसा विशिष्ट वर्ग जो उपनिवेश से विदेशी सरकार की वापसी के पश्चात् शासन की बागडोर संभाल सके । इसी कारण, 1959 में विस्फोटक स्थिति परिणामस्वरूप लियो पोल्ड विले बेल्जियम को जल्दबाजी में कांगो के साथ अपने संबंध-विच्छेद करके देश को छोड़ना पड़ा तो वहां के लोगों के पास न तो प्रशिक्षित नेता थे और न ही अफ्रीकन अफसरों से निर्मित सेना थी ।
IV. पुर्तगाली नीति (Portuguese Policy):
पुर्तगाल सबसे पुरानी औपनिवेशिक शक्ति था । इसने एक ऐसी नीति का अनुसरण किया जोकि फ्रांस, बेल्जियम तथा ब्रिटेन की नीतियों से पूर्णता भिन्न थी । पुर्तगाल ने अपने उपनिवेश के लोगों को शिक्षा प्रदान नहीं की और उन्हें आधुनिकता से दूर रखा । 1961 में अंगोलियाई विद्रोह की लहर में पुर्तगाली सरकार ने बहुत से सुधार किए तथा उपनिवेश के लोगों को पुर्तगाली क्षेत्र के भीतर आने वाले लोगों के समान स्थिति प्रदान की ।
पुर्तगाल ने जानबूझकर पुर्तगाल के किसानों तथा श्रमिकों को पुर्तगाली अफ्रीका से जाने के लिए प्रोत्साहित किया ताकि गरीबी की समस्या का समाधान होने के साथसाथ अफ्रीकन क्षेत्र पर उसका नियंत्रण भी मजबूत हो सके । वास्तव में, अपने पिछड़ेपन के कारण उसके पास इतनी क्षमता नहीं थी कि वह लाखों विदेशी लोगों की प्रगति सुनिश्चित कर सके ।
11. उपनिवेशवाद स्थापित करने के विभिन्न तरीके (Different Methods of Establishment of Colonialism):
विभिन्न क्षेत्रों पर नियंत्रण कायम करने के लिए भिन्न-भिन्न औपनिवेशिक शक्तियों ने अलग-अलग तरीके अपनाए । पहला, सैनिक विजयों के बल पर कुछ क्षेत्रों को अपने नियंत्रण में कर लिया गया जैसे- ब्रिटेन ने कनाडा को तथा फ्रास ने श्रीलंका तथा डच ने दक्षिण अफ्रीका को विजित किया । दूसरा, साम्राज्यवादी शक्तियों ने व्यापार के साधन का प्रभावी रूप से प्रयोग किया और धीरे-धीरे इन क्षेत्रों पर अपना राजनीतिक नियंत्रण स्थापित कर लिया ।
उदाहरणार्थ अंग्रेज तथा यूरोपीय शक्तियों ने कुछ समय के पश्चात् इन देशों पर अपना राजनीतिक नियंत्रण स्थापित कर लिया । तीसरा, कुछ उपनिवेश यूरोपीय शक्तियों को युद्ध में विजय के पश्चात् इनाम के तौर पर दे दिए गए । इसलिए, ब्रिटेन का माल्टा तथा मारिशस पर अधिकार हो गया । इन देशों को नेपोलियन ने युद्धों के दौरान हथिया लिया था । नए भू-भागों की खोज ने विभिन्न शक्तियों को यहां पर अपने उपनिवेश बनाने के लिए प्रोत्साहित किया । उपनिवेशों की स्थापना में आर्थिक महत्त्व ने भी निर्णायक भूमिका अदा की ।
इंग्लैड, फ्रांस, स्पेन तथा पुर्तगाल जैसी यूरोपीय शक्तियों को एशिया, अफ्रीका तथा अमेरिका में उपनिवेश प्राप्त हुए । ये सभी महाद्वीप प्राकृतिक संपदा से सपन्न थे तथा ये देश इन आर्थिक संसाधनों का उपयोग अपने हितों के लिए करना चाहते थे । औद्योगिक क्रांति ने यूरोपीय देशों को अपने कारखानों के लिए कच्चे माल की आपूर्ति हेतु नए संसाधनों की खोज के लिए बाध्य किया तथा इन देशों ने कच्चे माल की नियमित आपूर्ति के क्षेत्रों को अपना उपनिवेश बना लिया ।