Read this article in Hindi to learn about:- 1. विकास प्रशासन के लक्षण (Characteristics of Development Administration) 2. विकास प्रशासन के मॉडल (Models of Development Administration) 3. साधन (Tools).

विकास प्रशासन के लक्षण (Characteristics of Development Administration):

पाई पानिन्दीकर-क्षीरसागर ने विकास प्रशासन के 12 लक्षण बताये हैं:

1. कार्योन्मुख (Task Oriented):

विकास के लिए जो नीतियां कार्यक्रम तय होंगे, उनके प्रति प्रतिबद्धता और समर्पण विकास प्रशासन की एक अनिवार्य विशेषता है । यह मुद्दा प्रशासन को लक्ष्यों और कार्यों के प्रति संवेदनशील बना देता है ।

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2. लक्ष्योन्मुख (Goal Oriented):

विकास प्रशासन बहुप्रयोजन, बहुलक्ष्यीय प्रणाली है । विकास प्रशासन की अवधारणा में यह सर्वाधिक महत्व का विषय हैं कि कहां परिवर्तन किया जाना है और उनका स्वरूप क्या होगा ? देश की व्यवस्था में ऐसे लक्ष्यों को चुनने की जवाबदारी विकास प्रशासन की होती हैं ।

3. परिवर्तनोन्मुख (Change Oriented):

विकास प्रशासन का जन्म ही विद्यमान परिस्थितियों में परिवर्तन हेतु हुआ है । लक्ष्यों के निर्धारण के बाद यह अहम सवाल उठता हैं कि उनके लिए जो परिवर्तन आवश्यक है उनका विस्तृत विश्लेषण कर लिया जाए । अर्थात् वे परिवर्तन किस सीमा तक होंगे और उनका स्वरूप क्या होगा । वस्तुत: विकास प्रशासन का प्रमुख लक्षण वर्तमान स्थितियों में सकारात्मक परिवर्तन है ।

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4. ग्राहक अभिमुख (Clientele):

विकास प्रशासन ग्राहकोन्मुख होता है । सार्वजनिक नीतियों का दायरा व्यापक होता है और वे आमहितों को खास हितों पर वरीयता देती हैं । उन व्यक्तियों को ही लाभ पहुंचना चाहिए जिनके लिए विकास योजनाएं संचालित की जा रही है । विकास प्रशासन का मुख्य ध्येय उन क्षेत्रों, समुदायों को विकास की मुख्य धारा से जोड़ना है जो अपेक्षाकृत पिछड़े हुए है ।

5. समय अभिमुख (Temporal Orientation):

विकास के लक्ष्यों को विलंब के हवाले नहीं किया जा सकता । यदि परिवर्तन बहुत बाद में जाकर होंगे तो उनका कोई महत्व नहीं रह जाता । अत: प्रत्येक लक्ष्य या विकास निर्धारित समय सीमा में प्राप्त करना इस प्रशासन की एक महत्वपूर्ण विशेषता है ।

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6. नागरिक सहभागिता:

विकास प्रशासन का एक अनिवार्य तत्व है, विकास कार्यों, योजनाओं के निर्माण और संचालन में जनता की भागीदारी अर्थात् राजनीतिक-प्रशासनिक विकेंद्रीकरण । इसलिए पंचायती राज्य इसका लक्ष्य भी है और साधन भी । जनता को शिक्षित कर, जानकारी देकर प्रशासन में जन भागीदारी बड़ायी जा सकती है । भारत में योजनाएं इसीलिये भी असफल होती है क्योंकि जनभागीदारी बेहद कम है ।

7. नवाचार (Innovation):

प्रशासन को निरंतर प्रगतिशील तथा बदलती परिस्थितियों के अनुरूप बनाए रखने के लिए अन्वेषण, अनुसंधान, होते रहना चाहिये ताकि प्रशासन जनता की मांगों के अनुरूप बना रहे ।

8. प्रत्यायोजन (Delegation):

विकास प्रशासन शक्ति के केन्द्रीयकरण के स्थान पर इसके विकेन्द्रीयकरण पर आधारित है । इसमें एक तरीका प्रत्यायोजन भी है । जिनके पास अधिकार है वे कार्यों को सम्पन्न करने के लिए उनका प्रत्यायोजन समय-समय पर करते रहे ।

9. लचीलापन (Flexibility):

लोक प्रशासन की पुरातन भावना कठोर नियमों के पालन की रही हैं, जिन्होंने विकास की अनेक संभावनाओं को बाधित ही किया हैं । चूंकि विकास की नीतियां निचले स्तर पर बनायी और संचालित की जानी हैं, अत: वहां के पर्यावरण के अनुकूल उनको निर्धारित और परिवर्तित करने की छूट मिलनी चाहिये । इस प्रकार सरल प्रक्रिया और पर्यावरण के अनुकूल परिवर्तन दोनो विशेषताएं विकास प्रशासन की है ।

10. लोकतांत्रिक प्रशासन (Democratic Administration):

प्रशासन में जनसहभागिता का एक आयाम यह भी हैं कि हम हित समूह, प्रभावित लोगों और उनके प्रतिनिधियों को प्रशासन में पर्याप्त प्रतिनिधित्व देवें ।

11. नियोजन (Planning):

विकास प्रशासन में लक्ष्यों की प्राथमिकता होती है और प्राथमिकता के निर्धारण के लिये नियोजन जरूरी होता है । नियोजन सामान्य प्रशासन में भी होता है लेकिन विकास प्रशासन में यह प्रयास उन्मुख (सामान्य प्रशासन) के बजाय परिणाम उन्मुख होता है, विचार उन्मुख (सा. प्र.) के प्रतिफल उन्मुख होता है ।

12. प्रगतिशीलता (Advancement):

लक्ष्यों में आवश्यकतानुरूप परिवर्तन प्रगतिशीलता को प्रकट करता है ।

विकास प्रशासन के मॉडल (Models of Development Administration):

विकास प्रशासन से संबंधित उपागमों में से कुछ पश्चिमी मॉडल पर आधारित पुरातन उपागम है तो कुछ समकालीन और आधुनिक मॉडल । आधुनिक मॉडल विकास के स्वदेशी मॉडल है या स्वदेशी तथा विदेशी मॉडल के युक्तिसंगत मिश्रण पर है ।

i. प्रारंभिक मॉडल (Initial Model):

विकास प्रशासन के उदय के प्रथम चरण (1950-70) में पाश्चात्य विकासात्मक मॉडलों पर बल दिया गया ।

ये चार प्रारंभिक मॉडल है:

1. आर्थिक उपागम (Economic Approach):

ये उपागम तृतीय विश्व के विकास हेतु अर्थव्यवस्था पर मुख्य ध्यान आमंत्रित करते है । तीव्र औद्योगिकीकरण द्वारा ये देश तीव्र विकास कर सकते है । और औद्द्योगिकरण के लिये निवेश तभी सुलभ होगा जब बचत का स्तर बढाया जाये । वस्तुत: ये उपागम विकास के लिये एडम स्मिथ, किन्स, रोस्टोव और एक सीमा तक कार्ल मार्क्स के सुझावों को आधार बनाते है ।

2. रोजर्स-इडारी का विखण्डन मॉडल (Fusion Model):

इवर्ट रोजर्स और आर.एस. इडारी द्वारा प्रतिपादित ”डिफ्यूजन मॉडल” के अनुसार पिछड़े राष्ट्रों को विकास हेतु पश्चिमी औद्योगिक समाजों के धन, तकनीक, प्रशासनिक नमुनों के साथ वहां के सामाजिक ढाँचों को भी अपनाना होगा ।

3. मनोवैज्ञानिक उपागम (Psychological Model):

यह उपागम व्यवहारवादियों के अनुरूप यह मानता है कि विकास उसमें लगे हुऐ मनुष्यों के व्यैक्तिक गुणों से संबंधित है जैसे उपलब्धी-अभिप्रेरणा, परिवर्तनभाव, रचनात्मकता आदि । डेविड मेक्लेन्ड, कुनकेल, इंकल्स, स्मीथ, हेगन इसके समर्थक है ।

4. आश्रियता विचारधारा (Dependency Model):

इसके अनुसार तृतीय विश्व में घोर-निर्धनता का मुख्य कारण उनकी औद्योगिक पश्चिमी राष्ट्रों पर निर्भरता है जो वस्तुत: औपनिवेशीकरण और अब नव उपनिवेशवाद का परिणाम है । इसने तृतीय विश्व के पिछड़ेपन के लिये विकसित देशों के शोषण की जिम्मेदार बताया है ।

इन मॉडलों का निष्कर्ष था:

1. तृतीय विश्व का विकास पश्चिमी तर्ज पर हो ।

2. किसी देश के विकास को मापने का मुख्य पैमाना आर्थिक हो ।

3. विकासशील राष्ट्रों को विकसित राष्ट्रों के प्रशासनिक ढाँचे अपनाना चाहिये ।

ii. आधुनिक मॉडल (Modern Model):

शीघ्र ही उक्त मॉडलो की विफलता सामने आयी और जब प्रशासन का पारिस्थितिकीय से संबंध पूरी तरह स्थापित हो गया तो नये मॉडल 1970 के बाद सामने आये ।

अरविन्द सहगल ने आधुनिक मॉडलों की दो विशेषताएं बतायी:

1. बहुलतावादी अर्थात् विकास के अनेक विकल्प हो सकते है और

2. पश्चिम पर कम, स्वदेशी जरूरतों पर अधिक निर्भर ।

अरविन्द सहगल ने समकालीन विकास प्रशासन की विचारधारा की दो नयी दिशायें या प्रवृत्तियां बतायी है:

a. बल्यू प्रिन्ट से लर्निग प्रोसेस:

पहले विकास प्रशासन में लोगों के लिये नियोजन की उस ब्ल्यू प्रिन्ट योजना को अपनाया जाता था, जो कठोर और बन्द व्यवस्था थी । अब इसकी प्रवृत्ति जनसहभागी हो रही है जिसमें लोगों के साथ मिलकर योजना बनाने पर बल दिया जाता । नीचे से नियोजन इस प्रवृत्ति का ही परिणाम है ।

b. उत्पादन केन्द्रीत से लोक-केन्द्रीत:

पहले की प्रवृत्ति शहरी करण, औद्योगिकीकरण जैसे- मूल्यों की थी, ताकि अधिकाधिक सेवा, उत्पादन और उपभोग को बढ़ाया जा सके तथा निवेश पर उपलब्धि भी अधिक हासिल हो । अब लोक-केन्द्रीत अप्रोच में व्यक्तियों की जरूरत, उनके सशक्तीकरण को मुख्य मुद्दा बनाया गया है । इस हेतु सामाजिक-आर्थिक समानता, नागरिक-सहभागिता, मानवीय प्रगति, सतत् और प्रतिग्राही विकास के प्रशासन पर बल दिया जाता है ।

iii. प्रतिभागिता मॉडल (Participation Model):

ग्रामीण विकास पर मुख्य ध्यान केन्द्रीत करने वाला राबर्ट चैम्बर कृत ”प्रतिभागिता मॉडल” विकास से संबंधित अनेक चरों में व्युत्क्रम (विलोमानुपात) स्थापित करने की बात करता है । चैम्बर के अनुसार ”ग्रामीण निर्धनों के लिये खोने के लिये कम और पाने के लिये ज्यादा है,” के मद्देनजर “व्युत्क्रम और प्रतिभागिता” को स्थापित करने की जरूरत है ।

यह व्युत्क्रम इस प्रकार है:

1. पेशेवर विद्वानों के कार्य और निवास स्थल में व्युत्क्रम ।

2. संसाधनों के विकेन्द्रीकरण और पृथक्करण में व्युत्क्रम ।

3. पेशेगत मूल्यों और प्राथमिकताओं में व्युत्क्रम ।

4. पहली और आखिरी सूची में व्युत्क्रम ।

5. विशेषी करण में व्युत्क्रम ।

चैम्बर ने ”रूरल डेवलपमेन्ट-पुटिंग द लास्ट फर्स्ट” में विकास को ”विकेंद्रित और बहुविधान्मुखी” प्रक्रिया बताया और कहा कि ग्रामीण निर्धनता को दूर करना है तो वर्तमान दृष्टि में ”उलटफेर” (व्युत्क्रम) करना होगा ।

iv. पारिस्थितिकीय मॉडल (Ecological Model):

विकास प्रशासन के पूर्व ही पारिस्थितिकीय मॉडल लोक प्रशासन के अध्ययन के लिये प्रयुक्त होता रहा । जॉन गास, फ्रेडरिग्स ने इसे विकसित किया । विकास प्रशासन और तुलनात्मक लोक प्रशासन में इसे सफलतापूर्वक लागू किया फ्रेडरिग्स ने । उनके अनुसार विकास प्रशासन को उसके पर्यावरण के साथ द्विपक्षीय अन्तर्सबंधों के माध्यम से ही समझा जा सकता है । रिग्स ने विकास प्रशासन की पारिस्थितिकीय को समझाने के लिये विभिन्न प्रारूपों का प्रयोग किया ।

आधुनिक मॉडलों का निष्कर्ष है:

1. विकास का कोई एक सार्वभौमिक मॉडल नहीं हो सकता अपितु परिप्रेक्ष्यानुसार मॉडल को अपनाना चाहिये ।

2. विकास पर्यावरणन्मुख और पर्यावरण-प्रभावित होता है ।

3. पश्चिमी मॉडलों की सीमित उपयोगिता ही है ।

विकास प्रशासन के साधन (Tools of Development Administration):

i. प्रशासनिक तन्त्र (Administrative System):

सरकारी प्रशासनिक तन्त्र पर ही देश के विकास हेतु अनेक कार्यों को करने का दायित्व होता है । अपनी योग्यता, अनुभव आदि के कारण प्रशासनिक तन्त्र ही सर्वाधिक प्रमुख साधन के रूप में उभरता है ।

ii. राजनीतिक संस्थाएं (Political Institutions):

राजनीतिक दलों का जनाधार होता है, जो विकास की नीतियों और कार्यक्रमों (घोषणा पत्र के माध्यम से) के बारे में जनसमर्थन जुटाते है, साथ ही सामाजिक संघर्ष को नियन्त्रित कर विकास की बाधायें दूर करते है ।

iii. एच्छिक संस्थाएं (Voluntary Institutions):

विकासशील राष्ट्रों में एच्छिक संगठनों की विकास की प्रक्रिया में भूमिका इसलिये महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि यहां जनता और सरकार के मध्य काफी गहरी खाई पायी जाती है । ये संस्थाएं इनके मध्य सेतु का कार्य करती है ।

iv. लोक संगठन (Public Groups):

जनता के दबाव समूह या वर्गीय हितों से जुड़े लोक संगठन प्रशासन में जन भागीदारी सुनिश्चित करते है । ये सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया को तीव्र करने में भी सहायक होते है ।

v. स्थानीय शासन संस्थाएं (Institutions of Local Self Government):

विकास प्रशासन का सबसे प्रभावकारी स्वशासन संस्थाएं हो सकती है । यह इस बात पर निर्भर करता है कि कितनी स्वायत्तता प्राप्त है और ये अपने दायित्वों के प्रति कितने सचेत है ।