Read this article in Hindi to learn about the seven social movements of India. The social movements are:- 1.  दलित पैंथर्स (Dalit Panthers) 2. भारतीय किसान यूनियन (भाकियू) [Indian Farmer Union (Bhakiyu)] 3. नेशनल फिश वर्कर्स फोरम (National Fish Workers’ Forum) 4. ताड़ी विरोधी आंदोलन (Anti-Arrack Movement) and Few Others.

Social Movement # 1. दलित पैंथर्स (Dalit Panthers):

महाराष्ट्र में जातीय समानता तथा दलितों के कल्याण के लिए कई आन्दोलन चलाये गये हैं । आजादी के पूर्व 19वीं शताब्दी में प्रसिद्ध समाज सुधारक ज्योतिबा फुले ने अपनी संस्था सत्य शोधक समाज के माध्यम से महाराष्ट्र में जातिगत् विषमताओं के विरुद्ध आवाज उठाई ।

20वीं शताब्दी में भीमराव अम्बेडकर ने अनुसूचित जातियों के अधिकारों के लिए संवैधानिक व राजनीतिक संघर्ष किया । दलितों में जागरूकता उत्पन्न करने तथा उन्हें संगठित करने में डा. अम्बेडकर का महत्त्वपूर्ण योगदान है । उनके प्रयासों से भारतीय संविधान में व्यवस्थापिकाओं में आरक्षण के साथ-साथ सरकारी सेवाओं में भी दलितों को आरक्षण प्रदान किया गया ।

संविधान की धारा 17 के अंतर्गत छुआछूत को समाप्त किया गया । इसके बावजूद भी आजादी के बाद दलितों की सामाजिक स्थिति में आशानुरूप परिवर्तन नहीं हुआ । आजादी के कई दशकों बाद भी दलित महिलायें कई प्रकार के अत्याचार व शोषण की शिकार हैं । गाँवों में दलित बस्तियों को मुख्य गाँव से अलग रखा जाता है तथा गाँव की सुविधाओं के प्रयोग में दलितों को अनेक प्रकार के भेद-भाव का सामना करना पड़ता है । यद्यपि महाराष्ट्र में रिपब्लिकन पार्टी ने चुनावों के माध्यम से दलितों के शोषण व विषमताओं को उठाने का प्रयास किया, लेकिन उसे कोई खास सफलता नहीं मिली ।

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महाराष्ट्र में दलित समस्याओं व जातिगत विषमताओं को दलित कवियों व लेखकों द्वारा 1970 के दशक में प्रमुखता से व्यक्त किया गया । इन कवियों में महाराष्ट्र के प्रसिद्ध कवि नामदेव धसाल का नाम प्रमुख है, जिन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से जातिगत अत्याचारों और विषमताओं पर प्रकाश डाला तथा दलितों को आगे बढ़ने और संघर्ष करने की प्रेरणा प्रदान की । इसी पृष्ठभूमि में 1970 के दशक में महाराष्ट्र में एक नये दलित आन्दोलन की शुरुआत हुई जिसे दलित पैंथर के नाम से जानते हैं ।

दलित पैंथर की स्थापना:

दलित पैंथर दलित युवाओं का एक उग्र-दलित संगठन है, जिसकी स्थापना महाराष्ट्र में 1972 में की गयी थी । दलित पैंथर के सदस्य पढ़े-लिखे दलित युवा हैं तथा अपने संवैधानिक और कानूनी अधिकारों की माँग के लिए दलित पैंथर को एक प्रभावी मंच के रूप में प्रयोग करते रहे हैं । दलित पैंथर के द्वारा जातिगत विषमताओं अन्याय शोषण व अत्याचार के विरुद्ध आन्दोलन किया गया है ।

दलित आन्दोलन:

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दलित पैंथर ने सामूहिक जन-आन्दोलन के माध्यम से दलित अधिकारों को प्राप्त करने का प्रयास किया । उनका मुख्य ध्यान महाराष्ट्र के विभिन्न भागों में हो रहे दलित विरोधी अत्याचारों का विरोध करना था । उनके निरन्तर संघर्ष के परिणामस्वरूप सरकार ने 1989 में एक व्यापक कानून बनाया जिसमें दलितों के प्रति अत्याचार करने वाले लोगों को कठोर दंड देने की व्यवस्था की गयी है । दलित पैंथर की विचारधारा यह है कि जाति प्रथा को समाप्त कर दिया जाये तथा समाज के विभिन्न शोषित और पीड़ित कमजोर वर्गों का एक बड़ा संगठन किया जाये ।

दलित पैंथर ने शिक्षित दलित युवाओं को एक ऐसा मच प्रदान किया है, जिसके माध्यम से वे अपनी रचनात्मक क्षमता और विरोध दोनों को व्यक्त कर सकते हैं । दलित लेखकों ने अपनी जीवनी तथा अन्य रचनाओं के माध्यम से दलित अत्याचारों के प्रति कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त की है ।

इन दलित रचनाओं ने महाराष्ट्र में साहित्य को एक नई दिशा प्रदान की है । इसी के कारण साहित्य का आधार व्यापक हुआ है तथा उसमें विभिन्न सामाजिक वर्गों से जुड़े सरोकारों को शामिल किया गया है ।

आपातकाल के बाद दलित पैंथर ने चुनाव प्रक्रिया में भी भाग लेना शुरू किया । इसके कारण इसमें कई विभाजन हुए तथा धीरे-धीरे इसका प्रभाव कम हो गया । इसको जो दलित समाज में स्थान प्राप्त था धीरे-धीरे वह स्थान अन्य संगठनों ने प्राप्त कर लिया । इनमें बाम सेफ अथवा बैकवर्ड तथा माइनॉरिटी कम्युनिटीज एम्प्लाईज फेडरेशन का नाम प्रमुख है ।

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इनमें बाम सेफ के गठन में प्रमुख दलित नेता काशीराम की भूमिका प्रमुख थी । 1980 के दशक में उत्तर भारत में दलितों की राजनीतिक अभिव्यक्ति के लिए काशीराम ने बहुजन समाज पार्टी की स्थापना की । इस पार्टी द्वारा दलितों के संघर्ष की विरासत को समेटने का प्रयास किया गया है । इस पार्टी के प्रमुख प्रेरणा स्रोत भी ज्योतिबा फुले तथा अम्बेडकर जैसे नेता हैं । बहुजन समाज पार्टी को उत्तर प्रदेश में 2007 में अपने बल पर सत्ता प्राप्त करने में सफलता मिली ।

Social Movement # 2. भारतीय किसान यूनियन (भाकियू) [Indian Farmer Union (Bhakiyu)]:

सातवें दशक में भारत में सामाजिक असंतोष की अभिव्यक्ति विभिन्न स्तरों पर हुई । यद्यपि उत्तर प्रदेश हरियाणा तथा पंजाब के किसानों को 1960 के दशक की हरित क्रांति के माध्यम से काफी लाभ हुआ लेकिन धनी कृषक वर्ग सरकार की नीतियों तथा राजनीतिक दलों के क्रियाकलापों से संतुष्ट नहीं था । अत: 1980 के दशक में जो भारतीय किसान यूनियन द्वारा जो किसान आन्दोलन चलाया गया वह धनी किसानों का एक आन्दोलन है ।

भारतीय किसान यूनियन किसानों का एक प्रमुख संगठन है तथा उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब व राजस्थान में इसका व्यापक प्रभाव है । भारतीय किसान यूनियन के 20 हजार से अधिक सदस्य किसानों ने जनवरी 1988 में उत्तर प्रदेश के मेरठ शहर में आयुक्त कार्यालय की घेराबन्दी की ।

वे सरकार द्वारा बिजली की दरों में बढ़ोत्तरी के निर्णय का विरोध कर रहे थे । इन किसानों ने तीन सप्ताह तक आयुक्त कार्यालय की घेराबन्दी की । जब तक कि उनकी माँगों को मान नहीं लिया गया । यह आन्दोलन अनुशासन के साथ चलाया गया तथा आन्दोलनकारियों को आसपास के गांवों से भोजन तथा अन्य सुविधायें नियमित आधार पर प्राप्त होती रहीं । मेरठ का यह आन्दोलन ग्रामीण किसानों की नई ताकत का प्रदर्शन था ।

यह एक उल्लेखनीय तथ्य है कि धनी किसानों द्वारा आन्दोलन का आयोजन किया गया । वस्तुत: 1960 के दशक में हरित क्रांति के कारण पश्चिमी उत्तर प्रदेश तथा हरियाणा व पंजाब के किसानों की सम्पन्नता में वृद्धि हुई । गन्ना तथा गेहूँ उनकी मुख्य नकदी फसलें थी ।

1980 के दशक में आर्थिक उदारीकरण के कारण नकदी फसलों के बाजार में गिरावट आयी तथा धनी किसानों को नुकसान हुआ । इसी आलोक में भारतीय किसान यूनियन ने गन्ना तथा गेहूँ के लिए अधिक कीमतों की माँग की । इसके साथ ही उनकी माँगे थीं- राज्यों के मध्य कृषि उत्पाद के आवागमन में छूट सस्ती दरों पर बिजली की सुनिश्चित आपूर्ति किसानों को दिये गये ऋण की माफी तथा किसानों के लिए सरकारी पेंशन की व्यवस्था आदि ।

शेतकारी संगठन (Farming Organization):

शेतकारी सगठन महाराष्ट्र के किसानों का एक प्रमुख संगठन है । इसकी स्थापना 1978 में संसद सदस्य तथा किसान शरद जोशी द्वारा की गयी थी । इसका मुख्य उद्देश्य किसानों की फसल के लिये उचित कीमतें सुनिश्चित करना है । उन्होंने अपने आन्दोलन को भारत बनाम इण्डिया का आन्दोलन कहा है ।

यहाँ भारत का तात्पर्य ग्रामीण कृषि क्षेत्र से है तथा इण्डिया का तात्पर्य शहरी औद्योगिक क्षेत्र से है । इस संगठन ने भी कृषि उत्पादों को उचित मूल्य, बिजली की सस्ती आपूर्ति, किसानों की ऋण माफी जैसी माँगों को महाराष्ट्र में उठाया है ।

1980 के दशक में जब आर्थिक उदारीकरण की प्रक्रिया आरंभ हुई तो कृषि क्षेत्र का स्थान गौण होने लगा और इसीलिए कृषि क्षेत्र में 1980 और 1990 के दशक में किसान आन्दोलन का प्रभाव अधिक रहा । 2004 में इस आन्दोलन में फूट पड़ गयी तथा राजू शेट्‌टी ने इससे अलग होकर स्वाभिमान शेतकारी संगठन नामक एक अलग किसान संगठन की स्थापना कर ली है ।

अपनी माँगों को मनवाने के लिए भारतीय किसान यूनियन ने सरकार पर दबाव डालने की रणनीति अपनाई । इसके लिए उसने रैली प्रदर्शन धरना जेल भरो आदि उपायों का सहारा लिया । इस आन्दोलन में हजारों तथा लाखों की नादान में हरियाणा तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों ने भाग लिया भारतीय किसान यूनियन ने 1980 के दशक में उत्तर प्रदेश के विभिन्न जिला मुख्यालयों तथा राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में रैलियों और प्रदर्शनों का आयोजन किया ।

इस कल में भारतीय किमान यूनियन में जाट समुदाय के किसानों का प्रभुत्व था, अत: संगठन की शक्ति को बढ़ाने के लिए जाति पंचायतों का भी प्रयोग किया गया । इन पंचायतों द्वारा ही किसान यूनियन के वित्तीय संसाधन उपलब्ध कराये गये । इसी जातीय नेटवर्क के कारण भारतीय किसान यूनियन बिना किसी औपचारिक संगठन के लम्बे समय आन्दोलन करने में सफल रहा ।

1990 के प्रारम्भिक वर्षों तक भारतीय किसान यूनियन में अपने को राजनीतिक दलों से अलग रखा तथा स्वतंत्र दबाव समूह के रूप में कार्य किया । इसके आन्दोलन के कारण किसानों की बहुत सारी माँगे सरकार द्वारा स्वीकार की गयीं । अत: 1980 का दशक किसान आन्दोलन के लिए एक सफल आन्दोलन था ।

चूंकि यह धनी किसानों का आन्दोलन था अत: इसके पास आन्दोलन चलाने के लिए संसाधनों की कमी नहीं थी । इस संगठन की सफलता का एक बड़ा कारण यही था । छोटे किसानों के मध्य भारतीय किसान यूनियन अधिक लोकप्रिय नहीं हुआ ।

भारतीय किसान यूनियन ने अन्य प्रदेशों के महत्त्वपूर्ण किसान संगठनों जैसे- महाराष्ट्र के शेतकारी संगठन व कर्नाटक के रायत संघ के साथ समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया ।

Social Movement # 3. नेशनल फिश वर्कर्स फोरम (National Fish Workers’ Forum):

यह एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि विश्व में मछुवारों की संख्या के हिसाब से भारत का दूसरा स्थान है भारत में पूरब तथा पश्चिम के तटीय क्षेत्रों में मछुवारों का सकेन्द्रण है तथा इन क्षेत्रों में हजारों की तादात में मछुवारों के परिवार अपनी आजीविका के लिए मछली पकड़ने के व्यवसाय पर निर्भर हैं ये परिवार वर्षों से यहाँ मछली पकड़ने का कार्य करते आये हैं । ये मछुवारे मछली पकड़ने के लिए परम्परागत बोटों तथा तकनीकि का प्रयोग करते हैं |

1970 के दशक में भारत सरकार ने यह निर्णय लिया कि मछली पकड़ने के लिए मशीनीकृत बोटों का प्रयोग किया जा सकता है । इस निर्णय के कारण मधुकरों की आजीविका के सामने संकट खड़ा हो गया क्योंकि वे वित्तीय संसाधनों के अभाव में मशीनी बोटों का प्रयोग नहीं कर सकते थे ।

अत: 1970-80 के दशक में स्थानीय स्तर पर सरकार की इस नई नीति का निरन्तर विरोध किया चूकि मछली पालन राज्य सरकार का विषय है, अत: उनका विरोध स्थानीय स्तर तक ही सीमित रहा ।

1980 के दशक में भारत में आर्थिक उदारीकरण की कतिपय नीतियों को अपनाया गया, जिस कारण मछुवारों को राष्ट्रीय स्तर पर अपने हितों की रक्षा के लिए सगठित होने का प्रयास करना पड़ा इसका परिणाम यह हुआ कि मद्यारों ने राष्ट्रीय मस्कारा मंच अथवा नेशनल फिश वर्कर्स फोरम की स्थापना की ।

केरल के मछुवारों ने अन्य प्रदेशों के मछुवारों को संगठित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई । इस संगठन ने आरंभिक सफलता तक प्राप्त की, जब 1991 में सरकार के विरुद्ध अपने अधिकारी के लिए इन्होंने कानूनी लड़ाई जीत ली । इस लड़ाई का मुख्य बिन्दु यह था कि सरकार ने ।

व्यावसायिक पोतों तथा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को गहरे समुद्र में मछली पकड़ने की अनुमति प्रदान कर दी थी मछुवारों का तर्क था कि मछली पालन उनकी आजीविका का साधन है जबकि बाहगे कम्पनियां लाभ कमाने के लिए मछली पालन का कार्य कर रही हैं ।

विदेशी मछली पकड़ने वाली कम्पनियों को सरकार ने लाइसेंस देने की घोषणा की । जुलाई 2002 में नेशनल फिश वर्कर्स फोरम ने इस निर्णय के विरुद्ध देश व्यापी हड़ताल का आह्वान किया था । इसके साथ ही इस संगठन ने विश्व के अन्य देशों में संघर्षरत् मल्लारों के संगठनों के साथ हाथ मिलाया है । मछुवारों के संघर्ष में आजीविका के साथ-साथ समुद्री पर्यावरण की रक्षा का मुद्दा भी उठाया गया है ।

Social Movement # 4. ताड़ी विरोधी आंदोलन (Anti-Arrack Movement):

शराबखोरी के विरुद्ध एक प्रमुख आंदोलन 1990 के दशक में आंध्र प्रदेश में चलाया गया था । आन्ध्र प्रदेश में स्थानीय शराब को अराक अथवा ताड़ी कहते हैं । इसीलिये शराबबन्दी के इस आन्दोलन को ताड़ी विरोधी आन्दोलन भी कहते हैं । अत: इस आन्दोलन को अराक विरोधी आन्दोलन के नाम से भी जाना जाता है ।

इस आन्दोलन की शुरुआत आन्ध्र प्रदेश के नेल्लौर जिले के दुबागुन्टा गाँव में अक्टूबर 1992 में हुई । इसकी पृष्ठभूमि यह है कि 1990 के दशक में प्रौढ़ साक्षरता कार्यक्रम के अंतर्गत बड़ी संख्या में महिलाओं ने प्रवेश लिया था । शिक्षण के दौरान ही महिलाओं द्वारा उनके परिवार में शराबखोरी की समस्या को भी उठाया गया ।

आन्ध्र प्रदेश के गांवों में शराबखोरी की लम्बी प्रथा थी, जिसके द्वारा पुरुषों का शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य खराब हो रहा था । इसके साथ ही परिवारों की आर्थिक स्थिति भी बिगड़ रही थी । बहुत से परिवार ऋणग्रस्तता के शिकार हो गये । शराबखोरी के शिकार पुरुष रोजगार से दूर हो गये तथा विभिन्न प्रकार के अपराधों में संलग्न हो गये । इस विकट परिस्थिति का परिणाम परिवार की महिलाओं को भुगतना पड़ता था ।

इस पृष्ठभूमि में नेल्लौर जिले की महिलाओं ने स्वतः प्रेरित होकर जिले की शराब की दुकानों को बद कराने के लिए आन्दोलन किया । शीघ्र ही यह समाचार आन्ध्र प्रदेश के अन्य जिलों में प्रसारित हुआ तथा करीब 5 हजार गाँवों में यह आन्दोलन फैल गया । ग्रामीण महिलाओं ने प्रस्ताव पास कर शराबबन्दी के लिए जिलाधिकारियों को प्रत्यावेदन प्रस्तुत किया ।

इस आन्दोलन के कारण नेल्लौर जिले में ही शराब के ठेके की बोली को कई बार स्थगित करना पड़ा । 1980 में निर्मित गोविन्द निहलानी की फिल्म आक्रोश में शराबखोरी की समस्या तथा शराब के माफियाओं की गतिविधियों पर प्रकाश डाला गया है ।

आन्दोलन का विस्तार:

सदस्यता और मुद्दों दोनों की दृष्टि से इस आन्दोलन का विस्तार हुआ तथा धीरे-धीरे शराबबन्दी का यह आन्दोलन महिलाओं की समस्याओं के समाधान के लिए एक सामाजिक आन्दोलन के रूप में बदल गया । यह आन्दोलन धीरे-धीरे आन्ध्र प्रदेश के सभी ग्रामीण क्षेत्रों में फैल गया । इस आन्दोलन में महिलाओं से जुड़े आर्थिक और राजनीतिक सरोकारों को उठाया गया ।

उल्लेखनीय है कि इस आन्दोलन से सबसे अधिक प्रभावित शराब के व्यवसायी थे तथा शराब की बिक्री में कमी होने के कारण सरकार को भी टैक्स के रूप में प्राप्त होने वाली आय में कमी हो रही थी । अत: सरकार और शराब व्यवसायी दोनों ही शराबबन्दी के पक्ष में नहीं थे ।

इस आन्दोलन के दौरान महिलाओं ने घरेलू हिंसा का भी मुद्दा उठाया । धीरे-धीरे इस आन्दोलन में महिलाओं की लैंगिक समानता से जुड़े सभी मुद्दों जैसे-दहेज प्रथा कार्य स्थल पर भेदभाव सम्पत्ति अधिकार आदि को उठाया गया । सबसे बड़ी बात यह है कि महिला आन्दोलन जो शहरी क्षेत्रों तक सीमित था वह ग्रामीण क्षेत्रों में प्रवेश कर गया ।

महिलाओं के सरोकारों से सम्बन्धित इस तरह के सामाजिक आन्दोलनों का परिणाम यह हुआ कि अब महिलाओं की लड़ाई कानूनी सुधार के स्थान पर सामाजिक और राजनीतिक मोर्चे पर आ गयी । देश के विभिन्न स्थानों में महिलाओं ने समान राजनीतिक प्रतिनिधित्व प्राप्त करने की माँग भी उठाई ।

इसके परिणामस्वरूप 73वें और 74वें संविधान संशोधन द्वारा स्थानीय संस्थाओं में महिलाओं को एक-तिहाई सीटों पर आरक्षण प्रदान कर दिया गया है । यह माँग अभी रुकी नहीं है । 2010 में विधानसभा तथा लोकसभा में महिलाओं को एक-तिहाई आरक्षण देने के लिए एक विधेयक प्रस्तुत किया गया था ।

विभिन्न राजनीतिक दलों के विरोध के कारण यह विधेयक लोकसभा में पारित नहीं हो सका तथा अभी भी लम्बित है । विरोध का कारण यह था कि कतिपय राजनीतिक दल व समूह महिलाओं के लिए आरक्षित एक-तिहाई सीटों में दलितों तथा अन्य पिछड़े वर्ग की महिलाओं के लिए अलग आरक्षण की माँग कर रहे हैं । अभी इस विवाद का समाधान नहीं हुआ लेकिन भविष्य में इन संस्थाओं में भी महिलाओं को आरक्षण प्रदान किया जा सकता है ।

Social Movement # 5. नर्मदा बचाओ आंदोलन (Narmada Bachao Andolan):

विकास और पर्यावरण का घनिष्ठ सम्बन्ध है । भारत में अपनाई गयी विकास प्रक्रिया के कारण पर्यावरण विघटन की समस्या भी उत्पन्न हुई है । 1970 के दशक से ही सामाजिक आन्दोलनों द्वारा पर्यावरण के मुद्‌दों को उठाया जाता रहा है । इसी सम्बन्ध में एक प्रमुख मुद्दा नदियों पर बनाये जाने वाले बांधों के लाभ व हानि से सम्बन्धित है ।

यद्यपि विकास के नाम पर ऐसी बड़ी नदी परियोजनाओं को आवश्यक बताया जाता है, लेकिन इनसे होने वाले पर्यावरण के नुकसान तथा कमजोर वर्गों पर उनके प्रभाव पर उतना ध्यान नहीं दिया जाता । यह एक विडम्बना ही है कि कभी भी आज तक किसी धनी पॉश कॉलोनी को उजाड़कर उसके स्थान पर किसी विकास परियोजना की शुरुआत नहीं की गयी । जबकि दूसरी तरफ गरीबों कमजोर वर्गों तथा जनजातियों को विस्थापित कर विकास योजनाओं की शुरुआत के कई उदाहरण हैं ।

नर्मदा बचाओ आन्दोलन बड़ी नदी परियोजनाओं से जुड़े उक्त सरोकारों से सम्बन्धित एक आन्दोलन है । 1980 के दशक में मध्य भारत की नर्मदा घाटी में नर्मदा परियोजना की शुरुआत की गयी । इस परियोजना के अंतर्गत 30 बड़े, 135 मझोले तथा 3000 छोटे बाँधों का निर्माण किया जाना था ।

इस परियोजना के अंतर्गत दो सबसे बड़े प्रस्ताविक बाँध थे- गुजरात में सरदार सरोवर बाँध तथा मध्य प्रदेश में नर्मदा सागर बाँध । इन बाँधों के निर्माण में दोनों प्रदेशों में 245 गाँव डूब सकते थे तथा इनकी जनसंख्या को दूसरे स्थानों पर आवासित किया जाना था । कुल मिलाकर बाँध के परिणामस्वरूप विस्थापितों की जनसंख्या ढाई लाख थी । अत: इन प्रभावित ग्रामीणों द्वारा अपनी भविष्य की चिन्ता होना स्वाभाविक था ।

1989 में नर्मदा बचाओ आन्दोलन द्वारा विस्थापितों से जुड़े मुद्दों को उठाया गया । नर्मदा बचाओ आन्दोलन स्थानीय स्वैच्छिक संगठनों का एक सामूहिक संगठन है । जिसमें विस्थापितों की आजीविका, क्षतिपूर्ति, आवास तथा रोजगार जैसे मुद्दों को उठाया गया है ।

इसी दृष्टि से नर्मदा बचाओ आन्दोलन द्वारा यह माँग की गयी कि इस तरह की बड़ी परियोजनाओं के हानि व लाभ का विस्तृत विवेचन किया जाना चाहिए । महत्त्वपूर्ण बात यह है कि ऐसी योजना में जो सामाजिक लागत निहित होती है, उसका विश्लेषण भी किया जाना चाहिए । परियोजनाओं की सामाजिक लागत में पर्यावरण का विघटन, विस्थापितों की आजीविका की समाप्ति, सांस्कृतिक क्षरण आदि बिन्दु शामिल हैं ।

आरंभ में नर्मदा बचाओ आन्दोलन द्वारा विस्थापितों की समस्या के समाधान की माँग की गयी । बाद में इस आन्दोलन द्वारा ऐसी परियोजनाओं के लागू करने का निर्णय लेने में भी प्रभावित स्थानीय समुदायों को शामिल करने की माँग की गयी ।

इसकी माँग थी कि परियोजना क्षेत्र में स्थित स्थानीय समुदायों को वहाँ के प्राकृतिक संसाधनों जैसे- जल, भूमि तथा वनों पर प्रभावी नियन्त्रण प्राप्त होने चाहिए । इसमें यह भी सवाल उठया गया कि दूसरों को लाभ देने वाली योजनाओं में स्थानीय समुदाय अपने हितों का बलिदान क्यों करें? इस प्रकार नर्मदा बचाओ आन्दोलन ने अपना विस्तार करते हुए नर्मदा परियोजना के विरोध की माँग को प्रबलता से उठाया । इस आन्दोलन का सफल नेतृत्व प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटेकर द्वारा किया गया था ।

इस आंदोलन के परिणामस्वरूप विस्थापितों की समस्या के समाधान के लिए केन्द्र सरकार ने 2003 में राष्ट्रीय पुनर्स्थापन नीति की घोषणा की है । सभी वर्गों ने इस नीति का स्वागत किया है तथा इसे नर्मदा बचाओ आन्दोलन की उपलब्धि माना जाता है । इस नीति के द्वारा विस्थापितों के हितों की रक्षा की जायेगी ।

फिर भी नर्मदा बचाओ आन्दोलन की इस माँग को समर्थन नहीं मिला कि नर्मदा परियोजना को बद कर दिया जाये । भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने भी विस्थापितों के हितों की रक्षा की शर्त के साथ नर्मदा परियोजना को पूरा करने की इजाजत दे दी है । नर्मदा बचाओ आन्दोलन लगभग दो दशकों तक चला ।

इस आन्दोलन में लोकतांत्रिक साधनों को अपनाया गया । इन साधनों में प्रमुख हैं- न्यायपालिका को अपील, अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर समर्थन का प्रयास, माँगों के समर्थन में रैलियों का आयोजन तथा सत्याग्रह आदि ।

फिर भी इस आन्दोलन को मुख्य राजनीतिक दलों द्वारा अधिक समर्थन प्राप्त नहीं हुआ । इससे स्पष्ट होता है कि भारत के राष्ट्रीय दल सामाजिक आन्दोलनों के सरोकारों के प्रति संवेदनशील नहीं है । इस आन्दोलन के कारण देश के विभिन्न भागों में कई छोटे समूहों व आन्दोलनों का उदय हुआ, जो बड़े स्तर की विकास परियोजनाओं का विरोध करते हैं ।

Social Movement # 6. सूचना के अधिकार का आंदोलन (Right to Information Movement):

सूचना का अधिकार लोकतंत्र में अत्यंत आवश्यक है । सूचना के अधिकार के द्वारा ही सरकार की कार्यप्रणाली में खुलापन लाया जा सकता है तथा उसकी जवाबदेही सुनिश्चित की जा सकती है । सूचना के अधिकार का आन्दोलन भारत में एक नया सामाजिक आन्दोलन है, जिसकी शुरुआत 1990 में राजस्थान के अत्यंत पिछड़े क्षेत्र भीम तहसील से हुई ।

राजस्थान सरकार द्वारा ग्रामीण अंचलों में सूखा राहत कार्यक्रम चलाया जा रहा था जिसमें ठेकेदारों व सरकारी अधिकारियों द्वारा घपला करने के लिए गोपनीयता बरती जा रही थी । राजस्थान में कार्यरत् एक जनसंगठन- मजदूर किसान शक्ति संगठन (एम. के. एस. एस.) ने 1990 में राहत कार्य से सम्बन्धित श्रमिकों को दिये गये वेतन तथा उसकी एकाउन्ट की जानकारी माँगी ।

ग्रामीणों ने अपने इस अधिकार पर जोर दिया कि राहत कार्यों के अंतर्गत किन मजदूरों को लगाया गया है तथा उन्हें कितना वेतन दिया गया है । आरंभ में सरकारी अभिकरणों ने इस तरह की जानकारी देने में आनाकानी दिखाई । लेकिन सबको इस बात का ज्ञान था कि बहुत से निर्माण कार्य केवल कागजों में पूरे किये गये हैं, जबकि वे कार्य वास्तव में नहीं कराये गये हैं ।

अत: एम. के. एस. एस. ने 1994 व 1996 में जन-सुनवाई अथवा जनता की अदालतों का आयोजन किया जिसमें प्रशासनिक अधिकारियों को उक्त मामलों पर स्थिति स्पष्ट करने के लिए कहा गया । जन-सुनवाई का कार्यक्रम सफल रहा तथा राजस्थान सरकार ने अपने पंचायती राज अधिनियम में यह संशोधन कर दिया कि ग्रामीण जनता को पंचायतों द्वारा कराये जा रहे विकास कार्यों से सम्बन्धित दस्तावेजों की प्रमाणित प्रतिलिपि प्राप्त करने का अधिकार है । वास्तव में भारत में सूचना का अधिकार लागू करने का यह पहला उदाहरण था तथा एम. के. एस. एस. के आन्दोलन की सफलता थी ।

1996 में मजदूर किसान शक्ति संगठन ने राष्ट्रीय स्तर पर इस अधिकार की माँग के लिए दिल्ली में एक राष्ट्रीय परिषद् की स्थापना की जिसका नाम नेशनल कॉउन्सिल फॉर पीपुल्स राइट टू इन्फार्मेशन रखा गया । सूचना के अधिकार आन्दोलन में सामाजिक कार्यकर्ता अरूणा राय की महत्वपूर्ण भूमिका रही है ।

इसी समय भारतीय प्रेस परिषद, सूरी कमेटी तथा उपभोक्ता प्रशिक्षण शोध संस्थान, दिल्ली द्वारा सामूहिक रूप से संस्तुत सूचना अधिकार अधिनियम पर विचार चल रहा था । यह अधिनियम 2002 में संसद द्वारा पारित किया गया लेकिन यह एक कमजोर अधिनियम था क्योंकि सूचना देने वाले अधिकारियों की जवाबदेही तथा उनके सम्बन्ध में दंड की व्यवस्था स्पष्ट नहीं थी ।

इस अधिनियम का विरोध हुआ तथा इसे कभी नहीं लागू किया गया । इसके बाद संसद में 2004 में एक नया सूचना अधिकार विधेयक प्रस्तुत किया गया । जून 2005 में राष्ट्रपति की स्वीकृति के बाद सूचना का अधिकार अधिनियम कानून का रूप ग्रहण कर गया ।

इसी अधिनियम के अंतर्गत भारत की जनता को सूचना का अधिकार प्रदान किया गया है । अधिनियम के अंतर्गत किसी भी सरकारी कार्यालय व अधिकारी को नागरिकों द्वारा माँगी गई सूचना एक महीने के अंदर देना आवश्यक है । सूचना माँगने के लिए आवेदन शुल्क Rs. 10 निर्धारित किया गया है तथा सूचना न देने वाले अधिकारी के लिए अधिकतम Rs. 25,000 दण्ड की व्यवस्था की गयी है ।

जो सम्बन्धित अधिकारी के वेतन से काटा जायेगा । यद्यपि इस अधिनियम को लागू करने में कई बाधायें हैं, लेकिन धीरे-धीरे अधिनियम का उपयोग बढ़ रहा है तथा सरकार धीरे-धीरे खुलापन तथा जवाबदेही के प्रति संवेदनशील होती जा रही है ।

Social Movement # 7. अन्ना हज़ारे व भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन (Anna Hazare and Anti-Corruption Movement):

नये सामाजिक आन्दोलनों में एक प्रमुख नया आन्दोलन प्रसिद्ध गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे द्वारा 2011-12 में दिल्ली में चलाया गया भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन है, जिसने शीघ्र ही देशव्यापी रूप धारण कर लिया । देश के विभिन्न शहरों में युवकों छात्रों तथा अन्य जागरूक वर्गों का इस आन्दोलन को व्यापक समर्थन मिला ।

आन्दोलन के समर्थन में देश के विभिन्न शहरों में इस अवधि में धरने रैलियाँ तथा गोष्ठियाँ आयोजित की गयीं । इस आंदोलन जन समर्थन जुटाने तथा आन्दोलनकारियों को संगठित करने के लिए आधुनिक सामाजिक मीडिया जैसे एस. एम. एस. ट्विटर, फेसबुक आदि का सफल प्रयोग किया गया । इस आंदोलन को ‘इण्डिया अगेन्स्ट करप्सन’ के नाम से भी जानते हैं ।

इस आन्दोलन में अन्ना के घनिष्ठ सहयोगियों जैसे अरविन्द केजरीवाल, किरन बेदी, प्रशान्त भूषण, कर्नाटक के पूर्व लोकायुक्त सन्तोष हेगडे आदि को अन्ना टीम के नाम से जाना जाता है ।

अन्ना हजारे ने पहली बार 5 अप्रैल, 2011 को अपने सहयोगियों के साथ मिलकर दिल्ली जन्तर मंतर में एक मजबूत जनलोकपाल की स्थापना हेतु आमरण अनशन शुरू किया । उन्होंने अपने अनशन में राजनीतिक दलों के शामिल होने पर रोक लगा दी थी ।

शीघ्र ही उनके समर्थन में यह आन्दोलन देश के विभिन्न शहरों में फैल गया । बंगलूर, मुम्बई, चेन्नई, अहमदाबाद, गोवाहाटी तथा अन्य शहरों में जनता द्वारा सरकार विरोधी आन्दोलन किये गये । इसका कारण यह था कि देश कई जनता विशेषकर युवा वर्ग हाल में ही हुये कई घोटालों जैसे टू-जी स्पेक्ट्रम घोटाला, चारा घोटाला, हवाला कांड, विभिन्न राज्यों के भर्ती घोटाले तथा प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार से उकता गये थे ।

भ्रष्टाचार के मामालों में नेताओं की उदासीनता तथा टालमटोल के कारण जनता की भावनायें भड़क रही थीं । केन्द्र सरकार ने उनकी माँग को मानते हुये 8 अप्रैल, 2011 को जनलोकपाल कानून का मसौदा तैयार करने के लिटे एक कमेटी बनाने की घोषणा की जिसमें अन्ना टीम के प्रतिनिधि भी शामिल होंगे ।

अन्ना हजारे ने 9 अप्रैल 2011 को अपना अनशन समाप्त किया तथा 15 अगस्त तक इस कानून को तैयार करने की सीमा रखी । सरकार की टालमटोल नीति के लिये उन्होंने सरकार के विरुद्ध आवाज़ उठाने में कोई कसर नहीं छोड़ी । 8 जून, 2011 को उन्होंने भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन को भारत के द्वितीय स्वतंत्रता संग्राम की संज्ञा दी ।

इसी बीच 5 जून, 2011 को स्वामी राम देव तथा उनके हजारों समर्थकों ने काले धन तथा भ्रष्टाचार के विरोध में दिल्ली के रामलीला मैदान में भूख हड़ताल की लेकिन उन्हें पुलिस द्वारा जबरन गिरफ्तार किया गया तथा लाठीचार्ज भी किया गया । इस घटना से देश में फिर विरोध प्रदर्शन हुये ।

28 जुलाई को सरकार ने जनलोकपाल कानून का जो मसौदा तैयार किया वह अत्यंत कमजोर था तथा उसमें प्रधानमंत्री न्यायपालिका तथा निम्न स्तर की नौकरशाही को जनलोकपाल के दायरे से बाहर रखा गया था । पूरे देश में इस मसौदे का व्यापक विरोध हुआ । उदाहरण के लिये देश के दस हजार लोगों ने फैक्स भेजकर मजबूत लोकपाल की माँग की तथा कई स्थानों पर विरोध प्रदर्शन किये गये । अन्ना ने इस कानून के मसौदे को क्रूर मजाक की संज्ञा दी तथा 16 अगस्त, 2011 को अनशन करने की घोषणा कर दी ।

लेकिन उन्हें अनशन शुरू होने के चार घण्टे पूर्व 16 अगस्त 2011 को पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया । अन्ना ने जमानत लेने से मना कर दिया तथा जेल में ही अनशन शुरू कर दिया । उनकी माँग थी कि उन्हें रामलीला मैदान में अनशन की अनुमति प्रदान की जाये ।

अन्ना के हिरासत के विरोध में देशव्यापी आन्दोलन हुये । उदाहरण के लिये मुम्बई टैक्सी यूनियन ने 10 अगस्त को टैक्सी सर्विस बन्द रखी तथा इलाहाबाद हाई कोर्ट के वकीलों ने हड़ताल कर दी । अन्तत: सरकार को झुकना पड़ा तथा उन्हें 15 दिनों की आमरण अनशन की अनुमति दी गयी ।

वे 20 अगस्त को जेल से बाहर आये तथा 21 अगस्त 2011 को उन्होंने रामलीला मैदान में पुन: आमरण अनशन शुरू किया । इस दौरान ‘मैं हूँ अन्ना’ नामक नारा बहुत लोकप्रिय हुआ । आन्दोलन के दबाव के कारण 28 अगस्त, 2011 को राज्य सभा में लोकपाल बिल पारित किया गया तथा उसी दिन अन्ना ने अपना अनशन बन्द किया ।

लेकिन बाद में सरकार ने लोकसभा में इसे पास करवाने में फिर आनाकानी दिखाई । अन्तत दिसम्बर 2013 में यह बिल लोक सभा से भी पारित किया गया । इस बीच अन्ना ने 27 सितम्बर 2011 को मुम्बई में जनलोकपाल पारित करने के लिये तीन दिन का अनशन किया था ।

31 मार्च, 2013 को चुनाव में किसी प्रत्याशी को रिजेक्ट करने के मतदाता के अधिकार के लिये उन्होंने अमृतसर शहर से जनतंत्र यात्रा की शुरुआत की । बाद में 2013 में ही सर्वोच्च न्यायालय के एक आदेश से चुनाव में मतदाताओं को सभी प्रत्याशियों को अस्वीकृत करने का नोटो (NATO) अर्थात नन ऑफ द ऑप्सन अधिकार प्राप्त हुआ ।