Read this article in Hindi to learn about the decline of colonialism and imperialism.

उपनिवेशवाद की पहचान साम्राज्यवाद के साथ की जाती है । साम्राज्यवाद के गुण तथा अवगुण उपनिवेशवाद के साथ जुड़े है । बीसवीं शताब्दी में राष्ट्रवाद के उदय के कारण पश्चिमी उपनिवेशवाद तथा साम्राज्यवाद शिक्षा तथा प्रेस का प्रसार लोकतांत्रिक विचारो में वृद्धि के परिणास्वरूप अफ्रीका तथा एशिया के लोगों में राजनीतिक चेतना का व्यापक विकास हुआ और अब वे आत्मनिर्णय तथा स्वतंत्रता की मांग करने लगे ।

उपनिवेशों में गंभीर सामाजिक तथा राजनीतिक समस्याओं की उपस्थिति में उपनिवेशवादी तथा साम्राज्यवादी शक्तियाँ लंबे समय तक इन पर अपना नियंत्रण कायम नहीं कर सकी । अंतत: राष्ट्रवाद की बढ़ती लहर के कारण उपनिवेशवादी तथा साम्राज्यवादी शक्तियों को एशिया तथा अफ्रीका के लोगों को स्वतंत्रता प्रदान करने तथा इन उपनिवेशी पर से अपना नियंत्रण समाप्त करने के लिए मजबूर होना पड़ा ।

इस बात का उल्लेख करना महत्वपूर्ण है कि वि-उपनिवेशीकरण की इस प्रक्रिया में संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की । उपनिवेशवाद को आज तिरस्कार की दृष्टि से देखा जाता है क्योंकि यह संपन्न देशों द्वारा निर्धन लोगों के शोषण के लिए प्राथमिक रूप से उत्तरदायी है । यह व्यवस्था विश्व युद्धों तथा संपन्न एवं विपन्न देशों के बीच व्यापक दूरी का प्राथमिक कारण रहा है ।

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यह एक ऐसी व्यवस्था जिसमें औपनिवेशिक शक्तियों ने जानबूझकर उपनिवेशों में जातीय भेदभाव तथा सामाजिक आर्थिक तथा राजनीतिक संघर्ष का निर्माण किया । औपनिवेशिक लोगों की प्रगति की पूर्णतया उपेक्षा की गई तथा उपनिवेशों में औपनिवेशिक शक्तियों के हितों का उत्साहपूर्वक संरक्षण किया गया । ब्रिटिश उपनिवेशवाद भारत की निर्धनता का प्रमुख कारण है ।

i. उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष (Anti-Colonial Struggle):

यूरोपीय देशों के अधिकतर उपनिवेशों को अपनी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करना पड़ा । यद्यपि इन संघर्षों की पद्धति एकसमान नहीं थी, न ही उनके संघर्ष के तरीके में कोई समानता थी और न ही इनकी समयावधि ही एक थी परंतु आमतौर पर इन्हें एक जैसा ही कहा जाता है । इनकी प्रकृति प्राय: निश्चित रूप से भिन्न होती थी तथा किसी आंदोलन की सफलता में लगने वाला समय कई तत्त्वों पर आधारित होता है, जैसेकि नेताओं का संकल्प, लोग का समर्थन तथा संबंधित उपनिवेशवादी शक्तियों का व्यवहार ।

कई उपनिवेशी में उपनिवेशवादी शक्तियों के विरुद्ध विद्रोह औपनिवेशिक शक्तियों के आगमन के साथ ही प्रारंभ हो गया था । घाना (गोल्ड कोस्ट), नाइजीरिया, कांगो, अंगोला जैसे अन्य देशों में इस प्रकार के आंदोलन तब प्रारंभ हुए जब कई-कई एशियाई देश पहले ही स्वतंत्र हो चुके थे । इस इकाई में सभी उपनिवेशों में होने वाले संघर्षों का विवरण देना संभव नहीं है ।

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ii. राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन (National Independent Movements):

भारत सहित बहुत से देशों ने औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध जिस नीति का अनुसरण किया उसे स्वतंत्रता आंदोलन के रूप में जाना जाता है । इस आंदोलन का उद्देश्य विदेशी शासकों को हटाना तथा राजनीतिक स्वतंत्रता को सुनिश्चित करना था । यह माना जाता था कि स्वतंत्रता आंदोलन के नेताओं का मुख्य उद्देश्य साम्राज्यवादी स्वामियों के स्थान पर स्थानीय लोगों को सत्ता का हस्तांतरण करना था ।

विदेशी सरकार के स्थान पर राष्ट्रीय सरकार की स्थापना तथा स्वतंत्रता के पश्चात् एक शक्तिशाली राज्य की स्थापना इनका मुख्य उद्देश्य था । आलोचकों का मानना है कि इसका सीधा सा अर्थ शासकों में परिवर्तन था ।

उदाहरणार्थ- भारत, श्रीलंका, नाइजीरिया, घाना, केन्या इत्यादि के मामले में, आंदोलन का उद्देश्य ब्रिटिश सत्ता को उखाड़ फेंकना तथा स्थानीय अभिजात वर्ग के हाथों में सत्ता के हस्तांतरण को सुरक्षित करना था । राष्ट्रवादी स्वतंत्रता आंदोलन औपनिवेशिक समाजों के पुन: निर्माण के साथ सीधे संबंधित नहीं थे ।

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उदाहरणार्थ- भारत तथा पाकिस्तान में जाति सामाजिक व्यवस्था पर निरंतर हावी रही जिसने सामाजिक अन्याय को जारी रखा । आर्थिक क्षेत्र में पूंजीवादियों तथा भूस्वामियों ने अपने श्रमिकों तथा किसानों पर पूर्ण सत्ता का निरंतर प्रयोग किया । औद्योगिक प्रबंधन शोषणकारी बना रहा ।

श्रमिकों का प्रबंधन में कोई हिस्सा नहीं था, और न ही यह अच्छे जीवन में सहायक थी । ग्रामीण क्षेत्रों में किसान भूस्वामियों तथा बड़े किसानों की दया पर निर्भर थे । संक्षेप में राजनीतिक शक्ति के हाथों में परिवर्तन हुआ जबकि सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था पूर्ववत् बनी रही, शोषण बना रहा परंतु शोषणकर्ता बदल गए ।

यह नेताओं तथा दलो द्वारा कार्यान्वित किए गए स्वतंत्रता आंदोलन का परिणाम था जो अनिवार्य रूप से राजनीतिक शक्ति के हस्तांतरण से संबंधित था । ग्रेट ब्रिटैन या अन्य यूरोपीय देशों मेख अधिकतर नेताओं ने शिक्षा ग्रहण की थी ।

कई देशों में ये पश्चिमी रग में रग नेता जन-नेता बनने में असफल रहे । आलोचकों के अनुसार यह एक ऐसी पद्धति थी जिसने नेताओं को सत्ता प्राप्त करने में तो सहायता दी परंतु आम आदमी को अपनी मुश्किलों से छुटकारा दिलाने में मदद नहीं की ।

iii. राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन (National Liberation Movements):

ये आंदोलन कुछ देर से प्रारंभ हुए । ये आंदोलन बहुत ही कम उपनिवेशों में प्रारंभ हुए थे और इनका उद्देश्य स्वतंत्रता प्राप्ति था । इन उपनिवेश विरोधी संघर्षों का उद्देश्य लोगों को अन्याय तथा शोषण से मुक्ति दिलाना था । इसके साथ ही वे विदेशी शासकों को पराजित करना चाहते थे और सत्ता को किसी अभिजात वर्ग के लिए नहीं अपितु आम लोगों के लिए प्राप्त करना चाहते थे (यद्यपि यह संदेहास्पद था कि लाभ वास्तव में जनसाधारण को प्राप्त होगा या नहीं) ।

जब सत्ता का हस्तांतरण हुआ तो सत्ता नेताओं को प्राप्त हुई । मुक्ति आंदोलन के उदाहरण के रूप में वियतनाम का नाम लिया जा सकता है । हो चि मिन्ह के नेतृत्व में कम्यूनिस्ट पार्टी को पहले तो फ्रांस के विरुद्ध संघर्ष करना पड़ा, जो जापान की पराजय के पश्चात् इस क्षेत्र पर दोबारा से नियंत्रण स्थापित करना चाहता था और जब तक हो सक इसे बनाए रखना चाहता था, और बाद में जब दक्षिणी वियतनाम की ओर से संयुक्त राज्य अमेरिका के हस्तक्षेप से वहां पर दक्षिणपंथी सरकार सत्ता में आई तो हो चि मिन्ह को अमेरिकियों तथा दक्षिणी वियतनामियों के विरुद्ध लड़ाई लड़नी पड़ी ।

इस आंदोलन का उद्देश्य निर्धनता, अशिक्षा तथा शोषण का अंत करना भी था । वियतनाम, कांगो या अंगोला के संबंध में राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन का उद्देश्य विदेशी शासन का अंत तथा सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था में मौलिक परिवर्तन करना था ।

इसका लक्ष्य सामाजिक-आर्थिक न्याय की प्राप्ति तथा लोगों के लिए शक्ति को सुनिश्चित करना था । उपनिवेश विरोधी संघर्ष की दोनों मुख्य पद्धतियां कुछ अंश तक समान थीं । स्वतंत्रता आंदोलन का उद्देश्य केवल विदेशी शासन से मुक्ति तथा राजनीतिक स्वतंत्रता आंदोलन का उद्देश्य स्वराज था जबकि मुक्ति संघर्ष का लक्ष्य सामाजिक तथा आर्थिक न्याय तथा शोषण के सभी रूपों को समाप्त करना था । मार्क्स तथा लेनिन के विचारो के प्रकाश में इनका उद्देश्य राजनीतिक स्वतंत्रता के साथ-साथ सामाजिक क्रांति था ।