Read this article in Hindi to learn about the political thought of Arvind Ghosh.

अरविंद घोष या महर्षि अरविंद (श्री अरविंद) आधुनिक भारत के ऐसे राजनीति-विचारक थे जिन्हें भारतीय राष्ट्रवाद का महान उन्नायक माना जाता है । वे भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के साथ निकट से जुड़े थे और उन्होंने भारत की पूर्ण स्वाधीनता की मांग पर बल दिया । रोमा रोलां ने अरविंद को भारतीय विचारकों का सम्राट एवं ‘एशिया तथा यूरोप की प्रतिभा का समन्वय’ कहकर पुकारा है ।

राष्ट्रवाद की संकल्पना (Concept of Nationalism):

श्री अरविंद की दृष्टि में राष्ट्रवाद केवल एक आंदोलन तक सीमित नहीं है, वह आस्था का विषय है, वह मनुष्य का धर्म है । 1908 में अपने भाषणों के अंतर्गत श्री अरविंद ने यह घोषणा की- ”राष्ट्रवाद कोरा राजनीतिक कार्यक्रम नहीं है; राष्ट्रवाद ऐसा धर्म है जो ईश्वर की देन है । राष्ट्रवाद तुम्हारी आत्मा का संबल है । यदि तुम राष्ट्रवाद के समर्थक हो तो तुम्हें धार्मिक आस्था के साथ राष्ट्र की आराधना करनी होगी । तुम्हें यह याद रखना होगा कि तुम ईश्वर की योजना के निमित्त मात्र हो ।”

डॉ. कर्ण सिंह के शब्दों में – ”श्री अरविंद ने यह निर्दिष्ट किया कि भारत केवल भौगोलिक सत्ता नहीं है; वह केवल भौतिक भूभाग नहीं है, केवल बौद्धिक संकल्पना भी नहीं है । भारत माता स्वयं साक्षात् भगवती है जो शताब्दियों से बड़े

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प्यार-दुलार से अपनी संतान का पालन-पोषण करती आई है परंतु आज वह विदेशी शासन से पदाक्रांत होकर कराह रही है; उसका स्वाभिमान टुकडे-टुकडे हो चुका है; उसका गौरव धूल में मिल चुका है ।”

भारत माता के पाँवों में पडी बेडियों को काटना, अर्थात् उसे विदेशी शासन से मुक्त कराना, उसकी संतान का परम कर्तव्य था । श्री अरविंद के राष्ट्रवाद का यही मूल मंत्र था ।

महर्षि अरविंद के अनुसार, ‘स्वराज’ की मांग राष्ट्रवाद का स्वाभाविक अंग है, क्योंकि कोई भी राष्ट्र विदेशी सत्ता के आधिपत्य में रहकर अपने विलक्षण व्यक्तित्व और स्वतंत्र अस्तित्व को कायम नहीं रख सकता । उन्होंने कहा कि अंग्रेजी संस्कृति भौतिकवाद से प्रेरित है; भारतीय संस्कृति को अध्यात्मवाद में अगाध आस्था है ।

सच्चे राष्ट्रवाद की भावना ही भारतीय संस्थाओं और संस्कारों को नष्ट होने से बचा सकती है । यूरोप की नकल करके भारत अपना पुनरुत्थान कभी नहीं कर सकता । राष्ट्रवाद की इस संकल्पना का प्रयोग करते हुए श्री अरविंद ने भारत के राष्ट्रीय आंदोलन के लक्ष्य की नई परिभाषा दी- इसका ध्येय केवल औपनिवेशिक शासन की जगह स्वशासन स्थापित करना नहीं था; इसे राष्ट्र का पुनर्निर्माण करना था- राजनीतिक कार्यक्रम इसका एक हिस्सा था ।

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इसका परम लक्ष्य आध्यात्मिकता का साक्षात्कार था, क्योंकि वही भारत को फिर से एक महान और स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में प्रतिष्ठित कर सकता था । श्री अरविंद ने दावा किया कि भारत अपनी आध्यात्मिक चेतना के बल पर संपूर्ण मानवता को मुक्ति का मार्ग दिखा सकता है, और यह उसका कर्तव्य भी है ।

राजनीतिक संघर्ष का तरीका (Way of Political Struggle):

इंडियन नेशनल कांग्रेस के नरम दल के नेताओं ने अपना लक्ष्य ब्रिटिश साम्राज्य के भीतर स्वशासन या डोमीनियन का दर्जा प्राप्त करना रखा था, और इसके लिए वे याचिका या प्रार्थना भेजने की पद्धति को उपयुक्त समझते थे । दूसरी ओर गरम दल के नेता ‘पूर्ण स्वराज’ की मांग कर रहे थे, और वे ब्रिटिश शासन के प्रति प्रभावशाली प्रतिरोध में विश्वास करते थे ।

श्री अरविंद का झुकाव गरम दल की ओर था हालांकि उन्होंने अपने-आपको केवल राष्ट्रवादी कहना पसंद किया । उन्होंने कांग्रेस की याचिका-नीति का खंडन करते हुए बिपिन चंद्र पाल की तरह निष्क्रिय या शांतिपूर्ण प्रतिरोध के रूप में राजनीतिक कार्रवाई की योजना बनाई ।

श्री अरविंद ने ‘वंदे मातरम’ के संपादकीयों के अंतर्गत इस नीति का विस्तृत निरूपण किया । यह बात महत्वपूर्ण है कि आगे चलकर महात्मा गांधी ने इस नीति को ‘सत्याग्रह’ के सिद्धांत के रूप में विकसित किया । महर्षि अरविंद के अनुसार, ‘निष्क्रिय प्रतिरोध’ का अर्थ यह था कि जो कार्य भारत में ब्रिटिश वाणिज्य-व्यापार या ब्रिटिश प्रशासन में सहायक हों, उन्हें करने से इनकार । यह कार्रवाई, ‘स्वदेशी आंदोलन’ के साथ निकट से जुडी थी । स्वदेशी आंदोलन का मूल उद्देश्य विदेशी माल का बहिष्कार था ताकि अंग्रेजों की आर्थिक शक्ति को धक्का पहुँचाया जा सके ।

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बाद में इसे शैक्षिक बहिष्कार, न्यायिक बहिष्कार, प्रशासनिक बहिष्कार, और सामाजिक बहिष्कार के साथ जोड़कर विस्तृत कार्यक्रम का रूप दे दिया गया । अंततः इस कार्यक्रम में क्रांति के तरीके को भी सम्मिलित कर लिया गया ।

इस तरह श्री अरविंद ने ‘स्वराज’ की प्राप्ति के लिए हिंसा और अहिंसा, क्रांतिकारी और सांविधानिक दोनों तरह के तरीके अपनाने का समर्थन किया, अर्थात् जब लक्ष्य-सिद्धि का शांतिपूर्ण तरीका विफल हो जाए तब प्रार्थना को मांग का रूप देकर बल-प्रयोग का सहारा लेने के लिए तैयार रहना चाहिए ।

निष्कर्ष:

श्री अरविंद ने भारत की पराधीनता के दिनों में पश्चिमी मूल्यों का खंडन करते हुए भारतीय परंपरा के गौरव का गुणगान किया और इस तरह भारतवासियों के मनोबल को ऊँचा किया । उन्होंने भौतिकवाद की जगह अध्यात्मवाद को, और तर्कबुद्धिवाद की जगह धार्मिकता को महत्व दिया ।

आलोचकों के अनुसार यह दृष्टिकोण भारत के आधुनिकीकरण के अनुकूल नहीं था परंतु यह नहीं भूलना चाहिए कि महर्षि अरविंद ने धर्म और अध्यात्मवाद का प्रयोग भारतीय जनमानस की जागृति के उद्देश्य से किया । उन्होंने धर्म को अन्याय के विरुद्ध संघर्ष का प्रेरणा-स्रोत बनाकर एक नई भूमिका सौंपी ।

उन्होंन व्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए राष्ट्र की स्वतंत्रता का आह्वान किया, और समस्त राष्ट्रों की स्वतंत्रता का समर्थन करते हुए सबके प्रति बराबर सम्मान का परिचय दिया । संक्षेप में, उन्होंने संपूर्ण मानवता के उद्धार का पथ प्रशस्त किया ।