Read this article in Hindi to learn about:- 1. वैश्वीकरण का अर्थ तथा विकास (Meaning and Development of Globalization) 2. वैश्वीकरण के कारण (Origin of Globalization) 3. वैश्वीकरण के प्रभाव  (Effects of Globalization) 4. वैश्वीकरण तथा उसके आलोचक (Globalization and its Critics).

वैश्वीकरण का अर्थ तथा विकास (Meaning and Development of Globalization):

सामान्य अर्थों में वैश्वीकरण का तात्पर्य विश्व स्तर पर वस्तुओं सेवाओं व्यक्तियों विचारों तथा पूँजी के आदान-प्रदान की बारंबारता तथा मात्रा में वृद्धि की प्रक्रिया से है । दूसरे शब्दों में वैश्वीकरण की प्रक्रिया के अंतर्गत विश्व के विभिन्न समुदायों और देशों के मध्य आदान-प्रदान की प्रक्रिया में तेजी से वृद्धि होती है । विभिन्न विद्वानों ने वैश्वीकरण की अलग-अलग परिभाषाएँ दी हैं ।

रोलैण्ड रॉबर्टसन के अनुसार- “वैश्वीकरण का तात्पर्य विश्व का संगठित होना तथा एक विश्व के रूप में चेतना का तीव्र होना है ।”

मार्टिन अलर्बो तथा एलिजाबेथ किंग के अनुसार- ”वैश्वीकरण का तात्पर्य उन सभी प्रक्रियाओं से है, जिसमें विश्व के सभी लोग एक विश्व समाज में समाहित हो जाते हैं ।”

ADVERTISEMENTS:

एन्थोनी गिडेन्स ने अपनी पुस्तक ‘दी कान्सिक्वेन्सेस ऑफ मॉडरनिटी’ में लिखा है कि वैश्वीकरण का तात्पर्य ”विश्व स्तर पर सामाजिक सम्बन्धों का इस प्रकार विस्तार है, जिससे दूर स्थित समाज आपस में जुड़ जाते हैं तथा स्थानीय घटनाएं दूर की घटनाओं से प्रभावित होने लगती हैं ।”

डेविड हेल्ड ने अपनी पुस्तक ‘ग्लोबल ट्रांसफॉरमेशन्स’ में माना है कि वैश्वीकरण स्थानीय, राष्ट्रीय तथा क्षेत्रीय प्रक्रियाओं का अंतिम चरण है । इसके अंतर्गत मानव सम्बन्धों का संगठन व संचालन विभिन्न क्षेत्रों व महाद्वीपों के स्तर पर होता है ।

प्रसिद्ध पत्रकार थॉमस फ्रीडमैन ने वैश्वीकरण की बढ़ती प्रक्रिया के कारण वर्तमान विश्व को ‘फ्लैट वर्ल्ड’ (Flat World) समतल विश्व की संज्ञा दी है । इसी प्रकार विश्व के देशों व समुदायों में बढ़ती अन्त-क्रिया के कारण मैकलुहान ने विश्व को एक वैश्विक गांव (Global Village) की संज्ञा दी है । इस प्रकार वैश्वीकरण का तात्पर्य विश्व के देशों लोगों तथा समुदायों के मध्य बढ़ती हुई अन्त:क्रिया तथा आदान-प्रदान की प्रक्रिया से है ।

वैश्वीकरण के कारण (Origin of Globalization):

जहाँ तक वैश्वीकरण के विकास का सम्बन्ध है, कुछ विद्वान इसे 20वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध की प्रक्रिया मानते हैं । जबकि कतिपय अन्य विद्वान यह मानते हैं कि वैश्वीकरण की प्रक्रिया का आरंभ तब हुआ जब पुनर्जागरण के बाद वैज्ञानिक आविष्कारों के साथ-साथ विश्व के नये क्षेत्रों की खोज हुई । इसके विपरीत अन्य विद्वान वैश्वीकरण की प्रक्रिया का आरंभ ई.पू. तीसरी शताब्दी से मानते है, जब यूनान की सभ्यता का विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में विस्तार किया गया ।

ADVERTISEMENTS:

यह सत्य है कि विश्व के देशों तथा समुदायों के मध्य आदान-प्रदान की प्रक्रिया इतिहास में लगातार आगे बढ़ती रही है, लेकिन संचार के आधुनिक साधनों ने उसे एक नई गति और प्रदान की है । अत: वर्तमान रूप में वैश्वीकरण को 20वीं शताब्दी की एक विशिष्ट प्रवृत्ति मानना ही उचित है ।

वैश्वीकरण की वर्तमान प्रवृत्ति के उदय तथा विकास के अग्र कारण हैं:

1. संचार के नये साधनों का विकास (Development of New Instruments of Communication):

वर्तमान युग संचार क्रांति का युग है । प्रसिद्ध उपन्यासकार अल्विन टाफलर ने अपने उपन्यास थर्ड वेव (Third Wave) में इसे तीसरी क्रांति की संज्ञा दी है । वर्तमान में संचार के नये द्रुतगामी साधनों जैसे- ई-मेल, कम्प्यूटर, इन्टरनेट, फैक्स तथा तीव्र गति वाले जेट विमानों का आविष्कार हुआ है, जिसके कारण विश्व विभिन्न देशों व व्यक्तियों के मध्य विभिन्न स्तरों पर अन्त: में तेजी से बढ़ोतरी हुई है । संचार के आधुनिक साधनों के बिना वैश्वीकरण की प्रक्रिया मजबूती प्राप्त नहीं कर सकती ।

ADVERTISEMENTS:

2. राष्ट्रों के मध्य बढ़ती पारस्परिक निर्भरता (Increasing Interdependence between the Nations):

20वीं शताब्दी के आरंभ से ही व्यापारिक सुरक्षा तथा सांस्कृतिक मामलों में राष्ट्रों के पारस्परिक निर्भरता का तेजी से विकास हुआ है । प्रथम व द्वितीय विश्व युद्ध तथा अन्तर्राष्ट्रीय मामलों के प्रबन्धन के नयी वैश्विक संस्थाओं जैसे- लीग ऑफ नेशन्स 1920 व संयुक्त राष्ट्र संघ 1945 की स्थापना इसके प्रमुख उदाहरण हैं । राष्ट्रों के मध्य बढ़ती पारस्परिक निर्भरता ने वैश्वीकरण की प्रक्रिया को मजबूत आधार प्रदान किया है ।

3. वैचारिक कारण तथा सोवियत रूस का विघटन (Conceptual Reason and Disintegration of Soviet Russia):

20वीं शताब्दी में विश्व में दो प्रमुख आर्थिक विचारधाराओं- पूँजीवाद तथा समाजवाद का अस्तित्व रहा है । पूंजीवाद जहाँ निजीकरण व बाजारू शक्तियों की प्रमुखता पर आधारित है, वहीं समाजवाद उत्पादन वितरण के साधनों पर राज्य के नियन्त्रण की धारणा पर आधारित है ।

पूँजीवाद में बाजार के प्रभाव के कारण प्रतियोगिता का तत्व अधिक प्रबल है । परम्परागत रूप से पश्चिमी देश पूँजीवाद के समर्थक रहे हैं तथा सोवियत संघ व पूर्वी यूरोप के देश समाजवाद के पोषक रहे हैं । 1991 में ही सोवियत संघ के विघटन के साथ-साथ समाजवादी अर्थव्यवस्था का भी अंत हो गया तथा उसके स्थान पर नव-उदारवादी विचारधारा पर आधारित पूँजीवाद का वर्चस्व स्थापित हो गया ।

प्रसिद्ध विद्वान फ्रांसिस फुकुयामा ने इसे ‘इतिहास के अंत’ (End of History) की संज्ञा दी है । वैश्वीकरण की वर्तमान प्रक्रिया नव-उदारवादी विचारधारा से प्रेरित इसी पूंजीवादी व्यवस्था पर आधारित है । निजीकरण, आर्थिक उदारीकरण, बाजारू प्रतियोगिता इसकी प्रमुख विशेषताएँ हैं । अत: 1990 के दशक में नव-उदारवाद तथा पूंजीवादी विचारधाराओं ने वैश्वीकरण को नयी गति प्रदान की है ।

वैश्वीकरण के प्रभाव  (Effects of Globalization):

विद्वानों ने वैश्वीकरण के तीन आयाम अथवा तीन प्रभाव माने हैं:

I. राजनीतिक आयाम (Political Dimension):

वैश्वीकरण का राजनीतिक आयाम अत्यंत महत्वपूर्ण है । वैश्वीकरण के कारण जहाँ राज्य की क्षेत्रीय संप्रभुता प्रभावित हुई है वहीं उसका कार्यक्षेत्र भी प्रभावित हुआ है ।

इस सम्बन्ध में तीन प्रभाव उल्लेखनीय हैं:

(i) राज्यों की क्षेत्रीय संप्रभुता का ह्रास:

वैश्वीकरण के अंतर्गत आधुनिक संचार साधनों ने राज्य की संप्रभुता को प्रभावित किया है । आज विश्व में अनेक ऐसी घटनाएँ हो रही हैं जो राज्य के नियन्त्रण से बाहर हैं तथा राज्य उन पर अपनी संप्रभुता का भावी प्रयोग कर सकता ।

(ii) राज्य के कल्याणकारी कार्यों में कमी:

वैश्वीकरण की प्रक्रिया आर्थिक उदारीकरण व बाजारू प्रतियोगिता पर आधारित है । जिसे द्वारा व्यवहारिक रूप जाता है । आर्थिक क्षेत्र में राज्य की भूमिका की कमी के साथ-साथ उसकी कल्याणकारी भूमिका भी कम हुई है ।

(iii) परा-राष्ट्रीय संस्थाओं का बढ़ता महत्व:

राष्ट्रों के मध्य बढ़ती पारस्परिक निर्भरता के कारण विश्व मामलों का प्रबन्धन अब एक वैश्विक मुद्दा बन गया है । विश्व की वर्तमान चुनौतियों जैसे-मानवाधिकारों का उल्लंघन जलवायु परिवर्तन आतंकवाद आर्थिक संकटों का समाधान आदि के नयी परा-राष्ट्रीय संस्थाओं की स्थापना की जा रही है ।

विश्व अर्थव्यवस्था के प्रबन्धन में विश्व बैंक विश्व व्यापार संगठन अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, जी-20 समूह आदि की भूमिका का विस्तार हुआ है । प्रत्येक राष्ट्र को अपने आन्तरिक मामलों का संचालन भी वैश्विक मापदण्डों के अनुसार करना पड़ रहा है ।

II. आर्थिक आयाम (Economic Dimension):

वैश्वीकरण के आर्थिक प्रभाव सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण व दृष्टिगोचर है । निजीकरण उदारीकरण तथा बाजारू प्रतियोगिता ने विश्व अर्थव्यवस्था को नया रूप दिया है ।

इनका विवरण निम्नलिखित है:

(i) विश्व व्यापर तथा निवेश में वृद्धि:

वैश्वीकरण के युग में व्यापारिक उदारीकरण के कारण राष्ट्रों के मध्य व्यापार तथा निवेश में तेजी से वृद्धि हुई है । विश्व व्यापार संगठन द्वारा व्यापार व निवेश के नियम भी उदार बनाये जा रहे हैं । विश्व व्यापार संगठन की स्थापना 1995 में हुई थी । इसके द्वारा 2001 में व्यापार नियमों को सरल बनाने के लिये दोहा व्यापार वार्ताओं का आरंभ किया गया था ।

जिसके अन्तर्गत अब तक विश्व के देशों के मध्य मंत्रिमण्डलीय स्तर की 9 चक्र की वार्ताएं संपन्न हो चुकी हैं । 9वें चक्र की वार्ताएँ दिसम्बर 2013 में इण्डोनेशिया के शहर बाली में संपन्न हो चुकी हैं । विश्व व्यापार संगठन द्वारा आयोजित वार्ताओं में सेवाओं बौद्धिक सम्पदा तथा निवेश को भी शामिल कर लिया गया है । आरंभ में विकासशील तथा गरीब देशों ने बौद्धिक सम्पदा तथा सेवाओं में व्यापार को वैश्विक वार्ताओं में शामिल करने का विरोध किया था ।

(ii) वैश्वीकरण के अंतर्गत प्रत्येक राष्ट्र की विदेश नीति का उद्देश्य अपने व्यापार तथा निवेश को बढ़ाना है । इसी कारण इस क्षेत्र में राष्ट्रों के मध्य तीव्र प्रतियोगिता देखी जा रही है । कई राष्ट्रों ने आपसी व्यापारिक लाभ के लिये द्विपक्षीय व बहुपक्षीय मुक्त व्यापार समझौतों (Free Trade Agreements) की व्यवस्था को लागू किया है जिसके अन्तर्गत समझौते में शामिल देश आपसी व्यापार में सभी प्रतिबन्धों को समाप्त कर देते हैं अथवा उन्हें कम कर देते हैं । कुछ भी हो व्यापार व निवेश का उदारीकरण वैश्वीकरण की एक महत्त्वपूर्ण आर्थिक विशेषता है ।

(iii) विश्व में व्यापार व निवेश के नियमों में उदारीकरण का लाभ उठाकर कई विकासशील देशों जैसे चीन, भारत, दक्षिण कोरिया, इण्डोनेशिया, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका आदि देशों ने गत दो दशकों में तीव्र आर्थिक प्रगति अर्जित की है तथा इन देशों की गणना आज विश्व की उभरती हुई शक्तियों में की जा रही है । विश्व अर्थव्यवस्था का केन्द्र अब यूरोप से खिसककर एशिया की ओर खिसक रहा है । वैश्वीकरण के युग में ही चीन ने गत तीस वर्षों में प्रतिवर्ष औसतन दस प्रतिशत की आर्थिक वृद्धि दर्ज की है तथा 2010 में अमेरिका के बाद विश्व की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है । उसने जापान को तीसरे स्थान पर छोड़ दिया है ।

(iv) बहुराष्ट्रीय कम्पनियों व आर्थिक गतिविधियों का वैश्विक स्वरूप:

वैश्वीकरण के युग में आर्थिक उत्पादन तथा वितरण का रूप वैश्विक हो गया है । श्रम का विभाजन भी वैश्विक आकार ले रहा है । बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ अपनी आर्थिक गतिविधियों को उन क्षेत्रों में केन्द्रित कर रही हैं जहाँ उन्हें सस्ता श्रम तथा बड़ा बाजार उपलब्ध है । बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ कई बार अपने कुछ कारोबार को सस्ते श्रम वाले देशों की कम्पनियों को स्थानान्तरित कर देती हैं ।

इसे व्यापारिक भाषा में आउटसोर्सिंग कहा जाता है । इन कम्पनियों का नेटवर्क विश्व के कई देशों में फैला होता है । ये व्यापार निवेश आदि के सम्बन्ध में अन्तर्राष्ट्रीय नियमों के आधार पर कार्य करती हैं । अत: जिन देशों में ये कार्य करती हैं उनका भी इनकी गतिविधियों पर प्रभावी नियंत्रण नहीं होता है । इस प्रकार वैश्वीकरण में आर्थिक गतिविधियों का स्वरूप वास्तविक अर्थों में वैश्विक हो गया है ।

(v) बाजारू प्रतियोगिता का बढ़ता प्रभाव:

वैश्वीकरण के वर्तमान युग में बाजारू प्रतियोगिता सबसे महत्त्वपूर्ण आर्थिक प्रवृत्ति है । उत्पादन वितरण तथा कीमतों का निर्धारण बाजार के हिसाब से होता है । निजीकरण की प्रक्रिया ने विभिन्न देशों की घेरलू आर्थिक नीतियों को भी प्रभावित किया है । भारत ने भी 1991 में आर्थिक उदारीकरण की नीति लागू की है, जिसके अंतर्गत अब तक राज्य के नियन्त्रण में रहे कई आर्थिक क्षेत्रों को निजी क्षेत्र में दे दिया गया है । बाजारू प्रतियोगिता राष्ट्रीय स्तर से लेकर वैश्विक स्तर तक प्रभावी है ।

(vi) वस्तुओं व सेवाओं की वैश्विक उपलब्धता:

वैश्वीकरण का एक सकारात्मक प्रभाव यह है कि आर्थिक प्रतियोगिता के कारण सेवाओं व वस्तुओं की उत्पादन लागत में कमी आयी है तथा विश्व अर्थव्यवस्था का तेजी से विकास हुआ है । इसका लाभ यह है कि उपभोक्ताओं को विश्व स्तरीय वस्तुएँ आसानी से उपलब्ध हो जाती है ।

आर्थिक वैश्वीकरण के नकारात्मक प्रभाव:

यद्यपि आर्थिक प्रतियोगिता तथा वैश्विक आर्थिक एकीकरण के कारण गत दो दशकों में विश्व अर्थव्यवस्था में तेजी से विकास हुआ है, लेकिन वैश्वीकरण के कतिपय नकारात्मक परिणाम भी सामने आये हैं । वास्तव में आर्थिक वैश्वीकरण नव-उदारवादी विचारधारा पर आधारित हैं, जिसके अंतर्गत निजीकरण के साथ-साथ बाजार की भूमिका को अर्थव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान किया गया है ।

आर्थिक वैश्वीकरण के निम्न नकारात्मक प्रभाव देखने में आये हैं:

(1) गरीब देशों को नुकसान:

चूंकि आर्थिक वैश्वीकरण में लाभ की स्थिति आर्थिक प्रतियोगिता की क्षमता पर निर्भर करती है, अत: अफ्रीका व एशिया के वे देश इसके लाभ से वंचित रह गये जिनकी प्रतियोगी क्षमता कम थी । प्रसिद्ध विद्वान जोसेफ स्टिगलिट्‌ज के अनुसार जिन देशों ने वैश्वीकरण की प्रक्रिया का स्वयं प्रबन्धन किया है, वे तो इसके लाभ को प्राप्त कर सके हैं, लेकिन जिन गरीब देशों की अर्थव्यवस्था का प्रबन्धन अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं जैसे- विश्व बैंक व अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के द्वारा हुआ है वे वैश्वीकरण की प्रक्रिया में हानि की स्थिति में रहे हैं ।

विश्व के 48 अल्पविकसित देशों में से 15 देशों में गत 20 वर्षों में विकास की दर 2 प्रतिशत व उससे कम रही है । जबकि इसी अवधि में 33 अन्य अल्पविकसित देशों में विकास की दर नकारात्मक रही है ।

वैश्वीकरण के युग में प्रतियोगिता तथा संरक्षणवाद (Competition and Protectionism in the Era of Globalization):

वैश्वीकरण के युग में विश्व अर्थव्यवस्था नव-उदारवादी विचारधारा पर आधारित है, जिसके अन्तर्गत घरेलू तथा वैश्विक दोनों स्तरों पर बाजारू प्रतियोगिता को बढ़ावा दिया जाता है लेकिन कुछ देश अपने घरेलू बाजार को विदेशी आयात से बचाने के लिये अथवा अपने निर्यात को बढ़ाने के लिये संरक्षणवादी नीतियों का सहारा लेते हैं ।

संरक्षणवाद में वे सभी उपाय शामिल हैं जिनके द्वारा अपने घरेलू बाजार को विदेशी वस्तुओं के आयात से बचाया जा सके अथवा अपनी वस्तुओं तथा सेवाओं को वित्तीय सहायता प्रदान कर उसकी उत्पादन लागत को कम किया जा सके ताकि वह विदेशी वस्तुओं से प्रतियोगिता कर सके सरकार द्वारा दी जाने वाली इस प्रकार की वित्तीय सहायता को सब्सिडी कहा जाता है । विश्व व्यापार के नियमों के अन्तर्गत संरक्षणवाद को नियम विरुद्ध माना जाता है, क्योंकि यह विश्व व्यापार के संचालन में बाधक है ।

(2) गरीब और अमीर के बीच बढ़ती खाई:

वैश्वीकरण ने देशों के अन्दर भी गरीब और अमीरों के बीच आर्थिक असमानता को बढ़ाया है । ये आर्थिक असमानता विकसित और विकासशील दोनों ही प्रकार के देशों में देखी जा सकती है । चीन ने यद्यपि वैश्वीकरण के युग में तीव्र आर्थिक प्रगति अर्जित की है, लेकिन वहाँ भी ग्रामीण व शहरी जनता के बीच आय तथा अन्य आर्थिक साधनों की असमानता बड़ी है ।

(3) कमजोर होते श्रम संगठन:

वैश्वीकरण में चूंकि श्रम विभाजन वैश्विक स्तर पर उत्पादन की आवश्यकताओं के अनुसार होता है, अत: राष्ट्रीय स्तर पर सभी देशों में श्रम संगठन कमजोर हुए हैं । श्रम संगठनों की कमजोरी का एक दुष्परिणाम यह है कि श्रमिकों तथा मजदूरों के आर्थिक शोषण की संभावना बढ़ गयी है ।

(4) अवैध आर्थिक गतिविधियों, भ्रष्टाचार तथा शोषण को बढ़ावा:

अर्थव्यवस्था पर राज्य के नियन्त्रण तथा विश्व व्यापार के उदारीकरण के कारण वस्तुओं के अवैध व्यापार नशीली दवाओं का व्यापार मुद्रा के अवैध व्यापार तथा भ्रष्टाचार में वैश्वीकरण के युग में तीव्र वृद्धि दर्ज की गयी है । विश्व की 20 सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के समूह जी-20 ने इन अवैध गतिविधियों पर चिन्ता व्यक्त की है ।

साथ ही वैश्वीकरण की प्रक्रिया में कमजोर वर्गों विशेषकर बच्चों व महिलाओं के शोषण की घटनाएँ भी बड़ी हैं । आज अवैध आर्थिक गतिविधियों तथा भ्रष्टाचार की समस्या से सभी देश प्रभावित हैं ।

विश्व व्यापार संगठन (World Trade Organization):

विश्व व्यापार संगठन (World Trade Organization-WTO) की स्थापना 1995 में जेनेवा में हुई थी । इसकी स्थापना वैश्वीकरण के युग में विश्व व्यापार की समस्याओं का समाधान करने के लिये 1944 में स्थापित पूर्व व्यवस्था ‘जनरल एग्रीमेण्ट ऑन टैरिफ एण्ड ट्रेड’ अर्थात् गैट के स्थान पर की गयी थी ।

इसका मुख्य उद्देश्य वैश्वीकरण के युग में वस्तुओं तथा सेवाओं के विश्व व्यापार में बढ़ोतरी करना है । यह देशों के मध्य वार्ताओं का आयोजन कर विश्व व्यापार के नियमों को सरल बनाने तथा प्रतिबन्धों को समाप्त करने के लिये प्रयासरत है । इसके तत्वाधान में 2001 में अन्तर्राष्ट्रीय वार्ताओं का दोहा चक्र आरंभ किया गया था जिसके अन्तर्गत सदस्य देशों के व्यापार मंत्रियों की वार्ताओं का 9वाँ दौर दिसम्बर 2013 में इण्डोनेशिया के शहर बाली में संपन्न हुआ ।

व्यापार मंत्रियों का सम्मेलन ही इसकी शीर्ष निर्णयकारी संस्था है । उल्लेखनीय है कि विश्व व्यापार संगठन के कार्य क्षेत्र में वस्तुओं व सेवाओं में व्यापार के साथ बौद्धिक संपदा का व्यापार तथा निवेश भी शामिल है । इस प्रकार विश्व व्यापार संगठन वैश्वीकरण के युग में विश्व व्यापार के प्रबन्धन का प्रमुख मंच है ।

III. सांस्कृतिक आयाम (Cultural Dimensions):

वैश्वीकरण की प्रक्रिया में गत 30 वर्षों में राष्ट्रों के मध्य सांस्कृतिक आदान-प्रदान में भी तेजी आयी है । आज विद्वान विश्व संस्कृति की चर्चा कर रहे हैं । लेकिन यह विश्व संस्कृति अमेरिका तथा पश्चिमी देशों की संस्कृति का बढ़ता हुआ प्रभाव है । आज सम्पूर्ण विश्व में विकसित देशों के सांस्कृतिक प्रतीक कोका कोला, मैकडोनाल्ड, शॉपिंग माल, वालमार्ट आदि का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है ।

आलोचकों ने इसे विश्व संस्कृति के अमेरिकीकरण अथवा पश्चिमीकरण की संज्ञा दी है । विकासशील और गरीब देशों में अपने सांस्कृतिक मूल्यों को बचाने की चिन्ता भी बढ़ रही है । विश्व संस्कृति की यह बढ़ती हुई एकरूपता छोटी संस्कृतियों के अस्तित्व के लिए एक गंभीर खतरा है । वैश्वीकरण के युग में मूल निवासी आदिवासी तथा अन्य छोटे समूह अपनी सांस्कृतिक पहचान को सुरक्षित करने के लिये प्रयासरत् हैं ।

संचार के साधनों के विकास के कारण पश्चिमी सांस्कृतिक प्रतीकों का आदान-प्रदान तेजी से हो रहा है । वैश्विक संस्कृति विकासशील व गरीब देशों के सांस्कृतिक मूल्यों आदर्शों तथा रुचियों को प्रभावित कर रही है । जो देश आर्थिक दृष्टि से संपन्न होते है वे गरीब व कमजोर देशों पर अपनी संस्कृति को थोपने में सफल हो जाते हैं ।

वैश्वीकरण के सांस्कृतिक मूल्य नव-उदारवाद तथा पूँजीवाद की विचारधारा पर आधारित हैं । अत: वर्तमान में भौतिक प्रगति तथा व्यक्तिवाद की धारणाओं को बल मिला है । वर्तमान में निरन्तर बलवती हो रही उपभोक्तावादी संस्कृति (Consumer Culture) वैश्वीकरण की देन है ।

वैश्वीकरण तथा उसके आलोचक (Globalization and Its Critics):

वैश्वीकरण समकालीन विश्व की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता है । आज वैश्विक मामलों का प्रत्येक पहलू वैश्वीकरण की प्रक्रिया से प्रभावित है । अतः वैश्वीकरण को समझे बिना विश्व की वर्तमान प्रकृति व गतिविधियों को समझना मुश्किल है । यद्यपि वैश्वीकरण की प्रक्रिया अत्यंत पुरानी है लेकिन ‘वैश्वीकरण’ शब्द का प्रयोग 1980 के दशक के मध्य से तथा विशेषकर 1990 के दशक के मध्य से अधिक लोकप्रिय हुआ है ।