Read this article in Hindi to learn about the two main constitutional systems. The systems are:- 1. उदारवादी सांविधानिक प्रणालियाँ (Moderate Constitutional Systems) 2. समाजवादी सांविधानिक प्रणालियाँ (Socialist Constitutional Systems).
‘संविधानवाद का विचार व्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए राज्य की शक्ति पर अंकुश रखने की मांग करता है । इसमें यह आशा की जाती है कि व्यक्तियों की औपचारिक स्वतंत्रता और समानता स्थापित हो जाने पर वे स्वयं ऐसे लक्ष्य की ओर बढेंगे जिसमें सब व्यक्तियों का हित निहित हो । इस विचार पर आधारित व्यवस्था को हम उदारवादी सांविधानिक प्रणाली के रूप में पहचानते हैं ।’ इसे हम संविधानवाद की मुख्य धारा मान सकते हैं ।
1. उदारवादी सांविधानिक प्रणालियाँ (Moderate Constitutional Systems):
उदारवादी सांविधानिक प्रणाली उदारवाद की मान्यताओं पर आधारित है । उदारवाद के अनुसार, मनुष्य विवेकशील प्राणी है । अपने स्वाभाविक विवेक से प्रेरित होकर वह नागरिक समाज का निर्माण करता है । नागरिक समाज ऐसा क्षेत्र है जहाँ सब मनुष्य ‘खेल के नियमों’ के अनुसार अपने-अपने रचार्थ की सिद्धि कर सकते हैं । ये नियम सभी खिलाड़ियों पर समान रूप से लागू होते हैं ।
यहाँ यह मानकर चलते हैं कि सभी खिलाड़ी सामान्य हित के ढांचे के भीतर अपने-अपने हित को पहचानने की क्षमता रखते हैं, क्योंकि सामान्य हित स्वयं भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के व्यक्तिगत हितों का जोड़ है । नागरिक समाज के अंतर्गत भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के हितों में बहुत गहरा संघर्ष नहीं पाया जाता । मनुष्यों के लिए परस्पर व्यवहार के न्यायपूर्ण नियमों का निर्माण करके उनके सारे मतभेदों को सुलझाया जा सकता है ।
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इस दृष्टिकोण के अनुसार, सामाजिक जीवन को सुचारू रूप से चलाने की खातिर मनुष्यों के लिए केवल मुक्त वातावरण की जरूरत होती है जहाँ उन्हें दैहिक स्वतंत्रता, विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, संघ बनाने और सभा करने की स्वतंत्रता, विचरण की स्वतंत्रता, व्यापार की स्वतंत्रता और संपत्ति की सुरक्षा प्राप्त होनी चाहिए । शासन को बहुत सीमित कृत्य करने चाहिए, जैसे कि स्वतंत्रताओं का संरक्षण, अनुबंधों का प्रवर्तन, कानून की व्यवस्थाओं और विवादों के समाधान-की प्रक्रिया की घोषणा, इत्यादि ।
संक्षेप में, उदारवादी सांविधानिक प्रणाली के अंतर्गत सामाजिक जीवन के लक्ष्यों की तुलना में उसके संचालन की प्रक्रिया को प्रधानता दी जाती है । वैसे उदारवादी संविधान की प्रस्तावना के अंतर्गत उसके कुछ लक्ष्य घोषित किए जा सकते हैं, परंतु वे मुख्यत: ऐसे वातावरण के सृजन का संकेत देते हैं जिसमें भिन्न-भिन्न व्यक्ति अपनी स्वतंत्रता का प्रयोग कर सके, और आपस में लेन-देन कर सकें, ताकि सामाजिक प्रणाली के सामाजिक-आर्थिक लक्ष्य अपने-आप उभरकर सामने आ जाएं ।
उदारवाद की मुख्य मान्यता यह है कि यदि समाज को नियमित करने वाली प्रक्रियाएँ न्यायोचित होंगी तो उनके अनुसार जो गतिविधियाँ चलाई जाएंगी उनके परिणाम न्यायोचित माने जाएंगे । पश्चिमी जगत् के अधिकांश देशों में उदारवादी सांविधानिक प्रणालियाँ प्रचलित हैं । भारत में भी उदारवादी सांविधानिक प्रणाली अपनाई गई है ।
शुरू-शुरू में उदारवाद ने केवल औपचारिक स्वतंत्रता और समानता का समर्थन किया परंतु आगे चलकर इस्ने यह अनुभव कर लिया कि मुक्त प्रतिस्पर्धा समाज के निर्बल और निर्धन वर्गों के लिए अत्यंत विषम परिरिथतियाँ पैदा कर देती हैं । अत: सामान्य हित की सिद्धि के लिए इन वर्गों को विशेष संरक्षण प्रदान करने की जरूरत है ।
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इस तरह उदारवादी दर्शन ने ऐसी प्रवृति का परिचय दिया कि वह बदलती हुई परिस्थितियों के साथ अपना समायोजन कर सकता है । अत: संविधानवाद का उदारवादी प्रतिरूप भी बहुत कठोर या अनम्य सिद्ध नहीं हुआ ।
यह सच है कि संपत्ति का अधिकार, अनुबंध की स्वतंत्रता और कानूनों का समान संरक्षण उदारवादी संविधानवाद के मूल मंत्र हैं परंतु उदारवादी परंपरा ने व्यक्तियों और समूहों के बीच न्यायोचित संबंध स्थापित करने के नए-नए प्रयोगों को लगातार बढ़ावा दिया है । जहाँ-कहीं इसकी कार्य-प्रणाली में कोई त्रुटि या विकृति दिखाई देती है, वहाँ वह ‘खेल के नियमों’ को अधिक तर्कसंगत बनाने के लिए उनमें आवश्यक संशोधन करने को तैयार हो जाता है ।
वाल्टर फ्रीडमैन ने अपनी प्रसिद्ध कृति ‘Legal Theory – 1967’ के अंतर्गत उन सीमाओं का प्रामाणिक विवरण दिया है जो इन अधिकारों को अधिक विस्तृत आधार प्रदान करने के उद्देश्य से लगाई गई हैं । फ्रीडमैन ने लिखा है- ”आधुनिक लोकतंत्र के सहचरों और समुदाय के प्रति व्यक्ति के सामाजिक कर्तव्यों को ध्यान में रखते हुए जिस तरह उसके अधिकारों में लगातार संशोधन किया है, उसी तरह उसने संपत्ति के साथ सामाजिक उत्तरदायित्वों को जोड़कर संपत्ति की स्वतंत्रता में सर्वत्र कटौती कर दी है । राज्य का कराधान का अधिकार, उसकी पुलिस शक्ति और उचित मुआवजे के बदले संपत्ति के अधिग्रहण का अधिकार संपत्ति की स्वतंत्रता पर सार्वजनिक प्रतिबंधों के ऐसे उदाहरण हैं जिन्हें अब विश्वभर में मान्यता दी जाती है और लागू किया जाता है ।”
इस मामले में कानूनी दायित्वों के अलावा न्यायिक निर्णयों ने भी इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाया है, जैसे कि इनमें माल-निर्माताओं को उपभोक्ता के प्रति, और मालिकों को मजदूरों के प्रति उत्तरदायी ठहराया गया है ।
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बीसवीं शताब्दी के उदारवादी जगत् में जो सांविधानिक लडाई चली, उसका मुख्य मुद्दा निजी संपत्ति और सामाजिक न्याय के परस्पर विरोधी दावों का समाधान करना था । बीसवीं शताब्दी के दौरान कानूनी और सांविधानिक प्रश्नों पर न्यायपालिका के दृष्टिकोण में युगांतकारी परिवर्तन देखने को मिलते हैं ।
रॉस्को पाउंड ने अपनी महत्वपूर्ण कृति “The Spirit of the Common Law- 1921” के अंतर्गत अमरीकी न्यायपालिका के दृष्टिकोण में ऐसे आठ महत्वपूर्ण परिवर्तनों का उल्लेख किया है जिन्होंने उन्नीसवीं शताब्दी के व्यक्तिवादी न्याय से हटकर वर्तमान कानूनी प्रणाली को नए आचारशारत्र, नए दर्शन और नए राजनीतिक चिंतन के अनुरूप सामाजिक न्याय की ओर मोड़ दिया है ।
पहला परिवर्तन यह संकेत देता है कि संपत्ति के स्वामित्व के आधार पर उसके समाज-विरोधी उपयोग की अनुमति नहीं दी जा सकती । इस क्षेत्र में ‘नैतिक मर्यादा’ के पुराने सिद्धांत की जगह अब ‘सामाजिक मर्यादा’ का नया सिद्धांत लागू किया जाता है ।
दूसरे परिवर्तन का संबंध ‘अनुबंध की स्वतंत्रता’ को सीमित करने से है जो कि विधि-निर्माण तथा न्यायिक निर्णय दोनों स्तरों पर देखा जा सकता है । विधि-निर्माण के स्तर पर इसके उदाहरण हैं- ऐसे कानून जो मजदूरी के नकद भुगतान श्रम की परिस्थितियों और न्यूनतम मजदूरी जैसे विषयों से जुड़े है ।
न्यायिक निर्णय के स्तर पर इसके उदाहरण हैं- ऐसे निर्णय जिनमें बीमे के कानून को अनुबंध का विषय नहीं माना जाता । अनुबंध की स्वतंत्रता को सीमित करने का अर्थ है-उन लोगों को संरक्षण प्रदान करना जो दूसरे पक्ष की सुदृढ़ आर्थिक स्थिति के कारण आर्थिक दबाव का शिकार हो जाते हैं ।
तीसरे परिवर्तन का संबंध संपत्ति के व्ययन (Disposal of Property) के अधिकार को सीमित करने से है । इसके अंतर्गत यह देखा जाता है कि परिवार का कोई सदस्य परिवार के मुखिया की संपत्ति में अपने हिस्से से वंचित न रह जाए ।
चौथा परिवर्तन यह विचार व्यक्त करता है कि ऋणदाता को ऋण वसूल करने की असीमित शक्ति नहीं है । अब यह स्वीकार किया जाता है कि ऋण लेने वाले को ऋण चुकाने के लिए इस हद तक बाध्य नहीं किया जा सकता कि उसका या उसके परिवार का सर्वनाश हो जाए ।
पांचवें, जहाँ दो पक्षों के बीच किसी पक्ष को क्षति पहुंच जाए, और उसका उत्तरदायित्व निर्धारित करना कठिन हो, वही सामाजिक न्याय के विचार के क्षतिपूर्ति का दायित्व उस पक्ष पर डाला जाता है जो उसका मार उठाने में समर्थ हो ।
छठा परिवर्तन यह हुआ है कि न्यायिक निर्णयों में प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग और संरक्षण के मामले में सामाजिक हित को सबसे ऊपर रखा जाता है । उदाहरण के लिए, अब यह स्वीकार किया जाता है कि बहता पानी और वन्य क्षेत्र समाज की संपत्ति हैं ।
सातवां परिवर्तन इस विचार में व्यक्त हुआ है कि यदि सार्वजनिक अभिकरण व्यक्तियों को कोई क्षति पहुँचाते हैं तो उसकी पूर्ति का दायित्व सार्वजनिक निधि को संभालना चाहिए । अंतत: नए कानूनों और न्यायिक निर्णयों के अंतर्गत किसी घर के बच्चों तथा आश्रित सदस्यों के हितों को केवल माता-पिता या गृहस्वामी की दया पर नहीं छोड़ दिया जाता बल्कि इस मामले में भी सामाजिक हित के विचार को प्रमुखता दी जाती है ।
देखा जाए तो उदारवादी संविधान अपने-आप में सामाजिक परिवर्तन की कोई योजना प्रस्तुत नहीं करता बल्कि वह केवल राजनीतिक प्रक्रिया के ‘प्रबंध’ की व्यवस्था प्रस्तुत करता है, चाहे वह संविधान संसदीय ढंग का हो या अध्यक्षीय ढंग का, चाहे वह एकात्मक हो या संघात्मक । इसमें होने वाले सामाजिक परिवर्तन का स्वरूप और स्तर राजनीतिक शक्तियों की परस्पर-क्रिया का परिणाम होता है, और ये शक्तियाँ समाज की आर्थिक और सांस्कृतिक नींव पर टिकी होती हैं ।
इस व्यवस्था के आलोचक यह तर्क देते हैं कि पश्चिमी जगत् में प्रचलित उदारवादी संविधानों की छत्रछाया में निम्न और असहाय वर्गों के कल्याण पर ध्यान तो दिया गया है, परंतु इसका ध्येय केवल पूंजीवादी प्रणाली की कठोरता को कम करना रहा है । इन्होंने सामाजिक व्यवस्था में ऐसा कोई आमूल परिवर्तन नहीं किया है जिससे आर्थिक विषमताओं के मूल कारण को हटाया जा सके ।
उदारवादी प्रणाली की इस त्रुटि को दूर करने के लिए समाजवादी सांविधानिक प्रणाली एक विकल्प के रूप में प्रस्तुत की गई है । समाजवादी सांविधानिक प्रणाली राजनीतिक शक्तियों को परस्पर समायोजन के लिए खुला छोड़ देने में विश्वास नहीं करती बल्कि शासन की संस्थाओं को पूर्व-निर्धारित लक्ष्यों की पूर्ति का साधन बनाना चाहती है ।
2. समाजवादी सांविधानिक प्रणालियाँ (Socialist Constitutional Systems):
समाजवादी सांविधानिक प्रणाली के स्वरूप को समझने के लिए समाजवादी और उदारवादी सांविधानिक प्रणालियों में अंतर करना आवश्यक है । उदारवादी प्रणाली के अंतर्गत तो सामाजिक और राजनीतिक जीवन को संचालित करने की प्रक्रिया को प्रमुखता दी जाती है, और यह मान लिया जाता है कि समुदाय के सामाजिक-आर्थिक लक्ष्य अपने-आप उभर कर सामने आएंगे परंतु समाजवादी प्रणाली के अंतर्गत सामाजिक-आर्थिक लक्ष्यों की प्रधानता स्वीकार की जाती है, और उनकी सिद्धि के लिए निर्धारित प्रक्रिया में थोड़ी-बहुत ढील की गुंजाइश रखी जाती है ।
समाजवादी प्रणाली के समर्थक यह मानते हैं कि उदारवादी प्रणाली ‘मुक्त बाजार समाज’ के प्रतिरूप पर आधारित है, अत: वह केवल धनवान या पूंजीपति वर्ग के हितों और अधिकारों की रक्षा करती है; कामगार वर्ग के हितों और अधिकारों की रक्षा के लिए इस लक्ष्य को संविधान में सर्वोपरि स्थान देना जरूरी है ।
सैद्धांतिक आधार:
समाजवादी सांविधानिक प्रणाली का सैद्धांतिक आधार वैज्ञानिक समाजवाद के प्रवर्तक कार्ल मार्क्स (1818-83) के विचारों में मिलता है । मार्क्स ने उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में अपने समकालीन विश्व तथा संपूर्ण इतिहास के गहन अध्ययन के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला था कि जबसे समाज में निजी संपत्ति का आविर्भाव हुआ है, तब से समाज धनवान और निर्धन वर्गों में बँटा रहा है ।
राज्य की शक्ति पर धनवान् वर्ग का प्रभुत्व रहा है, और राज्य ने सदैव प्रभुत्वशाली वर्ग के हितों और अधिकारों की रक्षा की है । अत: मार्क्स इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि ”आधुनिक राज्य की कार्यकारिणी संपूर्ण बुर्जुवा वर्ग के मिले-जुले मामलों का प्रबंध करने वाली समिति के अलावा कुछ नहीं है ।”
मार्क्स और उनके अनुयायियों ने यह तर्क दिया कि पूंजीवादी व्यवस्था के अंतर्गत कामगार वर्ग के अधिकार छलावा मात्र होते हैं, क्योंकि इन अधिकारों की मदद से पूंजीपतियों के हाथों अपने शोषण को नहीं रोक सकते ।
चूंकि राज्य स्वभावत: सत्ताधारी वर्ग के अधिकारों को ही सुरक्षित कर पाता है, और पूंजीवादी व्यवस्था में कामगार पराधीन वर्ग की स्थिति में रहते हैं, इसलिए कामगार वर्ग के अधिकार सुरक्षित करने का एक ही रास्ता है- वह यह कि यह वर्ग अपना शक्तिशाली संगठन बनाकर पूंजीपतियों के विरुद्ध क्रांति कर दे और स्वयं सत्ता संभाल ले । जिस राज्य में सत्ता का सूत्र कामगार वर्ग के हाथों में रहेगा, वही समाजवादी राज्य होगा ।
मार्क्सवाद के अनुसार, पूंजीवादी राज्य के साथ पूंजीपतियों के निहित स्वार्थ जुड़े रहते हैं, अत: वे राज्य को कायम रखना चाहते हैं परंतु समाजवादी राज्य के साथ कामगार वर्ग के निहित स्वार्थ नहीं जुड़े होंगे, अत: वे पूंजीवाद के अंतिम अवशेषों को हटाकर राज्य व्यवस्था को ही ‘लुप्त’ हो जाने देंगे ।
इससे ‘वर्गहीन और राज्यहीन’ समाज का उदय होगा, जिसमें आधिकारिक सत्ता तो रहेगी पर राजनीतिक शक्ति नहीं रहेगी; प्रशासन तो रहेगा पर राज्य नहीं रहेगा । अत: संविधानवाद की समस्या सामजिक विकास के समाजवादी दौर के दौरान ही रहेगी । जब राज्य लुप्त हो जाएगा, और व्यक्ति अपने-अपने स्वार्थ से ऊपर उठ जाएंगे, तब उनके परस्पर संबंध उनकी स्वाभाविक प्रेरणा से समायोजित होंगे । अत: तब किसी तरह की सांविधानिक प्रणाली की जरूरत नहीं रहेगी ।
मार्क्स और उनके निकट सहयोगी फ्रेड्रिक एंगेल्स (1820-95) ने अनुभव किया कि जब तक संविधानवाद पूंजीवाद के साथ जुड़ा होगा, वह जनसाधारण को सच्ची स्वतंत्रता दिलाने का साधन नहीं बन सकता । इसके लिए पूंजीवादी शासन-व्यवस्था को धराशायी करना होगा और उसकी जगह समाजवादी शासन-प्रणाली स्थापित करनी होगी जिसमें उत्पादन के प्रमुख साधनों का समाजीकरण कर दिया जाएगा; श्रम को सबके लिए अनिवार्य कर दिया जाएगा; और उत्पादन की शक्तियों का विकास किया जाएगा ताकि आगे चलकर वर्गहीन समाज का उदय हो सके ।
राज्य के लुप्त होने की संकल्पना चिरसम्मत मार्क्सवाद का अंग अवश्य रही है, परंतु रूस की बोल्शेविक क्रांति (1917) के बाद मार्क्सवाद की मुख्य समस्या यह रही है कि समाजवादी दौर में शासन-व्यवस्था का स्वरूप क्या हो ? दुर्भाग्य से चिरसम्मत मार्क्सवादी साहित्य में- विशेषत: एंगेल्स और लेनिन की कृतियों में-समाजवादी दौर की व्यवस्था को सर्वहारा के अधिनायकतंत्र (Dictatorship of the Proletariat) की संज्ञा दी गई है, जिससे अनेक भ्रांतियाँ पैदा हुई हैं ।
‘अधिनायकतंत्र’ शब्द के प्रयोग से ऐसा आभास होता है कि समाजवादी राज्य सांविधानिक राज्य नहीं होगा और उसमें शासक वर्ग पर कोई अंकुश नहीं रहेगा । मार्क्सवाद के विरोधियों ने ‘सर्वहारा के अधिनायकतंत्र’ के इसी अर्थ को प्रमुखता दी है जबकि मार्क्सवाद का मूल अभिप्राय यह नहीं था ।
वस्तुत: मार्क्स और उसके अनुयायियों ने ‘अधिनायक’ शब्द का प्रयोग रोम के इतिहास में प्रचलित अर्थ को ध्यान में रखकर किया था । प्राचीन रोम में अधिनायक ऐसा मुख्य दंडाधीश था जो आपातकाल में नियुक्त किया जाता था, और प्रशासन के क्षेत्र में उसे पूर्ण शक्ति प्राप्त होती थी ।
दूसरे शब्दों में, यह एक अस्थायी व्यवस्था थी जो संकट के निवारण के ध्येय से स्थापित की जाती थी । मार्क्सवादियों का विचार था कि समाजवादी क्रांति के बाद प्रतिक्रांतिकारी शक्तियों के दमन के लिए सर्वहारा की सरकार को पूर्ण शक्ति प्रदान करना उपयुक्त होगा । जब समाजवाद अपनी जडें जमा लेगा, तब समाज वर्गहीन हो जाएगा, और सरकार की जरूरत ही नहीं रहेगी ।
जिस व्यवस्था में शासक वर्ग का कोई निहित स्वार्थ ही न हो और जिसका ध्येय समाज में शोषण की परंपरा को ही समाप्त कर देना हो, उसे गैर-सांविधानिक मानना गलत होगा परंतु ऐसी व्यवस्था निसंदेह संविधानवाद की एक नई व्याख्या की मांग करती है ।
राज्य का वर्ग चरित्र संविधानवाद के मार्क्सवादी सिद्धांत की बुनियाद है । संविधानवाद का उदारवादी सिद्धांत संविधान को राज्य के विभिन्न वर्गों या समूहों के हितों में सामंजस्य का साधन मानता है, परंतु मार्क्सवाद धनवान और निर्धन वर्गों के संघर्ष पर बल देता है जिसमें सामंजस्य की कोई गुंजाइश नहीं है ।
सोवियत रूस में बोल्शेविक क्रांति के बाद जब सर्वहारा राज्य के लिए संविधान-निर्माण की समस्या आई तो बोल्दोविकों ने इसके लिए उदारवादी ढंग की संविधान सभा नहीं बुलाई, क्योंकि उनके विचार से उदार लोकतंत्र शोषक वर्गों के अधिनायकतंत्र होते हैं । इसके विपरीत अब वे शोषित कामगार-वर्ग का अधिनायकतंत्र स्थापित करना चाहते थे ।
अत: लेनिन ने अपनी प्रसिद्ध कृति ‘State and Revolution- 1917’ के अंतर्गत लिखा: ”प्रश्न यह नहीं कि समस्त ‘मंत्रालय’ बने रहेंगे या विशेषज्ञ समितियों’ या अन्य संस्थाओं का गठन किया जाएगा या नहीं-दुर बात का कोई विशेष महत्व नहीं है । प्रश्न यह है कि क्या पुराना राज्यतंत्र (जो बुर्जुवा वर्ग के हजारों तानों-बानो से जुड़ा है और जिसमें सर्वत्र रूढिबद्धता और जड़ता व्याप्त हो चुकी है) बना रहेगा, या उसे नष्ट करके उसकी जगह नया राज्य-तंत्र स्थापित किया जाएगा? क्रांति का अर्थ यह नहीं कि नया वर्ग पुराने राज्य-तंत्र की सहायता से शासन का संचालन करें, बल्कि इसका अर्थ यह है कि नया वर्ग उस राज्य-तंत्र को चकनाचूर करके एक नए तंत्र की सहायता से शासन का संचालन करें ।”
प्रमुख विशेषताएं:
सोवियत समाजवादी गणराज्य संघ में 1936 में जो संविधान अपनाया गया, वह उन देशों के लिए आदर्श बन गया जहाँ समाजवादी क्रांति के बाद नए संविधान बनाए गए । इन संविधानों के उदाहरण थे: अल्बानिया (1946), यूगोस्लाविया (1946), बल्गारिया (1947), चेकोस्लोवाकिया (1948), जनवादी चीन गणराज्य (1949), जर्मन लोकतंत्रीय गणराज्य (1940), पोलैंड (1952), रूमानिया (1952), इत्यादि ।
पश्चिमी आलोचकों के अनुसार, समाजवादी सांविधानिक प्रणाली सह । अर्थ में संविधानवाद की भावना को व्यक्त नहीं करती । उदारवादी सांविधानिक प्रणाली के अंतर्गत प्रक्रिया को सबसे बढ़कर माना जाता है, और यह विश्वास किया जाता है कि इस प्रक्रिया के परिणामस्वरूप जो भी सार्वजनिक नीति उभरकर सामने आएगी, वही मान्य होगी परंतु समाजवादी प्रणाली के अंतर्गत समाजवादी व्यवस्था स्थापित करने के लक्ष्य और कार्यक्रम को सर्वोपरि माना जाता है, और इसके लिए प्रक्रिया में आवश्यक समायोजन करने से संकोच नहीं किया जाता ।
जीन ब्लांडेल के शब्दों में- “चूंकि साम्यवादी शासन मार्क्सवादी विचारधारा पर आधारित है जिसमें राजनीतिक संगठन के मुकाबले आर्थिक आधार-तत्वों को प्राथमिकता दी जाती है, इसलिए यह स्वाभाविक है कि इन सरकारों के द्वारा बनाए गए संविधानों में प्रक्रियात्मक साधनों के मुकाबले नीति-तत्व और सहभागिता पर विशेष बल दिया जाता है । यह दृष्टिकोण न केवल अधिकांश उदारवादी सांविधानिक प्रणालियों के साथ मेल नहीं खाता, बल्कि स्वयं संविधान के विचार के ही विरुद्ध है ।”
इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए संगठन के स्तर पर समाजवादी सांविधानिक प्रणालियों में अनेक विशेषताएं पाई जाती हैं ।
संक्षेप में, इस प्रणाली के अंतर्गत:
1. राजनीतिक शक्ति एक ही दल (अर्थात् साम्यवादी दल) के हाथों में केंद्रित रहती है । इस दल का नियंत्रण शक्ति के रूप के रूप में ऊपर से नीचे की ओर सक्रिय होता है ।
2. शासन के अंगों के लिए जो चुनाव कराए जाते हैं, उनके उम्मीदवार सत्तारूढ़ दल के द्वारा मनोनीत किए जाते हैं । अत: चुनाव के समय मतदाता के सामने यथार्थ विकल्प नहीं होते; और
3. सार्वजनिक नीति से संबंधित निर्णय सत्तारूढ़ दल के द्वारा किए जाते हैं; शासन के अंग-मंत्रिमंडल या विधानमंडल-केवल उनका अनुमोदन करने की भूमिका निभाते हैं । यही कारण है कि इस प्रणाली के आलोचक इसे एकदलीय सर्वाधिकारवाद की संज्ञा देते हैं ।