Read this article in Hindi to learn about the contemporary theory of alienation.

समकालीन अलगाव-सिद्धांत के बारे में एरिक फ्रॉम, हर्बर्ट मार्क्यूजे, युर्गेन हेबरमास, आदि ने अपने-अपने विचार व्यक्त किए हैं । एरिक फ्रॉम ने अपनी पुस्तक ‘Escape Freedom -1941’ में समकालीन समाज के अंतर्गत मनुष्य के अकेलेपन की पीडा का मार्मिक चित्रण किया है ।

फ्रॉम के अनुसार, पूंजीवादी व्यवस्था मनुष्य की रचनात्मक गतिविधि में बाधा डालती है, उसे दूसरों के साथ सामाजिक संबध कायम करने से रोकती है और उसे अपने-आप से विमुख करके उसकी आत्म-छवि को धूमिल कर देती है । यही परिस्थितियाँ मनुष्य के ‘अलगाव’ को जन्म देती है ।

मनुष्य के लिए तो भौतिक अकेलापन (Physical Aloofness) ही असह्य है परंतु समकालीन विश्व में व्यक्ति अपने समाज में प्रचलित विचारों, मूल्यों तथा सामाजिक संसर्ग से कटकर जो विलक्षण अकेलापन महसूस करता है, वह उसका नैतिक अकेलापन (Moral Aloofness) है, जो और भी खतरनाक होता है ।

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जब यह स्थिति हद से ज्यादा बढ़ जाती है तब व्यक्ति मनोविदलता (Schizophrenia) जैसे मानसिक रोगों से ग्रस्त हो जाता है । वस्तुतः फ्रॉम का संपूर्ण चिंतन समकालीन विश्व में व्यक्ति और समाज के टूटे हुए संबंध को फिर से जोड़ने का प्रयास है ।

मार्क्यूजे ने भी मनुष्य के अलगाव का अत्यंत प्रभावशाली विश्लेषण प्रस्तुत किया है । अपनी प्रसिद्ध कृति ‘One-Dimensional Man -1968’ के अंतर्गत मार्क्यूने ने कहा है कि पूंजीवाद ने मीडिया का प्रबंधन बड़ी चालाकी से करते हुए पीड़ित वर्ग के असंतोष को संवेदनशून्य बना दिया है, क्योंकि वह तुच्छ भौतिक इच्छाओं (Trivial Material Wants) को उत्तेजित करता है जिन्हें संतुष्ट करना बहुत सरल है ।

इसका परिणाम यह हुआ है कि मनुष्य का बहुआयामी व्यक्तित्व लुप्त हो गया है और उसके व्यक्तित्व का एक ही आयाम रह गया है, उसकी कुछ भौतिक इच्छाओं की संतुष्टि । इस प्रकार एक उपभोक्ता संस्कृति मनुष्य को अपने वश में कर ली है जिसके कारण उसकी सृजनात्मक स्वतंत्रता नष्ट हो गई है और वह ‘एक आयामी’ मनुष्य बनकर रहा गया है ।

वह आगे कहता है कि आधुनिक प्रौद्योगिक समाज में एक ‘मिथ्या चेतना’ को बढावा देकर मानव मात्र को अपने शिकंजे में कर रखा है । आज का कामगार यह स्पष्ट अनुभव नहीं कर पाता कि अपने उत्पादन से उसका नाता टूट चुका है । उसके इर्द-गिर्द कृत्रिम सुखों का जो जाल फैला है, उसमें फंसकर वह सृजनशीलता के सच्चे आनंद की कामना भी नहीं कर पाता । इस तरह वह अपने अलगाव की स्थिति से बेखबर हो गया है ।

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”मनुष्य सोने के पिंजरे में बंद पंछी की तरह उसके आकर्षण में इतना डूब चुका है कि वह मुकत आकाश में उडान भरने के आनंद को भूल गया है ।”

नवमार्क्सवादी विचारक युर्गेन हेबरमास ने अपनी प्रसिद्ध कृति ‘Legitimation Crisis -1975’ में स्वतंत्रता की समस्या को ‘पूंजीवाद की वैधता के संकट’ के रूप में पहचाना है । उसके अनुसार, समकालीन विश्व में विज्ञान, प्रौद्योगिकी और संगठन के अत्यधिक विकास का परिणाम यह हुआ है कि मनुष्य की तर्कबुद्धि मनुष्य के उद्धार (Emancipation) के दायित्व से विमुख हो गई है ।

दूसरे शब्दों में, मनुष्य की तर्कबुद्धि उसे अपने जीवन का साध्य नहीं सुझाती, बल्कि केवल साधनों को संगठित करना सिखाती है । अतः वह मनुष्य की स्वतंत्रता का आधार नहीं रह गई है बल्कि उस पर अपना प्रमुख स्थापित करके उसकी पराधीनता का कारण बन गई है ।

हेबरमास ने लिखा है कि परंपरागत समाज सृष्टि की पौराणिक, धार्मिक या दार्शनिक व्याख्याओं से जुडी हुई संस्थाओं की वैधता को स्वीकार करते थे परंतु पूंजीवाद ने वैज्ञानिक जानकारी और स्वचालित मशीनों की प्रमाणिकता को स्थापित करके वैधता-स्थापन (Legitimation) के परंपरागत आधार को नष्ट कर दिया है ।

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उसकी जगह इसने परस्पर लाभ या समान विनिमय (Equal Exchange) को सामाजिक संगठन का मूल सिद्धांत मान लिया है, और बाजार समाज के नियमों को सर्वोच्च मान्यता प्रदान कर दी है ।

विज्ञान और प्रौद्योगिकी ने सामाजिक संगठन का तकनीकी प्रतिरूप प्रस्तुत करके जनसाधारण को राजनीतिक चेतना से वंचित कर दिया है, अर्थात् उन्हें सामाजिक लक्ष्यों के प्रति सचेत नहीं रहने दिया है । ऐसी हालत में मनुष्य की स्वतंत्रता के पुनरूथान के लिए तर्कबुद्धि को मानव जीवन के लक्ष्यों के चिंतन के प्रति पुन: सचेत करना अति आवश्यक है ।