Read this article in Hindi to learn about:- 1. दक्षिण एशिया का परिचय (Introduction to South Asia) 2. पाकिस्तान में सैनिक तानाशाही व लोकतन्त्र के बीच उठापटक (Tensions between Military Dictatorships and Democracies in Pakistan) 3. नेपाल में लोकतन्त्र का संक्रमण (Democracy Transition in Nepal) 4. श्रीलंका की तमिल समस्या (Tamil Problem of Sri Lanka) and Other Details.
Contents:
- दक्षिण एशिया का परिचय (Introduction to South Asia)
- पाकिस्तान में सैनिक तानाशाही व लोकतन्त्र के बीच उठापटक (Tensions between Military Dictatorships and Democracies in Pakistan)
- नेपाल में लोकतन्त्र का संक्रमण (Democracy Transition in Nepal)
- श्रीलंका की तमिल समस्या (Tamil Problem of Sri Lanka)
- तमिल समस्या तथा भारत की भूमिका (Tamil Problem and Role of India)
- भारत के पड़ोसी देशों के साथ संबंध (Relations with Neighbouring Countries of India)
- दक्षिण एशिया में संघर्ष व सहयोग की प्रक्रिया (Process of Struggle and Cooperation in South Asia)
- संक्षेप में दक्षिण एशिया में क्षेत्रीय सहयोग के मार्ग में निम्नलिखित बाधाएँ है (Barriers to Regional Cooperation in South Asia)
1. दक्षिण एशिया का परिचय (Introduction to South Asia):
दक्षिण एशिया पश्चिम एशिया तथा पूर्वी एशिया के मध्य हिन्द महासागर के उत्तर में स्थित है । दक्षिण एशिया में सार्क अथवा दक्षेस के 8 सदस्य देशों को शामिल किया जाता है- अफगानिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, भारत, नेपाल, मालदीव, पाकिस्तान तथा श्रीलंका । दक्षिण एशिया का कुल भू-क्षेत्रफल 5.1 मिलियन वर्ग किलोमीटर है, जिसमें विश्व की कुल जनसंख्या का 1/6 भाग जनसंख्या निवास करती है ।
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वर्तमान में दक्षिण एशिया की आबादी 1.64 बिलियन आबादी का 40 प्रतिशत हिस्सा गरीबी की रेखा के नीचे जीवन-यापन करता है । दक्षिण एशिया में विश्व के एक-तिहाई गरीब निवास करते हैं । 2012 न में दक्षिण एशिया में कुल सकल राष्ट्रीय उत्पाद मात्र 2.28 ट्रिलियन डॉलर है । विश्व की 16 प्रतिशत जनसंख्या दक्षिण एशिया में निवास करती है, जबकि विश्व के कुल सकल राष्ट्रीय उत्पाद में दक्षिण एशिया का योगदान मात्र 2 प्रतिशत है ।
दक्षिण एशिया में 2012 में औसतन प्रति व्यक्ति राष्ट्रीय आय 1422 डॉलर है । दक्षिण एशिया में बेरोजगारी की समस्या भी भयावह है । विश्व बैंक की एक रिपोर्ट, ‘दक्षिण एशिया में अधिक और बेहतर रोजगार’ 2011 के अनुसार दक्षिण एशिया में बेरोजगारी की समस्या को दूर करने के लिए विश्व के 40 प्रतिशत रोजगारों का सृजन दक्षिण एशिया में करना होगा ।
फिर भी दक्षिण एशिया के कई देशों ने वैश्वीकरण का लाभ उठाया है तथा गत 20 वर्षों में इस क्षेत्र में 6 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि दर दर्ज की गयी है । दक्षिण एशिया विपुल मानवीय व प्राकृतिक संसाधनों से युक्त है तथा यहाँ विकास की व्यापक संभावनाएं भी मौजूद हैं । वर्तमान में इस क्षेत्र के तीन देश- अफगानिस्तान, बांग्लादेश तथा नेपाल अल्पविकसित देशों की श्रेणी में आते हैं ।
भू-क्षेत्रफल, जनसंख्या तथा अर्थव्यवस्था के आधार पर भारत दक्षिण एशिया का सबसे बड़ा देश है । 2012 में भारत का सकल राष्ट्रीय उत्पाद 197 ट्रिलियन डालर था, जो दक्षिण एशिया के कुल सकल राष्ट्रीय उत्पाद का 82 प्रतिशत है । दक्षिण एशिया की कुल आबादी का 76 प्रतिशत हिस्सा भारत में निवास करता है ।
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इसी तरह इस क्षेत्र के कुल भू-भाग का 73 प्रतिशत हिस्सा भारत के अधीन है । इसी तरह दक्षिण एशिया के कुल व्यापार में भारत का हिस्सा दो-तिहाई है । अत: इस क्षेत्र में विकास, शान्ति तथा स्थिरता में भारत की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। भारत दक्षिण एशिया में एक क्षेत्रीय शक्ति है । वैसे भी भारत ने गत् बीस वर्षों में उल्लेखनीय आर्थिक प्रगति की है तथा आज उसकी गणना विश्व की उभरती हुई शक्तियों में की जाती है ।
विश्व शान्ति व सुरक्षा विश्व व्यापार व विकास की दृष्टि से दक्षिण एशिया का सामरिक महत्व है । इस क्षेत्र के देश व हिन्द महासागर प्राकृतिक संसाधनों से युक्त हैं । हिन्द महासागर विश्व के दो महासागरों- प्रशान्त महासागर तथा अटलांटिक महासागर को जोड़ता है । विश्व व्यापार का एक बड़ा हिस्सा हिन्द महासागर से होकर गुजरता है ।
अत: हिन्द महासागर के व्यापार व संचार माध्यमों की सुरक्षा विश्व व्यापार व सुरक्षा की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है । हाल के वर्षों में समुद्री डकैती तथा अवैध तस्करी की बढ़ती घटनाओं ने हिन्द महासागर के समुद्री मार्गों की सुरक्षा को चुनौतीपूर्ण कर दिया है ।
दक्षिण एशिया के कई देशों विशेषकर पाकिस्तान तथा अफगानिस्तान में आतंकवाद ने गहरी जड़ें जमा ली हैं, जो दक्षिण एशिया के लिये ही नहीं वरन् विश्व शान्ति व सुरक्षा के लिये एक गंभीर खतरा है । अत: दक्षिण एशिया का क्षेत्र विश्व शक्तियों के आकर्षण व प्रतिस्पर्द्धा का केन्द्र है ।
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2. पाकिस्तान में सैनिक तानाशाही व लोकतन्त्र के बीच उठापटक (Tensions between Military Dictatorships and Democracies in Pakistan):
जनसंख्या क्षेत्रफल तथा अर्थव्यवस्था के आकार की दृष्टि से पाकिस्तान दक्षिण एशिया में भारत के बाद दूसरा सबसे बड़ा देश है । प्राचीनकाल से 1947 में ब्रिटिश शासन के अन्त तक पाकिस्तान भारत का अभिन्न अंग रहा है ।
1947 में स्वतंत्रता के समय साम्प्रदायिक आधार पर भारत का विभाजन हुआ तथा भारत व पाकिस्तान दो स्वतंत्र राज्यों का उदय हुआ । चूंकि पाकिस्तान का निर्माण ही धर्म के आधार पर हुआ था अत: राजनीतिक प्रक्रिया धार्मिक कट्टरवादी ताकतों से मुक्त नहीं हो सकी ।
भारत के साथ परम्परागत विरोध को आधार बनाकर सेना ने कई बार राजनीतिक सत्ता पर कब्जा करने का प्रयास किया है । इन सबका सम्मिलित परिणाम यह हुआ है कि पाकिस्तान में लोकतंत्र व विकास दोनों को नुकसान पहुंचा है । पाकिस्तान में लोकतंत्र की जड़ें कभी नहीं जम पायीं । पाकिस्तान के अब तक के 66 वर्ष के इतिहास में कई बार सेना तथा प्रतिक्रियावादी तत्वों ने लोकतांत्रिक सरकार को अपदस्थ कर सत्ता अपने हाथ में लेने का काम किया है ।
राजनीतिक अस्थिरता के कारण पाकिस्तान विकास की मौलिक चुनौतियों-गरीबी, असमानता बेरोजगारी ढाँचागत तथा मौलिक नागरिक सुविधाओं का अभाव आदि का समाधान करने में सफल नहीं रहा । लोकतंत्र की कमजोरी के अभाव में आज पाकिस्तान आतंकवाद धार्मिक कट्टरवाद सेना के राजनीतिक हस्तक्षेप जातीय व धार्मिक संघर्ष जैसी गंभीर समस्याओं से ग्रस्त है ।
पाकिस्तान में सैनिक तानाशाही व लोकतंत्र का इतिहास:
पाकिस्तान में लोकतंत्र व सैनिक तानाशाही के बीच रस्साकसी को हम निम्न बिन्दुओं के अन्तर्गत समझ सकते हैं:
(i) 14 अगस्त, 1947 को पाकिस्तान स्वतंत्र देश बना तथा उस इस्लामिक राज्य घोषित किया गया । लियाकत अली पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री तथा जिन्ना पहले गवर्नर-जनरल बने । पाकिस्तान के राष्ट्रपिता जिन्ना पश्चिमी प्रकार के लोकतंत्र के पक्षधर थे, लेकिन 1948 में ही उनकी मृत्यु के कारण वहाँ लोकतंत्र मजबूत नहीं हो सका । 1956 में पाकिस्तान ने नया लोकतांत्रिक संविधान अपनाया ।
(ii) पहला सैनिक शासन (First Military Government), 1958-1969:
अक्टूबर 1958 में सेना प्रमुख अयूब खान ने सेना के सहयोग से नागरिक राष्ट्रपति इस्कंदर मिर्जा को अपदस्थ कर स्वयं राष्ट्रपति बन गये । मिर्जा को देश से निकाल दिया गया तथा अयूब खान ने 11 वर्षों तक शासन किया । 1965 के भारत-पाक युद्ध में पराजय तथा पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में विरोध के चलते 1969 में उन्होंने बिना चुनाव कराये पाकिस्तान का शासन सेना चीफ याहया खान को सौंप दिया ।
(iii) दूसरा सैनिक शासन (Second Military Regime), 1969-1971:
याहया खान ने सैनिक शासनकाल में सरकार के विरोधियों का दमन किया । यद्यपि उन्होंने 1970 में लोकतांत्रिक चुनाव कराये लेकिन जुल्फिकार भुट्टो की बहुमत प्राप्त पीपुल्स पार्टी को सत्ता देने से मना कर दिया । इसी बीच 1971 के भारत-पाक युद्ध में पाकिस्तान की पराजय हुई तथा पूर्वी पाकिस्तान स्वतंत्र होकर बांग्लादेश के रूप में एक स्वतंत्र देश बन गया । तीव्र विरोध के चलते याहया खान ने मजबूर होकर सत्ता की बागडोर भुट्टो को सौंप दी ।
(iv) 1971 से 1977 तक पाकिस्तान में भुट्टो के नेतृत्व में लोकतांत्रिक सरकार रही जिसने सेना को नियंत्रित करने का प्रयास किया, लेकिन कट्टरवादी इस्लामिक तत्वों के विरोध के कारण 1977 के चुनावों के दौरान सेना प्रमुख जिया उल हक ने उनका तख्ता पलट कर जुलाई 1977 में सत्ता अपने हाथ में ले ली ।
(v) तीसरा सैनिक शासन (Third Military Regime), 1977-1988:
जिया-उल-हक ने 1977 से 1988 तक तानाशाही शासन चलाया । उन्होंने 1979 में भुट्टो को फाँसी दे दी तथा इस्लामिक कानून के आधार पर शासन किया । 17 अगस्त, 1988 को एक विमान दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गयी ।
(vi) 1988 से 1999 पाकिस्तान में लोकतांत्रिक सरकारें रहीं । बेनजीर भुट्टो दो बार 1988-1990 तथा 1993 से 1996 तक प्रधानमंत्री रहीं तथा शेष अवधि में नवाज शरीफ प्रधानमंत्री रहे ।
(vii) चौथा सैनिक शासन (Fourth Military Regime), 1999 -2008:
कारगिल युद्ध में पाकिस्तान की पराजय के उपरान्त सेना प्रमुख परवेज मुशर्रफ ने 1999 में प्रधानमंत्री नवाज शरीफ का तख्ता पलट कर सत्ता अपने हाथ में ले ली । उन्होंने 2008 में चुनाव कराकर सत्ता निर्वाचित प्रतिनिधियों को सौंप दी ।
(viii) 2008 के चुनावों में जिस लोकतांत्रिक सरकार का गठन हुआ, उसने पहली बार पाँच वर्ष का अपना कार्यकाल पूरा किया ।
आम चुनाव (General Elections), 2013:
पाकिस्तान की 14वीं राष्ट्रीय सभा तथा चार प्रान्तीय विधानसभाओं के लिए 11 मई 2013 को चुनाव सम्पन्न हुए । पाकिस्तान के चुनावी इतिहास में मतदान का प्रतिशत 1977 के बाद इस बार सबसे अधिक रहा है । पाकिस्तान के 55 प्रतिशत मतदाताओं ने इस चुनाव में भाग लिया । 1977 से लेकर अब तक पाकिस्तान में 8 आम चुनाव हो चुके हैं ।
लेकिन प्रत्येक बार सैनिक शासकों ने शासन पर कब्जा कर लोकतंत्र को कमजोर करने का प्रयास किया है । पाकिस्तान के इतिहास में पहली बार सला परिवर्तन लोकतांत्रिक तरीके से हुआ है । पाकिस्तान में 2008 में आम चुनाव हुए थे तथा चुनाव के परिणामस्वरूप स्थापित लोकतांत्रिक सरकार ने अपना कार्यकाल पूरा किया ।
11 मई, 2013 को सम्पन्न चुनावों में राष्ट्रीय महासभा की 272 सीटों के लिए मतदान हुआ, लेकिन किसी भी पार्टी को सरकार बनाने के लिए आवश्यक 137 सीटें प्राप्त नहीं हुई । फिर भी नवाज शरीफ के नेतृत्व वाली पाकिस्तान मुस्लिम लीग पार्टी को सर्वाधिक 127 स्थान प्राप्त हुए ।
19 मई, 2013 को नवाज शरीफ ने घोषणा की कि उन्हें 19 निर्दलीय सदस्यों का समर्थन प्राप्त है और इस आधार पर उन्होंने पाकिस्तान की नई लोकतांत्रिक सरकार का गठन किया है । यदि पाकिस्तान में लोकतंत्र की जड़ें मजबूत होती हैं तो इससे सैनिक तानाशाही, आतंकवादी तथा कठमुल्लावादी तत्वों पर नियन्त्रण किया जा सकता है ।
लेकिन अब भी पाकिस्तान में लोकतंत्र व राजनीतिक स्थिरता के प्रश्न भविष्य के गर्त में है । पाकिस्तान में अभी तक सत्ता के कई केन्द्र रहे हैं तथा वह राजनीतिक अस्थिरता तथा अनिश्चितता का शिकार रहा है । इसीलिए अमेरिका ने पाकिस्तान को एक असफल राज्य (Failed State) की संज्ञा दी है । 2011 में अरब देशों में हुई लोकतांत्रिक क्रान्तियों के बाद पाकिस्तान में भी लोकतंत्र की उम्मीद जगी है । आतंकवाद की विश्वव्यापी चुनौती के आलोक में अब अमेरिका तथा अन्य पश्चिमी देश भी पाकिस्तान में लोकतंत्र की स्थापना हेतु प्रयासरत हैं ।
पाकिस्तान में लोकतन्त्र की विफलता के कारण (Due to the Failure of Democracy in Pakistan):
भारत व पाकिस्तान दोनों एक साथ स्वतंत्र हुये, भारत में लोकतंत्र सफल रहा परन्तु पाकिस्तान में वह सफल नहीं हो सका ।
इसके निम्न कारण हैं:
1. इस्लामिक कट्टरवाद का राजनीतिक प्रभाव (Political Influence of Islamic Fundamentalism):
पाकिस्तान का जन्म धर्म के आधार पर हुआ है तथा वहां कट्टरवादी ताकतों के हावी होने से लोकतंत्र के लिये आवश्यक पंथनिरपेक्ष नेतृत्व का उदय नहीं हो पाया ।
2. सेना का वर्चस्व (Army Supremacy):
भारत से सुरक्षा का भय उत्पन्न कर सेना ने आरंभ से ही राजनीतिक व्यवस्था में अपना प्रभाव जमा लिया है तथा उसे कट्टरवादी ताकतों का समर्थन प्राप्त रहता है । पाकिस्तान में सेना सत्ता का एक अलग केन्द्र है ।
3. जागरूक मध्यम वर्ग का अभाव (Lack of Consciousness among Middle Class):
पाकिस्तान अब भी सामन्तवादी सोच से ग्रसित है तथा वहाँ उदारवादी लोकतंत्र के लिये आवश्यक मध्यम वर्ग का अभाव है ।
4. आतंकवाद का प्रभाव (Influence of Terrorism):
कट्टरवादी तत्वों के समर्थन के कारण पाकिस्तान में इस्लामिक आतंकवाद ने अपनी जड़ें जमा ली हैं । आतंकवाद शान्ति तथा लोकतंत्र के लिये सबसे बड़ा खतरा है ।
5. अन्तर्राष्ट्रीय हित (International Interest):
विश्व शक्तियों विशेषकर अमेरिका ने 1980 के दशक में अपने सामरिक हितों की दृष्टि से पाकिस्तान सैनिक शासकों को सैनिक व आर्थिक मदद प्रदान कर उनका सहयोग किया है । वैश्विक आतंकवाद की चुनौती के चलते 2001 के बाद अमेरिका व पश्चिमी देशों की सोच में परिवर्तन आया है । लेकिन अब भी पाकिस्तान पर लोकतंत्र की स्थापना हेतु पर्याप्त अन्तर्राष्ट्रीय दबाव का अभाव है ।
3. नेपाल में लोकतन्त्र का संक्रमण (Democracy Transition in Nepal):
नेपाल में राजशाही की स्थापना 1768 में पृथ्वी नारायण शाह द्वारा की गयी थी । तब से लेकर 1960 तक नेपाल में अनियन्त्रित राजशाही का शासन रहा है । 1960 में सीमित लोकतंत्र की धारणा के अंतर्गत राष्ट्रीय पंचायत की व्यवस्था को व्यावहारिक रूप प्रदान किया गया था ।
इस व्यवस्था में शक्तियों का प्रभावी केन्द्र सम्राट ही था तथा सम्राट की देख-रेख में पंचायत व्यवस्था के माध्यम से राजनीतिक स्थिरता देने का प्रयास किया गया । नरेश को प्रधानमंत्री की नियुक्ति व उसे हटाने का अधिकार प्राप्त था ।
यद्यपि राजनीतिक दलों का अस्तित्व इस युग में भी था लेकिन लोकतंत्र के अभाव में उनकी भूमिका सम्राट की असीमित शक्तियों को सीमित करने अथवा उसमें कुछ भागीदारी सुनिश्चित करने तक ही थी ।
जन आन्दोलन प्रथम:
अप्रैल 1990 में नरेश ने निर्वाचित पंचायत को भंग कर सारी शक्तियाँ अपने हाथ में ले ली । नेपाल में लोकतांत्रिक आन्दोलन की शुरुआत 1990 में हुई तथा विभिन्न राजनीतिक समूहों ने वर्तमान तरीके के एक नये लोकतांत्रिक संविधान को लागू करने की माँग की ।
1991 में नेपाल में एक नया लोकतांत्रिक संविधान लागू किया गया तथा बहुदलीय प्रणाली का आरंभ हुआ । लेकिन नेपाल के सम्राट अपनी सीमित शक्तियों से संतुष्ट नहीं थे तथा वे लोकतंत्र के मार्ग में बाधा उत्पन्न करते रहे ।
नेपाल नरेश की हत्या:
राजशाही की आन्तरिक कलह के कारण जून 2001 में नेपाल नरेश बीरेन्द्र विक्रम शाह तथा उनके परिवार के कई सदस्यों की हत्या कर दी गयी । उनके भाई ज्ञानेन्द्र शाह को नेपाल नरेश बनाया गया ।
माओवादियों के सैनिक संघर्ष का उदय:
इसी परिप्रेक्ष्य में 1996 में माओवादियों द्वारा हिंसक आन्दोलन व संगठित सैनिक विरोध का आन्दोलन चलाया गया । अपनी विचारधारा व सामाजिक न्याय के प्रति ममर्पित धारणा के कारण माओवादियों को नेपाल के विभिन्न क्षेत्रों में मजदूरों किसानों गरीबों तथा युवाओं व जनजातीय समूहों का व्यापक समर्थन प्राप्त हुआ ।
माओवादी संघर्ष के परिणामस्वरूप नेपाल 1996 से 2006 तक हिंसात्मक अस्थिरता का शिकार रहा । भारत की मध्यस्थता से नई दिल्ली में 2005 में हुये सात दलों के एक समझौते के अन्तर्गत न आवादियों ने हिंसा को छोड़कर सभी दलों के साथ लोकतांत्रिक आन्दोलन को आगे बढ़ाने पर सहमति व्यक्त की ।
नरेश ने 1991-2005 की अवधि में कई बार संसद को भंग किया तथा प्रधानमंत्रियों को हटाया । अन्तत: फरवरी 2005 में उन्होंने संसद भंग कर तथा निर्वाचित प्रधानमंत्री को हटा दिया । साथ ही उन्होंने आपातकाल की घोषणा कर सारी वास्तविक शक्तियाँ प्राप्त कर ली । सम्राट के नियन्त्रण में सेना द्वारा प्रत्येक लोकतांत्रिक विरोध को दबाने का प्रयास किया गया । इसी की प्रतिक्रियास्वरूप 2006 में दूसरे जन आन्दोलन का आरंभ हुआ ।
जन आन्दोलन द्वितीय:
माओवादियों के संगठित सैनिक विरोध तथा अन्तर्राष्ट्रीय विरोध के कारण नेपाल नरेश व उनकी सेना कमजोर हो चुके थे । 2006 में सभी दलों द्वारा व्यापक जनसमर्थन के साथ दूसरा जन आन्दोलन आरंभ किया ।
अन्तत: व्यापक जन विरोध को देखते हुये 2006 में सम्राट को झुकना पड़ा । उन्होंने सत्ता छोड़ दी तथा नेपाल में एक अन्तरिम सरकार की स्थापना की गयी । नरेश को सभी अधिकारों से वंचित कर दिया गया । इसी के साथ नेपाल में राजशाही का अन्त हो गया ।
संविधान सभा का गठन:
विभिन्न दलों में हुए समझौतों के परिणामस्वरूप मई 2008 में नेपाल का नया लोकतांत्रिक संविधान तैयार करने के लिए संविधान सभा के चुनाव भी सम्पन्न हुए । संविधान सभा के चुनावों में यद्यपि माओवादियों को सर्वाधिक स्थान प्राप्त हुए, लेकिन किसी भी दल को पूर्ण बहुमत प्राप्त नहीं हुआ ।
अत: माओवादियों को अन्य दलों के सहयोग से अन्तरिम सरकार का गठन करना पड़ा । माओवादी नेता पुष्प कमल दहल नेपाल के नये प्रधानमंत्री बने । लेकिन दलों में मतभेद के कारण नेपाल में संविधान निर्माण का कार्य अधिक जटिल हो गया तथा नेपाल एक नई राजनीतिक अस्थिरता के दौर में आगे बढ़ता गया ।
वर्तमान में नेपाल के राजनीतिक परिवेश में चार दल अथवा गठबन्धन सर्वाधिक प्रभावशाली हैं- नेपाली कांग्रेस, संयुक्त लेनिनवादी-मार्क्सवादी पार्टी, माओवादी नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी तथा तराई क्षेत्र में सक्रिय यूनाइटेड डेमोक्रेटिक मदेसी फ्रंट । लेकिन इनके बीच खींच-तान मची हुई है ।
परिणाम यह हुआ कि अपने चार वर्ष के कार्यकाल में यह संविधान सभा नेपाल के लिए एक लोकतांत्रिक संविधान का निर्माण नहीं कर सकी । अन्तत: 27 मई, 2012 को इसका कार्यकाल पूरा होने के कारण संविधान सभा को भंग कर दिया गया । तब से लेकर पुन: नेपाल एक नये संवैधानिक संकट से गुजर रहा है ।
लोकतांत्रिक संक्रमण की वर्तमान स्थिति:
संविधान सभा के भंग होने के बाद नेपाल की सरकार काम तो करती रही लेकिन उसका संवैधानिक औचित्य विवादास्पद बना रहा । अन्तत: विभिन्न राजनीतिक दलों के मध्य बनी सहमति के परिणामस्वरूप 14 मार्च 2013 को नेपाल के मुख्य न्यायाधीश खिलराज रेगिमी को राष्ट्रपति द्वारा प्रधानमंत्री नियुक्त किया गया ।
एक नये प्रयोग के अंतर्गत गठित इस सरकार को भी समीक्षकों द्वारा विधि सम्मत नहीं माना गया । विभिन्न राजनीतिक दलों में बनी सहमति के आधार पर 19 नवम्बर 2013 को नई संविधान सभा के चुनाव सम्पन्न हुए जिसमें नेपाली कांग्रेस को बहुमत प्राप्त हुआ है । यद्यपि पहली संविधान सभा द्वारा पारित प्रस्ताव में नेपाल को एक गणतंत्र घोषित कर दिया गया है तथा राजशाही को समाप्त कर दिया गया है ।
साथ ही नेपाल को बहुसंस्कृतियों वाला एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र घोषित किया गया है । इसके पूर्व नेपाल में हिन्दू धर्म को राजधर्म की मान्यता प्राप्त थी । यहाँ तक तो सभी दलों में आम सहमति देखी गयी लेकिन भविष्य की राजनीतिक व्यवस्था के कई पहलुओं पर राजनीतिक दलों में गंभीर मतभेद हैं ।
ये विवादास्पद मुद्दे अग्रलिखित हैं:
1. नेपाल की सरकार के समक्ष सबसे अहम विवादास्पद मुद्दा भूतपूर्व माओवादी लड़ाकों के नेपाली सेना में समाहित करने को है । विभिन्न राजनीतिक दलों में बनी सहमति के परिणामस्वरूप 1500 माओवादी लड़कों को नेपाली सेना में शामिल किया जाना है । लेकिन माओवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने अधिकारी स्तर पर शामिल होने वाले अपने तीन माओवादी लड़ाकों में से एक को कर्नल का पद प्रदान करने की माँग की है ।
लेकिन अन्य दल माओवादियों की इस माँग से सहमत नहीं हैं । नेपाली कांग्रेस पार्टी ने अधिकतम ले. कर्नल तक का ओहदा देने पर सहमति प्रदान की है । इसके साथ ही एक प्रमुख चुनौती माओवादी संघर्ष के दौरान माओवादी लड़ाकों द्वारा किये गये अपराधों से पीड़ित व्यक्तियों को न्याय दिलाने की है । इन अपराधों में हत्या बलात्कार उत्पीड़न तथा नजरबन्दी जैसे अपराध शामिल हैं । स्वाभाविक तौर पर माओवादी इन अपराधों के लिए अपने लड़ाकों के लिए सजा माफी की माँग कर रहे हैं ।
2. एक प्रमुख मुद्दा प्रस्तावित संघात्मक व्यवस्था के स्वरूप को लेकर है । माओवादी आन्दोलन के समय में विभिन्न जनजातीय व जातीय समूहों का समर्थन प्राप्त किया गया तथा इन्हें स्वायत्तता का आश्वासन दिया गया ।
अब नेपाल के विभिन्न पहाड़ी जनजातीय समूह तथा तराई क्षेत्र में सक्रिय मदेसी समूह संघात्मक व्यवस्था के अंतर्गत क्षेत्रीय स्वायत्तता की माँग कर रहे हैं । माओवादियों को छोड़कर अन्य राजनीतिक दल इस प्रकार की संघात्मक व्यवस्था को अव्यवहारिक तथा नेपाल की एकता के लिए घातक समझते हैं ।
उल्लेखनीय है कि 2006 के बाद ही पर्वतीय और तराई क्षेत्र में पहचान की राजनीति के आधार पर विभिन्न समूहों द्वारा अपने अधिकारों की प्राप्ति हेतु आन्दोलन चलाये गये हैं तथा नेपाल की विभिन्न अन्तरिम सरकारों द्वारा इन समूहों को आन्तरिक स्वायत्तता प्रदान करने का आश्वासन भी दिया गया है ।
विभिन्न जातिगत समूहों में अपने अधिकारों व स्वायत्तता के लिए संघर्ष करने की प्रवृत्ति निरन्तर बढ़ रही है । पहचान की राजनीति वर्तमान नेपाली राजनीति का एक अहम हिस्सा है । नेपाल की नई संविधान सभा को भी इस समस्या का सामना करना पड़ेगा ।
3. एक अन्य विवादास्पद प्रश्न चुनाव प्रणाली के स्वरूप को लेकर है । विवाद यह है कि सामान्य चुनाव प्रणाली को अपनाया जाए अथवा समानुपातिक प्रतिनिधित्व की व्यवस्था को अपनाया जाए या दोनों व्यवस्थाओं के किसी मिश्रित रूप को अपनाया जाए । विभिन्न राजनीतिक दल अपने राजनीतिक दलों की दृष्टि से इस सम्बन्ध में अपना-अपना तर्क प्रस्तुत कर रहे हैं ।
अत: भविष्य की राजनीतिक व्यवस्था के महत्त्वपूर्ण प्रश्नों पर मुख्य राजनीतिक दलों में आम सहमति का अभाव है । माओवादियों का एक उग्र गुट संविधान सभा के चुनावों का ही विरोध कर रहा है । नेपाल में राजशाही तो समाप्त हो गयी है, लेकिन इस सहमति के अभाव में लोकतांत्रिक संक्रमण की प्रक्रिया कई जटिलताओं का शिकार हो गयी है ।
4. श्रीलंका की तमिल समस्या (Tamil Problem of Sri Lanka):
श्रीलंका की तमिल समस्या दक्षिण एशिया की जटिल समस्याओं में से एक है । जातीय भेदभाव की इस समस्या ने कई बार हिंसक रूप धारण किया है, जिससे वहाँ जन-धन की बड़ी हानि हुई है । समस्या की जड़ में श्रीलंका का जातीय मिश्रण व अल्पसंख्यक तमिलों के साथ बहुसंख्यक सिंहला समुदाय की सरकारों द्वारा निरन्तर किये जाने वाला भेद-भाव है ।
श्रीलंका की 2.02 करोड़ जनसंख्या में बहुसंख्यक सिंहला समुदाय की जनसंख्या प्रतिशत है तथा ये बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं । दूसरा सबसे बड़ा जातीय समुदाय तमिलों का है, जिनकी जनसंख्या कुल 19 प्रतिशत है । तमिल हिन्दू धर्म के अनुयायी हैं । शेष जनसंख्या में मुस्लिम, ईसाई व अन्य समुदाय हैं ।
श्रीलंका में दो प्रकार के तमिल हैं । प्रथम, सीलोन तमिल, जो प्राचीन समय से श्रीलंका में निवास कर रहे हैं । इन तमिलों की संख्या श्रीलंका की जनसंख्या का 13 प्रतिशत है । दूसरे, भारतीय तमिल जो ब्रिटिश शासन के दौरान वहाँ के चाय बागानों में काम करने के लिए भारत से लाये गये थे । इनकी संख्या श्रीलंका की आबादी का 6 प्रतिशत है ।
तमिलों के साथ भेदभाव:
1948 में श्रीलंका की आजादी के समय वहाँ के राजनीतिक जीवन में तमिलों की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी, क्योंकि ब्रिटिश शासन के दौरान तमिलों ने प्रशासन में अच्छी स्थिति प्राप्त कर ली थी । भारतीय तमिलों की नागरिकता सम्बन्धी समस्या का समाधान 1974 तक कर लिया गया था, लेकिन बहुसंख्यक सिंहला समुदाय वाली श्रीलंका सरकारों ने आरम्भ से ही तमिलों के विरुद्ध भेदभावपूर्ण नीतियों को लागू किया-
(i) बौद्ध धर्म को देश का राष्ट्रीय धर्म बना दिया गया तथा सिंहली भाषा को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा दे दिया गया ।
(ii) राष्ट्रपति जयवर्द्धने के शासनकाल में ये भेदभावपूर्ण नीतियाँ अधिक मुखर हो गयीं । धीरे- धीरे तमिलों को सरकारी नौकरियों से वंचित कर दिया गया । 1948 में श्रीलंका की लोक सेवाओं में तमिलों का प्रतिनिधित्व 30 प्रतिशत था जो 1975 में घटकर केवल 5 प्रतिशत रह गया । लोक सेवाओं में सिंहली भाषा का ज्ञान अनिवार्य किए जाने के कारण सरकारी नौकरियों के दरवाजे तमिलों के लिए लगभग बंद हो गये ।
(iii) 1948 व 1949 के नागरिकता कानूनों द्वारा करीब 10 लाख भारतीय तमिलों को श्रीलंका की नागरिकता से वंचित कर दिया गया । श्रीलंका की सरकारों ने तमिल बाहुल्य क्षेत्रों में सिंहली नागरिकों को बसाने का प्रयास भी किया ।
तमिल आन्दोलन का उदय:
इन सभी भेदभावपूर्ण नीतियों के कारण तमिलों में असंतोष उत्पन्न होने लगा जिसके परिणामस्वरूप 1977 में ही 4 बड़े जातीय दंगे हुए । जब श्रीलंका की सरकारों ने इस असंतोष को दबाने का प्रयास किया तो 1983 में तमिल आन्दोलन ने उस समय हिंसक रूप धारण कर लिया जब आन्दोलनकारियों ने सुरक्षाबलों की हत्या कर दी ।
उसके बाद सरकार ने तमिलों के प्रति अमानवीय अत्याचार व नरसंहार की नीति अपनायी । तमिलों के कई संगठन जैसे कि तमिल यूनाइटेड लिमिटेड फ्रन्ट (TULF) तमिल समस्या का शांतिपूर्ण समाधान उड़ते थे लेकिन सरकार की दमनकारी नीतियों के कारण ऐसे समूह धीरे-धीरे तमिल आन्दोलन से अलग हो गये तथा तमिल आन्दोलन का नेतृत्व हिंसक संगठन लिट्टे के हाथ में आ गया ।
लिट्टे हिंसक साधनों के माध्यम से एक स्वतन्त्र तमिल देश (ईलम) की माँग का समर्थक था । तमिल संघर्ष के परिणामस्वरूप बड़ी संख्या में तमिल शरणार्थी भारत में प्रवेश कर गये तथा अपने देश में ही विस्थापित हो गये ।
5. तमिल समस्या तथा भारत की भूमिका (Tamil Problem and Role of India):
यह समस्या यद्यपि श्रीलंका की घरेलू जातीय समस्या है, लेकिन श्रीलंका के तमिलों के साथ भारत के सामाजिक, सांस्कृतिक व ऐतिहासिक जुड़ाव के चलते यह दोनों देशों के बीच निरन्तर तनाव का कारण बन गयी है । भारत ने 1983 से लेकर 1985 तक तमिल समस्या के राजनीतिक समाधान के लिए कूटनीतिक प्रयास किए, लेकिन सफलता नहीं मिली ।
जून 1984 और जून 1985 में दिल्ली में तथा जुलाई, 1985 में थम्पू में वार्ताओं का आयोजन किया गया, को असफल रहीं । भारत ने सदैव एकीकृत श्रीलंका के अन्तर्गत इस समस्या के राजनीतिक समाधान का समर्थन किया है, जबकि लिट्टे अलग तमिल राष्ट्र की स्थापना हेतु हिंसक कार्यवाही का समर्थक था ।
श्रीलंका और भारत के बीच 29 जुलाई, 1987 को तमिल सभक्या के समाधान के लिए एक समझौते पर हस्ताक्षर हुए, जिसमें संघर्षयुक्त तमिल बाहुल्य उत्तरी प्रान्त में 48 घण्टों के अन्दर युद्ध विराम तथा 72 घण्टों के अन्दर तमिल उग्रवादियों द्वारा हथियार सौंपना तथा इसके लिए भारतीय सेना की नियुक्ति की जानी थी ।
इसमें उत्तरी व पूर्वी प्रान्तों को मिलाकर दोनों के लिए एक संयुक्त विधान परिषद, मंत्री परिषद तथा राज्यपाल की व्यवस्था का प्रावधान भी था । समझौते को लागू करने के लिए भारत के 50 हजार सैनिक श्रीलंका के जाफना क्षेत्र में भेजे गये विपरीत भौगोलिक परिस्थितियों तथा लिट्टे के सैनिक विरोध के कारण भारतीय सेना लिट्टे से हथियार डलवाने पर सफल नहीं हो सकी तथा यह समझौता अनिश्चितता का शिकार हो गया ।
अन्तत: मार्च 1990 तक भारतीय शांति सेना श्रीलंका में वापस आ गयी । सैनिक और राजनीतिक दोनों दृष्टि से शांति सेना का भेजा जाना भारत के लिए नुकसानदायक रहा । इसमें भारतीय सेना के 1100 जवान मारे गये तथा भारत की आलोचना भी हुई लिट्टे ने भी भारत विरोधी दृष्टिकोण अपनाया तथा इसके एक आत्मघाती दस्ते ने मई 1991 में भारत के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या कर दी ।
इसके बाद भारत ने लिट्टे को एक आतंकवादी संगठन घोषित कर दिया । 1991 के बाद तमिल समस्या के सम्बन्ध में भारत ने संलग्नता के स्थान पर अलग रहने की नीति अपनाई । लेकिन भारत ने श्रीलंका की राष्ट्रीय अखण्ड़ता व एकता का समर्थन किया ।
हिंसक संघर्ष तथा लिट्टे का अन्त:
श्रीलंका की सरकार व लिट्टे के बीच हिंसक संघर्ष जारी रहा । लिट्टे को इस समय अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी भौतिक और राजनीतिक समर्थन प्राप्त था । मई-जून 2000 में लिट्टे ने अपने सैनिक अभियान में एक बड़ी सफलता अर्जित की तथा जाफना प्रायद्वीप को श्रीलंका की मुख्य भूमि से जोड़ने वाले एलीफेन्टा दर्रे पर कब्जा कर लिया ।
इसके बाद वर्ष 2002 में नार्वे की मध्यस्थता से श्रीलंका सरकार व लिट्टे के बीच युद्ध विराम लागू किया गया तथा दोनों के मध्य बातचीत की प्रक्रिया आरम्भ हुई, लेकिन लिट्टे की समस्या यह थी कि उसने युद्ध विराम सम्बन्धी अपनी वचनबद्धता को कभी नहीं निभाया । परिणामत: 2006 तक पुन: दोनों पक्षों में हिंसक युद्ध की स्थिति उत्पन्न हो गयी ।
इसे चतुर्थ ईलम युद्ध की संज्ञा दी जाती है । इस समय अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियाँ लिट्टे के विपरीत थीं, क्योंकि सितम्बर 2001 की अमेरिका में हुई आतंकवादी घटनाओं के बाद अमेरिका सहित अन्य यूरोपीय देशों ने लिट्टे को एक आतंकवादी संगठन घोषित कर दिया तथा तीन वर्षों तक चले तीव्र सैनिक संघर्ष के बाद श्रीलंका की सेना ने मई 2009 में लिट्टे तथा इसके प्रमुख प्रभाकरन् का सफाया करने में सफलता प्राप्त की ।
लिट्टे के अन्त के बाद वर्तमान स्थिति:
लिट्टे के सफाये के बाद तमिलों का अलग राज्य बनाने के लिये हिंसक आन्दोलन समाप्त हो गया लेकिन तमिल समस्या का कोई स्थायी समाधान नहीं हो सका है ।
वर्तमान स्थिति में निम्न तत्व महत्वपूर्ण हैं:
(i) सबसे बड़ी समस्या युद्ध के दौरान विस्थापित हुये तमिलों के पुनर्वास की है । पुनर्वास कार्यक्रम में भारत भी सहयोग प्रदान कर रहा है ।
(ii) लिट्टे के विरुद्ध अन्तिम युद्ध के दौरान श्रीलंका की सेना ने तमिलों के साथ अमानवीय व्यवहार किया है जिसके लिये वर्तमान में संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार परिषद् द्वारा श्रीलंका सरकार को दण्डित करने पर विचार किया जा रहा है । भारत ने इस प्रस्ताव पर दो बार- 2012 व 2013 में श्रीलंका सरकार के विरुद्ध मतदान किया है ।
तमिलों के विरुद्ध अमानवीय व्यवहार को लेकर भारत के तमिलनाडु राज्य में तीव्र विरोध किया गया था । इस विरोध के चलते भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने नवम्बर 2013 में कोलम्बो में होने वाले राष्ट्रकुल देशों के शिखर सम्मेलन में भाग लेने से मना कर दिया था ।
(iii) तमिल समस्या के स्थायी समाधान हेतु तमिल बाहुल्य उत्तरी व पूर्वी प्रान्तों को मिलाकर स्वायत्तता दिया जाना आवश्यक है, लेकिन भारत की माँग के बावजूद श्रीलंका सरकार इसमें टाल-मटोल कर रही है । अब श्रीलंका के तमिल नये राजनीतिक दल ‘तमिल नेशनल एलायंस’ के अन्तर्गत संगठित हो रहे हैं ।
हिंसक संघर्ष का अन्त होने के बावजूद तमिल समस्या का अभी तक कोई स्थायी समाधान नहीं हो सका है । श्रीलंका के तमिलों को स्वायत्तता दिये बिना इस समस्या का स्थायी समाधान नहीं हो सकता ।
6. भारत के पड़ोसी देशों के साथ संबंध (Relations with Neighbouring Countries of India):
भारत की दक्षिण एशिया नीति (India’s South Asia Policy):
भारत व पडोसी देशों के संबन्धों को समझने के लिये दक्षिण एशिया में भारत की विदेश नीति के मौलिक तत्वों को समझना आवश्यक है । भारत के पड़ोसी देश हैं- अफगानिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, पाकिस्तान, श्रीलंका, नेपाल तथा मालदीव । ये सभी देश दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (दक्षेस) के सदस्य हैं ।
इनमें से नेपाल और भूटान भारत की उत्तरी व पूर्वी सीमा पर स्थित हैं तथा अफगानिस्तान तथा पाकिस्तान भारत की पश्चिमी सीमा पर स्थित हैं । बांग्लादेश भारत के पूर्व में स्थित है तथा श्रीलंका और मालदीव भारत के दक्षिण में स्थित हैं । इन देशों के साथ भारत के ऐतिहासिक सांस्कृतिक व सामाजिक सम्बन्ध भी रहे हैं ।
पाकिस्तान तथा बांग्लादेश ब्रिटिश शासनकाल में भारत के अंग रहे हैं । भारत और उसके पड़ोसियों के सम्बन्धों को प्रभावित करने वाले मुख्य तत्व हैं- भारत की प्रभावपूर्ण स्थिति इन देशों की आन्तरिक राजनीति औपनिवेशिक विरासत भौगोलिक तथा सांस्कृतिक तत्व एवं बाह्य शक्तियों का हस्तक्षेप आदि ।
भारत सदैव अपने पड़ोसियों के साथ घनिष्ठ व पारस्परिक लाभकारी सम्बन्धों को मजबूत बनाने का पक्षधर रहा है, लेकिन द्विपक्षीय विवादों तथा अन्त राज्यीय व अन्तर्राज्यीय तनावों के चलते भारत को अपनी नीति में वांछित सफलता नहीं मिली । 2011 में प्रकाशित भारतीय विदेश मंत्रालय की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार भारत की पड़ोस नीति का उद्देश्य एक शांतिपूर्ण सुरक्षित व स्थायी पड़ोस को सुनिश्चित करना है ।
इसीलिये भारत अपने पड़ोसियों के साथ पारस्परिक लाभकारी सम्बन्धों के विकास का प्रयास करता रहा है । भारत ने अपने सुरक्षा हितों को ध्यान में रखते हुये इस क्षेत्र के आन्तरिक मामलों में बाह्य शक्तियों के हस्तक्षेप का सदैव विरोध किया है । भारत ने वैश्वीकरण के युग में अपनी पड़ोस नीति को नया आयाम देने का प्रयास किया है ।
इनमें निम्न दो प्रयास उल्लेखनीय हैं:
(i) गुजराल सिद्धान्त (Gujral Principles):
इस सिद्धान्त का प्रतिपादन भारत के प्रधानमंत्री आई. के. गुजराल द्वारा 1998 में किया गया था ।
इस सिद्धान्त में निम्नलिखित पाँच तत्व शामिल हैं:
1. भारत देशों के साथ सम्बन्धों में पारस्परिकता (Reciprocity) के सिद्धान्त को नहीं अपनायेगा । अर्थात् भारत अपने पड़ोसियों के साथ आगे बढ्कर सहयोग करेगा तथा इसके बदले में उनसे लाभ की अपेक्षा नहीं करेगा । पारस्परिक विश्वास और सद्भावना के साथ पड़ोसियों के वैध हितों को समायोजित किया जायेगा ।
2. ये देश अन्य देशों के विरुद्ध अपने भू-क्षेत्र के सैनिक प्रयोग से बचेंगे ।
3. सभी देश एक-दूसरे की क्षेत्रीय अखण्डता तथा सम्प्रभुता का सम्मान करेंगे ।
4. सभी देश एक-दूसरे के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेंगे ।
5. ये देश अपने आपसी विवादों का समाधान शांतिपूर्ण तरीकों तथा द्विपक्षीय वार्ता के द्वारा करेंगे ।
(ii) भारत की नई पड़ोस नीति (India’s New Neighborhood Policy), 2005:
वर्तमान में सारी दुनिया में क्षेत्रीय स्तर पर आर्थिक एकीकरण व आर्थिक साझेदारी पर बल दिया जा रहा है । इसीलिये भारत ने पड़ोस में अपनी आर्थिक कूटनीति को नया नाम दिया है ।
इस नई पड़ोस नीति के निम्न बिन्दु महत्वपूर्ण हैं:
1. भारत अपने पड़ोसियों के साथ भौतिक सम्पर्कों (Physical Connectivity) को बढ़ाने पर जोर देगा जिससे दक्षिण एशिया में वस्तुओं व व्यक्तियों के आदान-प्रदान को बढ़ावा मिल सके ।
2. भारत अपने सीमावर्ती इलाके में मूलभूत ढाँचागत सुविधाओं को बढ़ायेगा क्योंकि भारत के सीमावर्ती क्षेत्र ही पड़ोस से जोड़ने वाले बिन्दु हैं ।
3. दक्षिण एशिया के देशों के मजबूत सांस्कृतिक सम्बन्ध रहे हैं ।अत: जनता से जनता के बीच सम्पर्क (People to People Contact) को बढ़ाने पर बल दिया जायेगा ताकि दक्षिण एशिया के देशों की जनता में एकता की भावना तथा एक अलग पहचान का विकास हो सके ।
संक्षेप में भारत अपने सुरक्षा सम्बन्धी हितों को ध्यान में रखकर अपने पड़ोसियों के साथ इस तरह की नीति का पालन कर रहा है जिससे वहाँ विकास, स्थिरता व प्रजातंत्र की जड़ें मजबूत हो सकें । 21वीं शताब्दी में भारत की पड़ोस नीति में आर्थिक तत्व का महत्व बढ़ गया है, जिसकी अभिव्यक्ति दक्षिण एशिया में भारत की पारस्परिक लाभकारी विकास साझीदारी के रूप में देखने में आती है ।
7. दक्षिण एशिया में संघर्ष व सहयोग की प्रक्रिया (Process of Struggle and Cooperation in South Asia):
दक्षिण एशिया में विश्व की 176 जनसंख्या निवास करती है । जबकि विश्व के कुल सकल राष्ट्रीय उत्पाद में दक्षिण एशिया की भागीदारी मात्र 2 प्रतिशत है । द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ही विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में क्षेत्रीय सहयोग के प्रयास किये गये हैं । लेकिन दक्षिण एशिया में क्षेत्रीय सहयोग के प्रयासों को पर्याप्त सफलता नहीं मिली ।
दक्षिण एशिया के देशों के मध्य सांस्कृतिक व ऐतिहासिक दृष्टि से पर्याप्त समानता पायी जाती है । इस क्षेत्र में 8 देश शामिल हैं- भारत, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, मालद्वीप, श्रीलंका, बांग्लादेश, नेपाल तथा भूटान । ये सभी विकासशील देश हैं तथा विकास की समस्याओं से ग्रस्त हैं । अत: इनके मध्य यदि आर्थिक सहयोग को आगे बढ़ाया जाता है तो दक्षिण एशिया में विकास को नई गति प्राप्त होगी ।
8. संक्षेप में दक्षिण एशिया में क्षेत्रीय सहयोग के मार्ग में निम्नलिखित बाधाएँ है (Barriers to Regional Cooperation in South Asia):
1. भारत का बड़ा आकार जिसके कारण पड़ोसी देश भारत के प्रति आशंकित रहते हैं तथा उन्हें भय रहता है कि इस सहयोग में भारत को अधिक लाभ होगा तथा उनका महत्त्व कम हो जायेगा ।
2. राष्ट्रों में द्विपक्षीय विवाद जिसके कारण सहयोग की प्रक्रिया बाधित होती है । उदाहरण के लिए भारत और पाकिस्तान विवाद के चलते दक्षेस की सफलता में बाधा पहुंची है ।
3. दक्षेस की असफलता का एक प्रमुख कारण यह है कि दक्षेस के देशों में सुरक्षा तथा विकास जैसे मूल प्रश्नों पर आम सहमति का अभाव है । इनकी राजनीतिक व्यवस्था भी अलग-अलग है । उदाहरण के लिए जहाँ पाकिस्तान सैनिक शासन के अधीन रहा हैं, वहीं नेपाल मैं राजशाही की समाप्ति के बाद अभी तक राजनीतिक स्थिरता की स्थापना नहीं हो सकी है ।
4. बाह्य शक्तियों को हस्तक्षेप, जिसके कारण सदस्य देशों के आपसी सम्बन्ध की तुलना में बाह्य देशों से उनके आर्थिक व्यापारिक और कूटनीतिक सम्बन्ध अधिक घनिष्ठ है । चीन और अमेरिका जैसे देशों का हस्तक्षेप इस क्षेत्र में सहयोग के मार्ग में एक बड़ी बाधा है ।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि यदि दक्षिण एशिया में क्षेत्रीय सहयोग की प्रक्रिया को आगे बढ़ाना है तो उक्त बाधक तत्वों का समाधान करना पड़ेगा । इसमें भारत की भूमिका, महत्वपूर्ण होगी लेकिन अन्य छोटे सदस्यों को भी भारत की स्थिति के प्रति संवेदनशील होने की आवश्यकता है । जरूरत इस बात की है कि सभी देश विकास और सुरक्षा के मूल प्रश्नों पर एक आम रणनीति को अपनाएं ।