Read this article in Hindi to learn about the limitations of development administration.
विकास के लिए प्रशासन को जिन विशेषताओं से सहयुक्त करना आवश्यक है । उनकी अपनी सीमाएं है । इसके अतिरिक्त नीति और उसके क्रियान्वयन आदि संबंधी विभिन्न सीमाएं विकास प्रशासन को सीमाबद्ध करती है ।
विकासशील देशों ने अपने पिछड़ेपन को दूर करने के लिए एक लक्ष्योन्मुख-कार्योन्मुख व्यवस्था के रूप में जिस विकास प्रशासन को अपनाया है उसकी सबसे महत्वपूर्ण सीमा है- संसाधनों का अभाव । विकास समग्र अवधारणा है और इसकी पूर्ति समस्त संसाधनों की उपलब्धता से ही हो सकती है । लेकिन कहीं तकनीकी संसाधनों का अभाव है तो कहीं प्राकृतिक संसाधनों का सबसे बड़ा अभाव पूंजीगत संसाधनों का है ।
संसाधनों के अभाव में योजना की भी सीमा हो जाती है । इसलिए पूरे देश का संतुलित विकास नहीं हो पाता है, क्योंकि राशि का आवंटन प्राथमिकता के आधार पर करना पड़ता है । विकास के लिए विकासोन्मुख राजनीति की जरूरत पड़ती है, लेकिन हमारे यहाँ इच्छाशक्ति का अभाव, जाति और क्षेत्रवाद जैसी समस्याएं विकास प्रशासन के स्थाई बेरियर्स (अवरोधक) बन जाते हैं ।
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जब राजनीतिक नियंत्रण प्रभावी नहीं होता तो प्रशासक विकास को सर्वकल्याण के स्थान पर स्वकल्याण का माध्यम बना लेता है । और जैसा कि वोहरा कमेटी ने रेखांकित किया है कि राजनीति-प्रशासन-माफिया का गठजोड़ विकास की बंदर-बाट कर लेता है ।
विकास के लिए राजनीतिक स्थिरता और शांतिपूर्ण माहौल की जरूरत होती है लेकिन अधिकांश विकासशील समाज अराजकता से ग्रस्त हैं और इसलिए वहां विकास के स्थान पर नियामकता प्राथमिकता हो जाती है । विकास एक बहुलक्षी प्रणाली है और इसलिए इसमें लक्ष्यों का निर्धारण सदैव से ही एक समस्या बना हुआ है ।
वस्तुत: विकास प्रशासन अपने पर्यावरण के प्रति उतना संवेदनशील नहीं है और अनुक्रियाशील नहीं है । यहीं कारण है कि योजनाओं में वास्तविकता का अभाव पाया जाता है । अंतत: जिस प्रशासन के ऊपर विकास की महती जिम्मेदारी है उसमें आपेक्षित कार्यकुशलता, दक्षता के साथ ही संख्यात्मक बल का भी अभाव है ।
सार यह है कि प्रशासन को विकास का पर्याय बनाने के लिए और सर्वांगीण विकास की योजना को साकार करने के लिए प्रशासनिक विकास और विकास के प्रशासन दोनों की सीमाओं की स्पष्ट पहचान करना होगी । तभी विकास प्रशासन इसके अपने जनक वीडनर के कथन के अनुरूप लक्ष्योन्मुख और कार्योन्मुख सिद्ध हो सकेगा ।
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क्या वेबर की आदर्श नौकरशाही विकास प्रशासन के लिये प्रासंगिक है । नौकरशाही अर्थात सरकारी नौकरों का तंत्र । नौकरशाही उपागम संगठन का ऐसा परम्परागत और औपचारिक दृष्टिकोण है, जिसने अधिकारी तन्त्र की संरचना को ही उद्देश्य प्राप्ति का सर्वोत्तम और आदर्श माध्यम माना और इसीलिए आलोचना का शिकार हुआ ।
मौटे तौर पर नौकरशाही के अर्थ को दो भिन्न आधारों पर देखा जाता है:
1. संरचना के अर्थ में इसके अर्थ में नौकरशाहों लोक सेवकों का एक ढांचा है । ऐसा ढांचा जो पदसौपान में व्यवस्थित है, विभिन्न सिद्धांतों के आधार पर बुना गया है ।
2. प्रकार्यात्मक अर्थ में इस संदर्भ में नौकरशाही ढांचे की तुलना में अपने कार्य, प्रक्रिया, नियम आदि का पर्याय मानी जाती है । अर्थात् सरकारी कार्य-प्रक्रिया । उचित माध्यम प्रक्रिया कार्य की निश्चित नियमावली आदि नौकरशाही बन जाती है ।
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प्रकार्यात्मक अर्थ भी इसके दो अर्थ लगाये जाते है वेबर इसे कार्य कुशलता का पर्याय मानते है जबकि क्रोजीयर, मर्टन जैसे विद्वान अकार्यकुशलता का । वास्तविकता यह है कि कार्य-नियम, प्रक्रिया आदि सैद्धांतिक रूप से जिस कार्यकुशलता और पारदर्शिता को प्राप्त करने के लिये जरूरी माने जाते है, वे ही अधिकार और बौद्धिकता से संपन्न नौकरशाही के हाथों में अकार्यकुशलता और भ्रष्टाचार के औजार बन जाते है ।
19वीं शताब्दी में यूरोप में इसका प्रयोग सरकार की निरकुंशता, संकुचित दृष्टिकोण और अधिकारियों की स्वैच्छाचारिता के लिऐ किया जाने लगा, फिर इसका अर्थ नियमों की कठोरता, अनुतरदायित्वता एवं नीजि स्वार्थों की पूर्ति से लगाया जाने लगा । 1950 के बाद नौकरशाही ”पार्किन्सन कानून” का पर्याय मानी जाने लगी अर्थात् अपने आकार को बड़ाने की प्रवृत्ति जबकि कार्यों और उसकी कुशलता के प्रति उदासिनता ।