Read this article in Hindi to learn about:- 1. नये सामाजिक आंदोलन का अर्थ (Meaning of New Social Movement) 2. भारत में नये सामाजिक आंदोलन (New Social Movement in India) 3. प्रकार (Types) 4. उदय व विकास के कारण (Reasons for Rise and Development) 5. सामाजिक आंदोलनों की आवश्यकता (Need for Learning these Social Movements).

Contents:

  1. नये सामाजिक आंदोलन का अर्थ (Meaning of New Social Movement)
  2. भारत में नये सामाजिक आंदोलन (New Social Movement in India)
  3. सामाजिक आंदोलन के दो प्रकार (Two Types of Social Movement)
  4. नये सामाजिक आन्दोलनों के उदय व विकास के कारण (Reasons for Rise and Development of New Social Movement)
  5. सामाजिक आंदोलनों की आवश्यकता (Need for Learning these Social Movements)


1. नये सामाजिक आंदोलन का अर्थ (Meaning of New Social Movement):

नये सामाजिक आन्दोलन सामाजिक आन्दोलन का ही एक रूप है । 1960 के दशक में पश्चिमी देशों में औद्योगिक समाज के पश्चात् की परिस्थितियों में जिन सामाजिक आन्दोलनों का उदय हुआ उन्हें नये सामाजिक आन्दोलन कहा जाता है ।

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इन आन्दोलनों का नयापन इस बात में था कि इनका उद्देश्य पूर्व के आन्दोलनों (उदाहरण के लिये श्रमिक आन्दोलन) की भांति आर्थिक लाभ प्राप्त करना न होकर सामाजिक सांस्कृतिक बदलाव अथवा किसी सामाजिक हित की पूर्ति करना होता है ।

उदाहरण के लिये महिलाओं के अधिकारों की रक्षा पर्यावरण अथवा मानवाधिकारों की रक्षा के लिये चलाये गये आन्दोलनों को नये आन्दोलन कहा जाता है । प्रसिद्ध विचारक हबरमास ने इन्हें ‘नई राजनीति’ की संज्ञा दी है । भारत में इस तरह के आन्दोलनों का विकास 1970 के दशक में आपातकाल की परिस्थिति में नागरिक अधिकारों की रक्षा के उद्देश्य से हुआ था ।

तब से लेकर अब तक भारत में सामाजिक हितों की पूर्ति के लिये ऐसे आन्दोलनों का निरन्तर विकास होता रहा है । ये आन्दोलन भारत में नागरिक समाज अथवा सिविल सोसाइटी के विकास का भी अंग है । नागरिक समाज का तात्पर्य सामाजिक हित में किये गये सभी गैर-सरकारी प्रयासों से है । नागरिक समाज जितना विकसित होगा सरकार की मनमानी पर उतना ही अंकुश लगेगा तथा लोकतंत्र उतना ही मजबूत होगा ।

सामाजिक आन्दोलन की विशेषताएँ (Features of Social Movement):

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सामाजिक आन्दोलन की निम्न विशेषताएं हैं:

1. सामाजिक आन्दोलन एक गैर-सरकारी तथा जनता का स्वैच्छिक प्रयास है ।

2. सामान्यत: यह आन्दोलन लोकतांत्रिक व्यवस्था में संचालित होते हैं ।

3. सामाजिक आन्दोलन एक सामूहिक प्रयास है ।

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4. सामाजिक आन्दोलन का उद्देश्य किसी सामाजिक उद्देश्य की पूर्ति से होता है । जैसे- महिलाओं की स्थिति में सुधार, मानवाधिकारों की रक्षा, कमजोर वर्गों का कल्याण व विकास आदि ।

5. आमतौर पर लोकतन्त्र में यह आंदोलन शांतिपूर्ण साधनों को अपनाते हैं, लेकिन यदा-कदा यह आन्दोलन हिंसक रूप भी ग्रहण कर सकते हैं ।


2. भारत में नये सामाजिक आंदोलन (New Social Movement in India):

लोकतांत्रिक व्यवस्था की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि यह शान्तिपूर्ण विरोध का अवसर प्रदान करती है तथा समाज में शान्तिपूर्ण परिवर्तनों का अवसर प्रदान करती है । सामाजिक आन्दोलन लोकतांत्रिक प्रक्रिया की देन है ।

नये सामाजिक आन्दोलनों का तात्पर्य उन आन्दोलनों से है जो सामाजिक परिवर्तन के लिये आवश्यक नये सरोकारों को उठाते हैं नयी माँगों के आधार पर सामाजिक परिवर्तन का सामूहिक प्रयास करते हैं ।

सामाजिक आन्दोलन का तात्पर्य एक निश्चित उद्देश्य को प्राप्त किये जाने वाले सामूहिक प्रयास से है । इसका उद्देश्य सामाजिक परिवर्तन के लक्ष्य को प्राप्त करना है । लोकतंत्र में सामूहिक प्रयास शांतिपूर्ण ही हो सकते हैं । अत: सामाजिक आन्दोलन के अन्तर्गत शांतिपूर्ण सामूहिक प्रयासों के माध्यम से सामाजिक परिवर्तन का प्रयास किया जाता है ।

नये सामाजिक आन्दोलनों की विशेषताएँ (Features of New Social Movement):

नये सामाजिक आन्दोलनों की कतिपय विशेषताएँ हैं जो उन्हें पुराने सामाजिक आन्दोलनों से अलग करती हैं:

(i) पुराने आन्दोलनों के विपरीत नये सामाजिक आन्दोलनों का उद्देश्य आर्थिक लाभ न होकर सामाजिक व सांस्कृतिक हितों की पूर्ति करना होता है ।

(ii) नये आन्दोलन स्वैच्छिक आधार पर चलाये जाते हैं । लोक हित से इनका संबन्ध होने के कारण इन्हें जनता का अपने आप समर्थन प्राप्त होता है ।

(iii) पुराने आन्दोलनों के विपरीत नये आन्दोलनों का संगठन शिथिल होता है । इनका कोई औपचारिक संगठन नहीं होता । जब तक जनता का समर्थन प्राप्त होता रहता है, ये आन्दोलन स्वतः चलते रहते है ।

(iv) ये आन्दोलन राजनीतिक नहीं होते और न ही किसी राजनीतिक विचारधारा से बँधे होते हैं । इनके विचार इनके मुख्य मुद्‌दे के अनुसार होते हैं ।


3. सामाजिक आंदोलन के दो प्रकार (Two Types of Social Movement):

भारत में आजादी के बाद सामाजिक आन्दोलनों के दो व्यापक रूप सामने आये- प्रथम, राजनीतिक दलों के संरक्षण में चलाये गये तथा दूसरे, राजनीतिक दलों के बिना स्वतंत्र रूप से चलाये गये सामाजिक आन्दोलन । इन दोनों प्रकार के आन्दोलनों का अलग-अलग विवरण आवश्यक है ।

राजनीतिक दलों की देख-रेख में जो सामाजिक आन्दोलन चलाये जाते हैं, वे सामाजिक परिवर्तन के साथ-साथ राजनीतिक दल की विचारधारा को भी आगे बढ़ाने का प्रयास करते हैं । ऐसे आन्दोलनों का नेतृत्व भी राजनीतिक दलों द्वारा प्रदान किया जाता है । दूसरी तरफ राजनीति दलों से अलग स्वतंत्र रूप से चलाये जाने वाले अधिक व्यापक होते हैं । वे किसी राजनीतिक विचारधारा के विरोधी व समर्थक नहीं होते । उसमें स्वतंत्र रूप से किसी सामाजिक लक्ष्य की प्राप्ति हेतु स्वैच्छिक आधार पर आन्दोलन चलाये जाते हैं ।

1. दल आधारित आन्दोलन (Party Based Movement):

दल आधारित आन्दोलन राजनीतिक दलों की देख-रेख में चलाये जाते हैं । आमतौर पर ये राजनीतिक आन्दोलन होते हैं, लेकिन ये सामाजिक आन्दोलन का रूप भी ले लेते है । क्योंकि इनके द्वारा सामाजिक परिवर्तन का प्रयास किया जाता है । उदाहरण के लिए भारत का राष्ट्रीय आन्दोलन एक राजनीतिक आन्दोलन था ।

लेकिन आन्दोलन के दौरान सामाजिक तथा आर्थिक मुद्दों को भी उठाया गया । जिससे प्रेरित होकर नये सामाजिक आन्दोलनों की शुरुआत हुई । इनके प्रमुख उदाहरण हैं- जाति विरोधी आन्दोलन किसानों के आन्दोलन कमजोर वर्गों के कल्याण चलाये गये आन्दोलन आदि । इनमें से कई आन्दोलन आजादी के बाद भी चलते रहे । इन आन्दोलनों में भारतीय समाज की मौलिक समस्याओं को उठाया गया ।

आजादी के बाद दल आधारित निम्नलिखित आन्दोलन चलाये गये:

(i) श्रमिक आन्दोलन (Labour Movement):

आजादी के पूर्व ही देश के कतिपय शहरों जैसे- मुम्बई, कलकत्ता, कानपुर में कई उद्योगों की स्थापना की गयी थी । आजादी के बाद इन शहरों का और अधिक औद्योगीकरण किया गया । इसके परिणामस्वरूप भारत के प्रमुख औद्योगिक शहरों में श्रमिक वर्ग का संकेन्द्रण हो गया ।

श्रमिक वर्ग के हितों की रक्षा के लिए तथा उनका राजनीतिक समर्थन प्राप्त करने के लिए विभिन्न राजनीतिक दलों ने अपने श्रमिक संगठन स्थापित किये । उदाहरण के लिए कांग्रेस के संरक्षण में इण्डियन ट्रेड यूनियन कांग्रेस (INTUC) तथा भारतीय साम्यवादी पार्टी के नेतृत्व में ऑल इण्डिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (AITUC) नामक श्रमिक संगठन कार्यरत है ।

सीटू अथवा सेण्टर आफ इण्डियन ट्रेड यूनियन (CITU) मार्क्सवादी पार्टी का श्रमिक संगठन है । इसी तरह समाजवादी पार्टियों का हिन्द मजदूर सभा (HMS) पर प्रभाव रहा है तथा भारतीय मजदूर परिषद भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में कार्यरत श्रमिक संगठन है ।

श्रमिक संगठनों द्वारा अपनी मजदूरी बढ़ाने काम के घण्टे कम करने तथा काम की अन्य परिस्थितियों में सुधार करने की माँग को लेकर समय-समय पर कई आन्दोलन चलाये गये हैं । 1974 की रेलवे कर्मचारियों की हड़ताल इसका एक प्रमुख उदाहरण है ।

(ii) तेलंगाना किसान आन्दोलन (Telangana Kisan Movement):

भारत में साम्यवादी पार्टी के नेतृत्व में आन्ध्र प्रदेश में 1946 में एक कृषक आन्दोलन चलाया गया था जिसे तेलंगाना किसान आन्दोलन के नाम से जाना जाता है । इस आन्दोलन में भूमिहीन किसानों ने विभिन्न स्थानों पर लोक समितियों की स्थापना की । इन समितियों द्वारा करीब 10 लाख एकड़ भूमि इन किसानों में बाँटी गयी । इस प्रकार इस आन्दोलन का मुख्य उद्देश्य जमींदारी व्यवस्था को समाप्त कर भूमिहीन किसानों में भूमि का आवंटन करना था । यह आन्दोलन अक्टूबर 1951 तक चलता रहा ।

(iii) नक्सलवादी आंदोलन (Naxalite Movement):

यद्यपि नक्सलवादी आंदोलन वर्तमान में एक स्वतंत्र आन्दोलन का रूप धारण कर गया है, लेकिन इसकी शुरुआत 1967 में मार्क्सवादी पार्टी के एक गुट द्वारा की गयी थी । मूलत: यह एक कृषक आन्दोलन था ।

इसे नक्सलवादी आन्दोलन इसलिए कहा जाता है, क्योंकि इसकी शुरुआत पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिले में स्थित नक्सलवादी नामक स्थान से हुई थी । धीरे-धीरे यह आन्दोलन देश के अन्य भागों में फैल गया है । अभी इस आन्दोलन में किसानों के अतिरिक्त मजदूर तथा जनजातीय समुदाय के लोग भी शामिल हो गये हैं ।

इस आन्दोलन को व्यवस्थित रूप से चलाने के लिए 1 मई, 1969 को इस आन्दोलन के दो प्रमुख नेताओं चारू मजूमदार तथा कानू सान्याल ने मार्क्सवादी पार्टी से अलग होकर एक नई पार्टी की स्थापना की जिसका नाम लेनिनवादी-मार्क्सवादी पार्टी रखा गया ।

इस पार्टी की विचारधारा चीन के साम्यवादी नेता माओत्से-तुंग से प्रभावित थी । नक्सलवादी विचारधारा के अनुसार सशस्त्र विद्रोह और हिंसा के द्वारा ही सामाजिक परिवर्तन लाया जा सकता है । नक्सलवादी भारत के संविधान और लोकतंत्र में विश्वास नहीं रखते हैं ।

वे गुरिल्ला युद्ध तथा हिंसक आन्दोलन के माध्यम से समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन लाना चाहते हैं । आरंभ में सुरक्षा बलों ने नक्सलवादी आन्दोलन विद्रोह को दबाने के लिए भरसक प्रयास किये । कई नेता बंदी बनाये गये तथा कई नेता भूमिगत हो गये । 1969 से 1972 के बीच में करीब 400 नक्सलवादी मारे गये ।

सल्वा जुदूम (2005-2011) [Salva Judum (2005-2011)]:

भारत में छत्तीसगढ़, झारखण्ड, बिहार, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, आन्धप्रदेश आदि राज्य नक्सलवादी समस्या से सर्वाधिक ग्रसित हैं । छत्तीसगढ़ में 2005 में नक्सलवादी चुनौती का सामना करने के लिये कांग्रेसी नेता महेन्द्र कर्मा के प्रयास से सल्वा जुदूम की स्थापना की गयी थी । सल्वा जुदूम गैर-सरकारी तौर पर गठित ग्रामीण युवाओं के सशस्त्र समूह हैं ।

फिर भी इन समूहों को राज्य सरकार द्वारा शस्त्र व प्रशिक्षण प्रदान किया जाता था । इनका मुख्य कार्य नक्सलवादी आक्रमण से ग्रामीणों की रक्षा करना था । सल्वा जुदूम गोंड जनजाति की गोंडी भाषा का शब्द है जिसका शाब्दिक अर्थ होता है- शान्ति मार्च अर्थात् शुद्धीकरण हेतु शिकार ।

5 जुलाई, 2011 को सर्वोच्च न्यायालय ने गैर-सरकारी तौर पर गठित सल्वा जुदूम को यह कहकर अवैध घोषित कर दिया कि सुरक्षा प्रदान करना सरकार का दायित्व है । इसके लिये निजी सुरक्षा समूहों को अनुमति नहीं दी जा सकती । इसके बाद 2011 में सल्वा जुदूम को भंग कर दिया गया ।

कई मानवाधिकार समूहों ने भी इन समूहों की आलोचना की थी । यह आरोप लगाया गया कि इनमें से कुछ समूह आपराधिक गतिविधियों में भी सलग्न हैं तथा इनमें ग्रामीण युवाओं का शोषण होता है । इसके संस्थापक महेन्द्र कमी की 25 मई, 2013 को नक्सलवादियों द्वारा हत्या कर दी गयी ।

(iv) नक्सलवाद से निबटने के लिये भारत सरकार की रणनीति (Indian Government’s Strategy to Deal with Naxalism)

भारत सरकार ने नक्सलवादी आन्दोलन को भारत की प्रमुख आन्तरिक सुरक्षा चुनौती माना है तथा इसकी रोकथाम के उपाय किये है । वर्तमान में यह आन्दोलन भारत में अत्यंत हिंसक रूप ग्रहण कर चुका है ।

भारत सरकार ने नक्सलवाद की चुनौती का सामना करने के लिए जो रणनीति अपनाई है, उसके निम्नलिखित दो पहलू महत्त्वपूर्ण हैं:

a. नक्सलवादी हिंसा का सामना करने के लिए अर्धसैनिक बलों की तैनाती तथा राज्य सरकार की पुलिस व्यवस्था के साथ सहयोग व समन्वय । सुरक्षा बलों को नये हथियार, प्रशिक्षण तथा सूचना उपकरण भी उपलब्ध कराये जा रहे हैं ।

b. चूंकि नक्सलवाद की समस्या का मूल कारण प्रभावित क्षेत्रों का आर्थिक व सामाजिक पिछड़ापन है, अत: नक्सल प्रभावित क्षेत्रों के तीव्र सामाजिक और आर्थिक विकास के लिए विशेष कार्यक्रम व योजनायें लागू की जा रही हैं । ये विकास योजनाएँ नक्सलवादी समस्या के स्थाई समाधान में सहायक होंगी ।

2. गैर-दलीय आंदोलन (Non-Party Movement):

गैर-दलीय आंदोलन वे आंदोलन हैं, जो राजनीतिक दलों के नियन्त्रण के बिना किसी सामाजिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए चलाये जाते हैं । सही अर्थों में इन्हें ही नये सामाजिक आन्दोलनों की संज्ञा दी जा सकती है । राजनीतिक दलों से स्वतंत्र होने के कारण इन आन्दोलनों को जनता का व्यापक समर्थन प्राप्त हुआ है ।

भारत में नये सामाजिक आन्दोलनों में पर्यावरण आन्दोलन नारी आन्दोलन छात्र आन्दोलन किसान आन्दोलन, मानवाधिकार की रक्षा तथा सूचना के अधिकार की प्राप्ति हेतु आन्दोलन आदि प्रमुख आन्दोलन हैं ।


4. नये सामाजिक आन्दोलनों के उदय व विकास के कारण (Reasons for Rise and Development of New Social Movement):

भारत में नये सामाजिक आन्दोलनों की शुरुआत 1970 व 1980 के दशक में हुई है ।

इन आन्दोलनों के उदय व विकास के निम्नलिखित कारण महत्त्वपूर्ण हैं:

1. आर्थिक असंतोष व असमानता (Economic Dissatisfaction and Inequality):

भारत में आजादी के बाद नियोजित विकास की रणनीति अपनाई गयी । आरंभ की तीन पंचवर्षीय योजनाओं में यद्यपि देश का आर्थिक विकास हुआ लेकिन देश में गरीबी बेरोजगारी तथा कुपोषण की समस्याओं का समाधान नहीं हो सका ।

विकास के साथ ही देश के विभिन्न वर्गों व क्षेत्रों में आर्थिक असमानता बड़ी है । इन समस्याओं तथा असमानता के कारण समाज के विभिन्न वर्गों विशेषकर कमजोर वर्गों में सामाजिक असंतोष बढ़ा है । नये सामाजिक आन्दोलन इसी असंतोष की अभिव्यक्ति हैं ।

2. राजनीतिक व्यवस्था की असफलता (Failure of the Political System):

भारत में जो लोकतंत्र का स्वरूप है, उसके संचालन में राजनीतिक दलों की मुख्य भूमिका है । लेकिन राजनीतिक दल आन्तरिक प्रजातंत्र के अभाव भ्रष्टाचार तथा गुटबन्दी जैसी समस्याओं से ग्रस्त हैं । अतः आजादी के बाद जिस राजनीतिक संस्कृति का विकास हुआ उससे जनता का मोह भंग होने लगा । 1975 में देश में आपातकाल को लागू किया गया ।

आपातकाल देश की सामाजिक व आर्थिक समस्याओं के समाधान में राजनीतिक व्यवस्था की असफलता का प्रतीक है । इसने भारतीय लोकतंत्र के सामने नई चुनौती खड़ी कर दी । राजनीतिक क्रियाकलापों पर रोक लगा दी गयी । इस परिप्रेक्ष्य में भारत में नये नागरिक समाज संगठनों के विकास का अवसर प्राप्त हुआ ।

नागरिक अधिकारों की रक्षा हेतु कई स्वैच्छिक संगठन इस काल में गठित किये गये । पुन: राजनीतिक व्यवस्था द्वारा देश की महत्त्वपूर्ण सामाजिक और आर्थिक समस्याओं के समाधान में न तो संवेदनशीलता का प्रदर्शन किया गया और न ही इन समस्याओं के प्रभावी समाधान के उपाय अपनाये गये । अत: इन समस्याओं के समाधान के लिए जनता को कतिपय नये उपायों की आवश्यकता अनुभव हुई । कई सामाजिक आन्दोलन इस तरह के उपायों के प्रतीक ही हैं ।

3. जनता में बढ़ती जागरूकता (Increasing Awareness among the Public):

आजादी के बाद भारत में लोकतंत्र के क्रियान्वयन संचार माध्यमों के विकास तथा शिक्षा के विस्तार के कारण जन-जागरूकता में वृद्धि हुई है । परिणामस्वरूप जनता के विभिन्न वर्ग अपने अधिकारों तथा दायित्वों के प्रति अधिक सचेत हो गये है ।

ऐसे कमजोर वर्ग जो लम्बे समय तक शोषण के शिकार रहे हैं, उन्होंने अपने अधिकारों की माँग शुरू की है । दलित आन्दोलन इसी प्रकार का एक आन्दोलन है । महिलाओं के अधिकारों की रक्षा तथा कमजोर वर्गों के मानवाधिकारों की रक्षा में चलाये गये आन्दोलन काफी हद तक भारत में बढ़ती जन-जागरूकता का परिणाम है ।

4. वैश्वीकरण तथा नई आर्थिक नीतियाँ (Globalization and New Economic Policies):

1990 के दशक से पूरी दुनिया में वैश्वीकरण तथा पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की जड़ें मजबूत हुई हैं । भारत ने भी 1991 में उदारवादी आर्थिक नीतियों को अपनाया है । इन नीतियों के कारण जहाँ निजीकरण व बाजारू प्रतियोगिता को बढ़ावा मिला है, वहीं दूसरी तरफ कमजोर वर्गों के कल्याण में सरकार की भूमिका भी कम हुई है ।

इसके साथ ही वैश्वीकरण ने देशों के बीच पारस्परिक निर्भरता को बढ़ावा प्रदान किया है । तीव्र आर्थिक विकास के साथ-साथ गरीबी बेरोजगारी आर्थिक असमानता क्षेत्रीय असंतुलन पर्यावरण विघटन आदि की चुनौतियाँ खड़ी हो गयी हैं । अत: सामाजिक आन्दोलनों को चलाने के लिए नये मुद्‌दों व सरोकार सामने आ गये हैं । इन मुद्दों व चुनौतियों ने नये सामाजिक आन्दोलनों को गति प्रदान की है ।

5. आधुनिक संचार माध्यम (Modern Communication Media):

भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था होने के कारण आजादी के बाद से ही विभिन्न संचार माध्यमों को स्वतंत्रता प्राप्त रही है । लेकिन सूचना क्रांति के वर्तमान युग में नये संचार साधनों जैसे- इण्टरनेट, ई-मेल, कम्प्यूटर, एस.एम.एस. आदि ने समाज में व्यक्ति तथा सामाजिक अन्त क्रिया का दायरा बढ़ा दिया है ।

संचार के ये नये साधन नये सामाजिक आन्दोलनों के संचालन व विकास में सहायक है । 2011 व 2012 में अरब देशों में जो लोकतांत्रिक आन्दोलन चलाये गये हैं उनमें आन्दोलन को विस्तार देने तथा संगठित करने में नये संचार माध्यमों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है ।


5. सामाजिक आंदोलनों की आवश्यकता (Need for Learning these Social Movements):

भारत में नये सामाजिक आंदोलनों का उदय और विकास 1970 के दशक से आरंभ होता है । इन आन्दोलनों द्वारा कई नये मुद्दों जैसे- पर्यावरण रक्षा, मानवाधिकार, महिलाओं तथा कमजोर वर्गों के अधिकार, भ्रष्टाचार आदि को उठाया गया है ।

इन आन्दोलनों से हमें निम्न सीख प्राप्त होती हैं:

1. ये आंदोलन भारत की लोकतान्त्रिक राजनीति को समझने में सहायक हैं । इन्हें लोकतंत्र में समस्या न मानकर राजनीति का आवश्यक अंग समझा जाना चाहिए । वास्तव में बहुत से ऐसे सामाजिक समूह व उनके विशिष्ट हित हैं जिनका समाधान चुनावी राजनीति के अंतर्गत नहीं हो सका था । अत: सामाजिक आन्दोलनों के माध्यम से सामाजिक समूहों के नये मुद्दों को उठाया गया है ।

अत: इन सामाजिक आन्दोलनों के कारण ही भारतीय लोकतंत्र में सामाजिक संघर्ष तथा असंतोष की हिंसक अभिव्यक्ति की संभावना को कम किया जा सका है । इन आन्दोलनों ने लोकतंत्र में जनसहभागिता को व्यापक रूप प्रदान किया है तथा उसे मजबूत बनाने में सहायक सिद्ध हुये हैं ।

2. इन आन्दोलनों में यदि जनसहभागिता के स्वरूप को देखा जाये तो स्पष्ट होता है कि इनमें मुख्य रूप से समाज के पिछड़े व कमजोर वर्गों की भागीदारी अधिक रही है । अत: ये आन्दोलन समाज के वंचित और कमजोर वर्गों के हितों की पूर्ति में काफी हद तक सहायक सिद्ध हुये हैं । इन आन्दोलनों के कारण ही कुछ सीमा तक कमजोर वर्गों की आवाज राजनीति की मुख्य धारा तक पहुँचने में सफल हो सकी है ।

3. 1990 के दशक से भारत में वैश्वीकरण के अंतर्गत आर्थिक उदारीकरण की नीतियों को अपनाया गया । वर्तमान में भारत के सभी राजनीतिक दल आर्थिक उदारीकरण की नीति को लागू करने में अपनी सहमति व्यक्त कर चुके हैं । लेकिन आर्थिक उदारीकरण और वैश्वीकरण के कारण समाज के कमजोर वर्गों पर जो विपरीत प्रभाव पड़ेगा उसकी ओर राजनीति में अधिक ध्यान नहीं दिया जा रहा है ।

इन सामाजिक आन्दोलनों का एक प्रमुख योगदान यह है कि ये वैश्वीकरण तथा आर्थिक उदारीकरण के नकारात्मक परिणामों की ओर हमारा ध्यान खीचतें हैं तथा उसके समाधान के लिए सामूहिक प्रयासों को प्रोत्साहित करते हैं । अत: वैश्वीकरण के युग में इन आन्दोलनों का विशेष महत्व है ।

4. नये सामाजिक आन्दोलनों में केवल विरोधी और सामूहिक कार्यवाही के तत्व ही शामिल नहीं हैं बल्कि इनके द्वारा समाज के कमजोर वर्गों महिलाओं आदि में उनके अधिकारों तथा भूमिका के प्रति जागरूकता भी उत्पन्न की गयी है । अत: इन आन्दोलनों ने भारत में लोकतंत्र के विस्तार में सहायता पहुँचाई है । नागरिकों की जागरूकता के बिना लोकतंत्र सफल नहीं हो सकता ।

5. नये सामाजिक आन्दोलनों की एक प्रमुख भूमिका यह भी रही है कि इन्होंने उपेक्षित मुद्दों की ओर सरकार का ध्यान खींचने में सफलता प्राप्त की है । इन सामाजिक आन्दोलनों के कारण सरकार में जवाबदेही व खुलापन को बढ़ावा मिला है । अत: नये सामाजिक आन्दोलन सुशासन (Good Governance) की धारणा को व्यावहारिक रूप देने के लिए आवश्यक है ।

6. वर्तमान समय में सरकार (Government), बाजार (Market) तथा नागरिक समाज (Civil Society) लोक व्यवस्था के तीन स्तम्भ माने गये हैं । नये सामाजिक आन्दोलन भारत में नागरिक समाज के विकास में सहायक हैं । नागरिक समाज का तात्पर्य उन सभी गैर-सरकारी संगठनों व सामूहिक प्रयासों से है, जो जनहित की पूर्ति का कार्य करते हैं । भारत में नागरिक समाज अभी शैशवास्था में है । ये आन्दोलन भारत में नागरिक समाज के मजबूत होते आधार का संकेत देते हैं तथा उसके विकास में इनकी भूमिका महत्त्वपूर्ण है ।

7. लेकिन जहाँ तक सरकारी नीतियों का संबंध है, उनके निर्माण में इन आन्दोलनों की सीमित भूमिका रही है । इसका कारण यह है कि ये आन्दोलन किसी एक अथवा स्थानीय मुद्दे को लेकर चलाये गये हैं, जिसमें कई बार किसी एक विशिष्ट समूह के हितों की पूर्ति का प्रयास किया गया है । इसीलिए सरकार ने नीति निर्माण में इन आन्दोलनों की माँगों को शामिल करने का प्रयास नहीं किया ।

अत: आवश्यकता इस बात की है कि भारत के लोकतांत्रिक राजनीति में इस तरह के सामाजिक आन्दोलनों का एक व्यापक गठबन्धन तैयार हो । तभी नीति निर्माण में इनकी प्रभावी भूमिका को सुनिश्चित किया जा सकता है । अभी इस तरह के गठबन्धन के आसार नहीं दिखायी दे रहे हैं ।

भारत में राष्ट्रीय राजनीतिक दल भी कमजोर वर्गों के सरोकारों के प्रति संवेदनशील नहीं हैं । अत: भारत में नये सामाजिक आन्दोलनों का दायरा सीमित रह गया है । भारत में नये सामाजिक आन्दोलनों तथा राजनीतिक दलों के बीच सम्बन्धों की कड़ी अत्यंत कमजोर है, जिससे मुख्य धारा की राजनीति में नये सरोकारों के प्रति शून्यता की स्थिति उत्पन्न हो रही है । यह भारतीय राजनीतिक व्यवस्था की एक प्रमुख समस्या है ।

इस सम्बन्ध में एक नया विकास यह देखने में आया है कि कतिपय सामाजिक आन्दोलन ही राजनीतिक दल का रूप ग्रहण कर सकते हैं । उदाहरण के लिए अन्ना हजारे द्वारा जो भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन 2011 में चलाया गया था वह आन्दोलन अब एक राजनीतिक दल का रूप ग्रहण कर रहा है । दिल्ली में कार्यरत् आम आदमी पार्टी इसी का उदाहरण है । इस तरह के परिवर्तन के द्वारा राजनीतिक प्रक्रिया में सामाजिक सरोकारों को केन्द्रीय स्थान प्राप्त हो सकता है ।