Read this article in Hindi to learn about:- 1. यूरोपीय संघ का प्रारम्भ (Introduction to the European Union) 2. यूरोपीय संघ की स्थापना व विकास (European Union’s Establishment and Development) 3. उद्देश्य (Objectives) 4. अंग तथा संस्थाएँ (Organizations) 5. यूरोपीय संघ एक उभरती हुई आर्थिक शक्ति के रूप में (European Union as an Emerging Economic Power).
Contents:
- यूरोपीय संघ का प्रारम्भ (Introduction to the European Union)
- यूरोपीय संघ की स्थापना व विकास (European Union’s Establishment and Development)
- यूरोपीय संघ के उद्देश्य (Objectives of European Union)
- यूरोपिय संघ के प्रमुख अंग तथा संस्थाएँ (Major Organizations of the European Union)
- यूरोपीय संघ एक उभरती हुई आर्थिक शक्ति के रूप में (European Union as an Emerging Economic Power)
1. यूरोपीय संघ का प्रारम्भ (Introduction to the European Union):
वर्तमान में विश्व में आर्थिक व राजनीतिक शक्ति के उभरते केन्द्रों में यूरोपीय देशों के क्षेत्रीय सहयोग संगठन- यूरोपीय संघ की गणना भी की जाती है । क्षेत्रीय स्तर पर देशों के आर्थिक समुदाय की स्थापना का विश्व में यह सफलतम उदाहरण है ।
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यूरोपियन संघ वर्तमान में 28 देशों का संगठन है । वैसे तो इसकी स्थापना अपने वर्तमान रूप में 1993 में हुई लेकिन यह संघ द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यूरोपीय देशों के मध्य सहयोग के लिये किये गये अनेक प्रयासों का परिणाम है । यह 1950 के बाद चार दशकों के क्रमिक विकास का परिणाम है ।
यह विश्व में क्षेत्रीय एकीकरण व आर्थिक समुदाय का एकमात्र सफलतम उदाहरण है । विश्व के अन्य क्षेत्रों में समुदाय निर्माण के प्रयास इसी तर्ज पर किये जा रहे है । यूरोप में आर्थिक एकीकरण के प्रेरक तत्व-यूरोपियन संघ यूरोपीय देशों की आर्थिक सहयोग व एकीकरण की इच्छा का मूर्त रूप है ।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यूरोपीय एकीकरण की प्रक्रिया को कई तत्वों से प्रोत्साहन प्राप्त हुआ जो निम्नलिखित हैं:
1. द्वितीय विश्व युद्ध का सबसे अधिक विनाशकारी प्रभाव यूरोप में ही दिखाई दिया, क्योंकि युद्ध का प्रमुख स्थल यूरोप ही था । इस युद्ध के कारण यूरोप के देशों को न केवल व्यापक आर्थिक व मानवीय क्षति हुई बल्कि विश्व स्तर पर उनकी प्रभावशाली स्थिति भी प्रभावित हुई । युद्ध के बाद विश्व शक्ति का केन्द्र यूरोप नहीं रहा बल्कि उसका स्थान अमेरिका और सोवियत संघ ने ले लिया । यूरोप के नेताओं तथा बुद्धिजीवियों ने इस विपरीत स्थिति के लिये आपसी मदभेदों व विवादों को उत्तरदायी माना ।
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अत: उन्होंने अनुभव किया कि युद्ध की विभीषिका से बचने के लिए आपसी सहयोग की प्रक्रिया को आगे बढ़ाना आवश्यक है । यूरोप का आर्थिक एकीकरण व सहयोग इसी इच्छा का परिणाम है । द्वितीय विश्व युद्ध के बाद उपनिवेशवाद की समाप्ति के कारण भी यूरोप बाह्य तनावों से मुक्त हो गया तथा शान्ति व सहयोग की प्रक्रिया आरंभ हुई ।
2. द्वितीय विश्व युद्ध के बाद तनाव यूरोप के देशों में न होकर अमेरिका और सोवियत संघ के बीच था । अत: पश्चिमी यूरोप के देशों को मुख्य खतरा अब साम्यवादी तानाशाही से था जिसके विरुद्ध आपसी एकता की भावना विकसित हुई । साथ ही नाटो के रूप में सामूहिक सुरक्षा की नई व्यवस्था के कारण यूरोप के देशों को सुरक्षा चिन्ताओं से मुक्ति मिली तथा यूरोप में शांति व सुरक्षा का माहौल बना । इस शांति व सुरक्षा के माहौल में यूरोप के देशों के मध्य आर्थिक सहयोग व एकीकरण को बल मिला ।
3. अन्य क्षेत्रों की तुलना में यूरोप के देशों में वैचारिक व राजनीतिक समानता के तत्व पहले से विद्यमान रहे हैं, लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध के बाद लोकतंत्र और पूँजीवाद की विचारधाराओं ने पश्चिमी यूरोप में वैचारिक एकरूपता को मजबूत कर दिया ।
पश्चिमी यूरोप के सभी देशों में प्रजातंत्रिक व्यवस्था, समानता, स्वतंत्रता, न्याय, विधि का शासन, मानव अधिकारों का सम्मान तथा खुली आर्थिक प्रतियोगिता आदि तत्वों के प्रति आम सहमति पायी जाती है । इस वैचारिक सहमति के कारण आर्थिक सहयोग को प्रेरणा मिली । वैश्वीकरण के बाद उदारवाद व पूंजीवाद की धारणाएँ इनके एकीकरण का आधार बन गयी ।
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2. यूरोपीय संघ की स्थापना व विकास (European Union’s Establishment and Development):
एक आर्थिक समुदाय के रूप में यूरोपीय संघ की स्थापना एक लम्बे विकास का परिणाम है । इसके प्रमुख चरण अग्रलिखित हैं:
(I) असहयोग का आरम्भ तथा रोम की संधि (The Beginning of Non-Cooperation and the Treaty of Rome):
यूरोप में आर्थिक एकीकरण व सहयोग की प्रक्रिया का आरम्भ द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से माना जाता है । इस दिशा में सबसे पहला प्रयास 1950 में यूरोप के 6 देशों द्वारा यूरोपीय कोयला व स्टील समुदाय (European Coal and Steel Community) की स्थापना करके किया गया । यह 6 देश थे- बेल्जियम, इटली, फ्रांस, पश्चिमी जर्मनी, लक्जमबर्ग तथा नीदरलैण्ड ।
यूरोपीय कोयला व स्टील समुदाय का मुख्य उद्देश्य सदस्य देशों के राष्ट्रीय कोयला और स्टील उद्योगों पर केन्द्रीयकृत नियन्त्रण की व्यवस्था करना था । इस प्रयास को यूरोप में संघ की स्थापना का पहला कदम कहा गया है । बाद में 1957 में रोम की संधि के द्वारा कोयला व स्टील समुदाय के साथ-साथ अन्य आर्थिक क्षेत्रों में सहयोग बढ़ाने का प्रयास किया गया तथा इस संधि के द्वारा यूरोपीय आर्थिक समुदाय (EEC) की स्थापना की गई ।
इस संगठन का मुख्य उद्देश्य इसके सदस्य देशों के मध्य व्यापार तथा अन्य आर्थिक गतिविधियों में सहयोग को मजबूत करना था । रोम संधि के द्वारा ही कस्टम यूनियन तथा आणविक ऊर्जा के विकास में सहयोग हेतु यूरोपीय आणविक ऊर्जा समुदाय (European Atomic Energy Community) की स्थापना की गई ।
ये सभी संस्थाएँ 1958 में रोम की संधि के प्रभावी होते ही अस्तित्व में आ गयीं । यूरोपीय एकीकरण की प्रक्रिया का विकास दो दिशाओं में हुआ है । पहला इस प्रक्रिया में सम्मिलित देशों की संख्या का विस्तार तथा दूसरा एकीकरण के ढाँचे में बदलाव तथा परिस्थितियों के अनुसार उसका विस्तार ।
(II) सदस्यता का विस्तार (Subscription Extension):
यूरोप के छ: देश- बेल्जियम, इटली, फ्रांस, पश्चिमी जर्मनी, लक्जमबर्ग, तथा नीदरलैण्ड यूरोपीय संघ के संस्थापक देश हैं ।
सहयोग की सफलता से प्रभावित होकर झर यूरोपीय देशों ने भी बाद में इसकी सदस्यता ग्रहण की:
(i) 1973 में ब्रिटेन, डेनमार्क तथा आयरलैण्ड ने यूरोपीय आर्थिक समुदाय की सदस्यता ग्रहण की ।
(ii) 1981 में यूनान ने तथा 1986 में पुर्तगाल व स्पेन ने इसकी सदस्यता ग्रहण कर ली । अत: शीतयुद्ध की समाप्ति तक यूरोपीय आर्थिक समुदाय की सदस्यता बढ़कर 12 हो गयी थी ।
वास्तव में यूरोपीय आर्थिक समुदाय की सदस्यता में व्यापक विस्तार सोवियत साम्यवादी व्यवस्था के समाप्ति के बाद तब हुआ जब पूर्वी यूरोप के देशों तथा सोवियत संघ से टूट कर आये नये गणराज्यों ने लोकतन्त्र तथा नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था को अपनाया । परिणामत: पूर्वी यूरोप के देशों तथा पूर्व सोवियत गणराज्यों ने भी यूरोपीय संघ की सदस्यता ग्रहण की ।
(iii) 1995 में फिनलैण्ड, आस्ट्रिया तथा स्वीडन ने यूरोपीय संघ की सदस्यता प्राप्त की ।
(iv) 2004 में एक साथ पूर्वी यूरोप के 10 राज्यों ने यूरोपीय संघ में प्रवेश किया- चेक गणराज्य, साइप्रस, स्टोनिया, लाटबिया, लिथुआनिया, हंगरी, माल्टा, पौलैण्ड स्लोवानिया तथा स्लोवाकिया ।
(v) 2007 में बुल्गारिया तथा रोमानिया यूरोपीय संघ के सदस्य बने ।
(vi) 2013 में क्रोसिया की सदस्यता के बाद यूरोपीय संघ की कुल सदस्य संख्या 28 हो गयी । वर्तमान में उक्त 28 देश ही इसके सदस्य हैं ।
इस प्रकार यूरोपीय संघ ने उत्तर शीतयुद्ध काल में अपना विस्तार सम्पूर्ण यूरोप में कर लिया है । पूरब में इसकी सीमाएँ सोवियत संघ तक पहुँच गयी हैं । तुर्की को यूरोप का बीमार व्यक्ति कहा जाता है । वह लम्बे समय से यूरोपीय संघ की सदस्यता प्राप्त करने के लिए प्रयासरत रहा है परन्तु यूरोप से राजनीतिक व सांस्कृतिक भिन्नता के कारण उसे अभी तक उसे सदस्यता प्राप्त नहीं हो सकी ।
(III) यूरोपीय संघ में ढाँचागत बदलाव (Structural Changes in the European Union):
वैश्वीकरण की नई चुनौतियों का सामना करने के लिए यूरोपीय संघ के ढाँचे में भी परिवर्तन किया गया है तथा आवश्यकतानुसार सहयोग की नई संस्थाओं व प्रणालियों का विकास किया गया है ।
इनका उल्लेख आगे किया गया है:
1. मास्ट्रिक्ट संधि (Maastricht Treaty), 1993:
सबसे महत्वपूर्ण बदलाव 1993 में लागू की गई इस सन्धि के द्वारा किये गये-
(i) ‘यूरोपीय आर्थिक समुदाय’ का नाम बदलकर इसका नया नाम ‘यूरोपीय समुदाय’ कर दिया गया ।
(ii) संधि की व्यवस्था के अनुसार यूरोपीय संघ के तीन स्तंभ निर्धारित किए गए हैं । इन स्तंभों का निर्धारण उनके कार्यक्षेत्र के आधार पर किया गया ।
पहले स्तंभ में विभिन्न प्रकार के यूरोपीय समुदाय सम्मिलित थे जो अपने-अपने क्षेत्रों में स्वतंत्र रूप से सहयोग के कार्यक्रमों का संचालन कर सकते थे ।
यूरोपियन समुदायों की संख्या तीन थी:
a. यूरोपियन समुदाय
b. यूरोपियन कोयला तथा स्टील समुदाय तथा
c. यूरोपियन आणविक ऊर्जा समुदाय (EURATOM) ।
इसमें से यूरोपीय कोयला तथा स्टील समुदाय की संधि की अवधि समाप्त होने के कारण 2002 में यह समुदाय भंग हो गया । इन समुदायों द्वारा स्वतंत्र रूप से आर्थिक सामाजिक तथा पर्यावरण संबंधी सहयोग की नीतियों व कार्यक्रमों के संचालन का अधिकार दिया गया था । वास्तव में इन समुदायों का अपना एक स्वतंत्र कानूनी अस्तित्व था ।
दूसरा स्तंभ ‘सामान्य विदेश तथा सुरक्षा नीति’ (CFSP) के नाम से जाना जाता है । इसका मुख्य दायित्व विदेश नीति तथा सैनिक मामलों में समन्वय स्थापित करना है ।
तीसरा स्तंभ ‘आपराधिक मामलों में पुलिस तथा न्यायिक सहयोग’ (PJCC) के नाम से जाना जाता है । इसका मुख्य कार्य आपराधिक मामलों में सदस्य देशों के मध्य सहयोग व समन्वय स्थापित करना है । इस स्तंभ को मूल रूप से ‘न्याय तथा गृह मामले’ (JHA) के नाम से जाना जाता था ।
इन तीनों स्तंभों की शक्तियाँ समान नहीं थीं । पहले स्तंभ का स्वतंत्र कानूनी अस्तित्व था तथा वह सदस्य राष्ट्रों से स्वतंत्र रहकर सहयोग कार्यक्रमों का संचालन कर सकता था । लेकिन दूसरे और तीसरे स्तंभ की शक्तियाँ सीमित थी क्योंकि इन्हें अपने अधीन आने वाले मामलों का संचालक करने के लिये सदस्य राष्ट्रों की अलग सहमति लेनी पड़ती थी ।
2. एमस्टरडम संधि (Amsterdam’s Treaty), 1997 तथा नाइस सन्धि (Nice Treaty), 2001:
1997 में प्रभावी एमस्टरडम संधि तथा 2001 में प्रभावी नाइस (Nice) संधि द्वारा इन तीनों स्तंभों के आपसी अधिकार क्षेत्र में परिवर्तन किया गया । एमस्टरडम संधि द्वारा तीसरे स्तंभ के अन्तर्गत आने वाले कतिपय मामलों जैसे राजनीतिक शरण, आव्रजन, तथा सिविल मामलों में न्यायिक सहयोग को पहले स्तंभ के अधिकार क्षेत्र में शामिल कर दिया गया ।
3. संवैधानिक संधि (Constitutional Treaty), 2004:
यूरोपीय समुदाय के एक अलग संविधान के निर्माण के उद्देश्य हेतु 2004 में संवैधानिक संधि का मसौदा तैयार किया गया था । इसके द्वारा यूरोपीय विदेश मंत्री के पद की भी स्थापना की गई । इसको लागू करने की शर्त यह थी कि सभी सदस्य देशों की जनता द्वारा इसका अनुमोदन किया जाये । लेकिन 2005 में फ्रांस तथा नीदरलैण्ड के नागरिकों ने इस संधि को अस्वीकार कर दिया, जिससे यह संधि 2005 में समाप्त हो गई तथा कभी अस्तित्व में नहीं आ पायी ।
4. लिस्बन सन्धि (Lisbon Treaty), 2007:
यूरोपीय एकीकरण के ढाँचे में बदलाव की दृष्टि से यह सन्धि सबसे महत्वपूर्ण है । सभी सदस्य देशों के अनुमोदन के उपरान्त यह संधि 1 दिसम्बर 2009 को प्रभाव में आ गई तथा इसके पूर्व की सभी सन्धियाँ समाप्त हो गई ।
(i) इस संधि के द्वारा यूरोपीय समुदाय का नाम बदलकर यूरोपीय संघ (European Union) कर दिया गया, जो इसका वर्तमान नाम है । साथ ही संघ को एक स्वतंत्र कानूनी व्यक्तित्व प्रदान किया गया । अत: अब यूरोपीय संघ अन्य देशों के साथ एक राष्ट्र की तरह सम्बन्ध स्थापित कर सकता है तथा अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर अपना स्वतंत्र प्रतिनिधित्व कर सकता है ।
(ii) लिस्बन संधि ने देशों के मध्य सहयोग से सम्बन्धित सभी विषयों के अधिकार क्षेत्र (Competence) को तीन भागों में विभाजित कर दिया ।
(अ) पहले भाग में यूरोपीय संघ के एकमात्र अधिकार क्षेत्र (Exclusive Competence) में आने वाले पाँच विषयों को शामिल किया गया-
i. कस्टम यूनियन,
ii. सदस्य देशों के आन्तरिक बाजार के संचालन हेतु आवश्यक प्रतियोगिता नियमों का निर्धारण करना,
iii. उन सदस्य देशों की मौद्रिक नीति का निर्धारण जिन्होंने यूरो करेंसी को अपना लिया है, अब तक यूरोपीय संघ के 17 देशों ने यूरो को अपनी मुद्रा के रूप में अपना लिया है ।
iv. सामान्य मछली उत्पादन (Fisheries) नीति के अन्तर्गत समुद्री जैविक संसाधनों के संरक्षण मामले,
v. सदस्य देशों के लिए सामान्य व्यावसायिक नीति । ये सभी मामले ऐसे हैं जिन में यूरोपीय संसद द्वारा कानूनी व्यवस्था किए जाने के बाद यूरोपीय संघ को अकेले ही कार्यवाही करने तथा अन्तर्राष्ट्रीय समझौते करने का अधिकार है ।
(ब) दूसरे भाग में उन मामलों को शामिल किया गया है जिन पर यूरोपीय संघ तथा सदस्य राष्ट्रों को साझा अधिकार क्षेत्र (Shared Competence) प्राप्त है । ये मामले दो प्रकार के हैं । प्रथम श्रेणी में वे मामले आते हैं जिन पर यदि यूरोपीय संघ ने अपना अधिकार क्षेत्र का प्रयोग कर लिया है तो बाद में सदस्य राष्ट्र अपने अधिकार क्षेत्र का प्रयोग नहीं कर सकते हैं ।
ये मामले हैं- सदस्य देशों के आन्तरिक बाजार, सामाजिक नीति, आर्थिक सामाजिक तथा क्षेत्रीय एकता समुद्री जैविक संसाधनों को छोड्कर कृषि तथा मछली उत्पादन पर्यावरण उपभोक्ता संरक्षण, यातायात, ट्रान्स यूरोपीय नेटवर्क स्वतंत्रता सुरक्षा तथा न्याय के क्षेत्र तथा जनस्वास्थ्य के सम्बन्ध में सामान्य सुरक्षा के मामले ।
साझा अधिकार क्षेत्र की दूसरी श्रेणी में वे मामले आते हैं जिन पर यूनियन द्वारा अपने अधिकार क्षेत्र को प्रयोग करने के बावजूद भी सदस्य देशों द्वारा अपने अधिकार क्षेत्र का प्रयोग किया जा सकता है । इस श्रेणी में सम्मिलित मामले हैं- अन्तरिक्ष तकनीकि तथा विकास सम्बन्धी शोध विकास सहयोग तथा मानवीय सहायता ।
(स) तीसरे भाग में वे मामले सम्मिलित हैं जिनमें यूरोपीय यूइनयन को समर्थक अधिकार क्षेत्र (Supporting Competence) प्राप्त है । अर्थात् जिनके बारे में यूरोपीय संघ सदस्य राज्यों को सहयोग देने के लिए उनके अनुसार कार्यवाही कर सकता है । ये मामले हैं-मानवीय स्वास्थ्य का सुधार एवं संरक्षण उद्योग संस्कृति पर्यटन शिक्षा युवा खेलकूद एवं व्यावसायिक प्रशिक्षण नागरिक संरक्षण तथा प्रशासनिक सहयोग । वर्तमान में यूरोपीय संघ का उक्त ढाँचा ही कार्यरत् है ।
3. यूरोपीय संघ के उद्देश्य (Objectives of European Union):
यूरोपीय संघ के मौलिक उद्देश्यों का उल्लेख लिस्बन सन्धि, 2007 की प्रस्तावना तथा उसके अनुच्छेद 3 में किया गया है ।
ये उद्देश्य निम्नलिखित हैं:
1. यूरोप में शांति जनकल्याण तथा यूरोपीय संघ के मूल्यों को प्रोत्साहित करना ।
2. संघ के नागरिकों को स्वतंत्रता सुरक्षा तथा न्याय प्रदान करना ।
3. सदस्य राष्ट्रों के मध्य आर्थिक सामाजिक तथा क्षेत्रीय एकीकरण को प्रोत्साहित करना ।
4. यूरोपीय संघ की जनता के मध्य एकता को मजबूत करना तथा उसकी इतिहास संस्कृति व परम्पराओं का सम्मान करना ।
5. सदस्य देशों की अर्थव्यवस्थाओं को मजबूत बनाना तथा उनके मध्य समन्वय बनाते हुये एक आर्थिक और मौद्रिक संघ की स्थापना करना ।
6. जीवन्त विकास के सिद्धान्त के आधार पर यूरोप में आर्थिक व सामाजिक उन्नति को बढ़ाना तथा आर्थिक एकीकरण के लक्ष्य को प्राप्त करना ।
7. यूरोपीय महाद्वीप में विभेदों को समाप्त करना तथा भविष्य के यूरोप के निर्माण के लिए ठोस आधार तैयार करना ।
8. यूरोपीय संघ में सामान्य सुरक्षा व विदेश नीति को लागू करना ताकि यूरोपीय पहचान मजबूत हो सके तथा विश्व और यूरोप में शांति सुरक्षा व उन्नति को बढ़ावा मिल सके ।
4. यूरोपिय संघ के प्रमुख अंग तथा संस्थाएँ (Major Organizations of the European Union):
यूरोपीय संघ के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए निम्न सात संस्थाओं की स्थापना की गयी है:
1. यूरोपीय संसद (European Parliament):
751 सदस्यों वाली यूरोपीय संसद का निर्वाचन हर 5 साल बाद सदस्य देशों के नागरिकों द्वारा किया जाता है । प्रत्येक सदस्य देश के लिए यूरोपीय संसद में सीटें आवंटित होती हैं । यद्यपि यूरोपीय संसद के सदस्यों का निर्वाचन राष्ट्रीय आधार पर होता है तथापि वे राष्ट्रीयता के आधार पर नहीं बल्कि एक राजनीतिक समूह के आधार पर कार्य करते हैं । यह यूरोपीय संघ का विधायी अंग है ।
संसद का मुख्य कार्य यूरोपीय संघ के अधिकार क्षेत्र में आने वाले विषयों के बारे में कानूनों का निर्माण व समयानुसार उनका संशोधन करना है । यह अपने विधायी कार्यों का निष्पादन यूरोपीय संघ की परिषद् के साथ मिलकर करती है ।
2. यूरोपीय संघ की परिषद (Council of the European Union):
इसमें सदस्य देशों के मंत्री सदस्य होते हैं । यह यूरोपीय संसद के साथ मिलकर विधायी कार्यों का निष्पादन करती है । यह यूरोपीय संघ की आधी संसद की तरह है । इसके अतिरिक्त यह परिषद् सामान्य विदेश एवं सुरक्षा नीति के सम्बन्ध में कार्यपालिका के दायित्वों का निर्वाह भी करती है ।
3. यूरोपीय आयोग (Council of the European Union):
सही अर्थों में यूरोपीय आयोग ही संघ की कार्यपालिका है । सैद्धान्तिक अर्थों में आयोग यूरोपीय संघ का सामूहिक प्रतिनिधित्व करता है । इसका मुख्य कार्य सहयोग के लिए कानूनी उपायों का मसौदा तैयार करना तथा यूरोपीय संघ की दिन प्रतिदिन की कार्यवाहियों का संचालन करना है । इसमें प्रत्येक देश से एक प्रतिनिधि होता है । जिसे आयुक्त कहा जाता है ।
4. यूरोपीय परिषद (European Council):
यूरोपियन परिषद् को यूरोपीय संघ की सर्वोच्च राजनीतिक सत्ता कहा जाता है, जबकि यूरोपीय संघ की परिषद संघ का अर्धविधायी अंग है । यूरोपीय परिषद् में इसका एक अध्यक्ष, यूरोपीय आयोग का अध्यक्ष तथा प्रत्येक देश से एक प्रतिनिधि होता है । यह प्रतिनिधि आमतौर पर उस देश का राष्ट्राध्यक्ष अथवा शासनाध्यक्ष होता है ।
एक सामूहिक संस्था के रूप में यह अन्तर्राष्ट्रीय समझौतों व संधियों का अनुमोदन करती है तथा संघ के सदस्यों अथवा उसकी संस्थाओं के मध्य विवादों तथा अन्य राजनीतिक संकटों का समाधान करती है ।
5. यूरोपीय संघ का न्यायालय (European Court of Justice):
संघ का अपना एक अलग न्यायालय भी है, जिसका मुख्य कार्य संघ के कानूनों व संधियों को लागू करना तथा उनकी व्याख्या करना है ।
6. यूरोपीय केन्द्रीय बैंक (European Central Bank):
यूरोपीय संघ का एक केन्द्रीय बैंक भी है जो संघ की मौद्रिक नीति बनाता है तथा उसका प्रशासन भी करता हैं ।
7. यूरोपीय लेखा परीक्षकों का कोर्ट (Court of European Auditors):
यह वित्तीय मामलों में यूरोपीय संघ की एक महत्त्वपूर्ण संस्था है । इसके महत्वपूर्ण कार्य हैं- बजट का समुचित लेखा तैयार करना, लेखों की विश्वसनीयता को सुनिश्चित करना, तथा वित्तीय जालसाजी को रोकना ।
5. यूरोपीय संघ एक उभरती हुई आर्थिक शक्ति के रूप में (European Union as an Emerging Economic Power):
यूरोप के देशों के आर्थिक एकीकरण के परिणामस्वरूप यूरोपीय संघ को एक स्वतंत्र वैधानिक स्वरूप प्राप्त हो गया है तथा उसे एक सामूहिक आर्थिक समुदाय के रूप में मान्यता प्राप्त हो गयी है । इसी कारण यूरोपीय संघ ने विभिन्न देशों के साथ स्वतंत्र कूटनीतिक सम्बन्ध भी स्थापित किए हैं ।
साथ ही संघ को विश्व की महत्वपूर्ण संस्थाओं जैसे संख्या राष्ट्र संघ, विश्व व्यापार संगठन, जी-8 समूह तथा जी-20 समूह आदि में स्वतंत्र प्रतिनिधित्व भी प्राप्त है । फिर भी यूरोपीय संघ के सदस्य देशों का इन संस्थाओं में अपना व्यक्तिगत प्रतिनिधित्व अलग से होता है ।
यूरोपीय संघ के 17 देशों में 2002 से कॉमन करेन्सी ‘यूरो’ को अपना लिया गया है । शीत युद्ध की समाप्ति के बाद गत दो दशकों में एक समुदाय के रूप में यूरोपीय संघ विश्व की एक उभरती हुई शक्ति बन गया है । वर्तमान में यूरोपीय संघ की जनसंख्या यद्यपि 507 मिलियन ही है, जो विश्व की जनसंख्या का सात प्रतिशत है ।
फिर भी विश्व के कुल सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में 2009 में इसकी भागीदारी 21 प्रतिशत है । 2013 में यूरोपीय संघ का कुल सकल घरेलू उत्पाद 17.2 ट्रिलियन डॉलर था । यदि यूरोपीय संघ के सकल घरेलू उत्पाद को क्रय शक्ति की समतुल्यता (Purchasing Power Parity) के मापदण्ड से देखा जाए तो अमेरिका व चीन के बाद वह विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है ।
विश्व की कुल जनसंख्या की केवल 7 प्रतिशत आबादी यूरोपीय संघ में निवास करती है, लेकिन विश्व के कुल व्यापार में यूरोपीय संघ का हिस्सा 20 प्रतिशत है । एक रिपोर्ट के अनुसार विश्व के कुल 223 ट्रिलियन सम्पत्ति का 30 प्रतिशत हिस्सा यूरोपीय संघ का है । विश्व की 500 सबसे बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में से 161 यूरोपीय संघ में स्थित हैं ।
यूरोपीय संघ में 2013 में प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद (GDP) 35,116 डॉलर है जो कि अन्य क्षेत्रों की तुलना में बहुत अधिक है। इस दृष्टि से यूरोपीय संघ का विश्व में 14वाँ स्थान है । मानव विकास सूचकांक की दृष्टि से यूरोपीय संघ का विश्व में 15वाँ स्थान है ।
2013 में 27 प्रतिशत जनसंख्या ब्राडबैण्ड इण्टरनेट कनेक्शन की सुविधा से युक्त है । उच्च स्तरीय ढाँचागत सुविधाओं व नागरिक सुविधाओं के कारण नागरिकों का जीवन स्तर विश्व के अन्य देशों की तुलना में बहुत आगे है । विज्ञान व तकनीकि के विकास तथा शोध में यूरोपीय संघ आगे निकल चुका है ।
गरीब व विकासशील देशों के विकास में भी यूरोपीय समुदाय की भूमिका महत्त्वपूर्ण है । इन देशों को दी जाने वाली सरकारी विकास सहायता की मात्रा की दृष्टि से यूरोपीय संघ प्रथम स्थान पर है । वर्ष 2012 में विश्व स्तर पर विकसित देशों द्वारा दी गयी कुल विकास सहायता का 52 प्रतिशत यूरोपीय संघ द्वारा दिया गया था । जबकि इसी वर्ष विकास सहायता में अमेरिका का हिस्सा 25.6, जापान का हिस्सा 12.9 तथा अन्य देशों का हिस्सा 9 प्रतिशत था ।
उल्लेखनीय है कि यूरोपीय संघ के कई देश 2008 से चल रहे विश्व आर्थिक संकट की चपेट में हैं । इस संकट के कारण कई देशों में आर्थिक मंदी, सरकारी कर्ज में बढ़ोतरी, विकास दर में कमी तथा बेरोजगारी जैसी चुनौतियाँ खड़ी हो गयी हैं । लेकिन यह संकट अस्थायी है तथा इसके समाधान के साथ यूरोपीय संघ विकास की पुरानी रफ्तार पकड़ लेगा ।