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राज्यों के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए सरकार सर्वाधिक महत्वपूर्ण साधन के रूप में प्रयुक्त की जाती है । शासन संगठन के कार्यों का प्रतिनिधित्व करने चाली सरकार के मुख्यत: तीन अंग होते है । इन् अंगों में व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका को शामिल किया जाता है ।

व्यवस्थापिका देश के लिए कानून बनाने का कार्य करती है, कार्यपालिका उन कानूनों को लागू करती है और न्यायपालिका लोकतंत्रीय व्यवहार नियमों और सीमाओं के अनुसार न्याय दिलाती है ।

दूसरे शब्दों में व्यवस्थापिका राज्य के संकल्पों को व्यक्त करती है, कार्यपालिका इन्हें साकार रूप देती है और न्यायपालिका इनकी व्याख्या करती है तथा इनके अनुसार अपना निर्णय देती है ।

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भारत में संसदीय प्रणाली है जहां पर सरकार के उपर्युक्त तीनों अंग पाए जाते हैं । वास्तव में ब्रिटिश संसदीय प्रणाली का ही भारत में अनुसरण किया गया है जबकि व्यवहार में कुछ विभिन्नताएँ देखी जा सकती हैं ।

व्यवस्थापिका:

सरकार के तीनों अंगों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण अंग व्यवस्थापिका है । यह सरकार का वह अंग है जो राज्य की इच्छा को कानून का रूप देता है । प्रजातांत्रिक शासन व्यवस्था की स्थापना से पूर्व राजा द्वारा इस दायित्व का निर्वाह किया जाता था लेकिन आधुनिक प्रजातांत्रिक प्रणाली में लगभग सभी देशों में यह काम जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा किया जाता है जो व्यवस्थापिका के सदस्य होते है ।

व्यवस्थापिका का महत्व किसी देश में प्रचलित शासन प्रणाली पर निर्भर करता है । अगर किसी देश में निरंकुश शासन है तो वहां व्यवस्थापन विभाग शासन के हाथ की कठपुतली मात्र रहेगा, जिस देश में अध्याक्षात्मक लोकतंत्र-वादी शासन-व्यवस्था प्रचलित हो, व्यवस्थापिका की शक्तियाँ और उसके कार्य मर्यादित होते हैं ।

ऐसी शासन-व्यवस्था के अंतर्गत व्यवस्थापिका का कार्यपालिका पर कोई प्रत्यक्ष नियंत्रण नहीं होता है । संसदीय लोकतंत्रवादी शासन-प्रणाली में व्यवस्थापिका का कार्यपालिका पर प्रत्यक्ष नियंत्रण होता है और मंत्रिमंडल व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी होता है ।

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व्यवस्थापिका का गठन:

व्यवस्थापिका या तो एक सदनीय या द्विसदनीय होती है । द्वि-सदनीय व्यवस्थापिका के एक सदन को निम्न सदन एवं दूसरे को उच्च सदन कहा जाता है । निम्न सदन में जनसाधारण का और उच्च सदन में राज्यों का प्रतिनिधित्व होता है । जनसाधारण का प्रतिनिधित्व करने के कारण निम्न सदन उच्च सदन से अधिक शक्तिशाली और अधिकार संपन्न होता है ।

प्रजातंत्र की यह एक अनिवार्य शर्त है कि देश के शासन में यथासंभव सभी व्यक्तियों और वर्गों का प्रतिनिधित्व हो । इसलिए प्रतिनिधि वयस्क मताधिकार के आधार पर प्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा निर्वाचित होते हैं ।

प्रतिनिधि सदन की संख्या इतनी अवश्य होनी चाहिए, जिससे सभी वर्गों और हितों को भली प्रकार प्रतिनिधित्व प्राप्त हो जाए । हालांकि व्यवस्थापिका का संगठन सभी देशों में एक-सा नहीं पाया जाता लेकिन कुछ आधारभूत सिद्धांत ऐसे हैं जो सर्वत्र देखने को मिलते हैं, जैसे जनता का प्रत्यक्ष प्रतिनिधित्व और प्रतिनिधियों का जनता के प्रति उत्तरदायित्व ।

सदनों की रचना:

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सभी प्रजातांत्रिक देशों में प्रथम सदन की रचना देश की जनता द्वारा निर्वाचित सदस्यों से होती है जबकि द्वितीय सदन की रचना में विभिन्न देशों में विभिन्न सिद्धांतों का प्रयोग किया जाता है । ब्रिटेन में हॉउस ऑफ लार्डस की रचना वंशानुगत आधार पर होती है तो अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया आदि देशों के द्वितीय सदन के सदस्य निर्वाचित होते हैं ।

कुछ देशों में ऐसी व्यवस्था होती है कि द्वितीय सदन के सदस्य सरकार द्वारा मनोनीत किये जाएं । जापान, कनाडा और इटली आदि देशों में ऐसी ही व्यवस्था है । कुछ ऐसे भी देश हैं जहाँ पर द्वितीय सदन के सदस्यों का आशिक रूप से मनोनयन और आशिक रूप से निर्वाचन होता है ।

भारत में द्वितीय सदन की रचना इसी सिद्धांत के आक्म पर की जाती है । राज्य सभा के 238 सदस्यों का निर्वाचन राज्यों के विधानमडलों द्वारा किया जाता है और 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किए जाते हैं ।