Read this article in Hindi to learn about the political empowerment of Dalit in India.
बली जाति व्यवस्था भारतीय समाज की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता है । समाज में कतिपय जातियों को उच्च तथा अन्य जातियों को निम्न जातियों के रूप में मान्यता प्राप्त है । इन निम्न जातियों को दलित अथवा वर्तमान में अनुसूचित जाति भी कहा जाता है ।
ये जातियाँ अन्य पिछड़ी जातियों से अलग हैं तथा सामाजिक व्यवस्था में उनकी स्थिति भी इनसे निम्न है । ये जातियाँ आजादी के समय से ही अपने प्रति सामाजिक भेदभाव तथा शोषण का विरोध करती रहीं हैं । 20वीं शताब्दी में इन जातियों को संगठित करने तथा उन्हें न्याय दिलाने के लिए डा. भीमराव अम्बेडकर द्वारा भरसक प्रयास किये गये ।
इन जातियों को संगठित और जागरूक करने के लिए उन्होंने ‘शिक्षित बनो, संगठित रहो तथा संघर्ष करो’ का नारा दिया था । उन्हीं के प्रयासों से भारतीय संविधान में उनके लिए सरकारी नौकरियों तथा व्यवस्थापिकाओं में आरक्षण की व्यवस्था की बहुजन समाज पार्टी तथा दलित सशक्तीकरण-लेकिन आजादी के बाद भी दलित समाज कई प्रकार की असमानताओं शोषण तथा अत्याचारों का शिकार रहा ।
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इसके विरुद्ध समय-समय पर आवाज उठाई जाती रही है । अत: इन जातियों में राजनीतिक सशक्तीकरण की भावना प्रबल होने लगी । राजनीतिक सशक्तीकरण का तात्पर्य है- दलित जातियों को राजनीतिक शक्ति प्रदान करना वर्तमान संदर्भ में उनके इस संघर्ष को आगे बढ़ाने में काशीराम का महत्वपूर्ण योगदान है । उन्होंने पूना में रक्षा मंत्रालय में कार्यरत दलित सरकारी कर्मचारियों को संगठित करने का प्रयास किया तथा 1978 में बामसेफ नामक एक संस्था बनाई ।
1981 में काशीराम ने डी. एस.- 4 अथवा दलित शोषित समाज संघर्ष समिति की स्थापना की । बाद में उन्होंने अम्बेडकर के जन्म दिवस 14 अप्रैल, 1984 को इसके स्थान पर एक नई राजनीतिक पार्टी- बहुजन समाज पार्टी की स्थापना की । इस पार्टी ने घोषणा की कि उनका उद्देश्य राजनीतिक सत्ता प्राप्त करना है, क्योंकि राजनीतिक सत्ता के बिना उन्हें समानता और न्याय प्राप्त नहीं हो सकता ।
धीरे-धीरे बहुजन समाज पार्टी ने पंजाब हरियाणा तथा उत्तर प्रदेश में व्यापक जनसमर्थन अर्जित कर लिया । यद्यपि काशीराम ने बहुजन समाज का अर्थ कभी स्पष्ट नहीं किया लेकिन बहुजन समाज में भूमिहीन किसान, मजदूर, कामगर, अत्यन्त पिछड़ी जातियाँ, अल्पसंख्यक तथा अनुसूचित जातियाँ शामिल हैं ।
पार्टी का मानना है कि बहुजन समाज की संख्या समाज में बहुमत में है, अत: उन्हें सत्ता प्राप्त होनी चाहिए । उनका प्रसिद्ध नारा था कि वोट हमारा, राज तुम्हारा नहीं चलेगा, नहीं चलेगा ।
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पहचान की राजनीति (Identity Politics):
आदर्श लोकतंत्र में सभी व्यक्तियों की पहचान देश के नागरिकों के रूप में होनी चाहिये । लेकिन इसके कोई या समुदाय अपनी किसी अन्य जातीय, धार्मिक, क्षेत्रीय अथवा सांस्कृतिक पहचान के आधार पर राजनीतिक प्रक्रिया में भाग लेता है तो उसे पहचान की राजनीति कहते हैं । भारत में जातीय तथा धार्मिक पहचान अधिक मजबूत है । परिणामत: व्यक्तियों की नागरिक के रूप में पहचान गौण हो जाती है तथा उनकी जातीय अथवा धार्मिक पहचान राजनीति में अधिक प्रभावी हो जाती है । ऐसी स्थिति पहचान की राजनीति है ।
पहचान की राजनीति में सांस्कृतिक प्रतीकों ऐतिहासिक महापुरुषों, किसी पहचान से जुड़े समारोहों व परम्पराओं का राजनीतिक उपयोग किया जाता है । उदाहरण के लिये बहुजन समाज अर्टी द्वारा दलित पहचान को तथा कई क्षेत्रीय दलों द्वारा क्षेत्रीय पहचान को प्रोत्साहित करने का प्रयास किया गया है ।
दलित सशक्तीकरण 1990 के दशक की भारतीय राजनीति की एक प्रमुख विशेषता है । दलित पहचान की राजनीति इसका मुख्य आधार है । अभी तक उत्तर भारत की दलित जातियों ने मुख्यत: कांग्रेस का समर्थन किया है, लेकिन अब वे स्वयं सत्ता प्राप्त करने में सफल हुई हैं । राजनीतिक प्रक्रिया में उनका प्रभाव निरन्तर बढ़ रहा है ।