Read this article in Hindi to learn about:- 1. वैश्वीकरण के पूर्व भारत की अर्थव्यवस्था का स्वरूप (Nature of India’s Economy before Globalization) 2. भारत की आर्थिक उदारवादी नीति (India’s Economic Liberal Policy), 1991 3. भारत में वैश्वीकरण के सकारात्मक परिणाम (Positive Results of Globalization in India) and Other Details.

Contents:

  1. वैश्वीकरण के पूर्व भारत की अर्थव्यवस्था का स्वरूप (Nature of India’s Economy before Globalization)
  2. भारत की आर्थिक उदारवादी नीति (India’s Economic Liberal Policy), 1991
  3. भारत में वैश्वीकरण के सकारात्मक परिणाम (Positive Results of Globalization in India)
  4. भारत में वैश्वीकरण का विरोध (Opposition to Globalization in India)
  5. वैश्वीकरण तथा अन्तर्राष्ट्रीयकरण में अंतर (Differences in Globalization and Internationalization)


1. वैश्वीकरण के पूर्व भारत की अर्थव्यवस्था का स्वरूप (Nature of India’s Economy before Globalization):

भारत विश्व का दूसरा सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश है तथा शासन प्रणाली की दृष्टि से विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है । 1947 में आजादी के बाद भारत में मिश्रित अर्थव्यवस्था को अपनाया गया था जिसमें निजी क्षेत्र का अस्तित्व तो था लेकिन अर्थव्यवस्था में कमाण्डिंग हाइट्‌स की स्थिति सरकारी क्षेत्र को ही प्राप्त थी ।

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निजी क्षेत्र पर लाइसेन्सिंग प्रणाली के माध्यम से नियंत्रण स्थापित किया गया था । पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से संचालित विकास प्रक्रिया में आर्थिक विकास के साथ-साथ न्याय व समानता के लक्ष्यों को भी प्राथमिकता प्रदान की गयी थी । संक्षेप में 1950 तथा 1990 के मध्य भारत में राज्य निर्देशित अर्थव्यवस्था के अन्तर्गत योजनागत् विकास की नीति को अपनाया गया था ।

भारत के प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू इसी विकास नीति के पक्षधर थे, क्योंकि तत्कालीन परिस्थितियों में भारत के तीव्र आर्थिक विकास के लिये यही सर्वाधिक उपयुक्त विकास नीति थी । इसमें विकास व सामाजिक न्याय के मध्य संतुलन स्थापित करने का प्रयास किया गया था ।

इस अवधि में मिश्रित अर्थव्यवस्था के अन्तर्गत कई उपलब्धियाँ प्राप्त की गयीं जैसे-विकास के लिये आवश्यक बड़े उद्योगों की स्थापना तथा ढाँचागत सुविधाओं का विकास विज्ञान व तकनीकि के विकास हेतु आवश्यक संस्थाओं तथा सुविधाओं का विकास हरित क्रान्ति के माध्यम से कृषि उत्पादन में वृद्धि, कमजोर वर्गों के लिये गरीबी निवारण तथा रोजगार के कार्यक्रमों का संचालन शिक्षा स्वास्थ्य तथा अन्य आवश्यक सुविधाओं का विकास आदि ।


2. भारत की आर्थिक उदारवादी नीति (India’s Economic Liberal Policy), 1991:

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इन उपलब्धियों के बावजूद राज्य निर्देशित अर्थव्यवस्था प्रतियोगिता तथा कुशलता की दृष्टि से वैश्विक मापदण्डों के अनुकूल नहीं थी । अत: 1980 के दशक के अन्त में भारतीय अर्थव्यवस्था की कमजोरियाँ उजागर होने लगीं तथा भारत को गंभीर आर्थिक सकट का सामना करना पड़ा । दूसरे 1991 के पहले भारत ने आर्थिक आत्मनिर्भरता प्राप्त करने के लिये विदेशी आयात को प्रोत्साहित नहीं किया गया था । परिणामत: भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व अर्थव्यवस्था से घनिष्ठ रूप से जुड़ी हुई नहीं थी ।

तीसरे, 1991 में सोवियत संघ के विघटन के साथ ही निर्देशित समाजवादी अर्थव्यवस्था के स्थान पर बाजारू प्रतियोगिता पर आधारित उदारवादी अर्थव्यवस्था को सम्पूर्ण विश्व में श्रेष्ठ माना जाने लगा था ।

उक्त परिस्थितियों के आलोक में 1991 में भारत सरकार द्वारा आर्थिक उदारवादी नीति को लागू किया गया । इस नीति का मुख्य उद्देश्य भारतीय अर्थव्यस्था को विश्व अर्थव्यवस्था के साथ जोड़ना था तथा अर्थव्यवस्था में राज्य के नियंत्रण को उदार बनाकर बाजारू प्रतियोगिता का समावेश करना था ।

इसके अन्तर्गत निम्न उपाय अपनाये गये:

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(i) उद्योगों की लाइसेंसी नीति को उदार बनाया गया तथा सरकार के लिये आरक्षित उद्योगों को निजी क्षेत्र के लिये खोल दिया गया । अब केवल रेल प्रतिरक्षा तथा परमाणु ऊर्जा से सम्बन्धित उद्योग ही राज्य के नियंत्रण में बचे हैं ।

(ii) भारतीय उद्योगों में विदेशी निवेश को बढ़ावा दिया गया तथा विदेशों में भारतीय निजी व सरकारी निवेश को सरल बनाया गया ।

(iii) आयात-निर्यात नीति को विश्व व्यापार नियमों के अनुसार सरल व उदार बनाया गया, जिससे भारत के अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में वृद्धि हुई । बाद में भारत ने कई देशों के साथ व्यापार को बढ़ाने के लिये मुक्त व्यापार समझौतों पर भी हस्ताक्षर किये । इनमें दक्षिण एशिया मुक्त व्यापार समझौता, 2006, भारत आसियान मुक्त व्यापार समझौता, 2010 तथा श्रीलंका, दक्षिण कोरिया, सिंगापुर व जापान के साथ किये गये मुक्त व्यापार समझौते प्रमुख हैं ।

इस प्रकार भारत की अर्थव्यवस्था विश्व अर्थव्यवस्था से घनिष्ठ रूप से जुड़ गयी, आर्थिक क्षेत्र में सरकार का नियंत्रण कम हुआ तथा आर्थिक गतिविधियों में बाजारू प्रतियोगिता का समावेश हुआ ।


3. भारत में वैश्वीकरण के सकारात्मक परिणाम (Positive Results of Globalization in India):

1991 में आर्थिक उदारीकरण की नीति अपनाने के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व की अर्थव्यवस्था से जुड़ गयी है तथा विकास की दृष्टि से इसके कई सकारात्मक परिणाम सामने आये हैं । गत 23 वर्षों से भारत ने लगभग 7-8 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि दर अर्जित की है तथा भारत की गणना आज विश्व की उभरती हुई शक्तियों में की जा रही है ।

भारत वर्तमान में सकल राष्ट्रीय उत्पाद की वर्तमान कीमतों के आधार पर विश्व की 10वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है । लेकिन यदि विश्व की अन्य मुद्राओं की तुलना में भारतीय मुद्रा की क्रय शक्ति के आधार पर भारत के सकल राष्ट्रीय उत्पाद की गणना की जाये तो भारत अमेरिका-चीन के बाद विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है ।

भारत के विकास में उद्योगों के साथ-साथ सेवा क्षेत्र विशेषकर सॉफ्टवेअर सेवा का विशेष योगदान है । इस अवधि में भारत में बेहतर ढाँचागत सुविधाओं के साथ-साथ तकनीकि का विकास हुआ है । प्रतिव्यक्ति आय में वृद्धि के साथ गरीबी की मात्रा में कुछ कमी आयी है ।

2012 में भारत विश्व का 19वाँ सबसे बड़ा निर्यातक व 10वाँ सबसे बड़ा आयातक देश बन गया है । 1991 के पहले विश्व व्यापार में भारत की हिस्सेदारी एक प्रतिशत से भी कम थी, लेकिन 2012 में यह बेदारी बढ्‌कर तीन प्रतिशत हो गयी है । आर्थिक सुधारों के पूर्व भारत विदेशी पूंजी निवेश नगण्य था, लेकिन 2000 तथा 2010 के मध्य भारत में 178 बिलियन डॉलर का विदेशी पूँजी निवेश किया गया ।

इनमें मारीशस का हिस्सा 42 प्रतिशत है । भारत में अन्य बड़े पूँजी निवेशक देश हैं- सिंगापुर, अमेरिका, ब्रिटेन तथा नीदरलैण्ड । विदेशी पूँजी व तकनीकि ने देश के आर्थिक विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है ।

भारत में सामाजिक सुरक्षा नेट (Social Safety Net):

हम जानते हैं कि वैश्वीकरण व उसकी अर्थव्यवस्था में बाजारू शक्तियों का प्रभाव बढ़ जाता है तथा सरकार की कल्याणकारी भूमिका कम हो जाती है । इससे समाज का कमजोर वर्ग सबसे अधिक प्रभावित होता है । भारत की एक-तिहाई जनता गरीबी की रेखा के नीचे जीवन-यापन करती है ।

ग्रामीण क्षेत्रों में छोटे किसान व मजदूर जीवन की मौलिक आवश्यकताओं से वंचित हैं । ऐसी स्थिति से निबटने के लिये केन्द्र सरकार व राज्य सरकारों द्वारा अनेक गरीबी निवारण तथा रोजगार कार्यक्रमों व कल्याणकारी योजनाओं का संचालन किया जाता हैं ।

ऐसे कार्यक्रमों को सामाजिक सुरक्षा नेट के नाम से जानते हैं, क्योंकि उनका उद्देश्य कमजोर वर्गों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करना होता है । उदारहण के लिये भारत की केन्द्र सरकार ने 2005 में ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी की समस्या के समाधान के लिये महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी कार्यक्रम अथवा मनरेगा लागू किया था ।

इसी तरह गरीब जनता को सस्ती दरों पर खाद्यान्न उपलब्ध कराने के लिये 2013 में संसद द्वारा खाद्य सुरक्षा अधिनियम पारित किया गया था । इसी तरह कमजोर वर्गों के लिये अन्य कल्याणकारी योजनाएं भी लागू की गयी हैं ।

अमेरिकी वित्तीय कम्पनी गोल्डमैन सैक्स ने ब्राजील, रूस तथा चीन के साथ भारत की गणना विश्व की चार उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं में की है । इन्हें ब्रिक्स के नाम से जाना जाता है ।

कम्पनी का अनुमान है कि 2050 तक ये देश पश्चिमी देशों व अमेरिका को पीछे छोड़ कर विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाएँ होंगे । इसके साथ ही भारत विश्व की 20 सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के समूह जी-20 का भी संस्थापक सदस्य है । इसके माध्यम से भारत विश्व अर्थव्यवस्था के प्रबन्धन में भी अहम् भूमिका निभा रहा है ।

विद्वानों का मानना है कि शीघ्र ही जी-20 समूह वैश्वीकरण के पूर्व में स्थापित धनी देशों के समूह जी-8 का स्थान ले लेगा । भारत ब्राजील तथा दक्षिण अफ्रीका के साथ 2003 में स्थापित तीन बड़े विकासशील देशों के समूह इब्सा का भी संस्थापक सदस्य है । आज भारत विश्व व्यापार संगठन की व्यापार वार्ताओं में विकासशील देशों का नेतृत्व करने की स्थिति में है ।


4. भारत में वैश्वीकरण का विरोध (Opposition to Globalization in India):

भारत ने 1991 में ही आर्थिक उदारीकरण की नीति को लागू कर दिया था । यह भारत की पूर्व की राज्य निर्देशित मिश्रित अर्थव्यवस्था से नितान्त भिन्न नीति थी । यद्यपि इसके कतिपय सकारात्मक परिणाम भी सामने आये हैं, लेकिन इसके कतिपय नकारात्मक प्रभाव अथवा संभावित दुष्परिणामों के कारण भारत में वैश्वीकरण का कई समूहों द्वारा विरोध भी किया गया है ।

भारत में वैश्वीकरण का विरोध तीन प्रकार के समूहों द्वारा किया जा रहा है:

1. बामपंथी दल व श्रमिकों के समूह है, जो वैश्विक पूँजीवाद में निजीकरण व बाजारू शक्तियों के दुष्प्रभावों का तर्क हैं । उनका मानना है कि वैश्विक पूंजीवाद धनिक वर्गों हितों पूर्ति करता है । इसमें धनी अधिक धनी तथा निर्धन अधिक निर्धन होता जाता है । सरकार निजीकरण को बढ़ावा देती है तथा उसकी कमजोर वर्गों के कल्याण की क्षमता कम हो जाती है । अन्तर्राष्ट्रीय स्तर भी पूँजीवाद विकसित देशों के हितों की पूर्ति करता है ।

भारत के श्रमिक संगठनों ने भारत की उदारीकृत अर्थव्यवस्था के अन्तर्गत बढ़ती कार्मिकों की छटनी मजदूरी की बढ़ोत्तरी आदि के सम्बन्ध में समय-समय पर विरोध प्रदर्शन किये है । इन समूहों का तर्क है कि वैश्वीकरण कारण गरीबी, बेरोजगारी, महँगाई तथा आर्थिक असमानता में वृद्धि हुई है तथा वैश्वीकरण धनी वर्गों तथा उद्योगपतियों को ही प्राप्त हुआ है ।

क्या है बौद्धिक सम्पदा? (What is Intellectual Property?):

जब कोई संस्था या व्यक्ति किसी तकनीकि या वस्तु की खोज किरण है तो उसे उस वस्तु व तकनीकि पर कुछ अधिकार प्राप्त हो जाते हैं । इन अधिकारों को बौद्धिक सम्पदा कहते हैं । दूसरा, व्यक्ति या संस्था उस वस्तु या तकनीकि शोधकर्ता की अनुमति के मिल उसका उपयोग नहीं कर सकता । इसे पैटेंट अधिकार के नाम से जानते हैं ।

उसके उपयोग की अनुमति लेते समय शोधकर्ता को निर्धारित फीस देनी होती है । विकसित देशों में ऐसी खोजें अधिक हुई हैं । अत: 1994 में इन देशों ने बौद्धिक सम्पदा को पर नियमों के दायरे में लाने का प्रयास किया तथा सफल हो गये । तभी से बौद्धिक सम्पदा पर व्यापार के नियम लागू होते हैं । डंकल प्रस्तावों के द्वारा बौद्धिक सम्पदा को विश्व व्यापार के दायरे में लाया गया, जिसका भारत में तीव्र विरोध किया गया ।

2. भारत ने यद्यपि वैश्वीकरण के युग में आर्थिक प्रगति दर्ज की है, लेकिन यह प्रगति उद्योगों व सेवा क्षेत्र में ही सीमित है । कृषि की विकास दर अत्यंत धीमी रही है तथा वैश्वीकरण का भारत की कृषि पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है । 1986 तथा 1994 के बीच जब विश्व व्यापार वार्ताओं में डंकल प्रस्तावों के माध्यम से बौद्धिक सम्पदा तथा सेवा क्षेत्र को व्यापार नियमों के दायरे में लाया गया था तो भारत में इसका तीव्र विरोध किया गया था ।

विश्व बैंक के अनुसार 2010 में भारत की 33 प्रतिशत जनसंख्या गरीबी की रेखा के नीचे जीवन-यापन करती है । कतिपय विदेशी कम्पनियों द्वारा नीम पर उसके औषधीय गुणों के कारण पैटेंट अधिकार प्राप्त करने का प्रयास किया गया था, जिसका किसानों द्वारा विरोध किया गया था ।

उल्लेखनीय है कि नीम पर किसी संस्था या व्यक्ति द्वारा पैटेंट अधिकार मिलने के बाद कोई भी किसान बिना उसकी अनुमति के नीम का औषधि के रूप में प्रयोग नहीं कर सकता है । यह भारत में नीम के औषधीय गुणों के परम्परागत ज्ञान पर विदेशी कब्जे का प्रयास था ।

दक्षिण भारत के किसानों द्वारा विदेशी कम्पनियों से महँगे बीज खादें व कीटनाशक खरीदे गये लेकिन फसल अच्छी न होने के कारण किसान कर्ज के बोझ में दब गये । परिणामत: आन्ध्र प्रदेश, महाराष्ट्र तथा अन्य दक्षिणी राज्यों के किसानों द्वारा बड़ी संख्या में आत्महत्या की घटनायें सामने आयी हैं । ये बीज ऐसे हैं कि उन्हें दोबारा प्रयोग नहीं लाया जा सकता है तथा हर बार नये बीज खरीदने होते हैं ।

कृषि क्षेत्र में निजी क्षेत्र के प्रवेश के कारण कांट्रेक्ट फार्मिंग की शुरुआत हुई जो किसानों के शोषण का एक नया तरीका है । वैश्वीकरण के युग में विकास के नाम पर किसानों की भूमि का अधिग्रहण किया जा रहा है । उत्तर प्रदेश सहित अन्य राज्यों ने भूमि अधिग्रहण की नीति के विरुद्ध आन्दोलन किये हैं । छोटे किसान से भूमि का अधिग्रहण किसान को उसकी आजीविका के साधन से वंचित करने जैसा है ।

इसी तरह 2013 में भारत सरकार द्वारा रिटेल या खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश की अनुमति प्रदान की गयी । इससे भारत के खुदरा व्यापारी व छोटे दुकानदार बेरोजगार हो जायेंगे । विदेशी कम्पनियाँ किसानों से अपने लाभ के अनुसार फसलों का उत्पादन करायेंगी, जोकि भारत की खाद्य सुरक्षा की दृष्टि से उचित नहीं है ।

किसानों को अपनी फसल का सही मूल्य मिल पायेगा इसकी कोई गारण्टी नहीं है । अत: भारत के किसानों व व्यापारियों ने सरकार के इस नये कदम का विरोध किया है । सरकार ने इसमें थोड़ा संशोधन अवश्य किया है, खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश की अनुमति वापस नहीं ली है ।

कुछ आलोचकों का मानना है कि भारत ने यह निर्णय अमेरिका के दबाव में लिया है, क्योंकि अमेरिका की खुदरा व्यापार कम्पनियाँ जैसे- वॉलमार्ट विश्व स्तर पर काम कर रही है । इससे विदेशी खुदरा कम्पनियों को बिना किसी रिस्क के भारी मुनाफा प्राप्त होगा ।

3. भारत में वैश्वीकरण के तीसरे प्रकार के विरोध दक्षिणपंथी समूह तथा दल हैं । इनका मुख्य तर्क यह है कि वैश्वीकरण के माध्यम से पश्चिमी देश भारत पर अपना सांस्कृतिक वर्चस्व स्थापित कर रहे हैं तथा भारत की परम्परागत संस्कृति व मूल्यों के लिये घातक हैं ।

पश्चिमी खान-पान पहनावा फिल्मों व अन्य विदेशी उपभोक्ता वस्तुओं का प्रभाव वैश्वीकरण के युग में भारत में बढ़ा है । विज्ञापनों तथा सौन्दर्य प्रतियोगिताओं के माध्यम से उपभोक्तावादी संस्कृति तथा पाश्चात्य मूल्यों का प्रभाव बढ़ रहा है । विज्ञापनों में अश्लीलता तथा महिलाओं का गलत चित्रण किया जा रहा है । 2013 में आस्ट्रेलिया की एक शराब कम्पनी ने बियर की बोतलों पर भारतीय देवी-देवताओं के चित्र छाप दिये थे, जिसका भारत में विरोध किया गया था ।

विदेशी खान-पान जैसे जंक फूड व मैक्डानल्ड संस्कृति तथा पाश्चात्य पहनावे से भारत का युवा वर्ग सर्वाधिक प्रभावित है तथा वह भारत की परम्परागत संस्कृति व मूल्यों से विमुख हो रहा है ।

निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि भारत में वैश्वीकरण के सकारात्मक व नकारात्मक दोनों तरह के प्रभाव देखने में आये हैं । अत: भारत की विशिष्ट सामाजिक व आर्थिक परिस्थितियों के अनुसार ही वैश्वीकरण को भारत में आगे बढ़ाये जाने की आवश्यकता है ताकि उसके लाभों को प्राप्त करते हुये उसके दुष्परिणामों से बचा जा सके ।


5. वैश्वीकरण तथा अन्तर्राष्ट्रीयकरण में अंतर (Differences in Globalization and Internationalization):

वैश्वीकरण तथा अन्तर्राष्ट्रीयकरण मिलती-जुलती धारणाएं हैं तथा दोनों ही विश्व में बढ़ती हुयी पारस्परिक निर्भरता की सूचक हैं ।

लेकिन इन दोनों धारणाओं में निम्न अन्तर है:

1. अन्तर्राष्ट्रीयकरण में जहाँ मुख्यत: राष्ट्रों के मध्य बढ़ते सम्बन्धों व अन्त:क्रिया (Interaction) शामिल है वहीं वैश्वीकरण में राष्ट्रों के अतिरिक्त व्यक्तियों व अन्य समूहों के मध्य बढ़ती हुयी अन्त:क्रिया भी शामिल है ।

2. वैश्वीकरण में अन्त क्रिया का दायरा अन्तर्राष्ट्रीयकरण की तुलना में अधिक व्यापक है । इसमें राजीतिक संबन्धों के अतिरिक्त आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, वैचारिक तथा अन्य सभी पहलू शामिल हैं ।

3. अन्तर्राष्ट्रीयकरण की तुलना में वैश्वीकरण एक नयी प्रवृत्ति है । वैश्वीकरण में आधुनिक संचार साधनों यथा इंटरनेट, मोबाइल आदि के प्रयोग के कारण आदान-प्रदान व अन्त:क्रिया की गति अधिक तीव्र व गहन है । मैक्लुहान के अनुसार इन साधनों के कारण विश्व एक ‘वैश्विक गाँव’ (Global Village) का रूप ले रहा है ।