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नवमार्क्सवाद उन विचारों का समूह है जो मार्क्सवाद (Marxism) से जुड़े हुए चिंतन में एक नए मोड का संकेत देता है । इस चिंतन-शैली की शुराआत बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में इतावली मार्क्सवादी एंटोनियो ग्राम्शी और हंगेरियाई मार्क्सवादी जार्ज ल्युकाच की विश्लेषण-पद्धति से हो गई थी । इसका विस्तृत विवेचन अधिकांशतः ‘फ्रैंकफर्ट स्कूल’ की छत्रछाया में प्रस्तुत किया गया ।

जिसने राजनीति-चिंतन के अंतर्गत आलोचनात्मक सिद्धांत को बढावा दिया । संक्षेप में, यह मार्क्सवाद की कुछ पुरानी मान्यताओं से हटकर नई दिशाओं में सोचने का ढंग है, हालांकि यह किसी बंधे-बंधाए दृष्टिकोण के साथ नहीं बँधा है । देखा जाए तो मार्क्सवाद अपनी पुरानी मान्यताओं से हटकर जिन नई-नई दिशाओं में विकसित हुआ है, उन्हें सामूहिक रूप से नवमार्क्सवाद की संज्ञा दी जाती है ।

कुछ भी हो, यह मार्क्सवाद की कुछ बुनियादी मान्यताओं में अपना विश्वास कायम रखता है । उदाहरण के लिए यह समाज के वर्ग-चरित्र (Class-Character) का खंडन नहीं करता, परंतु वर्ग संघर्ष (Class Conflict) को केवल आर्थिक मुद्दों पर पूंजीपति और कामगार वर्गों का सीधा टकराव नहीं मानता ।

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यह समकालीन समाज में विभिन्न स्तरों पर-जैसे कि आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक स्तरों पर प्रभुत्व और पराधीनता के गूढ तरीकों का विश्लेषण करता है । यह पूंजीवाद का विरोधी है, और उसके निराकरण के लिए कृतसंकल्प है परंतु यह पूंजीवाद को केवल उत्पादन के साधनों के निजी स्वामित्व पर आधारित आर्थिक प्रणाली के रूप में नह देखता, बल्कि एक विस्तृत आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक प्रणाली के रूप में देखता है और इस विश्लेषण के संदर्भ में मनुष्य की स्वतन्त्रता (Freedom) की समस्या पर विचार करता है ।

पूंजीवादी विचारधारा और संस्कृति के प्रभुत्व को क्षीण करने के लिए नवमार्क्सवाद एक विरोधी संस्कृति या प्रतिसंरकृति के विकास को बढावा देता है । फिर, इसमें परंगपरागत माकर्नवाद से जुडे हुए ऐतिहासिक भौतिकवाद से हटकर चेतना को मार्क्सवादी सामाजिक विश्लेषण के मुख्य घटक के रूप में देखा जाता है ।

कुछ नवमार्कावादी मार्क्स के चिंतन के उन तत्वों से प्रेरणा प्राप्त करते हैं, जो प्रत्यक्षतः जी॰डब्ल्यू॰एफ॰ हेगेल (1770-1831) के विचारो पर आधारित हैं, जैसे कि अलगाव का विश्लेषण, द्वंद्वात्मकता की संकल्पना और एक महान युग की ओर इतिहास की प्रगति-यात्रा परंतु कुछ नवमारूर्रवादी मार्क्सवाद को हेगेल के विचारों से पृथक् करके अस्तित्ववाद और संरचनावाद की ओर ले जाते हैं, और इन्हीं को भाववाद की सही व्याख्या मानते हैं ।

समकालीन नवमार्क्सवाद के व्याख्याकारों में थ्योडोर एडोर्नो, मैक्स हार्खाइमर, लुई आल्थ्यूजर, एरिक फ्रॉम, ज्यां पाल सार्त्र, हर्बर्ट मार्क्यूजे और युर्गेन हेबरमास का योगदान विशेष रूप से उल्लेखनीय है ।

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एंटोनियो ग्राम्शी के अनुसार:

ग्राम्शी ने अपनी कृति ‘Prison Notebooks -1971’ में चिरसम्मत माकर्नवाद की अनेक मान्यताओं को अस्वीकार करते हुए पूंजीवादी राज्य का नया विश्लेषण प्रस्तुत किया । चिरसम्मत मार्क्सवाद की यह मान्यता है कि उत्पादन की शक्तियों के अत्यधिक विकसित हो जाने पर तत्कालीन उत्पादन संबंध उन्हें संभाल नहीं पाते तब क्रांति हो जाती है जिससे सारी संस्थाएं ध्वस्त हो जाती हैं । ग्राम्शी का मानना है कि उन्नत पूंजीवादी समाज में ऐसा नहीं होता । इस स्थिति की व्याख्या के लिए उसने ‘प्राधान्य’ (Hegemony) का सिद्धांत प्रस्तुत किया है ।

इस सिद्धांत के अनुसार आधुनिक पूंजीवादी समाज की दृढ़ता का प्रमुख कारण शासक वर्गों का ‘प्राधान्य’ है जो उनकी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक सर्वोच्चता में व्यक्त होता है । ये वर्ग नागरिक समाज की संस्थाओं के माध्यम से लोगों को अपनी मूल्य प्रणाली हृदयगम करा देता है ।

ग्राम्शी ने मुख्य रूप से पूंजीवादी समाज की संस्कृति में ‘प्रभुत्व की संरचनाओं’ (Structures of Domination) का पता लगाया है । उसने पूंजीवादी समाज की अधिरचना के दो स्तरों राजनीतिक समाज और नागरिक समाज में अंतर किया है ।

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राजनीतिक समाज या राज्य से जुडी हुई संरचनाओं को बल-प्रयोगमूलक सरचनाएं कहा जाता है क्योंकि यह अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिए बल-प्रयोग (Coercion) का सहारा लेता है जबकि नागरिक समाज से जुड़ी हुई संरचनाओं को वैधतापरक संरचनाएं (Structure of Legitimation) कहा जाता है क्योंकि ये अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिए नागरिकों की सहमति (Consent) का सहारा लेते हैं ।

नागरिक समाज की संरचनाए ‘आधार’ के निकट रहती हैं और अपेक्षाकृत स्वायत भी होती हैं । ग्राम्शी ने नागरिक समाज को ही अपने विश्लेषण के तहत विशेष महत्व दिया है ।

ग्राम्शी के अनुसार, नागरिक समाज की संस्थाएं जैसे- परिवार, स्कूल, धार्मिक संस्थाएं, इत्यादि लोगों को समाज में व्यवहारिक नियमों से परिचित कराती हैं और उन्हें शासकों के प्रति स्वाभाविक सम्मान का भाव रखना सिखाती हैं । ये संरचनाएं बुर्जुवा समाज के नियमों को वैधता प्रदान करती हैं ताकि उसमें निहित अन्याय भी न्याय प्रतीत हो ।

साधारणतः बुर्जुवा समाज अपनी स्थिरता के लिए नागरिक समाज की इन्हीं संरचनाओं की कार्यकुशलता पर निर्भर होता है । जब कभी नागरिक समाज असहमति का नियंत्रण और दमन करने में विफल हो जाता है तभी राज्य को उसका दमन करने के लिए बल-प्रयोग की जरूरत पड़ती है ।

अतः ग्राम्शी का कहना है कि साम्यवादी आदोलन की मूल रणनीति पूंजीवादी राज्य को ध्वस्त करने तक ही सीमित नहीं रहनी चाहिए, बल्कि उसे मूल्यों और मान्यताओं के क्षेत्र में बुर्जुवा तत्वों के ‘प्राधान्य’ का अंत करने में भी उतनी ही तत्परता दिखानी चाहिए ।

ग्राम्शी का कहना है कि ध्वस्त पूंजीवाद की राख में से समाजवाद अपने-आप नहीं उठ खडा होगा । उसने मार्क्सवादियों को यह समझाने का प्रयत्न किया कि उन्हें अर्थशास्त्र की मृगतृष्णा से मुक्त होकर संस्कृति, साहित्य, नैतिक और दार्शनिक वाद-विवाद के मैदान में पूंजीवाद के विरुद्ध वैचारिक संघर्ष जारी रखना चाहिए ।

क्रांतिकारियों का प्राथमिक काम नागरिक समाज के भीतर की स्वायत्त संस्थाओं में घुसपैठ करके जन-चेतना को बदलना होगा ताकि इन संस्थाओं को भीतर से कमजोर करके क्रांति के प्रवाह को नीचे से ऊपर की ओर बढने का रास्ता दिया जा सके ।

जॉर्ज ल्यूकॉच:

ल्यूकॉच ने मार्क्सवादी सिद्धांतों की नई व्याख्या प्रस्तुत करके नवमार्क्सवादी चिंतन को बढावा दिया । वह ऐसा पहला मार्क्सवादी चिंतक था जिसने क्रांतिकारी चिंतन के तहत ऐतिहासिक भौतिकवाद की जगह चेतना सिद्धांत को प्रमुख सिद्धांत के रूप में स्थापित किया । उसने मानवीय चेतना के बारे में हेगेल के विश्लेषण को विशेष मान्यता देते हुए तरूण मार्क्स के विचारों का पूर्वसंकेत दिया ।

ल्यूकॉच ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘History and Class Consciousness -1993’ के तहत यह विचार व्यक्त किया है कि मार्क्स का इतिहास सिद्धांत सही तो है, परन्तु अधूरा है । इसके साथ यह संदर्भ जोडना जरूरी है कि ऐतिहासिक विकास के विभिन्न बिन्दुओं पर विभिन्न वर्ग संसार को किस-किस रूप में देखते हैं?

प्रत्येक वर्ग की चेतना की संरचना भिन्न-भिन्न होती है और उत्पादन संबंधों में परिवर्तन होने पर वह भी बदल जाती है, परंतु पूंजीवादी समाज में सभी वर्ग अपनी-अपनी तरह की मिथ्या चेतना (False Consciousness) रखते हैं । वास्तविक समस्या इस मिथ्या चेतना से मुक्त होकर संसार को देखने की है ।

ल्यूकॉच ने आशा व्यक्त की है कि सर्वहारा अपने परिवेश के भीतर अपने बढ़ते हुए पराएपन के कारण एक विलक्षण ऐतिहासिक स्थिति में पहुँच गया है जहाँ से वह यथार्थ विश्वजनीन चेतना (Universal Consciousness) प्राप्त कर सकता है ।

ल्यूकॉच का मानना है कि विचारधारा बुर्जुवा और सर्वहारा दोनों तरह की चेतना का संकेत देती है । मार्क्सवाद सर्वहारा की विचारधारा है । बुर्जुवा विचारधारा मिथ्या चेतना है, इसलिए नहीं कि विचारधारा अपने-अपने में मिथ्या चेतना है, बल्कि इसलिए कि बुर्जुवा वर्ग-स्थिति संरचनात्मक दृष्टि से सीमित है ।

अर्थात् यह कि बुर्जुवा वर्ग पूंजीवाद के माध्यम से समाज को स्वतंत्र या कल्याणकारी नहीं बना सकता परंतु उसकी विचारधारा इतने प्रभावशाली ढंग से व्यक्त की जाती है और उसका इतना व्यापक प्रचार किया जाता है कि वह सर्वहारा की मनोवैज्ञानिक चेतना पर हावी हो जाती है और उसे दूषित करती है । ल्यूकॉच ने चेतावनी दी है कि विचारधारात्मक संघर्ष को वर्ग संघर्ष का विकल्प नहीं बना देना चाहिए ।

समकालीन अलगाव-सिद्धांत:

एरिक फ्रॉम ने समकालीन समाज के अंतर्गत मनुष्य के अकेलेपन की पीडा का मार्मिक चित्रण किया है । फ्रॉम के अनुसार, पूंजीवादी व्यवस्था मनुष्य की सृजनात्मक गतिविधि में बाधा डालती है; उसे दूसरों के साथ स्वस्थ सामाजिक संबंध स्थापित करने से रोकती है, और उसे अपने-आप से विमुख करके उसकी आत्म-छवि को धूमिल कर देती है ।

यही परिस्थितियां मनुष्य के ‘अलगाव’ को जन्म देती हैं । आधुनिक मनुष्य केवल सामाजिक-सांस्कृतिक बंधन से अपने-आप को मुक्त अनुभव नहीं करता, बल्कि वह इस बंधन से छूटकर एकदम अकेला हो जाता है । मनुष्य के लिए तो भौतिक अकेलापन ही असह्य होता है, परंतु समकालीन विश्व में व्यक्ति अपने समाज में प्रचलित विचारों, मूल्यों, प्रतिमानों तथा सामाजिक संसर्ग से कटकर जो विलक्षण अकेलापन महसूस करता है, वह उसका नैतिक अकेलापन है, जो और भी भयंकर सिद्ध होता है । 

जब यह अकेलापन हद से बढ़ जाता है, तब व्यक्ति मनोविदलता जैसे विनाशकारी मानसिक रोगों का शिकार हो जाता है । इससे बचने का तरीका यह होगा कि व्यक्ति सहज स्नेह तथा रचनात्मक कार्य के माध्यम से अपने-आपको विश्व के साथ फिर से जोड ले ।

हर्बर्ट मार्क्यूजे ने समकालीन परिस्थितियों में मनुष्य के अलगाव का अत्यंत प्रभावशाली विश्लेषण प्रस्तुत किया है । अपनी प्रसिद्ध कृति ‘वन-डायमेंशनल मैन: स्टडीज इन द आइडियोलॉजी ऑफ एडवांक्स इंडस्ट्रियल सोसाइटी’ (1968) के अंतर्गत मार्क्यूजे ने यह तर्क दिया है कि पूंजीवाद ने जनसंचार के साधनों को बड़ी चालाकी से इस्तेमाल करते हुए पीड़ित वर्ग के असंतोष को संवेदनशून्य बना दिया है, क्योंकि वह तुच्छ भौतिक इच्छाओं को उत्तेजित करता है जिन्हें संतुष्ट करना बहुत सरल होता है ।

इसका परिणाम यह हुआ है कि मनुष्य का बहुआयामी व्यक्तित्व लुप्त हो गया है और उसके व्यक्तित्व का एक ही आयाम रह गया है : उसकी तुच्छ भौतिक इच्छाओं की संतुष्टि । इस तरह एक उपभोक्ता संस्कृति मनुष्य के व्यक्तित्व पर हावी हो गई है जिसने उसकी सृजनात्मक स्वतंत्रता के विचार को बहुत पीछे धकेलकर उसे ‘एक आयामी’ मनुष्य बना दिया है ।

मार्क्यूजे के अनुसार, आधुनिक प्रौद्योगिक समाज ने एक ‘मिथ्या चेतना’ को बढावा देकर मानव मात्र को अपने शिकंजे में कस रखा है । यह मिथ्या चेतना भय और उपभोक्तावाद पर आधारित है । पूंजीवादी समाज में पूंजीपति और कामगार दोनों साम्यवादी आक्रमण के भय से त्रस्त हैं । इसके अलावा, औद्योगिक क्रांति ने जीवन की सुख-सुविधाएँ बहुत बढा दी हैं ।

आज का समाज ज्यादा-से-ज्यादा लोगों के लिए अत्यंत सुखमय जीवन की आशा बंधाता है । ऐसी हालत में कुछ महत्वपूर्ण स्तरों पर अलगाव या पराएपन की अनुभूति बहुत हद तक लुप्त हो चुकी है । विस्तृत मशीनीकरण के कारण कामगार का काम काफी हल्का हो गया है । अब उसे अपने काम में जी-तोड परिश्रम नहीं करना पड़ता, और इतनी कम मजदूरी भी नहीं मिलती कि उसका जीना दूभर हो जाए ।

अतः ऐसा लगता है कि वह एक हद तक ‘अलगाव’ की स्थिति से मुक्त हो गया है परंतु साथ ही बंधे-बंधाए मशीनी काम के कारण उसका मन स्वतंत्र औ सृजनात्मक कार्य के महत्व को अनुभव करने योग्य नहीं रह गया है । आज का कामगार यह स्पष्ट अनुभव नहीं कर पाता कि अपने उत्पादन से उसका नाता टूट चुका है । उसके चारों ओर बनावटी सुखों का जो जाल फैला है उसमें उलझकर वह सृजनशीलता के सच्चे आनंद की कामना भी नहीं कर पाता ।

इस तरह वह अपने अलगाव की स्थिति से बेखबर हो गया है । वह एक मिथ्या चेतना के अधीन श्रम करता है । यह मिथ्या चेतना धर्म की नहीं, किसी अतींद्रिय सुख की नहीं, बल्कि वर्तमान भोगवादी सुख की मिथ्या चेतना है जो उसके अलगाव पर पर्दा डाल देती है । मनुष्य सोने के पिंजरे में बंद पंछी की तरह उसके आकर्षण में इतना डूब चुका है कि वह मुक्त आकाश में उडान भरने के आनंद को भूल गया है ।

इस तरह पूंजीवादी समाज की सबसे बडी विडंबना यह है कि इसमें मनुष्य न केवल अपनी स्वतंत्रता खो चुका है बल्कि वह यह भी नहीं जानता कि वह उसे खो चुका है । इस खोई हुई स्वतंत्रता को ढूढ लाने के लिए सबसे पहले उसे अपने ‘अलगाव’ के प्रति सचेत होना होगा ताकि उसे यह अनुभव हो जाए कि उसकी कोई मूल्यवान् वस्तु गुम हो गई है और वह उसकी तलाश शुरू कर दे ।

नई प्रवृत्तियाँ:

फ्रैंकफर्ट स्कूल के प्रतिभाशाली दार्शनिक युर्गेन हेबरमास ने तर्क दिया है कि समकालीन चिंतन में आलोचनात्मक सिद्धांत के पुनर्निर्माण की जरूरत है । हेबरमारा के अनुसार, समकालीन विश्व में विज्ञान, प्रौद्योगिकी और संगठन की विलक्षण प्रगति का परिणाम यह हुआ है कि मनुष्य की तर्कबुद्धि (Reason) मनुष्य के उद्वार के दायित्व से विमुख हो गई है, और तर्कसंगति की भूमिका तकनीकी कार्य-कुशलता बढाने तक सीमित रह गई ।

दूसरे शब्दों में, मनुष्य की तर्कबुद्धि उसे अपने जीवन का साध्य (End) नहीं सुझाती, बल्कि केवल साधनों को संगठित करना सिखाती है । अतः वह मनुष्य की स्वतंत्रता का आधार नहीं रह गई है, बल्कि उस पर अपना प्रभुत्व स्थापित करके उसकी पराधीनता का कारण बन गई है ।

उधर उदार लोकतंत्र की संस्थाओं ने मनुष्यों के परस्पर संबंधों को बाजार समाज के ढर्रे पर खरीददार और विक्रेता के संबंधों में बदल दिया है । लोकतंत्र का आधार है- राजनीतिक चर्चा परंतु समकालीन परिस्थितियों में वह कभी सचमुच की चर्चा का रूप धारण नह कर पाई, क्योंकि इस चर्चा में भाग लेने वाले लोग शक्तिशाली और संगठित हितों के साथ जुडे रहे हैं ।

अतः राजनीतिक निर्णय इन हितों के परस्पर समायोजन का परिणाम होते हैं । जन-मानस की मुक्त अभिव्यक्ति का परिणाम नहीं होते । जन-संचार के साधन, सूचना के प्रसार और विचारों की स्वतंत्र अभिव्यक्ति को बढावा नहीं देते, बल्कि कोरे मनोरंजन के साथ-साथ व्यापारिक हितों को बढावा देने की भूमिका निभाते हैं । यही कारण है कि आज के युग में लोकतंत्र का रूप विकृत हो गया है ।

हेबरमास ने लिखा है कि परंपरागत समाज सृष्टि की पौराणिक, धार्मिक या दार्शनिक व्याख्याओं से जुडी हुई संस्थाओं की वैधता को स्वीकार करते थे परंतु पूंजीवाद ने वैज्ञानिक जानकारी और स्वचालित मशीनों की प्रामाणिकता को स्थापित करके सत्ता की वैधता के परंपरागत आधार को नष्ट कर दिया है ।

विज्ञान और प्रौद्योगिकी ने सामाजिक संगठन का तकनीकी प्रतिरूप प्रस्तुत करके जनसाधारण को राजनीतिक चेतना से वंचित कर दिया है, अर्थात् उन्हें सामाजिक लक्ष्यों के प्रति सचेत नहीं रहने दिया है । इन्होंने इस विचार को बढावा दिया है कि सारी मानवीय समस्याएं तकनीकी या संगठनात्मक किस्म की होती हैं, और वैज्ञानिक साधनों का प्रयोग करके उनका समाधान किया जा सकता है ।

ऐसा लगता है कि मनुष्य स्वयं सोचने-समझने और निर्णय करने वाला प्राणी नहीं रहा बल्कि बनी-बनाई जानकारी का प्रयोग करने वाली मशीन बनकर रह गया है । ऐसी हालत में मनुष्य की स्वतंत्रता के पुनरुत्थान के लिए तर्कबुद्धि को मानव-जीवन के लक्ष्यों के चितंन के प्रति फिर सचेत करना अत्यंत आवश्यक है ।

वैयक्तिक न्याय:

वैयक्तिक न्याय से हमारा तात्पर्य ऐसे न्याय से है जिससे प्रत्येक व्यक्ति को अपना चहुँमुखी विकास करने का पूरा अवसर प्राप्त हो और उस पर किसी भी प्रकार का कोई बाह्य दबाव न हो । चाहे यह दबाव सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक या सांस्कृतिक ही क्यों न हो । अतः इस विचार में यही धारणा बनती है कि मनुष्य को पूर्ण रूप से स्वतंत्र होना चाहिए और उस पर किसी भी प्रकार का प्रतिबंध अन्याय पूर्ण समझा जाएगा ।

इस संबंध में उदारवादियों तथा माकर्रवादियों के अपने विशेष दृष्टिकोण हैं जिसमें पहले हम उदारवादी विचारकों का वर्णन करेंगे, जिन्होंने वैयक्तिक न्याय का समर्थन किया है । इनमें जॉन लीक, एडम स्मिथ, स्पेन्सर, केपथम जैसे परम्परागत विचारकों के साथ बर्लिन, फ्रीडमैन, हेयक तथा राबर्ट नौजिक जैसे समकालीन उदारवादियों का नाम भी लिया जा सकता है ।

इनका मानना है कि व्यक्ति को अगर प्रतियोगी समाज में खुला छोड़ दिया जाए तो वैयक्तिक न्याय की स्थापना हो सकती है । लीक ने इस संबंध में अपनी कृति ‘टू ट्रीटिजेस ऑफ सिविल गवर्नमेंट’, 1689 के अंतर्गत तर्क दिया है कि व्यक्ति को पूर्ण रूप से खुला छोड़ देना चाहिए ।

सरकार ऐसा संगठन है जिसको समुदाय अपनी सुरक्षा के लिए बनाता है, अतः सरकार को व्यक्ति के निजी जीवन में निरर्थक हस्तक्षेप न करके उसे स्वतंत्र छोड़ देना चाहिए । अगर मनुष्य को स्वतंत्र रहने दिया जाता है तो वो अपना हित साधन करने में पूर्ण रूप से समर्थ होगा और वह अपना पूर्ण विकास कर सकेगा ।

इस तरह व्यक्तिगत न्याय की स्थापना हो जाएगी । लीक का मानना है कि व्यक्तियों को सामाजिक जीवन में बाँधने के लिए यह जरूरी नहीं कि प्रभुसत्ताधारी उन पर अपने नियम लागू करें । उसकी धारणा थी कि व्यक्ति स्वयं न्याय और नियम परस्त हैं ।

एडम स्मिथ ने अपने ग्रन्थ ‘Wealth of Nation’ (1776) में व्यक्तिवाद का प्रबल समर्थन किया है । एडम स्मिथ ने आर्थिक मानव का विचार प्रस्तुत करते हुए लिखा है कि प्रत्येक व्यक्ति में व्यापार की सहज प्रवृति पाई जाती है जिससे वो अपना अधिक से अधिक लाभ अर्जित कर सकता है । उसका मानना है कि उद्यमी व्यक्ति की स्वार्थ भावना अपने आप सामान्य हित को बढावा देती है ।

अतः स्मिथ के अनुसार सरकार को उद्योग व्यापार के मामलों में अहस्तक्षेप की नीति का अनुसरण करते हुए व्यक्तिगत न्याय की स्थापना के लिए सिर्फ तीन ही कार्य करने चाहिए:

1. विदेशी आक्रमण से राष्ट्र की रक्षा;

2. न्याय का प्रवर्तन; और

3. सार्वजनिक निर्णय के कार्य ।

अतः व्यक्ति को पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान करना सरकार का कार्य होना चाहिए ।

बेन्थम ने अपनी कृति ‘Introduction to the Principles of Morals and Legislation’, (1789) में लिखा है कि किसी भी सार्वजनिक नीति को इस कसौटी पर कसा जाना चाहिए कि जिससे ‘अधिकतम लोगों का अधिकतम सुख’ प्राप्त हो सके । इस अवधारणा में वैयक्तिक न्याय के साथ-साथ सामाजिक न्याय की स्थापना भी हो सकती है ।

इसका मानना है कि न्याय की स्थापना करते समय यह मूल्यांकन करना चाहिए कि इससे प्रभावित होने वाले व्यक्तियों को कितना सुख व कितना दुख मिल सकता है । बेन्थम का मानना है कि सरकार का मुख्य कार्य ऐसे कानून बनाना है जो लोगों की स्वतंत्र गतिविधियों में किसी प्रकार का हस्तक्षेप न करें । इस नाते यह कहा जा सकता है कि बेंथम भी मूल रूप से अहस्तक्षेप की नीति तथा व्यक्तिवाद का समर्थक है ।

हर्बर्ट स्पेन्सर ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता का समर्थन करते हुए इसको चरम स्थिति पर पहुंचा दिया जिसमें उसने कहा कि समाज रूपी जीव के जो अंग सुचारू ढंग से कार्य न करें, उनके नष्ट हो जाने में ही समाज का कल्याण है । स्पेन्सर का मानना है कि राज्य या समाज की ओर से दीन-दुखियों की सहायता के प्रयत्न सामाजिक विकास में बाधक होंगे, इसलिए ऐसे प्रयत्न समाज को नहीं करने चाहिए ।

अगर किसी असहाय व्यक्ति की सहायता के लिए किसी के व्यक्तिगत जीवन में निरर्थक हस्तक्षेप किया जाए तो यह उसकी अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए हानिकारक सिद्ध होगा और इससे वैयक्तिक न्याय की स्थापना में बाधा होगी । अतः इसका तर्क यह है कि सामाजिक न्याय की स्थापना के लिए वैयक्तिक न्याय की बलि नहीं दी जानी चाहिए ।

इसी तरह के कुछ विचार समकालीन विचारकों के भी हैं जो व्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रबल समर्थक हैं । इस संबंध में ईसाह बर्लिन ने अपनी कृति ‘Four Essays on Liberty-1969’ में यह तर्क दिया है कि अगर व्यक्तिगत न्याय की स्थापना की जानी है तो व्यक्ति को अपने विवेक के अनुसार कार्य निर्धारित करने से रोका न जाए ।

अतः उनका मानना है कि व्यक्ति अपनी स्वतंत्रता का कितना प्रयोग कर सकता है, यह उसके अपने चरित्र, अपनी क्षमता या अपने साधनों पर निर्भर है, राज्य इस विषय में कुछ नहीं कर सकता है, राज्य केवल यह कार्य कर सकता है कि वह व्यक्ति के स्वयं निर्धारित गतिविधियों पर कोई प्रतिबंध न लगाए ।

इस संबंध में वह कहता है कि यदि कोई व्यक्ति आजाद पछी की तरह आकाश में उड़ नहीं सकता, या हेल मछली की तरह समुद्र में तैर नहीं सकता तो यह उसकी अपनी कमी है न कि उसकी स्वतंत्रता पर किसी प्रकार का कोई प्रतिबंध है ।

हेयक ने इस संबंध में तर्क अपनी पुस्तक ‘Law, Legislation and Liberty’ (1976) में दिए हैं । जिसमें उसने कहा है कि, ‘सामाजिक न्याय का विचार ही निरर्थक है ।’ न्याय वस्तुतः मनुष्य के आचरण की विशेषता है, कोई समाज न्यायपूर्ण या अन्यायपूर्ण नहीं हो सकता है ।

हेयक का मानना है कि न्याय की तलाश केवल प्रक्रिया का विषय है जिसका ध्येय सिर्फ स्वतंत्रता को बढावा देना है । इसका तर्क इस संबंध में यह है कि सरकार को किसी तरह की सहायता या अवसरों की व्यवस्था नागरिकों के लिए २चतंत्रता के नाम पर नहीं करनी चाहिए, और व्यक्ति की असली स्वतंत्रता में कोई बाधा नहीं डालनी चाहिए ।

मिल्टन फ्रीडमैन ने अपनी कृति ‘Capitalism and Freedom (1962)’ में यह तर्क दिया है कि व्यक्ति या परिवार की स्वतंत्रता किसी सामाजिक व्यवस्था को जाँचने की अंतिम कसौटी है । सरकार को केवल वही मामले अपने हाथ में लेने चाहिए जिन्हें बाजार व्यवस्था या तो बिल्कुल नहीं संभाल सकती, या फिर उन पर इतना ज्यादा खर्च आता है कि उनके लिए राजनीतिक व्यवस्था का उपयोग ही उत्तम होगा ।

सरकार का कार्य बाजार व्यवस्था को सहारा देना और उसके बचे-खुचे काम कर देना है; उस पर नियंत्रण रखना नहीं । अतः उसका मानना है कि व्यक्ति को पूर्ण रूप से स्वतंत्र होना चाहिए । सरकार का उसके किसी भी क्षेत्र में प्रतिबंध सही नहीं होगा ।

अन्ततः राबर्ट नौजिक के विचार जो उन्होंने अपनी प्रसिद्ध कृति ‘Anarchy, State and Utopia’, (1974) में लीक के तर्क को अपनाया है । उसका मानना राज्य को अपने नागरिकों की सम्पत्ति के पुनर्वितरण मूलक हस्तांतरण का कोई अधिकार नहीं है; क्यों वे मूलतः उसके सेवार्थी थे, अतः ‘कल्याणकारी राज्य’ का कोई औचित्य नहीं है ।

नौजिक ने तर्क दिया है कि छल या बल के बिना सम्पत्ति का उपार्जन या हस्तांतरण न्यायसंगत होता है । सम्पत्ति के अधिकार का यह आधार यह है कि व्यक्ति को उसका ‘हकदार’ होना चाहिए । यह सिद्ध करना जरूरी नहीं कि व्यक्ति को नैतिक दृष्टि से उसके योग्य होना चाहिए ।

निष्कर्ष रूप से कहा जा सकता है कि वैयक्तिक न्याय की अवधारणा पूर्ण स्वतंत्रता की माँग करती है क्योंकि इनका मानना है कि जब व्यक्ति अपने अच्छे-बुरे के बारे में स्वयं निर्धारण अच्छी तरह से कर सकता है कोई दूसरा व्यक्ति या संस्था नहीं तो फिर व्यक्ति के जीवन में इनका हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए । अतः वैयक्तिक न्याय की अवधारणा तभी कायम हो सकती है जब व्यक्ति को पूर्णतः रूप से स्वतंत्र छोड़ दिया जाए ।

सामाजिक न्याय:

न्याय की संकल्पना प्राचीन काल से ही राजनीतिक चिंतन का महत्वपूर्ण विषय रही है परंतु आधुनिक युग तक आते-आते इसमें मौलिक परिवर्तन हो चुका है । परम्परागत दृष्टिकोण के अंतर्गत मुख्यतः न्यायपूर्ण व्यक्ति के स्वरूप पर विचार किया जाता था परंतु आधुनिक युग में समाजवादी चिंतन की प्रेरणा से यह सोचा जाता है कि ‘न्यायपूर्ण समाज’ कैसा होना चाहिए । अतः जहाँ परम्परागत दृष्टिकोण का मुख्य सरोकार व्यक्ति के चरित्र से था, वही आधुनिक दृष्टिकोण का मुख्य सरोकार सामाजिक न्याय से है ।

व्यापक अर्थ में ‘सामाजिक न्याय’ शब्दावली से सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक तीनों तरह के न्याय का बोध हो जाता है । सीमित अर्थ में सामाजिक न्याय का तात्पर्य यह है कि सामाजिक जीवन में सब मनुष्यों की गरिमा स्वीकार की जाए, स्त्री-पुरूष, गोरे-काले या जाति, धर्म, क्षेत्र इत्यादि के आधार पर किसी व्यक्ति को बडा-छोटा या ऊँचा-नीचा न माना जाए, शिक्षा और उन्नति के अवसर सबको समान रूप से प्राप्त हो, और सब लोग मनुष्य-मनुष्य के नाते मिल-जुलकर साहित्य, कला, संस्कृति और तकनीकी साधनों का उपयोग कर सके ।

न्याय के सामाजिक-आर्थिक आधारों की चर्चा हॉबहाऊस, बार्कर, मैकाइवर और लास्की जैसे सुधारवादी लेखक और कार्ल मार्क्स, एंजेल्स तथा लेनिन के साथ नौजिक जैसे क्रांतिकारी विचारक समान रूप से करते हैं । इसके साथ ही प्राचीन विचारकों ने भी सामाजिक न्याय के विषय में बहुत कुछ लिखा है ।