Read this article in Hindi to learn about:- 1. मार्क्सवाद सिद्धांत का प्रारम्भ (Introduction to Theory of Marxism) 2. परम्परागत मार्क्सवाद (Traditional Marxism).
मार्क्सवाद सिद्धांत का प्रारम्भ (Introduction to Theory of Marxism):
”मार्क्स ने समाजवाद को अव्यवस्थित रूप में पाया और इसको एक निश्चित आन्दोलन बना दिया ।” – लॉस्की
मार्क्सवाद का उदय 19वीं शताब्दी के मध्य हुआ जब परम्परागत उदारवाद पूरी तरह चरमोत्कर्ष पर था और पूंजीवाद पूरी तरह स्थापित हो चुका था । अतः ऐसे में मानव कल्याण और मानव स्वतंत्रता की मांग की पूर्ति न होने के कारण उदारवाद के विरोधस्वरूप मार्क्सवाद अस्तित्व में आया ।
इस विचारधारा ने मानव समाज की समस्याओं को इतिहास के माध्यम से जानने का प्रयास किया और बताया कि इतिहास वास्तव में दो वर्गों के बीच संघर्ष की कहानी है । इन दो वर्गों में एक वर्ग धनवान (Haves) और दूसरा वर्ग निर्धन (Have-Nots) होता है, जो क्रमशः प्रभुत्वशाली और पराधीन वर्गों (Dominant and Dependent Classes) की भूमिका संभाल लेता है ।
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इन दोनों वर्गों के हितों में सामंजस्य की कोई संभावना नहीं है । पूंजीवाद के तहत तो इनका संघर्ष चरम बिंदु पर पहुँच जाता है । अतः मार्क्स ने विश्व भर के मजदूरों को संगठित होकर पूंजीपतियों के विरुद्ध क्रांति करने का आह्वान किया है । क्रांति के फलस्वरूप उत्पादन के प्रमुख साधनों पर सामाजिक स्वामित्व स्थापित हो जाएगा, जिससे ‘समाजवाद’ की स्थापना होगी ।
यह एक संक्रमणकालीन अवस्था होगी जिसमें पूँजीवाद के बचे-खुचे अवशेषों को हटाना होगा । इस अवस्था में श्रम को अनिवार्य बनाकर उत्पादन की शक्तियों का पूर्ण विकास करना होगा ताकि उन्हें सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति का साधन बनाया जा सके ।
समाजवाद की उच्चतम अवस्था ‘साम्यवाद’ होगी जिसमें सारे वर्ग-भेद मिट जाएंगे और अन्ततः वर्गहीन समाज (Classless) की स्थापना होगी । इस अवस्था में राज्य भी लुप्त (The State is wither Away) हो जाएगा ।
मार्क्स ने अपनी दो प्रसिद्ध कृतियों के माध्यम से ‘Communist Manifesto-1848’ और ‘Capital-1867’ पी.जे. प्रूदों, बाकुनिन, आदि द्वारा प्रस्तुत कल्पनालोकीय समाजवाद में दो महत्वपूर्ण परिवर्तन करके एक नई विचारधारा प्रस्तुत की । उसने कल्पनालोकीय समाजवाद का खण्डन करते हुए वैज्ञानिक समाजवाद का विचार प्रस्तुत किया ।
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दूसरा, उसने सर्वहारा समाजवाद (Proletarian Socialism) का सिद्धांत रखा । अर्थात् जहाँ तत्कालीन समाजवादी दरिद्रता और अन्याय से पीडित समाज के पुनर्निर्माण की योजना बना रहे थे, वही मार्क्स ने औद्योगिक क्रांति से पैदा होने वाली परिस्थितियों में मजदूर वर्ग को नई चेतना देकर साम्यवादी समाज की स्थापना की योजना रखी ।
कल्पनालोकीय समाजवादियों की योजनाएं पूजीपतियों के स्वैच्छिक सहयोग या ‘हृदय परिवर्तन’ की संभावना पर आश्रित थीं, जिन्हें मूर्त रूप देने का कोई अचूक उपाय उनके पास नहीं था । मार्क्स ने कामगार वर्ग को पूंजीपतियों के विरुद्ध संघर्ष का मार्ग दिखाकर व्यावहारिक योजना प्रस्तुत की । उससे पहले समाजवाद एक स्वप्नलोक में विचरण कर रहा था, मार्क्स ने उसे यथार्थ का मार्ग दिखाकर जीवंत शक्ति का रूप दे दिया ।
मोटे तौर पर, मार्क्स के विचारों को दो मुख्य वर्गों में बाँट सकते हैं- पहले वर्ग में चिरसम्मत या परम्परागत मार्क्सवाद और दूसरे वर्ग में मार्क्स का मानववादी चिंतन (Humanist Thought) या तरूण मार्क्स (Young Marx) का विचार ।
परम्परागत मार्क्सवाद (Traditional Marxism):
परम्परागत मार्क्सवाद मार्क्स के वैज्ञानिक चिंतन की देन है । उसकी मुख्य-मुख्य मान्यताओं का विवरण है- द्वंद्वात्मक भौतिकवाद, इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या; वर्ग-संघर्ष का सिद्धांत तथा अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत । वर्ग संघर्ष के परिप्रेक्ष्य में वर्ग-चेतना की अवधारणा, क्रांति के सिद्धांत और ‘विचारधारा’ के स्वरूप की चर्चा भी युक्तियुक्त होगी ।
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1. द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद:
मार्क्सवाद का मूलाधार उनका भौतिक हन्द्ववाद था । इस सिद्धांत के द्वारा मार्क्स ने समाज के विकास के नियमों को खोजने का प्रयास किया । यह सिद्धांत उसने अपने गुरू हीगल की इस अभिव्यक्ति से लिया कि, ”संसार में समस्त विकास का कारण ‘विरोधों का संघर्ष’ (Conflict of Opposite) से होता है ।”
हीगल ने इस पद्धति का प्रयोग यह संकेत देने के लिए किया था कि चिंतन की प्रक्रिया में उपयुक्त निष्कर्ष तक पहुँचने के लिए किस तार्किक प्रतिमान का प्रयोग करना होता है ।
हीगल की मान्यता थी कि चिन्तन की प्रक्रिया में पहले-पहले दो विरोधी विचार पाये जाते है, जिनके आपसी टकराव से कुछ असत्य अंश समाप्त हो जाते हैं और इन दोनों के बचे हुए अंश आपस में जुड़कर एक नया विचार बनाते हैं, जो सत्य के अधिक निकट होता है ।
इस नए विचार का फिर अपने विरोधी विचार से टकराव होता है और यह प्रक्रिया तब तक चलती रहती है जब तक वह परम सत्य (Absolute Truth) के लक्ष्य तक नहीं पहुंच जाता है । इस परस्पर विरोधी विचारों के उत्तरोत्तर टकराव की प्रक्रिया को ‘निषेध का निषेध’ (Negation of Negation) कहा जाता है ।
हीगल के अनुसार यह प्रक्रिया तीन चरणों से होकर आगे बढ़ती है:
1. वाद (Thesis),
2. प्रतिवाद (Antithesis) और
3. संवाद (Synthesis) ।
मार्क्स ने हीगल की द्वन्द्वात्मक पद्धति को भौतिकवाद के साथ मिलाकर यह मान्यता रखी कि स्वयं भौतिक तत्व या जड़ तत्व के भीतर विकास की क्षमता पाई जाती है । यही कारण है कि जड़-तत्व द्वंद्वात्मक पद्धति के अनुसार नए-नए रूपों में ढलता चला जाता है । भिन्न-भिन्न सामाजिक संस्थाएं जड तत्व के बदलते हुए रूप को व्यक्त करती हैं ।
हीगल के द्वंद्वात्मक चेतनवाद का खण्डन करते हुए मार्क्स ने यह तर्क दिया कि चेतना स्वयं जड-तत्व के विकास की सर्वोच्च परिणति है । मार्क्स ने स्वयं लिखा है कि मनुष्यों का सामाजिक अस्तित्व चेतना पर आश्रित नहीं है । हीगल के ‘राष्ट्र राज्य’ की जगह मार्क्स ने ‘वर्गहीन और राज्यहीन समाज’ के उदय को सामाजिक विकास की चरम परिणति माना है ।
हीगल और मार्क्स दोनों की मान्यता है कि जब तक सामाजिक विकास अपने लक्ष्य तक नहीं पहुँच जाता, तब तक प्रत्येक सामाजिक अवस्था अस्थिर होती है । कार्ल मार्क्स का कहना है कि प्रगति द्वन्हवादी है और इसकी प्रकृति भौतिक है । माकर्स ने पदार्थ को प्रमुखता दी है ।
समाज के राजनीतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक तथा दार्शनिक सभी विचारों पर लोगों की आर्थिक व्यवस्था का प्रभाव पड़ता है । मार्क्स का कहना है कि, ”मेरे विचार में भौतिक विश्व के अतिरिक्त और कोई आदर्श नहीं हो सकता । यह भौतिकवाद मनुष्य के विचारों में प्रकट होता है ।”
मार्क्स ने अपनी द्वंद्ववादी पद्धति द्वारा समाज के विकास के इतिहास का विवरण प्रस्तुत किया तथा कहा कि समाज में विभिन्न वर्ग होते हैं । इन वर्गों में परस्पर संघर्ष होता है । यह संघर्ष उस समय तक चलता रहता है जब तक समाज में सभी वर्ग समाप्त नहीं हो जाते । धीरे-धीरे ये वर्ग मजदूर वर्ग में लुप्त हो जाते है तथा ‘श्रमिक वर्ग की तानाशाही’ स्थापित हो जाती है ।
2. इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या:
कार्ल मार्क्स ने द्वंद्वात्मक का से ही इतिहास की भी व्याख्या की है । उसका कहना है कि समस्त ऐतिहासिक घटनाओं पर आर्थिक घटनाओं का ही प्रभाव पड़ता है । समस्त सामाजिक ढाँचा आर्थिक ढाँचे के अनुसार ही बदलता रहता है ।
स्वयं मार्क्स के ही शब्दों में, ”सम्पूर्ण राजनीतिक, सामाजिक, तथा बौद्धिक संबंध, समस्त धार्मिक तथा कानूनी प्रणालियों, समस्त सैद्धांतिक दृष्टिकोण जो कि इतिहास से उत्पन्न होते हैं, वे जीवन की भौतिकवादी परिस्थितियों के निष्कर्ष के रूप में ही निकलते हैं ।”
अतः जहाँ द्वंद्वात्मक भौतिकवाद मार्क्सवाद का दार्शनिक आधार प्रस्तुत करता है, ऐतिहासिक भौतिकवाद उसका अनुभवमूलक आधार प्रस्तुत करता है । मार्क्स की मान्यता है कि किसी राष्ट्र या समाज के विकास की प्रक्रिया में आर्थिक तत्व अर्थात वस्तुओं के उत्पादन, विनिमय और वितरण प्रणाली की भूमिका सबसे प्रधान होती है ।
”A Contribution to the Critics of Political Economy” (1859) की प्रस्तावना में मार्क्स ने लिखा है कि हीगल के विधि-दर्शन का पुनरीक्षण करने के बाद वह इस निष्कर्ष पर पहुँचा है कि कानूनी संबंधों या शासन प्रणालियों के स्वरूप को न तो अपने आप समझा जा सकता है, न मानव मन की तथाकथित प्रगति के संदर्भ में, बल्कि उनकी जड़ें जीवन की भौतिक परिस्थितियों में ढूँढी जा सकती हैं ।
मार्क्स का मत है कि जैसे-जैसे समाज की उत्पादन प्रणालियों में परिवर्तन होता है वैसे-वैसे समाज का स्वरूप भी बदल जाता है । वह कहता है कि जब दासता का युग था तो समाज का स्वरूप दास तथा स्वामी का था । अगले परिवर्तन में किसान और जमींदार का समाज स्थापित हुआ जिसे सामंतवादी व्यवस्था माना गया ।
इसी तरह अगला चरण तब आया जब उत्पादन की शक्तियों में परिवर्तन आया जिसके फलस्वरूप पूंजीवादी समाज का प्रादुर्भाव हुआ । इस समाज का प्रतिनिधित्व पूंजीपति और मजदूर वर्गों ने किया । 1848 में मार्क्स तथा एंजेल्स ने ”Communist Menifesto” में लिखा कि बुर्जुवा या मध्य वर्ग ने उत्पादन के साधनों में क्रांति लाकर समाज के सम्पूर्ण स्वरूप को ही बदल दिया है ।
मार्क्स के इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या के लिए ‘आधार’ (Base) और ‘अधिरचना’ (Superstructure) में भेद करना आवश्यक है । भवन-निर्माण से मिलते-जुलते इस रूपक के अंतर्गत उत्पादन प्रणाली (Mode of Production) या समाज की आर्थिक संरचना (Economic Structure) को समाज का आधार/नींव मानते हैं ।
समाज के कानूनी और राजनीतिक ढांचे तथा सामाजिक चेतना की विविध अभिव्यक्तियों को अधिरचना की श्रेणी में रखा जाता है । अतः धर्म, नैतिकता, सामाजिक प्रथाएं, साहित्य, कला और संस्कृति, इत्यादि को भी अधिरचना का हिस्सा मानते हैं । इस तर्क के अनुसार सामाजिक विकास के दौरान उत्पादन प्रणाली में जो परिवर्तन होते हैं, उनके परिणामस्वरूप अधिरचना के सब हिस्सों में उनके अनुरूप परिवर्तन स्वतः हो जाते हैं ।
उत्पादन प्रणाली के विवरण से दो बातों के संकेत मिलते हैं- उत्पादन के तरीके का तकनीकी स्वरूप, जैसे- हस्तशिल्प, कृषकीय या औद्योगिक । उत्पादन की समाज व्यवस्था, जैसे- दास-प्रथा, सामंती, पूंजीवादी या समाजवादी व्यवस्था ।
यह व्यवस्था मुख्यतः इस बात पर निर्धारित होती है कि उत्पादन के साधनों का स्वामित्व किस वर्ग के हाथ में है ? स्वयं उत्पादन प्रणाली का निर्माण दो तत्वों के संयोग से होता है- उत्पादन की शक्तियाँ और उत्पादन के सम्बन्ध ।
उत्पादन की शक्तियाँ भी दो बातों का संकेत देती हैं- उत्पादन के साधन, उपकरण, यंत्र, आदि क्या हैं, और श्रम-शक्ति का स्तर क्या है?
दूसरी ओर, उत्पादन सम्बन्धों से यह सकेत मिलता है कि उत्पादन की प्रक्रिया में मनुष्य किन सम्बन्धों से बँध जाते हैं ? ये संबंध इस बात पर निर्भर हैं कि कौन-सा वर्ग उत्पादन के साधनों का स्वामी है और इसलिए प्रभुत्वशाली वर्ग (Dominant Class) है, और कौन-सा वर्ग इनसे वंचित होने के कारण पराधीन वर्ग (Dependent Class) है ?
इस प्रकार, स्वामी और दास (Master and Slave), जमींदार और किसान (Lord and Serf), पूंजीपति और कामगार (Capitalist and Worker) के परस्पर संबंध उत्पादन संबंधों के उपयुक्त उदाहरण हैं । इतिहास के विभिन्न कालों में प्रचलित उत्पादन सम्बन्ध विभिन्न प्रकार के सामाजिक विन्यास को जन्म देते हैं ।
इन्हें साधारणतः दास-प्रथा समाज (Slave Owing Society), सामंती समाज (Feudal Society) और पूंजीवादी समाज (Capitalist Society) के रूप में देख सकते हैं ।
ऐतिहासिक भौतिकवाद की मुख्य मान्यता यह है कि उत्पादन की शक्तियों का विकास धीमे-धीमे होता है परन्तु जब उनका स्वरूप आमूल बदल जाता है, तब प्रचलित उत्पादन संबंध उन शक्तियों को संभालने योग्य नहीं रह जाते । ऐसी हालत में उत्पादन की शक्तियों और उत्पादन संबंधों में संघर्ष पैदा होता है ।
इस संघर्ष में उत्पादन की शक्तियाँ एक ही झटके में पुराने उत्पादन संबंधों के जाल को तोड़कर नए उत्पादन संबंधों को जन्म देती हैं । यही कारण है कि ऐतिहासिक विकास के क्रम में प्रत्येक सामाजिक परिवर्तन के लिए क्रांति अनिवार्य होती है । मार्क्स के शब्दों में – ‘क्रांति सामाजिक परिवर्तन का अनिवार्य माध्यम है ।’
मार्क्स के अनुसार – ऐतिहासिक क्रम की प्रत्येक अवस्था चाहे वह कितनी ही खराब क्यों न दिखाई दे-अपनी पिछली अवस्था से उत्तम होती है क्योंकि वह विकास के लक्ष्य के निकट होती है । इसलिए मार्क्सवाद को ‘प्रगतिवादी सिद्धांत’ कहा जाता है ।
मार्क्स यह भी मानता है कि प्रगति ऐतिहासिक प्रक्रिया का अनिवार्य परिणाम है, उसे कोई रोक नहीं सकता । पर यदि शोषित वर्ग अपनी वर्ग चेतना से प्रेरित होकर सुदृढ संगठन बना ले तो वह वर्ग-संघर्ष में जल्दी विजयी हो सकता है । इस तरह प्रगति के वेग को बढ़ाया जा सकता है ।
3. वर्ग संघर्ष का सिद्धांत:
मार्क्सवादी विचारधारा में वर्ग संघर्ष के सिद्धांत का अपना अलग ही महत्व है क्योंकि यह सिद्धांत ऐतिहासिक भौतिकवाद का पूरक सिद्धांत है । मार्क्स ने ऐतिहासिक परिवर्तन की प्रक्रिया में वर्ग संघर्ष की भूमिका पर विशेष बल दिया है ।
मार्क्स का विश्वास था कि धनवान और निर्धन वर्गों (Haves and Have nots) के बीच का यह संघर्ष समाज के इतिहास में तभी से मौलिक महत्व की वस्तु रहा है जब से आदिम जन-जातीय समुदाय की समाप्ति हुई है, क्योंकि उस अवस्था में उत्पादन के साधनों पर सबका अधिकार होता था ।
इतिहास इस बात का साक्षी है कि उत्पादन की प्रणाली में जब-जब परिवर्तन हुए हैं, तब-तब सामाजिक वर्गों के परस्पर संबंधों में भी परिवर्तन आया है । समाज का अब तक का इतिहास वर्ग संघर्षों का इतिहास मात्र है ।
स्वतंत्रजन और दास, कुलीन और सामान्य जन, जमींदार और किसान, संक्षेप में- जालिम और मजलूम निरंतर एक दूसरे के दुश्मन रहे हैं, वे कभी चोरी छिपे और कभी खुलेआम लगातार आपस में लड़ते रहे है और इस लड़ाई का अंत हर बार या तो सारे समाज के क्रांतिकारी पुर्ननिर्माण में हुआ, या फिर दोनों संघर्षरत वर्गों के विनाश में ।
सामाजिक इतिहास का प्रत्येक अध्याय साक्षी है कि राजनीतिक सत्ता प्रभुत्वशाली वर्ग के हाथों में रही है जिसने दूसरे वर्ग को पराधीन बनाकर उस पर निंरतर अत्याचार किए । इस तरह राज्य उत्पीड़न का साधन मात्र रहा है । मार्क्स के अनुसार वर्ग संघर्ष तब तक जारी रहेगा जब तक स्वयं मजदूर वर्ग समाज की बागडोर नहीं संभाल लेता ।
तब उत्पादन के प्रमुख साधनों पर सामाजिक स्वामित्व स्थापित हो जाएगा और सब लोग कामगार बन जाएंगे । तभी समाज शोषण, उत्पीडन, वर्ग-भेद और वर्ग-संघर्ष के अभिशाप से मुक्त हो सकेगा ।
मार्क्स का कहना है कि अब तक के इतिहास में जिस वर्ग ने शोषकों से सत्ता छीनी, बाद में वह स्वयं शोषक साबित हुआ ! अतः अभी तक जितनी क्रांतियाँ हुईं, वह अपने लक्ष्य को पाने में असफल रहीं अर्थात् शोषण मुक्त समाज का उदय नहीं हो पाया परंतु अब जो क्रांति होगी वह पिछली सब क्रांतियों से भिन्न होगी क्योंकि इसके फलस्वरूप शोषक वर्ग का अस्तित्व ही मिट जाएगा और वर्गहीन समाज की स्थापना संभव हो पाएगी ।
मार्क्स ने इस समाज को साम्यवादी समाज का नाम दिया है । इस दौर में राज्य भी लुप्त हो जाएगा । अतः साम्यवादी समाज वर्गहीन तो होगा ही, राज्य हीन भी होगा ।
साम्यवाद से पहले की सभी अवस्थाओं में मनुष्य विवश होता है क्योंकि वह प्रकृति के निर्विकार नियमों से बंधा होता है, परंतु इस अवस्था में वह सभी बंधनों से मुक्त होकर अपने जीवन को मनचाहा रूप देने के लिए स्वतंत्र हो जाता है परन्तु साम्यवाद से पहले समाजवाद के रूप में एक संक्रमणकालीन अवस्था (Transitional Phase) की स्थापना होगी, जिसमें पूंजीवाद के अंतिम अवशेषों को हटाया जाएगा ।
यह ‘सर्वहारा का अधिनायकतंत्र’ कहलाएगा जो बुर्जुवा संसदीय लोकतंत्र से अधिक लोकतांत्रिक होगा । समाजवाद की स्थापना के द्वारा साम्यवाद की स्थापना का मार्ग प्रशस्त होगा परन्तु दोनों में एक अंतर यह भी होगा कि साम्यवाद में तो प्रत्येक व्यक्ति अपनी योग्यता के अनुसार कार्य करेगा और अपनी आवश्यकता के अनुसार प्राप्त करेगा लेकिन समाजवादी अवस्था में प्रत्येक व्यक्ति योग्यता के अनुसार काम करेगा और काम के अनुसार ही प्राप्त करेगा ।
वर्ग चेतना की संकल्पना (Class Consciousness):
मार्क्सवादी विचारधारा में वर्ग चेतना की संकल्पना वर्ग संघर्ष के सिद्धांत के साथ निकट से जुडी है । मार्क्स और एंजेल्स ने पूजीवाद की वर्ग संरचना और उसमें उभरते हुए वर्ग संघर्ष का अवलोकन किया, तत्पश्चात् अपनी कृति ‘The German Ideology – 1845’ में लिखा कि ”वर्ग स्वयं में बुर्जुवा समाज की उपज है ।”
इसके बाद उन्होंने सम्पूर्ण इतिहास के विश्लेषण के लिए इस संकल्पना के प्रयोग का प्रयत्न किया और वर्ग संघर्ष के विचार को सारे इतिहास की प्रेरणा-शक्ति मानते हुए ‘Communist Manifesto -1848’ में यह घोषणा कर दी कि ”अब तक के समाज का संपूर्ण इतिहास वर्ग संघर्षों का इतिहास है ।”
मार्क्स का कहना है कि पूंजीवाद के अंतर्गत औद्योगिक उत्पादन की परिस्थितियां यह माँग करती हैं कि बहुत सारे कारखाने आस-पास स्थापित किए जाएं और मजदूर अपनी-अपनी पसंद के कारखाने में काम करने के लिए स्वतंत्र हों । इससे नगर बस जाते हैं और उनमें कामगारों की बस्तियां बस जाती हैं ।
वहाँ बहुत सारे कामगार मिल-जुलकर रहते हैं और अपने दुख-सुख बाँटते हैं । जब उनका आपसी मेल-जोल बढ़ता है तो वे अपने सामान्य हित को पहचानने लगते हैं जिससे उन्हें उस सामान्य हित की सिद्धि के लिए संगठन बनाने की प्रेरणा मिलती है । वे अपने आपसी मतभेदों को भूलकर एकता के बंधन में बंध जाते हैं । इस प्रकार वे स्वभावतः वर्ग स्थिति से वर्ग चेतना की अवस्था में पहुँच जाते हैं ।
वहीं परवर्ती मार्क्सवादियों, कार्ल कॉटस्की और लेनिन का कहना है कि कामगार वर्ग में चेतना केवल बाहर से लाई जा सकती है । लेनिन का विचार था कि कामगार वर्ग में अपने-आप तो केवल मजदूर-संघ के स्तर की चेतना ही पैदा हो सकती है । उनमें राजनीतिक वर्ग चेतना विकसित करने का काम बुद्धिजीवियों का है जो सुशिक्षित और जानकार होते है ।
कामगारों में वर्ग चेतना के संचार के लिए नए संगठन की जरूरत होगी जो व्यवसायिक क्रांतिकारियों का दल होगा । इसके विपरीत, रोजा लक्जमबर्ग ने यह तर्क दिया है कि मजदूर वर्ग को स्वयं वर्ग-संघर्ष का सामाजिक अनुभव प्राप्त करके अपने अंदर वर्ग चेतना विकसित करनी चाहिए ।
यदि बुद्धिजीवी वर्ग सर्वहारा का संरक्षक बनने की कोशिश करेगा तो सर्वहारा स्वयं कमजोर और निष्क्रिय हो जाएंगे । वहीं जार्ज ल्यूकाच ने अपनी पुस्तक ‘History and Class Consciousness’ के तहत वर्ग चेतना की व्याख्या करते हुए कहा है कि वर्ग चेतना का अर्थ यह नहीं कि किसी स्थिति-विशेष में वर्ग-विशेष के सदस्य स्वयं क्या अनुभव करते हैं, बल्कि यह चेतना कुछ सुलझे हुए लोगों के मन में पैदा होगी जो सम्पूर्ण सामाजिक विचारों को ध्यान में रखकर उपयुक्त विचारों और कार्रवाई के बारे में निर्णय कर सकेंगे ।
4. क्रांति का सिद्धांत:
क्रांति का सिद्धांत ऐतिहासिक भौतिकवाद की अवधारणा के साथ निकट से जुडा है । इस सिद्धांत के अनुसार, उत्पादन की शक्तियों का विकास तो धीरे-धीरे होता है, परंतु एक अवस्था में पहुचकर पुराने सामाजिक सम्बन्धों पर उनका दबाव असह्य हो जाता है ।
ऐसी स्थिति में, जो सामाजिक वर्ग पुरानी व्यवस्था की बेडियों से जकड़ा हुआ था उसमें वर्ग चेतना का उदय होता है, और वह संगठित होकर पुराने प्रभुत्वशाली वर्ग को एक ही झटके में सत्ता से बेदखल कर देता है और उसके साथ जुड़ी हुई सारी संस्थाओं को उलट-पुलट कर देता है । इस तरह वर्ग संघर्ष अपनी चरम सीमा पर पहुँचकर क्रांति को जन्म देता है ।
इस प्रक्रिया के तहत पुराना पराधीन वर्ग सत्ता प्राप्त कर लेता है, और वह सारी राजनीतिक प्रणाली, कानून, सामाजिक संस्थाओं एवं नैतिक आदर्शों का पुनर्निर्माण करता है । इस प्रकार क्रांति सामाजिक परिवर्तन का अनिवार्य माध्यम है ।
इस सिद्धांत का मानना है कि सामतवाद (Feudalism) से पूंजीवाद के दौर में प्रवेश के लिए बुर्जुवा क्रांति आवश्यक थी, जो फ्रांसीसी क्रांति (1789 ई॰) के रूप में सामने आई । इसी तरह पूंजीवादी व्यवस्था के दौर से समाजवाद के युग में प्रवेश के लिए सर्वहारा क्रांति (Proletarian Revolution) आवश्यक है ।
इस क्रांति के द्वारा सर्वहारा या मजदूर वर्ग पूंजीपति वर्ग को पराजित करके पूंजीवाद के साथ जुडे हुए विशेषाधिकारों का अतः कर देता है और समाजवाद की स्थापना करता है । मार्क्सवाद की प्रेरणा से पहली समाजवादी क्रांति लेनिन के नेतृत्व में रूस में 1917 ई. में हुई और दूसरी समाजवादी क्रांति माओ-त्से-तुंग के नेतृत्व में चीन में 1949 में हुई ।
विचारधारा का विश्लेषण:
विचारधारा उन विचारों का समुच्चय है जिनमें कोई वर्ग अथवा समूह आस्था और विश्वास प्रकट करता है । इस प्रकार वह उन विचारों पर आधारित कानूनी और राजनीतिक ढांचे को मान्यता प्रदान करता है । मार्क्सवाद के अंतर्गत, विचारधारा ऐसा तत्व है जो शासक वर्ग को अपने शासन के लिए वैधता (Legitimacy) प्राप्त करने में सहायक होता है ।
मार्क्स ने अपनी कृतियों ‘German Ideology’ और ‘A Contribution to the Critique of Political Economy’ में विचारधारा के स्वरूप का विस्तृत विवेचन किया है । उसके अनुसार विचारधारा ‘मिथ्या चेतना’ (False Consciousness) की अभिव्यक्ति है ।
सामाजिक उत्पादन की प्रक्रिया में मनुष्य ऐसे संबंधों में बँध जाते हैं जो उनकी अपनी इच्छा पर आश्रित नहीं होते । ये संबंध समाज के आर्थिक ढांचे का निर्माण करते हैं । इस आधार पर समाज की कानूनी और राजनीतिक अधिरचनाएं खड़ी हो जाती हैं जो सामाजिक चेतना के निशचित रूपों के साथ जुडी होती है ।
इस तरह मनुष्यों की चेतना उनके अस्तित्व को निर्धारित नहीं करती बल्कि उनका सामाजिक अस्तित्व उनकी चेतना को निर्धारित करता है ।
मार्क्स का मानना है कि सामाजिक विकास की प्रक्रिया में मनुष्यों की भौतिक आवश्यकताएँ आगे बढ जाती हैं परंतु उनकी सामाजिक चेतना पिछड जाती है । यही पिछडी हुई चेतना या ‘मिथ्या चेतना’ उनकी विचारधारा को व्यक्त करती है जिसका प्रयोग प्रभुत्चशाली वर्ग की सत्ता को कायम रखने के लिए किया जाता है ।
मार्क्स और एंजेल्स के अनुसार, विचारधारा प्रभुत्वशाली वर्ग के निहित स्वार्थों की रक्षा का साधन है । इसलिए पूँजीपति वर्ग को ही विचारधारा की जरूरत है ।
इसके विपरीत, जब सर्वहारा वर्ग सत्तारूढ़ होता है, तब उसके कोई निहित स्वार्थ नहीं होते, अतः उसे विचारधारा की भी कोई आवश्यकता नहीं होती है परंतु लेनिन ने अपनी महत्वपूर्ण कृति ‘What is to be Done ?’ के अंतर्गत लिखा है कि निसंदेह विचारधारा वर्ग-हित की अभिव्यक्ति है; फिर भी समाजवादी दौर में सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व को भी एक विचारधारा-वैज्ञानिक समाजवाद की आवश्यकता होगी, अन्यथा यह भय बना रहेगा कि इस वर्ग के मन पर पूँजीवादी विचारधारा हावी हो सकती है ।
मार्क्स का मानववादी चिंतन (Marxism’s Humanistic Thinking):
मार्क्स के मानववादी चिंतन का सर्वोत्तम विवरण मार्क्स की एक आरंभिक कृति ‘Economic and Philosophic Manuscripts of 1844’ के तहत प्राप्त होता है । कभी-कभी इन्हें तरुण मार्क्स (Young Marx) की कृति मानकर प्रौढ मार्क्स के चिंतन से अलग किया जाता है ।
तरूण मार्क्स के शब्दों में – ”साम्यवाद का अर्थ है निजी संपत्ति और मानवीय अलगाव (Human Alienation) का नितांत उन्मूलन और मानवीय प्रकृति को मानव के लिए यथार्थ विनियोजन ।” अतः यह स्वयं मनुष्य की वापसी है (खोए हुए मनुष्य की वापसी)-एक सामाजिक व्यक्ति के रूप में, एक मानव के रूप में-पूर्ण और सचेतन वापसी जिसमें पूर्ववर्ती विकास की सारी संपदा को आत्मसात् कर लिया जाता है । साम्यवाद पूर्ण-विकसित प्रकृतिवाद (Naturalism) के रूप में मानववाद (Humanism) है और पूर्ण-विकसित मानववाद के रूप में प्रकृतिवाद है ।
यहाँ मार्क्स का कहना है कि पूंजीवाद के तहत मनुष्य एक यंत्र बनकर रह गया है; उसका मानव रूप कहीं खो गया है और वह प्रकृति से दूर हो गया है । साम्यवाद उस खोए हुए मनुष्य को ढूंढकर वापस लाता है और प्रकृति के साथ उसके टूटे हुए रिश्ते को फिर से जोड़ देता है ।
यह बात महत्वपूर्ण है कि 1930 के दशक में जब संसार मार्क्सवाद को हिंसात्मक क्रांति, वर्ग-वैमनस्य और वर्ग-विरोध के सिद्धान्त के रूप में पहचानता था । उन दिनों मार्क्स की इस पाडुलिपि के प्रकाशन से मार्क्सवाद के मानववादी चेहरे से पर्दा उठ गया और परवर्ती मार्क्सवादियों को नई दिशाओं में सोचने की प्रेरणा मिली ।
मार्क्स की आरंभिक कृति में मानव की खोई हुई स्वतंत्रता को फिर से वापस लाने के लिए निजी संपत्ति के उन्मूलन का समर्थन किया गया है, परंतु वहाँ यह संकेत नहीं मिलता कि यह उन्मूलन कैसे होगा? अपनी परवर्ती कृतियों के अंतर्गत उसने इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए आवश्यक यंत्र की उद्भावना की है, और वह वर्ग संघर्ष का यंत्र है । इस यंत्र का आविष्कार ऐतिहासिक शक्तियों के वैज्ञानिक विश्लेषण के आधार पर किया गया है-कोरी मानववादी या स्वप्नदर्शी भावना से नहीं ।
पराएपन की संकल्पना (Concept of Alienation by Karl Marx):
पराएपन (अलगाव) की संकल्पना मार्क्स की पांडुलिपी का मुख्य विवेच्च विषय है । यहाँ मार्क्स ने इस बात पर जोर दिया है कि पूंजीवादी व्यवस्था के तहत मनुष्य में अपनापन नहीं रह जाता, वह प्रकृति से, अपनी रचना से, अपनी समाज से, यहाँ तक कि अपने-आप से भी पराया हो जाता है । अतः उसके अपनेपन की वापसी के लिए पूंजीवाद का अंत करना जरूरी है ।
यह बात महत्वपूर्ण है कि मार्क्सवादी विचारक जॉर्ज ल्यूकाच ने इस पांडुलिपि के प्रकाशित होने के पूर्व ही पूंजीवादी समाज में अलगाव और जड वस्तुकरण (Alienation and Objectification) पर एक लेखमाला लिखी थी ।
बाद में जब मार्क्स की ये पांडुलिपियां प्रकाशित हो गईं और वे चर्चा का विषय बनने लगी तब से ल्यूकाच की रचनाओं का महत्व बढ़ गया है और अलगाव का सिद्धांत समकालीन मार्क्सवादी चिंतन का एक अहम हिस्सा बन गया है ।
मार्क्स ने पूंजीवादी समाज के तहत् अलगाव के चार स्तरों की खोज की है:
सबसे पहले, पूंजीवादी समाज में मनुष्य अपने उत्पादन तथा उत्पादन प्रक्रिया से अलग हो जाता है क्योंकि इसमें मजदूर से यह नहीं पूछा जाता कि किन वस्तुओं का उत्पादन किया जाए और कैसे किया जाए? उसका काम उसे रचनात्मक कार्य का संतोष नहीं दे पाता ।
जैसे कि यदि सामंतवादी समाज में कोई कामगार एक पूरी कमीज बनाता था तो उसे यह संतोष होता था कि उसने एक उपयोगी या कलात्मक चीज बनाई है, शायद किसी खास व्यक्ति के लिए बनाई है जिसे वह उस कमीज को पहने हुए देख सकता था ।
अतः वह अपने उत्पादन के साथ एक तरह का लगाव महसूस करता था परंतु पूंजीवादी व्यवस्था में बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियों में यह काम अलग-अलग लोग करते हैं । कोई सिर्फ कॉलर, कोई जेबें और कोई सिर्फ बटन लगाता है । पूरी कमीज के साथ कोई लगाव महसूस नहीं करता । उसे कौन पहनेगा, और उस पर वह कैसी लगेगी- यह भी कोई नहीं जानता ।
दूसरे, मनुष्य प्रकृति से पराया हो जाता है । मशीनों पर काम करते-करते प्रकृति से उसका संबंध टूट जाता है और वह प्रकृति के मनोरम दृश्यों तथा वातावरण का रस नहीं ले पाता । उसे बँधा-बँधाया काम करना पड़ता है जिसमें एकरसता आ जाती है ।
तीसरे, पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में प्रतिस्पर्धा इतनी अधिक होती है कि मनुष्य अपने सहकर्मियों के साथ भी कोई आत्मिक सम्बन्ध नहीं रख पाता । इस प्रतिस्पर्धा में एक का लाभ दूसरे की हानि बन जाता है । जैसे, जब एक मजदूर बीमार पड़ता है तो उसकी जगह दूसरे बेरोजगार मजदूर को रोजगार मिल जाता है ।
अंततः मनुष्य स्वयं से भी पराया हो जाता है क्योंकि विवशता का साम्राज्य उसके जीवन को पाशविक अस्तित्व का विषय बना देता है जिससे साहित्य, कला और संस्कृति के प्रति उसकी अभिरुचि खत्म हो जाती है । कामगार की इस दुर्दशा का अर्थ यह नहीं कि पूंजीपति की मानवीयता ज्यों-की-त्यों बनी रहती है । दरअसल, पूंजीवादी प्रणाली के तहत् स्वयं पूंजीपति भी मुद्रा की तानाशाही का गुलाम बन जाता है ।
ज्यादा-से-ज्यादा लाभ की इच्छा उसे बेचैन कर देती है और वह इसके पीछे सारे मानवीय गुणों से शून्य होता चला जाता है । अतः सम्पन्नता के बीच भी वह सच्ची स्वतंत्रता से वंचित रहता है ।
अतः जब से ‘अलगाव’ का सिद्धांत मार्क्सवादी चिंतन का महत्वपूर्ण अंग बना है, तब से यह अनुभव किया जाने लगा है कि केवल आर्थिक प्रणाली का चरित्र ही नहीं बल्कि मनुष्य और उसकी संस्कृति भी मार्क्सवादी विश्लेषण के उपयुक्त विषय हैं ।
वस्तुओं की जडपूजा (Fetishism of Commodities):
‘वस्तुओं की जडपूजा’ का विचार ‘पराएपन’ की संकल्पना के साथ निकट से जुडा है । मार्क्स ने अपनी पुस्तक ‘Capital’ के अंतर्गत इसका विस्तृत विवरण दिया है । उसने लिखा है कि पूंजीवादी प्रणाली के तहत् भिन्न-भिन्न वस्तुओं का उत्पादन करने वाले लोग एक विशेष सामाजिक संबंध से बँध जाते हैं जिसमें स्वयं मनुष्य गौण हो जाते हैं ।
इन मनुष्यों का सामाजिक सम्बन्ध इस बात से निर्धारित नहीं होता कि उनकी अपनी निपुणताएं क्या-क्या हैं, और उनके उत्पादनों में किस-किस प्रकार का और कितनी-कितनी मेहनत लगी है, बल्कि वह इस बात पर निर्भर होता है कि बाजार में उनके उत्पादनों का विनिमय मूल्य (Exchange Value) क्या है ?
इस तरह वस्तुओं का आपसी सम्बन्ध मनुष्यों के आपसी सम्बन्धों पर हावी हो जाता है । उदाहरणस्वरूप, बढ़ई और दर्जी का आपसी सम्बन्ध इस बात का संकेत देता है कि बाजार में कोट और मेज का विनिमय मूल्य क्या है; इस बात का संकेत नहीं देता कि इन दोनों वस्तुओं को बनाने में कैसी निपुणताओं की आवश्यकता है, और उसमें किस-किस तरह का, कितनी-कितनी मेहनत लगती है ? अर्थात् पूंजीवाद की आर्थिक व्यवस्था मनुष्यों के यथार्थ सामाजिक सम्बन्धों पर एक तरह के ‘मिथ्या संबंध’ की परत चढ़ा देती है ।
मार्क्सवादी धारणा के तहत जिस प्रकार विचारधारा ‘मिथ्या चेतना’ (False Consciousness) को व्यक्त करती है, उसी प्रकार वस्तुओं की जड़पूजा की अवधारणा ‘मिथ्या सामाजिक संबंधों’ (False Social Relationship) की व्याख्या करती है ।
स्वतंत्रता की संकल्पना:
मार्क्सवाद मूलतः मानव स्वतंत्रता का दर्शन है जिसका प्रभुत्व और पराधीनता की परिस्थितियों का अंत करना है जो आदिकाल से ही मानव-समाज को जकडे हुए हैं ।
स्वतंत्रता का आशय मनुष्य की भौतिक आवश्यकताओं की संतुष्टि मात्र नहीं है हालांकि यह संतुष्टि उसकी आवश्यक शर्त है परंतु स्वतंत्रता के लिए उन परिस्थितियों का निराकरण भी आवश्यक है जो मानव को अमानवीय जीवन जीने को विवश कर देती हैं, जो उसे अपने सहचरों से और स्वयं से अनजान बना देती हैं ।
अतः अलगाव की स्थिति का अंत करना मानव स्वतंत्रता की जरूरी शर्त है, और इसके लिए पूंजीवादी व्यवस्था का अतः कर समाजवादी व्यवस्था कायम करनी होगी ।
मार्क्सवादी वैज्ञानिक चिंतन के तहत स्वतंत्रता की समस्या को एक अन्य दृष्टि से भी समझ सकते हैं । एंजेल्स ने अपनी पुस्तक ‘एंटी-ड्यूरिंग-1878’ के अंतर्गत विवशता और स्वतंत्रता में अंतर करते हुए कहा है कि मनुष्य प्राकृतिक नियमों को बदल नहीं सकता और न ही उन्हें अपने वश में कर सकता है । मनुष्य केवल उन नियमों का वैज्ञानिक ज्ञान प्राप्त कर अपने उद्देश्यों की सिद्धि का साधन बना सकता है ।
जैसे कि इस बल के वैज्ञानिक ज्ञान के आधार पर हम पनचक्की चला सकते हैं और इस तरह इसका सार्थक उपयोग कर सकते हैं । अतः वैज्ञानिक ज्ञान की मदद से हम अपनी विवशता से मुक्त होकर स्वतंत्रता का वरण कर सकते हैं ।
इस प्रकार मार्क्स और एंजेल्स ने आधुनिक औद्योगिक व्यवस्था और प्रौद्योगिकी को तो मानव जीवन के लिए वरदान माना है परंतु उसके पूंजीवादी स्वरूप को अभिशाप मानते हुए उससे मुक्ति की मांग की है । ‘Communist Manifesto-
1848′ मैं उन्होंने उत्पादन प्रणाली में उस महान क्रांति का स्वागत किया है जो औद्योगिक तकनीकों का परिणाम थीं । वे केवल आर्थिक शोषण और मुनाफाखोरी के आलोचक थे ।
इधर थियोडोर एडोर्नो, मैक्स हारर्वाइमर, हेबरमास, माईके, आदि जैसे आधुनिक मार्क्सवादियों ने प्रभुत्व और विमुक्ति के द्वंद्ववाद (Dialectics of Domination and Liberation) पर मार्क्सवाद का ध्यान केंद्रित करते हुए पूंजीवादी प्रणाली के दो स्तरों का विश्लेषण किया है- प्रौद्योगिकी प्रभुत्व और आर्थिक शोषण ।
ये विचारक इन दोनों तत्वों को समान रूप से हानिकारक मानते हैं । इस प्रकार वे मानव की स्वतंत्रता के लिए केवल पूंजीवादी व्यवस्था का अंत नहीं चाहते बल्कि वे प्रौद्योगिकी को भी श्रम-प्रक्रिया के अमानवीयकरण का स्रोत मानकर उससे मुक्ति की मांग करते हैं ।
5. अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत:
मार्क्स के विचार मुख्य रूप से अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत पर आधारित हैं । उसका कहना है कि किसी वस्तु के उत्पादन में श्रम ही मुख्य है । मजदूर ही कच्चे माल को पक्के माल में बदलता है । किसी भी वस्तु का मूल्य उस पर लगे श्रम और समयानुसार ही निश्चित होता है ।
आधुनिक पूंजीवादी समाज में कच्चे माल अथवा पूंजी पर कुछ धनिकों का ही नियंत्रण है और मजदूर के पास अपना श्रम बेचने के अतिरिक्त और कोई रास्ता नहीं होता । पूंजीपति मजदूर को उसकी पूरी मजदूरी नहीं देता । उसे केवल इतना वेतन दिया जाता है कि वह जीवित रह सके और पूंजीपतियों की सेवा कर सके ।
मजदूरी और वस्तु के मूल्य में जो अतर है, वह वास्तव में मजदूर का भाग है, परन्तु पूंजीपति उसे लाभ कहकर अपने पास रख लेते हैं । यही अतिरिक्त मूल्य है जो मजदूर को मिलना चाहिए क्योंकि पूंजीपति का उस पर कोई अधिकार नहीं है । मार्क्स की मान्यता है कि पूंजीपति का लाभ मजदूर की मजदूरी में से छीने गए भाग के अतिरिक्त और कुछ नहीं है ।
मजदूर की मजदूरी एक नाशवान वस्तु है और वे अपनी उचित मजदूरी के लिए उसे अधिक दिनों तक नष्ट नहीं कर सकते । पूंजीपति मजदूरों की इस सोचनीय दशा का अनुचित लाभ उठाते हैं और उन्हें कम मजदूरी पर काम करने को विवश करते हैं । पूंजीपति अधिक से अधिक लाभ उठाकर मजदूरी को और भी गरीब बनाते हैं ।
लेनिन के विचार:
मार्क्स और एंजेल्स ने अपना चितंन 19वीं सदी के उत्तरार्ध में प्रस्तुत किया था । उन्हें आशा थी कि पूंजीवाद अपनी चरम सीमा पर पहुँचकर सर्वहारा वर्ग की शक्ति और संगठन के हाथों परास्त हो जाएगा । लेनिन बीसवीं शताब्दी के आरम्भ में रूस की उत्पीड़नकारी व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष कर रहा था जहाँ पूंजीवाद अपनी चरम सीमा पर नहीं पहुँचा था । परंतु लेनिन को मार्क्स की शिक्षाओं में रूसी बोल्दोविकवाद का आधार मिल गया ।
लेनिन ने रूस में समाजवादी क्रांति लाने और समाजवादी व्यवस्था स्थापित करने के लिए मार्क्स एवं एंजेल्स के विचारों को प्रमाणित मार्गदर्शक के रूप में स्वीकार किया, परन्तु समाजवादी क्रांति के विचार को व्यवहारिक रूप देने के लिए लेनिन ने मार्क्सवादी सिद्धांतों की नई व्याख्या कर उनमें कुछ परिवर्तन अवश्य किये जो निम्न हैं:
1. विचारधारा संबंधी विचार:
मार्क्स ने विचारधारा को ‘मिथ्या चैतना’ की संज्ञा दी है । मार्क्स का मत है कि विचारधारा के द्वारा धनवान वर्ग समाज को वर्गों में विभाजित करके अपनी सत्ता को कायम रखता है ।
अतः पूंजीपति वर्ग को ही विचारधारा की आवश्यकता होती है जबकि सर्वहारा वर्ग को केवल उपयुक्त चेतना की आवश्यकता होती है ना कि मिथ्या चेतना की लेकिन, लेनिन ने अपनी प्रसिद्ध कृति ‘What is to be done’ (1902) में लिखा हैं कि सर्वहारा वर्ग को भी विचारधारा की आवश्यकता होती है क्योंकि किसी भी वर्ग को अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए नीतियों तथा कार्यक्रमों की आवश्यकता होती है जिसकी पूर्ति विचारधारा द्वारा ही की जा सकती है ।
यदि सर्वहारा वर्ग के पास अपनी सुदृढ़ विचारधारा नहीं होगी तो वह पूंजीवादी विचारधारा से प्रभावित होकर अपना रास्ता भूल सकते हैं ।
2. साम्यवादी दल संबंधी विचार:
मार्क्स की मान्यता थी कि पूंजीवादी अवस्था में सर्वहारा वर्ग में वर्ग चेतना का आभास होगा और संगठित होकर पूंजीवादी व्यवस्था को स्वयं धराशायी कर देंगे लेकिन एक व्यवहारिक राजनीतिज्ञ के नाते लेनिन की यह मान्यता थी कि सर्वहारा वर्ग चूँकि बहुत बडा है और उसे सचेत होने में काफी समय लग सकता है और संगठित होने में तो उससे भी ज्यादा समय लग सकता है ।
अतः क्रांति की शक्तियों को सक्रिय बनाने के लिए सर्वहारा वर्ग के अधिक सचेत, अधिक समर्थ और अधिक सूझबूझ वाले सदस्यों को आगे आना चाहिए, और क्रांति की बागडोर संभाल लेनी चाहिए । लेनिन ने स्वयं रूस में एक ऐसे संगठन की नींव रखी जिसे उसने ‘साम्यवादी दल’ का नाम दिया ।
इसका प्रमुख कार्य सर्वहारा वर्ग को नेतृत्व प्रदान करना, क्रांति करना तथा क्रांति के बाद समाजवादी ढंग से शासन चलाना था । लेनिन ने साम्यवादी दल के लिए ‘क्रांति की अग्रपंक्ति’ (Vanguard of Revolution) की भूमिका निर्धारित की है ।
3. समाजवादी कार्यक्रम संबंधी विचार:
लेनिन के मत में साम्यवादी दल जनसमुदाय को अपना सदस्य बनाकर और उनमें अपनी विचारधारा का प्रचार करके उन्हें समाजवाद की ओर प्रेरित करेगा ताकि वे पूंजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने में उनका साथ दे ।
लेनिन की मान्यता थी कि क्रांति के बाद जब साम्यवादी दल सत्ता संभाल लेगा, तब वह सर्वहारा का अधिनायक तंत्र कायम करेगा, उत्पादन के प्रमुख साधनों को सामाजिक स्वामित्व में रखेगा और अपनी सारी शक्ति तथा राज्य के सब संसाधनों का प्रयोग इस तरह से करेगा जिससे पूंजीवाद के अवशेषों को मिटाया जा सके, प्रतिक्रांतिकारी शक्तियों को कुचला जा सके और सभी व्यक्तियों के लिए श्रम को अनिवार्य बनाकर प्रोद्योगिकी को इतना उन्नत किया जा सके कि श्रम की उत्पादन क्षमता को उच्चतम स्तर पर पहुँचाया जा सके ।
लेनिन का मत था कि सर्वहारा के अधिनायक तंत्र के अर्न्तगत केवल समाजवाद की स्थापना होगी, परंतु इसका ध्येय साम्यवाद की ओर बढ़ना है जब समाज वर्गहीन हो जाएगा और स्वयं राज्य भी ‘लुप्त’ हो जाएगा ।
माओ त्से तुंग के विचार:
माओ ने मार्क्सवादी विचारधारा में चीन की परिस्थितियों के अनुरूप परिवर्तन किए और 1949 में सफल क्रांति करके एक समाजवादी राज्य की स्थापना की ।
माओ ने भी मार्क्सवादी विचारधारा में काफी परिवर्तन किए जो इस प्रकार हैं:
निरन्तर क्रांति का सिद्धांत:
माओ ने क्रांति के स्वरूप की विस्तृत चर्चा करते हुए मार्क्सवादी विचारधारा को आगे बढाया है । माओ ने बीत्योविकों के इस मताग्रहपूर्ण (Dogmatic) तर्क का खंडन किया है कि भूलों से बचा जा सकता है । माओ का कहना है कि यह एक मार्क्सवाद विरोधी दृष्टिकोण है, क्योंकि यह ‘परस्पर-विरोधी तत्वों की एकता’ (Unity of Opposites) के नियम के विरुद्ध है ।
माओ ने ‘अंतर्विरोध के नियम’ के रूप में द्वंद्वात्मक पद्धति की नई व्याख्या देने का प्रयत्न किया है । इसके अनुसार सही नीति (Correct Line) का निर्माण गलत नीति (Incorrect Line) के साथ संघर्ष करके होता है । अतः विरोध और संघर्ष समस्त ऐतिहासिक परिवर्तन के लिए अनिवार्य हैं ।
यह नियम सभी सामाजिक विन्यासों, वर्गों और व्यक्तियों पर लागू होता है, यही तक कि यह स्वयं साम्यवादी दल पर भी लागू होता है । माओ ने अपनी प्रसिद्ध कृति ‘On Contradictions’ (1937) के अंतर्गत यह दर्शाया है कि समाजवाद या साम्यवाद की स्थापना हो जाने के बाद भी यह नियम समाप्त नहीं हो जाता ।
क्रांति कोई अंतिम समाधान नहीं है, बल्कि वह केवल अभीष्ट दिशा में प्रगति का एक चरण है । अंतर्विरोध निरंतर बने रहते हैं । एक अंतर्विरोध दूसरे को जन्म देता है; जब पुराने अंतर्विरोध सुलझ जाते हैं, तब नए पैदा हो जाते हैं । ऊपर से कोई समाधान आरोपित करके अंतर्विरोध को समाप्त कर देने का प्रयास एक भूल है ।
फिर भी इन अंतर्विरोधों के प्रतिकार के लिए राज्य को ज्यादा-सेज्यादा शक्तियाँ अपने हाथ में लेनी होंगी, अतः सर्वहारा की अग्रपंक्ति के रूप में साम्यवादी दल को अनिश्चित काल तक बने रहना होगा ।
मार्क्स और एंगेल्स को विश्वास था कि ‘सर्वहारा का अधिनायकतंत्र’ एक अल्पस्थायी व्यवस्था होगी, क्योंकि इसकी स्थापना के बाद ‘राज्य के लुप्त होने’ में ज्यादा समय नहीं लगेगा, परन्तु माओ की मान्यता है कि समाजवाद के दौर में भी वर्ग संघर्ष का अंत नह होगा, केवल उसका रूप बदल जाएगा ।
माओ के अनुसार, आर्थिक मोर्चे पर समाजवादी क्रांति हो जाने के बाद समाजवादी व्यवस्था अपने-आप सुदृढ़ नहीं हो जाएगी; इसके लिए राजनीतिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक और विचारधारात्मक मोर्चों पर समाजवाद को बढावा देना जरूरी होगा, जिसमें लम्बा समय लगेगा ।
इसके लिए कुछ दशक पर्याप्त नहीं होंगे, बल्कि इसमें कई शताब्दियां लग जाएंगी । माओ ने माना कि समाजवादी व्यवस्था में भी सर्वहारा और बुर्जुवा वर्गों का संघर्ष लगातार चलता रहेगा । यह लंबा चलने वाला, बार-बार पैदा होने वाला, दारूण और जटिल संघर्ष है । समुद्र की लहरों की तरह यह कभी बहुत उग्र हो जाता है, कभी कुछ शांत हो जाता है परंतु यह पूरी तरह समाप्त नहीं हो जाता ।