Read this article in Hindi to learn about the importance of security in the contemporary world and its two main concepts.

समकालीन विश्व में सुरक्षा का परिचय (Introduction to Security in the Contemporary World):

सुरक्षा सदैव विश्व राजनीति का महत्वपूर्ण मुद्दा रहा है । राष्ट्र-राज्यों की सम्प्रभुता पर आधारित आधुनिक विश्व व्यवस्था की स्थापना 1648 की वेस्टफीलिया की संधि द्वारा की गयी थी । यह एक यूरोपियन व्यवस्था थी तथा इसमें सुरक्षा की स्थापना प्रमुख शक्तियों के मध्य शक्ति सन्तुलन के द्वारा की जाती थी ।

शक्ति संतुलन की यह व्यवस्था लम्बे समय तक कारगर रही लेकिन बाद में यह व्यवस्था चरमरा गयी । 20वीं शताब्दी में विश्व समुदाय को प्रथम विश्व युद्ध का सामना करना पड़ा । सामूहिक सुरक्षा के तहत यद्यपि 1920 में राष्ट्र संघ अथवा लीग ऑफ नेशन्स की स्थापना की गयी लेकिन कतिपय संगठनात्मक व परिस्थितिजन्य कमजोरियों के चलते यह संगठन भी सुरक्षा को सुनिश्चित नहीं कर सका तथा विश्व समुदाय को 1939 में दूसरे विश्व युद्ध का सामना करना पड़ा ।

परिणामत: 1945 में पुन: सामूहिक सुरक्षा के सिद्धान्त पर आधारित एक नये संगठन संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना की गयी । निष्कर्ष यह है कि २०वी शताब्दी के विश्व युद्धों के कारण विश्व सुरक्षा का मामला विश्व राजनीति में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तत्व बन गया है ।

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सुरक्षा क्या है ? सुरक्षा एक जटिल व गत्यात्मक धारणा है जिसे परिभाषित करना कठिन है । नकारात्मक अर्थ में सुरक्षा का तात्पर्य राष्ट्रों तथा विश्व समुदाय के समक्ष ऐसे खतरों के अभाव से है जो उसके अस्तित्व को चुनौती दे सकें । लेकिन सकारात्मक अर्थ में सुरक्षा का तात्पर्य शान्ति की ऐसी परिस्थितियों की उपस्थिति से है, जिसमें प्रत्येक राष्ट्र तथा विश्व समुदाय निर्बाध अपने मामलों का संचालन कर सके तथा अपने लक्ष्यों को प्राप्त कर सके ।

स्थायी शान्ति की स्थापना ही सकारात्मक सुरक्षा का दूसरा नाम है । राष्ट्रीय सुरक्षा की धारणा का विकास द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिका में हुआ था सुरक्षा का तात्पर्य ऐसी स्थिति से था जिसमें राज्य का अस्तित्व बना रहे ।

सुरक्षा की धारणा एक गतिशील धारणा है । सुरक्षा के खतरों में बदलाव के साथ ही सुरक्षा की धारणा भी बदल जाती है । वर्तमान में सुरक्षा की धारणा का विस्तार हो चुका है तथा राष्ट्र की सुरक्षा के स्थान पर मानवीय सुरक्षा को अपनाया गया है । इसके अन्तर्गत सुरक्षा के राजनीतिक, आर्थिक, सैनिक, मनोवैज्ञानिक, सांस्कृतिक आदि सभी पहलुओं को शामिल कर लिया गया है । इसे सुरक्षा की गैर-परम्परागत धारणा भी कहते हैं ।

सुरक्षा की दो धारणाएँ (Two Concepts of Security in the Contemporary World):

सुरक्षा के खतरों की प्रकृति तथा उनसे निबटने के उपायों के आधार पर सुरक्षा की धारणा के आमतौर पर दो रूप देखे जा सकते हैं-सुरक्षा की परम्परागत धारणा तथा सुरक्षा की आधुनिक धारणा ।

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I. सुरक्षा की परम्परागत धारणा (Conventional Concept of Security):

सुरक्षा की परम्परागत धारणा किसी राष्ट्र की सीमाओं व उसकी सम्प्रभुता के संरक्षण से सम्बन्ध रखती है । सम्प्रभुता व राष्ट्रीय क्षेत्र की सुरक्षा को प्रमुख खतरा सैनिक आक्रमण अथवा युद्ध से है । अत: सुरक्षा की परम्परागत धारणा में सम्प्रभुता की रक्षा के लिये सैनिक क्षमता अर्जित करना अत्यंत आवश्यक है ।

अत: सुरक्षा की परम्परागत धारणा की निम्न तीन विशेषताएँ महत्त्वपूर्ण है:

1. इस धारणा में राष्ट्र की सम्प्रभुता तथा राज्य के भू-भाग की रक्षा करना ही मुख्य लक्ष्य है ।

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2. राष्ट्र की सम्प्रभुता तथा उसके भू-भाग को सबसे महत्त्वपूर्ण खतरा सैनिक आक्रमण अथवा युद्ध से है ।

3. सैनिक क्षमता विस्तार तथा युद्धों की रोकथाम सुरक्षा के लिये आवश्यक है ।

उल्लेखनीय है कि आधुनिक राष्ट्र-राज्य व्यवस्था के उदय से लेकर 20वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक सुरक्षा का परम्परागत विचार ही प्रमुख रहा है । नेपोलियन की पराजय के बाद 1815 में यूरोप के देशों ने सुरक्षा के लिये कॉनसर्ट ऑफ यूरोप नामक गठबन्धन की स्थापना की थी । इसी तरह प्रथम विश्व युद्ध के बाद जब युद्ध का स्वरूप वैश्विक हो गया तो 1919 में वारसा को संधि के अन्तर्गत प्रथम वैश्विक संगठन लीग आफ नेशन्स की स्थापना की गयी ।

इसका प्रमुख उद्‌देश्य युद्ध व शस्त्रों की दौड़ को रोकना था । इसी तरह द्वितीय विश्व युद्ध के बाद 1945 में संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना की गयी थी जो सामूहिक सुरक्षा की धारणा पर आधारित है । इसमें भी युद्धों की रोकथाम नि:शस्त्रीकरण तथा विवादों के शान्तिपूर्ण समाधान के द्वारा सुरक्षा को सुनिश्चित करने का प्रयास किया गया है ।

फिर भी संयुक्त राष्ट्र संघ में सुरक्षा की व्यापक धारणा को अपनाया गया है, क्योंकि इसमें राष्ट्रों के मध्य सामाजिक तथा आर्थिक सहयोग जैसे गैर-परम्परागत सुरक्षा उपायों को स्थान दिया गया है । यह सुरक्षा की बदलती हुई धारणा का प्रतीक है ।

सुरक्षा के परम्परागत उपाय (Traditional Solutions of Security):

सुरक्षा की परम्परागत धारणा में युद्धों को रोकना अथवा उन्हें सीमित करना ही सुरक्षा का मुख्य लक्ष्य होता है ।

इसके अन्तर्गत सुरक्षा के निम्नलिखित उपाय अपनाये जाते हैं:

1. शक्ति संतुलन (बैलेन्स ऑफ पावर) (Balance of Power):

1648 से लेकर प्रथम विश्व युद्ध तक प्रमुख शक्तियों के मध्य शक्ति संतुलन यूरोप में सुरक्षा का प्रमुख उपाय रहा है । शक्ति संतुलन व्यवस्था इस धारणा पर आधारित है कि यदि प्रमुख शक्तियों के मध्य शक्ति का संतुलन इस प्रकार है कि कोई भी राष्ट्र अकेले सैनिक विजय के लिये आश्वस्त है तो वे शक्तियाँ युद्ध से बचने का प्रयास करेंगी तथा सुरक्षा को खतरा उत्पन्न नहीं होगा ।

इसके विपरीत यदि किसी राष्ट्र की शक्ति इतनी बढ़ जाये कि वह दूसरों पर विजय के लिये सुनिश्चित हो जाये तो युद्ध का खतरा बढ़ जायेगा । यूरोप में 1871 से 1914 के मध्य दो सैनिक गठबन्धनों में शक्ति संतुलन के कारण शान्ति बनी रही ।

पहला त्रिपक्षीय गठबन्धन (ट्रिपल एलायन्स) में जर्मनी, आस्ट्रिया तथा इटली शामिल थे तथा दूसरे गठबन्धन (ट्रिपिल इन्टेन्टे) में फ्रांस, इंग्लैंड तथा रूस शामिल थे । द्वितीय विश्व युद्ध के समय जर्मनी के तानाशाह हिटलर को जब यह सुनिश्चित हो गया कि वह सैनिक विजय हासिल कर सकता है तो उसने 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध की शुरूआत कर दी ।

लेकिन जब बाद में उसे जर्मनी की पराजय का अहसास हो गया तो वह अपना मानसिक संतुलन खो बैठा तथा आत्महत्या कर ली । 20वीं शताब्दी में परमाणु हथियारों के युग में आतंक के संतुलन की धारणा का विकास हुआ ।

इसका तात्पर्य यह है कि दोनों महाशक्तियों के पास परमाणु हथियारों की इतनी बड़ी संख्या है कि यदि वह विरोधी के विरुद्ध आक्रमण करता है तो जवाबी आक्रमण में स्वयं उसका विनाश सुनिश्चित है । अत: परमाणु युग में दोनों महाशक्तियाँ एक-दूसरे के विरुद्ध आक्रमण करने से बचती है तथा उनके बीच युद्ध नहीं होता ।

2. सामूहिक सुरक्षा तथा सुरक्षा परिषद (Group Security and Security Council):

परम्परागत सुरक्षा का दूसरा उपाय सामूहिक सुरक्षा की धारणा है, जिसे संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद् द्वारा व्यवहारिक रूप दिया जाता है । सामूहिक सुरक्षा का तात्पर्य यह है कि यदि किसी देश द्वारा दूसरे देश के विरुद्ध आक्रमण किया त्राता है तो सुरक्षा परिषद् द्वारा विश्व समुदाय की ओर से उसके विरुद्ध सामूहिक सैनिक कार्यवाही की जायेगी ।

सुरक्षा परिषद् पहले विवादों को वार्ता द्वारा निबटाने का प्रयास करती है । तत्पश्चात् विवाद का समाधान न होने पर दोषी देश के विरुद्ध आर्थिक व सैनिक प्रतिबन्ध लगाये जाते हैं । यदि फिर भी सुरक्षा का खतरा समाप्त नहीं होता तो सुरक्षा परिषद् दोषी राज्य के विरुद्ध सीधी सैनिक कार्यवाही कर सकती है ।

सुरक्षा परिषद इस तरह की सैनिक कार्यवाही 1950 में कोरिया में, 1991 में इराक के विरुद्ध तथा 2001 में अफगानिस्तान में तालिबानी शासन विरुद्ध की जा चुकी है । संयुक्त राष्ट्र संघ की अपनी कोई स्थायी सेना नहीं है । सेना का योगदान आवश्यकतानुसार सदस्य देशों द्वारा किया है ।

इसके अतिरिक्त सुरक्षा परिषद् विवाद को सीमित करने तथा विवाद के समाधान के बाद शान्ति बनाये रखने के लिये शान्ति सेना की शांति करती है । वर्तमान में 9 स्थानों पर शान्ति सेना तैनात है ।

3. सैनिक गठबन्धनों की स्थापना (Establishment of Military Alliances):

परम्परागत धारणा के अन्तर्गत कुछ देश आपसी सैनिक गठबन्धनों का निर्माण कर सुरक्षा को सुनिश्चिम करने का प्रयास करते हैं । संयुक्त राष्ट्र की सामूहिक सुरक्षा की स्थापना छ बाद इस तरह के सैनिक गठबन्धनों का निर्माण उचित नहीं माना ।

फिर भी द्वितीय विश्व युद्ध के बाद इस तरह के सैनिक गठबन्धनों का गठन किया गया है । इन सैनिक गठबन्धनों में यह शर्त शामिल होती कि यदि इसमें शामिल किसी एक देश के विरुद्ध भी बाह्य सैनिक आक्रमण होता है तो वह सभी सदस्यों के विरुद्ध आक्रमण माना जायेगा तथा सभी सदस्य मिलकर उसका सामना करेंगे ।

अमेरिका तथा पश्चिमी देशों ने 1949 में नॉर्थ अटलांटिक सन्धि संगठन अथवा नाटो नामक सैन्य संगठन की स्थापना की थी । इसके जवाब में सोवियत संघ के नेतृत्व में साम्यवादी देशों द्वारा पूर्वी यूरोप में 1955 में वारसा सन्धि संगठन की स्थापना की गयी थी ।

इसी तरह अमेरिका की पहल पर मध्य एशिया में सेण्ट्रल सन्धि संगठन अर्थात् सेण्टो तथा दक्षिण-पूर्व एशिया में सीटो नामक सन्धि संगठन की स्थापना की गयी थी । सैनिक गठबन्धनों से सुरक्षा के साथ-साथ सैनिक तनाव भी बढ़ता है तथा ये संगठन संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर की भावना के विपरीत है ।

4. निःशस्त्रीकरण के प्रयास (Efforts for Disarmament):

यह एक सर्वमान्य विचार है कि शस्त्रों की दौड़ से युद्ध की संभावना बढ़ जाती है । अत: युद्धों को रोकने के लिये परम्परागत सुरक्षा के अन्तर्गत नि:शस्त्रीकरण पर विशेष बल दिया गया है । निःशस्त्रीकरण का तात्पर्य है कि विनाशकारी हथियारों को समाप्त कर दिया जाये ।

इसी से मिलता-जुलता एक अन्य शब्द शस्त्र नियंत्रण है, जिसका तात्पर्य शस्त्रों को समाप्त करने की बजाय भविष्य में शस्त्रों की बढ़ोतरी पर रोक लगाना है । नि:शस्त्रीकरण का पहला प्रयास 1899 का हेग सम्मेलन है जिसमें कतिपय घातक हथियारों पर रोक लगाने का प्रस्ताव पारित किया गया था ।

जैसे-जैसे नये घातक हथियारों का विकास होता रहा है, उसी अनुपात में नि: शस्त्रीकरण का दायरा भी बढ़ता रहा है । विकसित हथियारों के कारण प्रथम विश्व युद्ध की भयावहता भी अधिक थी । इस युद्ध के बाद 1920 में स्थापित लीग ऑफ नेशन्स द्वारा भी नि:शस्त्रीकरण के प्रयास किये गये थे ।

लीग ने 1926 में नि:शस्त्रीकरण के लिये एक अलग आयोग की स्थापना की थी तथा 1932 में विश्व नि:शस्त्रीकरण सम्मेलन का आयोजन किया था, लेकिन प्रमुख शक्तियों में आपसी अविश्वास के चलते सफलता नहीं मिली । परिणामत: 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध आरंभ हो गया जो पहले से भी अधिक भयावह था, क्योंकि इसमें नये परम्परागत हथियारों के साथ-साथ परमाणु हथियारों का भी प्रयोग किया गया था ।

6 व 9 अगस्त, 1945 को क्रमश: जापान के शहरों हिरोशिमा व नागासाकी में अमेरिका द्वारा परमाणु हथियारों का प्रयोग किया गया, जिनकी विभीषिका से सुरक्षा की नयी चिन्ता उत्पन्न हो गयी ।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद 1945 में संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना हुई, जिसका प्रमुख उद्देश्य सामूहिक सुरक्षा तथा निःशस्त्रीकरण के माध्यम से विश्व शान्ति व सुरक्षा को सुनिश्चित करना था । संयुक्त राष्ट्र संघ ने परम्परागत हथियारों के साथ-साथ परमाणु निःशस्त्रीकरण पर विशेष बल दिया है ।

1945 में परमाणु ऊर्जा आयोग तथा परम्परागत हथियारों पर रोक के लिये 1947 में निःशस्त्रीकरण आयोग को स्थापना गयी तथा 1952 में इन दोनों को मिलाकर एक निःशस्त्रीकरण आयोग की स्थापना की गयी । परमाणु ऊर्जा के शान्तिपूर्ण प्रयोग को सुनिश्चित करने के लिये 1957 में अन्तर्राष्टीय परमाणु ऊर्जा की स्थापना की गयी ।

संयुक्त राष्ट्र संघ आरंभ से ही निशस्त्रीकरण की दिशा में निरन्तर प्रयासरत है । गुटनिरपेक्ष आन्दोलन ने भी इस दिशा में सकारात्मक पहल की है । वर्तमान में मुख्य ध्यान अत्यंत विध्वंसक हथियारों की रोकथाम पर है । इनमें रासायनिक व जैविक हथियारों के साथ-साथ मुख्य रूप से परमाणु हथियार शामिल हैं ।

अब तक के निःशस्त्रीकरण के मुख्य प्रयास निम्नलिखित हैं:

1. परमाणु परीक्षण निषेध संधि (Nuclear Test Negotiating Treaty), 1963:

इस संधि द्वारा बाह्य आकाश, समुद्र तथा वायुमण्डल में परमाणु परीक्षण पर रोक लगायी गयी है । आरंभ में ब्रिटेन, सोवियत संघ तथा अमेरिका ने इस संधि पर हस्ताक्षर किये, बाद में भारत सहित अन्य राष्ट्रों ने भी इस संधि को स्वीकार कर लिया है । मई 1974 में भारत ने अपनी भूमि के नीचे जो परमाणु परीक्षण किया था वह संधि की शर्तों के अनुकूल था, क्योंकि उसमें भू-गर्भ में किये जाने वाले परमाणु परीक्षणों पर रोक नहीं लगायी गयी है ।

2. बाह्य अन्तरिक्ष संधि (External Space Treaty), 1966:

इस संधि के द्वारा बाह्य आकाश में आणविक शस्त्रों को रखने या भेजने पर रोक लगायी गयी है ।

3. आणविक शस्त्र रहित समुद्र तल संधि (Molecular Weapon-Free, Sea Floor Treaty), 1971:

इस संधि द्वारा समुद्र की तलहटी में परमाणु शस्त्रों को रखने पर रोक लगा दी गयी है । इस संधि पर 64 देशों ने भी हस्ताक्षर किये हैं ।

4. परमाणु अप्रसार संधि (Nuclear Non-Proliferation Treaty), 1968:

यह संधि वर्तमान में परमाणु हथियारों व तकनीकि के प्रसार को रोकने के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण संधि है । यह संधि 1970 में अस्तित्व में आयी । इस संधि द्वारा गैर-परमाणु शक्ति सम्पन्न राष्ट्रों द्वारा परमाणु हथियार या तकनीकि अर्जित करने पर पूरी तरह रोक लगा दी गयी है ।

परमाणु शक्ति संपन्न देश इन्हें परमाणु हथियारों तथा तकनीकि का हस्तांतरण नहीं करेंगे । लेकिन उन्हें परमाणु ऊर्जा के शान्तिपूर्ण प्रयोग की छूट होगी । आरंभ में यह संधि 25 वर्षों के लिए हुई थी, लेकिन 1995 में इस अनिश्चितकाल के लिए बढ़ा दिया गया है ।

वर्तमान में भारत, पाकिस्तान, इजराइल तथा उत्तरी कोरिया को छोड्‌कर अन्य सभी 189 राष्ट्रों ने इस पर हस्ताक्षर कर दिये हैं । भारत ने इस सन्धि पर इस आधार पर हस्ताक्षर नहीं किये कि यह संधि भेद-भावकारी है, क्योंकि यह परमाणु शक्ति सम्पन्न पाँच राष्ट्रों को परमाणु शस्त्रों के विकास की खुली छूट देती है जबकि गैर-परमाणु शक्ति सम्पन्न राष्ट्रों द्वारा ऐसे हथियार व तकनीकि अर्जित करने पर रोक लगाती है ।

5. साल्ट प्रथम एवं साल्ट द्वितीय सन्धियाँ (SALT First and SALT Second Treatments):

अमेरिका तथा सोवियत संघ के बीच सामरिक अस्त्र परिसीमन वार्ताएँ 1969 में फिनलैण्ड की राजधानी हेलसिंकी में सम्पन्न हुई, जिसके परिणामस्वरूप साल प्रथम संधि (Strategic Arms Limitation Treaty) पर हस्ताक्षर हुए । सामरिक अस्त्र वे अस्त्र होते हैं जिनकी मारक क्षमता दूर तक होती है । इस संधि द्वारा दोनों देशों की एन्टी मिसाइल प्रक्षेपास्त्रों पर रोक लगाई ।

दोनों देशों ने 1979 में साल द्वितीय संधि पर हस्ताक्षर किये, लेकिन यह अस्तित्व में नहीं आ सकी, क्योंकि अमेरिका की सीनेट ने इसका अनुमोदन नहीं किया था । शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद अमेरिका ने जब मिसाइल विरोधी व्यवस्था विकसित करने की योजना बनाई तो वह साल्ट प्रथम संधि से भी अलग गया, क्योंकि मिसाइल विरोधी व्यवस्था की स्थापना इस संधि का सीधा उल्लंघन है । उल्लेखनीय है कि अमेरिका वर्तमान में पूर्वी यूरोप के देशों- चेकगणतंत्र तथा पोलैण्ड में मिसाइल विरोधी प्रणाली विकसित कर रहा है ।

6. व्यापक परमाणु परीक्षण निषेध संधि, (सी.टी.बी.टी.)[Comprehensive Nuclear Test Prohibition Treaty, (CTBT)],1998:

यह संधि 1998 में हस्ताक्षर के लिए प्रस्तुत की गयी । यह संधि 1963 की आशिक परमाणु परीक्षण निषेध संधि का व्यापक रूप है । इस संधि में प्रत्येक स्तर पर तथा प्रत्येक प्रकार के परमाणु निरीक्षण पर रोक लगाई गयी है । इसीलिए इसे ‘व्यापक’ कहा जाता है ।

भारत, पाकिस्तान तथा उत्तरी कोरिया ने इस संधि पर हस्ताक्षर नहीं किये । चीन और रूस ने यद्यपि इस संधि पर हस्ताक्षर कर दिये हैं, लेकिन उन्होंने इसका अनुमोदन नहीं किया । अन्तत: यह संधि प्रभाव में नहीं आ सकी है । परमाणु तकनीकि के क्षेत्र में नवीनतम विकासों के कारण भी यह संधि कम महत्त्वपूर्ण हो गयी है, क्योंकि नई तकनीकि के माध्यम से प्रयोगशाला के अन्दर ही परमाणु परीक्षण किये जा सकते हैं, जिनका पता लगाना बहुत मुश्किल है ।

7. मध्यम दूरी प्रक्षेपास्त्र संधि (Intermediate Nuclear Forces Treaty):

अमेरिका तथा सोवियत संघ ने 8 दिसम्बर, 1987 को इस संधि पर हस्ताक्षर किये थे । इसके अन्तर्गत दोनों देश 50 किलोमीटर से लेकर 5000 किलोमीटर तक मारक क्षमता वाले 1139 आणविक शस्त्रों को नष्ट करने पर सहमत हुए । उल्लेखनीय है कि यह संधि आणविक निःशस्त्रीकरण का पहला उदाहरण है, क्योंकि इसके द्वारा एक श्रेणी के शस्त्रों में कटौती अथवा उन्हें समाप्त करने की शर्त शामिल है ।

8. रासायनिक हथियार प्रतिषेध सन्धि (Chemical Weapons Prohibition Treaty), 1990:

इस समझौते द्वारा रासायनिक हथियारों के उत्पादन, भंडारण तथा प्रयोग पर रोक लगा दी गयी है । इसी सन्धि के ही अन्तर्गत 2013 में सीरिया में रासायनिक हथियारों को नष्ट किया गया है ।

9. सामरिक अस्त्र परिसीमन संधियाँ (START- Strategic Arms Reduction Treaties):

ये संधियाँ लम्बी दूरी तक मार करने वाले परमाणु शस्त्रों से सम्बन्धित हैं । इसमें पाँच संधियाँ है- स्टार्ट-1, स्टार्ट-2, स्टार्ट-3, स्टार्ट-4 तथा नई स्टार्ट संधि । ये सभी संधियाँ सोवियत संघ (रूस) तथा अमेरिका के बीच संपन्न हुयी हैं । इनका उद्देश्य लम्बी दूरी तक मार करने वाले परमाणु शस्त्रों में कटौती करना है ।

नई स्टार्ट संधि:

अमेरिका तथा रूस ने चेकगणराज्य की राजधानी प्राग में 8 अप्रैल 2010 को नई स्टार्ट संधि पर हस्ताक्षर किये । दोनों देशों के अनुमोदन के उपरान्त यह संधि 5 फरवरी, 2011 को लागू हो गयी । यह संधि 10 वर्ष तक के लिए है तथा 2021 तक अस्तित्व में रहेगी । इसके बाद दोनों पक्षों की सहमति के बाद अगले पाँच वर्षों के लिए और बढ़ाया जा सकता है ।

नई स्टार्ट संधि ने सभी स्टार्ट संधियों का स्थान ले लिया है । परमाणु शस्त्रों की कटौती की दृष्टि से अब केवल नई स्टार्ट संधि ही लागू है । इसके अन्तर्गत दोनों देश आणविक मिसाइल लांचर की संख्या आधी कर लेंगे तथा तैनात किये गये आणविक अस्त्रों की संख्या दोनों देशों में अधिकतम 1550 होगी । दोनों देश इसके क्रियान्वयन के निरीक्षण तथा सत्यापन हेतु भी सहमत हुए हैं ।

परमाणु सुरक्षा अथवा न्यूक्लियर सिक्योरिटी (Nuclear Security):

परमाणु सुरक्षा विश्व समुदाय की नयी चिन्ता है ।

परमाणु सुरक्षा में दो बातें शामिल हैं:

1. परमाणु हथियार आतंकवादी समूहों अथवा अन्य आपराधिक गुटों के हाथ में न जाने पायें ।

2. परमाणु हथियारों का दुर्घटनावश प्रयोग न हो सके तथा परमाणु दुर्घटनाओं को रोका जाये ।

इन दोनों बातों को विश्व समुदाय की सुरक्षा के लिये आवश्यक माना गया है ।

संयुक्त राष्ट्र संघ ने इस दिशा में कुछ विशेष प्रयास किये हैं । संयुक्त राष्ट्र संघ ने परमाणु सुरक्षा पर दो शिखर सम्मेलन बुलाये हैं । पहला अन्तर्राष्ट्रीय शिखर सम्मेलन अप्रैल 2010 में वाशिंगटन में तथा दूसरा शिखर सम्मेलन मार्च, 2012 में सियाल में बुलाया गया था ।

इनमें निम्न बातों पर जोर दिया गया:

1. सभी राज्यों से आणविक सुरक्षा के उपायों में सहयोग करने की अपील की गयी ।

2. उच्च संशोधित यूरोपियन तथा प्लुटेनियम के भण्डारण में आतिरिक्त सुरक्षा आवश्यक है ।

3. परमाणु सुरक्षा हेतु राज्यों की क्षमता के विस्तार पर बल दिया गया ।

4. आणविक हथियार के अवैध व्यापार को रोकने के लिए राष्ट्रों के मध्य द्विपक्षीय तथा बहुपक्षीय सहयोग को बढ़ाया जायेगा ।

5. सभी राज्य आणविक सुरक्षा से सम्बन्धित सभी समझौतों को कड़ाई से लागू करेंगे ।

6. आणविक शस्त्रों की सुरक्षा सुनिश्चित करना राज्यों की आधारभूत जिम्मेदारी है ।

इसके आतिरिक्त अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेन्सी ने जुलाई 2013 में परमाणु सुरक्षा पर एक अन्य विश्व सम्मेलन का आयोजन किया था जिसमें इस दिशा में विश्व समुदाय के सहयोग की अपील की गयी ।

(II) सुरक्षा की गैर-परंपरागत अथवा आधुनिक धारणा (Non-Conventional or Modern Notion of Security):

सुरक्षा की गैर-परंपरागत धारणा सुरक्षा की वर्तमान चुनौतियों से संबन्धित है ।

यह सुरक्षा की परम्परागत धारणा से निम्न बातों में भिन्न है:

1. सुरक्षा की नयी चुनौतियाँ (New Challenges of Security):

सुरक्षा की परम्परागत धारणा में जहाँ राज्यों द्वारा किये जाने वाले युद्धों को सुरक्षा का मुख्य खतरा माना जाता था । अत: सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिये युद्धों को रोकने के उपायों पर विशेष बल दिया जाता था । इसके विपरीत वर्तमान में युद्ध के अलावा सुरक्षा के नये खतरे सामने आये हैं ।

ये खतरे निम्नलिखित हैं- आतंकवाद, संगठित अपराध तथा दवाओं, हथियारों, नशीली दवाओं व जाली मुद्रा की तस्करी, समुद्री डकैती का नया रूप, साइबर अपराध आदि । अन्तर यह भी है कि जहाँ युद्धों को राज्यों द्वारा अंजाम दिया जाता है, वही नये खतरों के स्रोत राज्य न होकर गैर-राज्य संगठित समूह हैं ।

2. राज्य की सम्प्रभुता के स्थान पर मानव सुरक्षा पर बल (Strengthens Human Security rather than State Sovereignty):

सुरक्षा की परम्परागत धारणा में राज्य की सम्प्रभुता तथा उसके क्षेत्र की रक्षा ही मुख्य उद्देश्य था वहीं सुरक्षा की वर्तमान धारणा में मानव सुरक्षा की धारणा को अपनाया गया है । अत: मानव सुरक्षा की धारणा परम्परागत धारणा से अधिक व्यापक है, क्योंकि इसमें मानव सुरक्षा को प्रभावित करने वाले सभी खतरों यहाँ तक कि खाद्य सुरक्षा. प्राकृतिक आपदा, मानवाधिकारों का उल्लंघन आदि को भी शामिल किया गया है ।