Read this article in Hindi to learn about the role of India in the United Nations.
संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना 24 अक्टूबर, 1945 को द्वितीय विश्व के युद्ध के पश्चात भावी पीढ़ियों को युद्ध की विभिषिका से बचाने हेतु की गई थी, क्योंकि विश्व शांति तथा सुरक्षा बनाए रखना आज के युग की सर्वोपरि आवश्यकता है । संयुक्त राष्ट्र संघ अपनी पाँच दशकीय यात्रा पूरी कर चुका है जिसमें उसके सामने अनेक विवाद एवं समस्याएं आई । इन समस्याओं का कुछ तो समाधान करने में वह सफल रहा तो कुछ में असफल रहा । सफलता एवं असफलता को बडे राष्ट्रों विशेषकर सोवियत संघ एवं अमेरिका ने प्रभावित किया ।
भारत संयुक्त राष्ट्र का संस्थापक सदस्य रहा है और उसकी संस्कृति, सभ्यता एवं विदेश नीति भी ”वसुधैव कुटुम्बकम्” एवं (पंचशील) जैसे सिद्धांतों पर आधारित है । जो संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रमुख ध्येय अंतर्राष्ट्रीय शांति एवं सुरक्षा से सर्वथा मेल खाती है । उभरती अर्थव्यवस्था, विशाल जनसंख्या महत्वपूर्ण एवं विशाल भौगोलिक क्षेत्र होने के कारण भारत संयुक्ता राष्ट्र का एक महत्वपूर्ण सदस्य है ।
भारत संयुक्त राष्ट्र के कार्यक्रमों एवं नीतियों का समर्थक रहा है, क्योंकि वह अंतर्राष्ट्रीय शांति एवं सुरक्षा में उसकी उपयोगिता को समझता है । संयुक्त राष्ट्र के प्रति समर्थन को व्यक्त करते हुए पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि – “संयुक्त राष्ट्र हमारे जीवन में इतना महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर चुका है कि उसके बिना हम विश्व की कल्पना भी नहीं कर सकते ।”
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भारतीय विदेश नीति का आधारभूत सिद्धांत गुटनिरपेक्षता तथा शांतिपूर्ण सहअस्तित्व रहा है । भारत के द्वारा शांति व व्यवस्था की स्थापना के लिए जातिवाद, नस्लवाद, साम्राज्वाद, रंगभेद, उपनिवेशवाद, नवउपनिवेशवाद एवं आर्थिक शोषण का डटकर विरोध किया जाता रहा है ।
भारत द्वारा संयुक्त राष्ट्र संघ के विश्व शांति एवं सुरक्षा लाने के तमाम प्रयत्नों में आगे बढ़कर अपनी भूमिका का निर्वाह किया है । भारत की संयुक्त राष्ट्र संघ में भूमिका को निम्नलिखित बिंदुओं के अंर्तगत वर्णन किया जा सकता है ।
1. उपनिवेशवाद की समाप्ति तथा भारत (End of Colonialism and India):
भारत ने शुरू से ही संयुक्त राष्ट्र संघ में अफ्रो-आशियाई तथा लैटिन अमेरिकी महाद्वीप के देशों में विद्यमान उपनिवेशवाद के खिलाफ आवाज उठाई है और उसे मानवीय गरिमा के अपमान की संज्ञा दी हैं । भारत ने यही तक घोषणा कि है कि उपनिवेशवाद न केवल अंतर्राष्ट्रीय शांति व प्रगति में बाधक है बल्कि संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर की भी अवहेलना है ।
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औपनिवेशिक दासता से आजादी दिलाने के संबंध में भारत ने अन्य राष्ट्रों को साथ लेकर एक प्रस्ताव राष्ट्र की महासभा में रखा । इस प्रस्ताव को स्वीकार करते हुए महासभा ने 1961 में इसको कार्यान्वित करने के लिए एक विशेष, समिति का गठन किया ।
इस समिति में एक सदस्य होने के नाते भारत ने हमेशा ही सक्रिय भूमिका निभाई । भारत की ही पहल पर 1946 में संयुक्त राष्ट्र ने अपने पहले अधिवेशन में एक प्रस्ताव पारित कर जातिवाद को संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर के विरूद्ध घोषित किया है ।
2. निशस्त्रीकरण और भारत की भूमिका संयुक्त राष्ट्र के संबंध में (Disarmament and India’s Role in Relation to the United Nations):
भारत ने शांति की अपनी नीति पर चलते हुए संयुक्त राष्ट्र के निशस्त्रीकरण कार्यक्रमों को अपना पूरा समर्थन दिया है । संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा के 13वें अधिवेशन 1958 में निशस्त्रीकरण के बारे में भारत ने दो महत्वपूर्ण प्रस्ताव पारित किए-प्रथम, निशस्त्रीकरण पर समझौता होने से पूर्व ही आणविक परीक्षण तुरत रोक दिये जाए ।
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द्वितीय, आकस्मिक आक्रमण तुरंत बद करने की संभावना के प्रश्न पर विचार किया जाए तथा निशस्त्रीकरण के नियम तमाम छोटे तथा बडे देशों पर समान रूप से लागू होने चाहिए ।
3. अंतर्राष्ट्रीय विरोध समाधान की दिशा में भारत और संयुक्त राष्ट्र संघ (India and the United Nations Organization):
अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में भारत ने दो देशों के बीच उत्पन्न होने वाली समस्याओं के समाधान में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है । उदाहरण के तौर पर कोरिया, हिंदचीन, वियतनाम, स्वेज, हंगरी, काँगरो, सीरिया-टर्की विवाद, अल्लीरिया आदि संकटों के दौरान युद्ध भड़कने वाली ज्वाला को भारत जैसे शांतिप्रिय राष्ट्र ने संयुक्त राष्ट्र संघ के साथ मिलकर शांत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई ।
भारत ने संयुक्त राष्ट्र संध की इराक मामले पर समर्थन दिया लेकिन साथ ही संयुक्त राष्ट्र पर अमेरिकी प्रभुत्व की आलोचना भी की ।
4. नई अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था और भारत (New International Economic System and India):
भारत ने विकासशील देशों के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ के समक्ष नई अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था का प्रस्ताव पेश किया है ताकि विकासशील देश विश्व के अन्य विकसित देशों के साथ आर्थिक क्षेत्र में संपन्न बन सके । संयुक्त राष्ट्र की महासभा ने मई 1974 में अपने विशेष अधिवेशन में NIEO की स्थापना हेतु पारित घोषणा एवं कार्यक्रम में वर्तमान प्रचलित आर्थिक व्यवस्था का नूतन ढाँचा प्रस्तुत किया ।
‘नूतन आर्थिक व्यवस्था’ की स्थापना की माँग ऐसी माँग है जिससे एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के अधिकांश राष्ट्र सहमत हैं । भारत की पहल पर इस अवधारणा को बल मिला है ।
5. संयुक्त राष्ट्र शांति सेना और भारत (United Nations Peacekeeping Force and India):
भारत ने विश्व शांति तथा सुरक्षा के मद्देनजर संयुक्त राष्ट्र संघ की शांति सेवाओं में अपनी सहायता प्रदान की है । भारत ने कोरिया युद्ध के समय लगभग 5600 सैनिक शांति सैनिको को भेजा । इसके अलावा मध्य-पूर्व, लेबनान, कार्गों, साइप्रस, यमन, नामीबिया, इरान/इराक, इराक-कुवैत, अंगोला मध्य अमेरिका, युगोस्लाविया, कम्बोडिया, मोजाम्बबिक तथा लाइबेरिया में शांति स्थापना के प्रयत्नों के चलते अपने शांति सैनिक भेजे ।
वियतनाम युद्ध में भारत ने लगभग 7,000 सैनिकों को शांति सेना के रूप में भेजा । इस प्रकार भारत संयुक्त राष्ट्र संघ में अपने शांति सैनिकों के माध्यम से विश्व शांति के लिये अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रयास करता रहा है ।
विवेचनोपरांत स्पष्ट है कि विश्व शांति एवं सुरक्षा कायम करने के उद्देश्य से स्थापित संयुक्त राष्ट्र संघ का भारत प्रबल समर्थक रहा है । 1945 से लेकर आज तक संयुक्त राष्ट्र संघ की शांति प्रक्रिया में भारत ने उसका साथ दिया है ।
भारत की कूटनीतिक सूझबूझ एवं रचनात्मक भूमिका ने जहाँ एक ओर विश्व जन-मानस को तीसरे महायुद्ध की तबाही से बचाया है वहीं विश्व के गरीब-देश नई समस्याओं व चुनौतियों का मुकाबला करने में सक्षम हो पाए हैं ।
भारत ने नवोदित राष्ट्रों की आवाज को अंतर्राष्ट्रीय गुटबंदी से अलग वैदेशिक नीति का विकल्प प्रस्तुत किया है । भारत ने अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में तनाव कम करने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ को हर संभव सहयोग दिया है ।
भारत ने महत्वपूर्ण विवादों को अंतर्राष्ट्रीय कानून के अनुसार संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत की बहुत ही महत्वपूर्ण एवं जनहितकारी भूमिका रही है । आने वाले दिनों में भारत की भूमिका और भी सुदृढ़ होगी ऐसी आशा की जाती है । भारत की संयुक्त राष्ट्र संघ में और प्रभावकारी भूमिका निभाने के लिए आवश्यक है कि सुरक्षा परिषद का भारत को स्थायी सदस्य बनाया जाए, जिसकी माँग भारत वर्षों से करता आ रहा है ।
संयुक्त राष्ट्र संघ पुनर्गठन तथा सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता का भारत का दावा:
सुरक्षा परिषद के विस्तार की माँग लंबे समय से चलती आ रही है । शीत युद्ध में केवल एक महाशक्ति अब बच गई है जिसका संयुक्त राष्ट्र पर प्रभुत्व स्थापित हो गया है । खाडी युद्ध, खाडी युद्धोत्तर प्रस्ताव, लीबिया पर प्रतिबंध, NPT, CTBT आतंकवाद का विश्व व्यापी बढ़ता वर्चस्व तथा अन्य कई मुद्दों पर सुरक्षा परिषद की कार्यवाही आदि इस पर अमेरिका के बढ़ते प्रभुत्व को प्रतिबिम्बित करते है ।
इस बदलते समीकरण ने, संयुक्त राष्ट्रसंघ की पुन: संरचना करने, इसका लोकतंत्रीकरण करने तथा इसको सुदृढ़ता प्रदान करने की आवश्यकता को एक महत्वपूर्ण ध्यान केंद्र बना दिया है ।
इस तेजी से बदलती विश्व व्यवस्था में भारत ने भी संयुक्त राष्ट्र संघ के पुन: निर्माण, लोकतंत्रीकरण तथा सुदृढ़ बनाने की माँग का जोरदार समर्थन किया है । इस तरह के विचार स्वर्गीय राजीव गाँधी ने 1989 महासभा में भाषण के दौरान प्रस्तुत किये थे । 31 जनवरी, 1992 को सुरक्षा परिषद में शिखर सम्मेलन के दौरान प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने इस प्रकार के विचार को पुन: बलपूर्वक दोहराया ।
भारत सुरक्षा परिषद की सदस्य संख्या को बढाने, इसके स्थाई सदस्यों में और राज्यों को शामिल करने तथा इसके निर्णय करने की प्रक्रिया के पुन: निर्माण के पक्ष में है ।
भारत ने इस सबध में निम्नलिखित आधार प्रस्तुत भारत किया है:
1. संयुक्त राष्ट्र की सदस्य संख्या 51 से बढ्कर 191 तक जा पहुँची है, इस कारण सुरक्षा परिषद् सदस्य संख्या भी बढाई जानी चाहिए । भारत चाहता है कि इसकी संख्या 21 या 27 कर दी जानी चाहिए ।
2. सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्यों की संख्या में भी बढ़ोतरी की जानी चाहिए । स्थाई सदस्यता ऐसे देशों को ही मिलनी चाहिए जिन्होंने अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में संयुक्त राष्ट्र के उद्देश्यों के अनूरूप विश्व शांति के लिए ठोस प्रयास किये हैं ।
3. भारत ने स्थाई सदस्यता के लिए अपना दावा पेश करते हुए नाइजीरिया, जापान, जर्मनी, मिस्र तथा ब्राजील को भी स्थाई सदस्यता प्रदान करने की वकालत करता आ रहा है ।
4. वर्तमान स्थाई सदस्य विश्व की एकमात्र महाशक्ति अमेरिका के बढ़ते निरात्रण को न तो अंकुश लगाना चाहते हैं, न ही उनमें ऐसा करने की योग्यता है । अत: सुरक्षा परिषद का विस्तार अमेरिकी दादागिरी को रोकने के लिए आवश्यक है ।
5. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का विस्तार तथा लोकतंत्रीकरण, विश्व शांति बनाए रखने, अंतर्राष्ट्रीय विरोध समाधान तथा निवारक कूटनीति में इसकी भूमिका को सुदृढ़ बनाने के लिए आवश्यक है ।
6. सुरक्षा परिषद में अफ्रीका तथा लैटिन अमेरिका को स्थायी प्रतिनिधित्व देने तथा एशिया की स्थाई सदस्यता में वृद्धि करने की आवश्यकता आज अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की आवश्यकता है ।
7. परिवर्तित अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में सुरक्षा परिषद को पहले से अधिक सक्रिय तथा सशक्त भूमिका निभानी है । संयुक्त राष्ट्र संघ के विभिन्न प्रस्तावों को लागू करने, विश्व संस्था को सुदृढ करने के लिए सुरक्षा परिषद को भी सुदृढ़ करना आवश्यक है । अतः इस परिषद के कार्यों में सुस्पष्टता तथा इसका लोकतंत्रीकरण करने की आवश्यकता है । इन तर्कों के आधार पर भारत सुरक्षा परिषद के पुनर्निर्माण का दृढ़ समर्थन करता है ।
भारत का दमदार दावा:
भारत संयुक्त राष्ट्र संघ का स्थाई संस्थापक राष्ट्र रहा है और शुरू से ही संयुक्त राष्ट्र संघ के विभिन्न अंगों एवं अभिकरणों में यथासंभव अपना सहयोग देता रहा है । भारत ने कई देशों में अपने शांति सैनिकों को संयुक्त राष्ट्र की शांति सेना के साथ भेजा है । अतः संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद में उसका दावा सर्वथा उचित है ।
जनवरी 1992 में सुरक्षा परिषद के शिखर सम्मेलन में भारत ने जापान के साथ मिलकर यह माँग रखी कि जापान तथा भारत जनसंख्या के मामले में क्रमशः दूसरा एवं छठा स्थान रखते हैं । शक्तिशाली अर्थव्यवस्था वाला देश है तथा वह इस संस्था को वित्तीय योगदान देने में दूसरा स्थान रखता है । भारत औद्योगिक तथा कुल राष्ट्रीय उत्पादन में विश्व के पहले दस देशों में से एक है ।
इसलिए यह स्वाभाविक ही है कि सुरक्षा परिषद के विस्तार की माँग इन्हीं दो देशों के द्वारा उठाई गई है । सितंबर, 1992 के ‘NAM’ शिखर सम्मेलन में भारत की इस माँग का समर्थन किया गया ।
संयुक्त राष्ट्र की महासभा में दिसंबर, 1991 में भारत अल्जीरिया, ब्राजील, मिस्र, मैक्सिको तथा वैनेजुएला ने यह माँग रखी । सितंबर, 1992 में भारत ने औपचारिक रूप से अपने स्थाई सदस्य बनाए जाने के दावे को पेश कर दिया कि, जब कभी भी सुरक्षा परिषद का विस्तार किया जाए उसे स्थाई सदस्य बना दिया जाए । भारत अपने दावे के प्रति बहुत गंभीर भी है और इसी के चलते भारत ने विश्व जनमत को अपनी ओर करते हुए तमाम विकासशील राष्ट्रों को इसके लिए अपना समर्थन देने का अदवान किया है ।
NAM ने भी अपने कोलम्बिया (1995) के सम्मेलन में इस बात के लिए सहमति दी है कि परिषद में गुटनिरपेक्ष देशों की सदस्य संख्या बढ़ाई जानी चाहिए पर जापान तथा कोरिया जैसे देशों को भी अस्थाई सदस्य देशों के रूप में नियुक्त किया गया । इन देशों का अस्थाई सदस्य बनाने का प्रस्ताव पश्चिमी देशों ने किया है ।
कई राष्ट्रों के सुझावों के अनुसार परिषद के सदस्यों के तीन स्तर होने चाहिए:
(1) स्थाई सदस्य वीटो पॉवर के समय
(2) स्थाई शक्ति जिनके पास साधारण मतदान की शक्ति हो
(3) अस्थाई सदस्य जिनके पास साधारण मतदान की शक्ति हो ।
इतना सब होते हुए भी सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता प्राप्त करना भारत के लिए आसान नहीं है । अक्टूबर 1996 में जब संयुक्त राष्ट्र के अस्थाई सदस्यों का चुनाव हुआ था तो उसमें एशिया से भारत व जापान उम्मीदवार थे । गुटनिरपेक्ष देशों के बल पर भारत अपनी जीत सुनिश्चित मान रहा था पर परिणाम आने पर जापान 142 मत पाकर निर्वाचित हो गया । इस पराजय से भारत की स्थाई सदस्यता पाने के दावे को गहरा धक्का लगा ।
भारत ने जापान पर आरोप लगाया कि उसने पैसों के बल पर गुटनिरपेक्ष देशों को खरीद लिया है । अब भारतीय कूटनीति को नए सिरे से प्रयास करना होगा, उसे गुटनिरपेक्ष देशों को यह विश्वास दिलाना होगा कि स्थाई सदस्यता के मसले पर वह जापान की अपेक्षा भारत का समर्थन करें क्योंकि वह भी उनकी तरह एक विकासशील देश है ।
भारत को इस मुद्दे पर चीन एवं पाकिस्तान से भी सतर्क रहने की आवश्यकता है । चीन यह कभी नहीं चाहेगा कि उसका पडोसी सुरक्षा परिषद में उसके समकक्ष बैठे । आपसी विवादों के चलते पाकिस्तान भी भारत की दावेदारी को कमजोर करने की कोशिश करेगा ।
भारत द्वारा मई, 1998 में किये गए परमाणु परीक्षण की राजनीतिक शक्तियों द्वारा तीव्र निंदा के कारण भी भारत की संयुक्त राष्ट्र परिषद में दावेदारी निर्बल हो गई है । वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यह सदस्यता मिलना और भी मुश्किल हो गया है ।
अगर सुरक्षा परिषद में संशोधन होता है, तब भारत का दावा मजबूत होता है, पर यह महासभा के सदस्यों के राजनीतिक हितों पर निर्भर करता है । अगर यह माँग स्वीकार कर ली जाए तो संयुक्त राष्ट्र के चार्टर में संशोधन करने पडेंगे जो वर्तमान पाँच स्थाई सदस्यों की सहमति के बिना नहीं हो सकते ।
इसलिए सुरक्षा परिषद के विस्तार तथा स्थाई सदस्य बनने की भारत की माँग की स्वीकृति के अवसर कुछ धूमिल नजर आते हैं । विश्व जनमत को नई विश्व व्यवस्था में संयुक्त राष्ट्र के पुर्नगठन की माँग के पीछे अभी अपना पूरा बल लगाना है ।
फिर भी जो परिवर्तन हो रहें हैं वे संयुक्त राष्ट्र संघ का पुर्नगठन करा सकेंगे ताकि यह अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में कम से कम 21वीं सदी के पहले दशक में ही और अधिक सशक्त, वस्तुगत तथा प्रभावशाली भूमिका निभा सके । तब तक भारत, तथा अन्य विकासशील राष्ट्रों को इस माँग के पक्ष में विश्व जनमत तैयार करने में जुटे रहना चाहिए ।
निष्कर्ष:
अतः निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि संयुक्त राष्ट्र संघ के अस्तित्व में आने के समय से लेकर आज तक भारत के योगदान एवं सहयोग को देखते हुए भारत की सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्यता की माँग करना एकदम दुरुस्त है । वर्ष 1998 में भारत द्वारा परमाणु परीक्षण करने से संयुक्त राष्ट्र के कई सदस्य राष्ट्रों ने भारत की आलोचना की है लेकिन यह सत्य है कि भारत द्वारा राष्ट्रीय हित में ही इस प्रकार के परीक्षण किया गए हैं ।
इसलिए संयुक्त राष्ट्र के ढाँचे एवं चार्टर में आज के परिप्रेक्ष्य में बदलाव आवश्यक है । अगर आने वाले समय में सुरक्षा परिषद में कुछ बदलाव आता है, तो उसमें भारत का दावा सबसे सशक्त बनता है ।