Read this article in Hindi to learn about the Indo-America relations and its trends.
भारत अमेरिका सम्बन्ध का पृष्ठभूमि (Background of India-US Relations):
भारत व अमेरिका विश्व के दो बड़े लोकतांत्रिक देश हैं । दोनों ही देश मानवाधिकारों समानता तथा न्याय व विधि के शासन में विश्वास करते हैं । फिर भी नीतिगत विभिन्नताओं के चलते शीत युद्ध काल में दोनों देशों के सम्बन्ध मजबूत नहीं बन पाये । द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिका ने एक महाशक्ति तथा पूँजीवादी गुट के नेता के रूप में जहाँ विश्व स्तर पर साम्यवादी गुट के विरोध की नीति अपनायी वहीं भारत ने गुटों की राजनीति से अलग रहते हुये गुटनिरपेक्षता की नीति का अनुसरण किया । ऐसा करना विश्व शान्ति तथा भारत दोनों के हितों के लिये आवश्यक था ।
शीत युद्ध काल में अमेरिकी नीति निर्माताओं का मानना था कि जो देश पश्चिमी पूँजीवादी गुट में शामिल नहीं है वे या तो उसके विरोधी हैं या उनकी सहानुभूति साम्यवादी गुट के साथ है ।
इसीलिये 1950 के दशक में अमेरिकी विदेश सचिव जॉन फास्टर डलेस ने भारत की गुटनिरपेक्षता की नीति को एक अनैतिक नीति की संज्ञा दी थी । इसी धारणा के चलते अमेरिका ने पाकिस्तान को आर्थिक व सैनिक सहायता देने की नीति अपनायी, जबकि पाकिस्तान सदैव ऐसी सहायता का प्रयोग भारत के विरुद्ध करता रहा है ।
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भारत व पाकिस्तान के सम्बन्ध कभी अच्छे नहीं रहे तथा 1971 के भारत-पाक युद्ध के समय अमेरिका ने पाकिस्तान का समर्थन करते हुये अपना सातवाँ नौसैनिक बेड़ा हिन्द महासागर में भेजने की धमकी दी । ऐसी स्थिति से निबटने के लिये अगस्त 1971 में भारत ने सोवियत संघ के साथ मैत्री व सहयोग की एक सन्धि पर हस्ताक्षर किये ।
इस सन्धि में यह भी प्रावधान था कि बाह्य आक्रमण की स्थिति में दोनों देश विचार-विमर्श कर उचित उपायों को अपनाएंगें । यद्यपि भारत गुटनिरपेक्षता की नीति का त्याग नहीं किया लेकिन इसके बाद की विदेश नीति का झुकाव व्यवहारिक दृष्टि से सोवियत संघ की हो गया ।
1979 में अफगानिस्तान में सोवियत सैनिक हस्तक्षेप का भारत ने दबे स्वर से ही विरोध किया । इस प्रकार शीत युद्ध काल (1945-1991) में भारत व अमेरिका के राजनीतिक सम्बन्ध अनुकूल नहीं थे, यद्यपि भारत को विकास के लिये समय-समय पर अमेरिका आर्थिक व तकनीकी प्राप्त होती रही है ।
उत्तर-शीत युद्ध काल (Post-Cold War Period):
उत्तर-शीत युद्ध काल को दोनों के सम्बन्धों के सुधार के लिये एक नये युग का आरम्भ माना जा सकता है । 1991 में सोवियत संघ के विघटन के साथ ही शीत युद्ध का अन्त हो गया तथा दोनों देशों ने एक-दूसरे को नये चश्मे से देखना आरंभ किया । भारत ने वैश्वीकरण के युग में भारत की अर्थव्यवस्था को विश्व अर्थव्यवस्था से जोड़ने के लिये 1991 में आर्थिक उदारीकरण व निजीकरण की नीति अपनायी, जिसे अमेरिकी नीति निर्माताओं द्वारा सराहा गया, क्योंकि इससे उन्हें भारत में निवेश व व्यापार की विपुल संभावनाएँ दिखाई देने लगी ।
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अत: दोनों देशों के मध्य आर्थिक सहयोग बढ़ाने का नया अवसर प्राप्त हुआ । दोनों देशों ने विश्व आतंकवाद की चुनौती से निबटने के लिये एक समान दृष्टिकोण अपनाया । उत्तर-शीत युद्ध काल में अमेरिकी नीति निर्माताओं के लिये दक्षिण एशिया में पाकिस्तान का सामरिक महत्व भी कम हो गया तथा उसी अनुपात में भारत का महत्व बढ़ गया ।
अत: 1991 के बाद दोनों देशों के सम्बन्धों में सुधार का एक नया वातावरण तैयार हुआ । इसमें एक व्यवधान तब आया जब 1998 में भारत ने पोखरण में अपना दूसरा परमाणु परीक्षण किया । प्रतिक्रियास्वरूप अमेरिका ने भारत के विरुद्ध आर्थिक प्रतिबन्धों की घोषणा कर दी । लेकिन शीघ्र ही अमेरिका ने चीन की परमाणु शक्ति को ध्यान में रखते हुये क्षेत्रीय स्तर पर भारत की सुरक्षा चिंताओं को समझने का प्रयास किया तथा 2001 में अमेरिका द्वारा इन प्रतिबन्धों को हटा लिया गया ।
21वीं सदी के प्रथम दशक के आरंभ से ही भारत व अमेरिका के मध्य आर्थिक, व्यापारिक, सैनिक, सांस्कृतिक व शिक्षा के क्षेत्र में बहुआयामी सम्बन्धों का विकास हो रहा है ।
भारत व अमेरिका के बीच सामरिक साझेदारी के निम्न आयाम महत्वपूर्ण हैं:
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1. उच्च स्तरीय सामरिक वार्ताएँ (High Level Strategic Negotiations):
उत्तर-शीत युद्ध काल में दोनों देशों के मध्य उच्च स्तरीय शिखर वार्ताओं का क्रम शुरू हुआ है, जो सहयोग बढ़ाने की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है । इसकी शुरुआत मार्च 2000 में अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की भारत यात्रा से होती है । इसके बाद अमेरिका के प्रत्येक राष्ट्रपति ने भारत की यात्रा की है ।
मार्च 2006 में जार्ज बुश ने तथा नवम्बर 2010 में बाराक ओबामा ने भारत की महत्वपूर्ण राजकीय यात्राएं की हैं । ओबामा ने 2010 की अपनी यात्रा के दौरान भारतीय संसद के दोनों सदनों की संयुक्त बैठक को सम्बोधित किया तथा कहा कि भारत-अमेरिका सम्बन्ध 21वीं शताब्दी को परिभाषित करने वाले सम्बन्ध हैं ।
उन्होंने सुरक्षा परिषद् में भारत की स्थायी सदस्यता का भी समर्थन किया । भारत की ओर से 2000 में प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने तथा मनमोहन सिंह ने 2005 तथा 2009 में अमेरिका की राजकीय यात्राएँ की हैं । 2009 में दोनों देशों ने सम्बन्धों को मजबूत बनाने के लिये विदेश मंत्री स्तर पर वार्षिक सामरिक वार्ताओं को आयोजित करने का निर्णय लिया । पहले दौर की वार्ताएँ जुलाई 2010 में वाशिंगटन में तथा चौथी दौर की वार्ताएँ जून 2013 में नई दिल्ली में आयोजित की गयी हैं ।
इन वार्ताओं में निम्न पाँच क्षेत्रों पर उच्च स्तरीय विचार विमर्श किया जाता है:
(i) परमाणु अप्रसार, आतंकवाद विरोधी कार्यवाही तथा प्रतिरक्षा के क्षेत्र में सामरिक सहयोग;
(ii) ऊर्जा तथा जलवायु परिवर्तन के क्षेत्र में सामरिक सहयोग;
(iii) शिक्षा उसके विकास तथा महिला सशक्तीकरण के लिए सहयोग;
(iv) आर्थिक व्यापारिक कृषि तथा खाद्य सुरक्षा के सम्बन्ध में सहयोग; तथा
(v) विज्ञान एवं तकनीकि, स्वास्थ्य एवं सम्बन्धित वैश्विक चुनौतियों नूतन तकनीकि आदि में सहयोग ।
2. आर्थिक साझेदारी (Financial Partnership):
आर्थिक साझेदारी के अंतर्गत व्यापार, निनेश तथा विकास के क्षेत्र शामिल होते हैं । वर्तमान में पुन: अमेरिका भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार देश बन गया है । दोनों के मध्य व्यापार 2004 में 24 बिलियन डॉलर से बढकर 2013 में 100 बिलियन डॉलर हो गया है । दोनों देशों ने इसे 2015 तक दोगुना करने का संकल्प लिया है । 2009 के अन्त तक भारत में कुल अमेरिकी निवेश 9.7 बिलियन डॉलर था । इसी अवधि में अमेरिका में भारत का 13 बिलियन डॉलर था ।
3. आणविक ऊर्जा में सहयोग (Collaboration in Molecular Energy):
दोनों देशों के मध्य आणविक उर्जा के मध्य सहयोग को बढ़ाने के लिये 8 अक्टूबर, 2008 को शांतिपूर्ण आणविक ऊर्जा सहयोग समझौते पर लम्बे विचार-विमर्श के बाद हस्ताक्षर किये गये । यह एक ऐतिहासिक समझौता है, क्योंकि इसके द्वारा वैश्विक स्तर पर आणविक क्षेत्र में भारत का 34 वर्ष पुराना अलगाव दूर हो गया ।
इस समझौते की मुख्य बातें हैं:
(i) भारत अमेरिका से आणविक ईंधन व तकनीकि प्राप्त कर सकेगा ।
(ii) भारत अपने परमाणु रिएक्टरों को अन्तर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेन्सी की देख-रेख में रखेगा ।
(iii) भारत द्वारा परमाणु अप्रसार सन्धि पर हस्ताक्षर किये बिना परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह द्वारा यूरेनियम की आपूर्ति की जा सकेगी ।
भारत के राजनीतिक दलों विशेषकर साम्यवादी दलों ने इस समझौते का तीव्र विरोध किया था लेकिन भारत सरकार इस समझौते को लागू करने में सफल रही । अमेरिका भारत को स्वच्छ ऊर्जा की उच्च तकनीकि विकसित करने में भी सहयोग कर रहा है । इसके साथ-साथ दो देश, के मध्य उच्च तकनीकि के अन्य क्षेत्रों में भी सहयोग को आगे बढ़ाया जा रहा है ।
4. प्रतिरक्षा तथा आतंकवाद (Immunity and Terrorism):
दोनों देशों ने जून 2005 में भारत-अमेरिका सहयोग के एक नये फ्रेमवर्क समझौते पर हस्ताक्षर किये थे । इसी के अन्तर्गत भारत के मालाबार तट पर संयुक्त नौसैनिक अभ्यासों का सिलसिला आरंभ किया है । अमेरिका भारत के लिये अत्याधुनिक रक्षा हथियारों व उपकरणों की आपूर्ति का एक महत्वपूर्ण स्रोत है ।
सितम्बर 2013 में भारतीय प्रधानमंत्री की न्यूयार्क यात्रा के दौरान भारत व अमेरिका ने इस आशय के एक प्रतिरक्षा समझौते पर हस्ताक्षर भी किये हैं कि दोनों देश रक्षा उपकरणों का संयुक्त उत्पादन व विकास करेंगे तथा इस सम्बन्ध में अमेरिका भारत को उच्च स्तरीय तकनीकि का हस्तांतरण भी करेगा । आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई में दोनों का समान दृष्टिकोण व बढ़ता सहयोग महत्त्वपूर्ण है । अमेरिका भारत की घरेलू सुरक्षा को मजबूत करने में भी सहयोग कर रहा है ।
5. सांस्कृतिक व शैक्षणिक सहयोग (Cultural and Educational Support):
दोनों देशों के मध्य सांस्कृतिक व शैक्षणिक क्षेत्र में सहयोग को आगे बढ़ाने पर विशेष बल दिया जा रहा है । अमेरिका में इस समय भारतीय मूल के 2.7 मिलियन लोग निवास कर रहे हैं जिन्होंने अमेरिकी जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में महत्वपूण योगदान दिया है ।
2009 में भारतीय प्रधानमंत्री की अमेरिका यात्रा के दौरान दोनों देशों ने 21वीं शताब्दी सिंह-ओबामा ज्ञान पहल नामक कार्यक्रम की शुरुआत की है, जिसके अन्तर्गत दोनों देश उच्च शिक्षा के क्षेत्र में सहयोग को आगे बढ़ा रहे हैं । दोनों देशों द्वारा समय-समय पर विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन संयुक्त रूप से किया जाता है । मार्च 2011 में अमेरिका में भारत उत्सव का आयोजन किया गया था ।
भारत की उलझनें:
यद्यपि उत्तर-शीत युद्ध काल में भारत- अमेरिका सम्बन्धों में गुणात्मक व सकारात्मक सुधार हुआ है । वैश्वीकरण के वर्तमान युग में अमेरिका ने भारत के आर्थिक उदारवादी सुधारों का स्वागत व समर्थन किया है । अमेरिका भारत की बढ़ती हुई वैश्विक भूमिका का भी समर्थक है, क्योंकि वह भारत को चीन की बढ़ती हुई शक्ति के विरुद्ध एक संतुलनकारी भूमिका में देख रहा है ।
आतंकवाद के विरुद्ध वैश्विक लड़ाई, लोकतंत्र व मानवाधिकार, सार्वभौमिक नि:शस्त्रीकरण आदि मामलों में दोनों के दृष्टिकोण में आधारभूत समानता है । अमेरिका भारत के लिये विदेशी निवेश, व्यापार व उच्च तकनीकि की दृष्टि से भी एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है ।
फिर भी दोनों के सम्बन्धों में कतिपय उलझनें व मतभेद हैं, जो निम्नलिखित हैं:
1. भारत ने गुटनिरपेक्षता की नीति के अन्तर्गत सदैव एक स्वतंत्र विदेश नीति का पालन किया है । यद्यपि शीत युद्ध की समाप्ति के बाद गुटनिरपेक्ष आन्दोलन का महत्व कम हुआ है लेकिन स्वतंत्र विदेश नीति के एक साधन तथा विकासशील देशों के एक मच के रूप में आज भी इसका महत्व बना हुआ है । एक स्वतंत्र विदेशनीति के साथ-साथ अमेरिका के साथ सामरिक सम्बन्धों की प्रक्रिया एक उहापोह की स्थिति उत्पन्न कर रही है ।
2. शीत युद्ध काल में भारत ने विश्व मंच पर विकासशील देशों का प्रतिनिधित्व किया है तथा आज भी भारत इस भूमिका का निर्वाह कर रहा है । उदाहरण के लिये विश्व व्यापार वार्ताओं तथा जलवायु परिवर्तन वार्ताओं में भारत ने विकासशील देशों का पक्ष जोरदारी के साथ प्रस्तुत किया है । लेकिन भारत की इस भूमिका तथा वैश्वीकरण के वर्तमान युग में अमेरिका व अन्य पश्चिमी देशों के साथ सम्बन्धों में तारतम्य बैठाना भारत के लिए किसी चुनौती से कम नहीं है ।
3. भारत स्वयं एक विकासशील देश है जहाँ आज भी देश की 28 प्रतिशत जनसंख्या गरीबी की रेखा के नीचे जीवनयापन कर रही है । वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ एकीकरण की दृष्टि से भारत ने यद्यपि आर्थिक उदारीकरण तथा निजीकरण की नीतियों को अपना लिया है, लेकिन अबाध रूप से इन नीतियों का क्रियान्वयन भारत के आर्थिक परिवेश के हिसाब से उचित नहीं है ।
उलझन की स्थिति यह है कि जहाँ अमेरिका व अन्य पश्चिमी देश भारत से अधिक उदारीकरण की माँग कर रहे हैं वहीं कई भारतीय समूह व दल तथा कमजोर वर्ग उदारीकरण के साथ न्याय, समानता तथा समेकित विकास की माँग कर रहे हैं । इन दोनों स्थितियों में तारतम्य बनाना भारतीय नीति निर्माताओं के समक्ष एक समस्या है ।
4. उत्तर-शीत युद्ध काल में भारत व अमेरिका के बीच सामरिक संबन्धों का तेजी से विकास हुआ है । लेकिन इन संबन्धों को लेकर भारत के राजनीतिक दलों में आम सहमति नहीं है । साम्यवादी दल वैचारिक दृष्टि से अमेरिका के साथ घनिष्ठ संबन्धों के पक्षधर नहीं है ।
पुन: अमेरिका एक महाशक्ति है, जिसके वैश्विक हित व सरोकार हैं । कई विश्लेषकों ने यह आशंका जताई है कि अमेरिका भारत को बढ़ते हुये चीन के विरुद्ध एक संतुलनकारी साधन के रूप में प्रयोग कर रहा है, जोकि भारत के व्यापक राष्ट्रीय हितों के अनुकूल नहीं है । सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिका चीन को भविष्य की चुनौती के रूप में देख रहा है ।
चीन भारत का एक बडा पड़ोसी देश है तथा उसके साथ भारत के तनावपूर्ण सम्बन्ध भारत के दीर्घकालीन हितों के लिये उपयुक्त नहीं हैं । भारत अमेरिका के साथ घनिष्ठ संबन्ध बनाकर अमेरिका के वैश्विक हितों के साधन के रूप में कार्य नहीं करना चाहता । चीन के साथ-साथ भारत रूस के साथ भी अपने पारम्परिक घनिष्ठ सम्बन्धों को मजबूत बनाये रखना चाहता है । अमेरिका के साथ घनिष्ठ सामरिक सम्बन्धों के कारण ऐसा करने में मुश्किल उत्पन्न होती है ।
उक्त उलझनों के बावजूद भारतीय नीति निर्माता इस सच्चाई से बच नहीं सकते कि आज अमेरिका विश्व की एक मात्र शक्ति है । उच्च तकनीकि तथा पूँजी का स्रोत होने के साथ-साथ दोनों देशों के समान लोकतांत्रिक मूल्य हैं तथा दोनों ही आतंकवाद जैसी वैश्विक चुनौतियों का सामना करने के लिये समान दृष्टिकोण रखते हैं ।
अत : व्यवहारिक दृष्टि से अमेरिका के साथ घनिष्ठ संबन्धों का भारत के लिए विशेष महत्व है । इसीलिये भविष्य में दोनों देशों के मध्य सामरिक साझेदारी का विस्तार होने की संभावना है । लेकिन भारत इसके लिये अपनी स्वतंत्र सोच तथा राष्ट्रीय हितों का बलिदान नहीं कर सकता ।