Read this article in Hindi to learn about the political thought of Bhimrav Ambedkar.
डी. भीमराव अंबेडकर (बाबा साहिब अंबेडकर) आधुनिक भारतीय राजनीति-विचारक थे जिन्हें ‘दलितों के मसीहा’ और ‘भारतीय संविधान के प्रमुख निर्माता’ के रूप में याद किया जाता है । जवाहरलाल नेहरू के शब्दों में, वे ”हिंदू समाज के अत्याचारपूर्ण तत्वों के प्रति विद्रोह के प्रतीक” थे ।
उन्होंने हिंदुओं में ‘अछूत’ या ‘अस्पृश्य’ मानी जाने वाली जातियों को संगठित किया, शासन के अंगों में उनके प्रतिनिधित्व के लिए संघर्ष किया; और उनकी शिक्षा को बढ़ावा दिया । स्वयं ‘अछूत’ जाति में जन्म लेकर उन्होंने अनवरत संघर्ष और आत्मविश्वास के बल पर उच्च शिक्षा प्राप्त की थी ।
डॉ. अंबेडकर के मन पर जिन विचारकों का गहरा प्रभाव पडा, उनमें महात्मा बुद्ध, अमरीकी दार्शनिक जॉन ड्यूई (1859-1952) और महात्मा फुले (1827-90) का विशेष स्थान है ।
अछूतों का उद्धार (Salvation of Untouchables):
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अंबेडकर ने अपनी चर्चित कृति ‘Annihilation of Caste -1936’ के अंतर्गत हिंदू वर्ण-व्यवस्था का विस्तृत विश्लेषण करने के बाद छुआछूत या अस्पृश्यता की प्रथा में निहित अन्याय पर प्रकाश डाला । उन्होंने यह अनुभव किया कि उच्च जातियों के कुछ संत-महात्मा और समाज-सुधारक दलित वर्गों के प्रति सहानुभूति तो रखते थे, और उनकी समानता पर बल देते थे, परंतु वे इस दिशा में कोई ठोस योगदान नहीं दे पाए थे ।
अतः अंबेडकर ने यह विचार रखा कि तथाकथित अछूत ही अछूतों को नेतृत्व प्रदान कर सकते हैं । दूसरे शब्दों में, डॉ. अंबेडकर दलित वर्गों के आत्म-सुधार में विश्वास करते थे । अतः उन्होंने इन जातियों को मदिरा-पान और गोमांस भक्षण जैसी आदतें छोड़ने की सलाह दी, क्योंकि ये आदतें उनकी स्थिति के साथ जुड़े हुए कलंक का मूल स्रोत थीं ।
उन्होंने इन्हें अपने बच्चों की शिक्षा-दीक्षा पर विशेष ध्यान देने और आत्मसम्मानपूर्ण व्यवहार करने का रास्ता दिखाया । उन्होंने दलितों को हीन भावना से ऊपर उठने के लिए प्रेरित किया । उनका विश्वास था कि इनमें योग्यता की कोई कमी नहीं है । ये लोग सामान्य और तकनीकी शिक्षा प्राप्त करके-विशेषतः शहरों में जाकर-नए व्यवसाय अपना सकते हैं जिससे इनकी परंपरागत स्थिति के साथ जुड़ा हुआ पूर्वाग्रह अपने-आप धीमा पड़ जाएगा ।
दूसरे, डॉ. अंबेडकर ने शासन की संस्थाओं में दलित वर्गों के उचित और पर्याप्त प्रतिनिधित्व पर बल देते हुए यह विश्वास व्यक्त किया कि इससे दलित वर्गों की कानूनी तरीकों से शिकायत-निवारण का अवसर मिलेगा । उन्होंने दलित जातियों को अपने अधिकारों की रक्षा के लिए न्यायालयों का सहारा लेने की प्रेरणा भी दी ।
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तीसरे, उन्होंने हिंदू धर्म के भीतर सवर्ण हिंदुओं और निम्न जातियों के बीच समानता का आंदोलन चलाया जिसमें मिल-जुलकर पूजा-पर्व मनाने और सम्मिलित प्रीतिभोज में भाग लेने पर बल दिया जाता था । महात्मा गांधी का विचार था कि सवर्ण हिंदुओं का हृदय-परिवर्तन करके छुआछूत की प्रथा मिटाई जा सकती है, और उन्हें विश्वास था कि ऐसा जल्दी ही होगा ।
डॉ. अंबेडकर इससे सहमत नहीं थे । गांधीजी ने श्रम की गरिमा पर बल देने के लिए अस्पृश्य जातियों के लिए ‘हरिजन’ (ईश्वर का भक्त) शब्द का प्रयोग सुझाया परंतु अंबेडकर ने तर्क दिया कि टूटे-फूटे मकान की रँगाई-पुताई करके उसकी दुर्दशा को छिपा तो सकते हैं, सुधार नहीं सकते । ऐसी हालत में उसे गिराकर नया मकान बनाना ही उपयुक्त होगा ।
अंबेडकर के अनुसार, अस्पृश्यता की जडें हिंदू वर्ण-व्यवस्था में निहित हैं, अतः इस कुप्रथा को मिटाने के लिए वर्ण व्यवस्था का अंत जरूरी है । हिंदू समाज का सुधार बाल- विवाह के उन्मूलन और विधवा-पुनर्विवाह को प्रोत्साहन जैसे सामाजिक पुनर्निर्माण के कार्यों तक सीमित रखना चाहिए परंतु वर्ण-व्यवस्था में सुधार की कोई गुंजाइश नहीं है । उसे समूल नष्ट करना ही उपयुक्त होगा ।
अंबेडकर ने यह मत रखा कि दलित जातियों का उद्धार तब होगा जब उनके अधिकारों की रक्षा और शिकायतों के निवारण की कानूनी व्यवस्था कर दी जाएगी, और इसके साथ राजनीतिक सत्ता भी उनके हाथों में आ जाएगी । हिंदू धर्म के भीतर निम्न जातियों के उद्धार की संभावनाएं धूमिल होती देखकर अंबेडकर ने अपने अनुयायियों को बौद्ध धर्म अपनाने की सलाह दी, और अपने अंतिम दिनों में स्वयं भी यह धर्म अपना लिया ।
लोकतंत्र की संकल्पना (Concept of Democracy):
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अंबेडकर ने लोकतंत्र की प्रचलित परिभाषाओं का विश्लेषण करने के बाद यह विचार रखा कि एक शासन-प्रणाली के रूप में लोकतंत्र ऐसी प्रक्रिया है जिसमें रक्तपात के बिना जनसाधारण के सामाजिक और आंशिक जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन लाए जाते हैं । यही लोकतंत्र की सच्ची कसौटी है परंतु सच्चा लोकतंत्र केवल शासन प्रणाली नहीं है । यह मिल-जुलकर रहने का तरीका है जिसमें लोग आपस में अपने सारे दुःख-सुख बांट लेते हैं ।
वस्तुतः यह अपने सहचरों के प्रति आदर और सम्मान की भावना व्यक्त करने का साधन है । शासन प्रणाली के स्तर पर अंबेडकर ने संसदीय लोकतंत्र को विशेष रूप से सराहा जिसमें स्वतंत्र चर्चा के आधार पर सारे सार्वजनिक निर्णय किए जाते हैं ।
इसकी तीन प्रमुख विशेषताएं हैं:
1. इसमें किसी को वंशागत शासन का अधिकार नहीं होता, बल्कि शासन की शक्तियां जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों को प्राप्त होती हैं ।
2. दूसरे, इसमें कोई अकेला व्यक्ति यह दावा नहीं कर सकता कि वह सर्वज्ञ है तथा सारे कानून बनाने और सारा शासन सँभालने में समर्थ है; और
3. इसमें निर्वाचित प्रतिनिधियों-विधायकों और मंत्रियों को जनसाधारण का विश्वास प्राप्त करना पड़ता है, और निश्चित अंतराल के बाद इस विश्वास का नवीकरण जरूरी होता है ।
जहाँ गांधीजी शक्तियों के विकेंद्रीकरण और पंचायत राज के समर्थक थे, वही अंबेडकर ने देश की एकता और अखंडता के हित में एकात्मक शासन प्रणाली का समर्थन किया । गांधीजी को आशा थी कि गाँवों को पूर्ण स्वायत्तता मिल जाने पर वहाँ स्वच्छ प्रशासन स्थापित हो जाएगा, परंतु डॉ. अंबेडकर ने ‘व्यक्ति’ के अधिकारों पर बल देते हुए यह तर्क दिया कि गाँव को शासन की इकाई बना देने पर व्यक्ति का अस्तित्व दब जाएगा ।
अंबेडकर का दावा था कि गाँव में केवल स्थानीय हित की बात सोची जाती है, हमारे गाँव तो जहालत, तंगदिली और संप्रदायवाद के अड्डे हैं । ग्राम प्रशासन के पुनरुत्थान का विचार विनाशकारी होगा । अंबेडकर का विचार था कि संसदीय लोकतंत्र की सफलता के लिए यह जरूरी है कि सामाजिक-आर्थिक जीवन में घोर विषमताएं न हों, अर्थात् समाज में ऐसा न हो कि सारा बोझ कुछ वर्गों पर डाल दिया जाए, और सारे विशेषाधिकार किसी अन्य वर्ग के हिस्से में आ जाएं ।
ऐसा भेदभाव सामाजिक दरार को जन्म देता है जिसमें खूनी क्रांति के बीज अंकुरित होने लगते हैं । संसदीय लोकतंत्र की सफलता की दूसरी शर्त है- बहुदलीय प्रणाली और प्रभावशाली विपक्ष । अंततः लोकतंत्र में अल्पमत पर बहुमत के अत्याचार की कोई गुंजाइश नहीं होनी चाहिए । अल्पमत में सुरक्षा की भावना लोकतंत्र का अधार-स्तंभ है । बहुमत को सदैव अल्पमत के दृष्टिकोण का सम्मान करना चाहिए ।
राजनीतिक बहुमत और सांप्रदायिक बहुमत में अंतर करते हुए अंबेडकर ने कहा कि राजनीतिक बहुमत का सदस्य राजनीतिक कार्रवाई में अपना योगदान करने को अपेक्षाकृत स्वतंत्र होता है, परंतु सांप्रदायिक बहुमत का सदस्य केवल वही राजनीतिक कार्रवाई कर सकता है जो उस विशेष संप्रदाय में जन्म लेने के कारण उसके लिए निर्धारित होती है ।
अंबेडकर के अनुसार, भारत की जाति प्रथा लोकतंत्र के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा है । यहाँ पर संभावना है कि अल्पसंख्यक समुदाय लगातार राजनीतिक अल्पमत की स्थिति में रहे । इस तरह निम्न श्रेणी की जातियों को शक्ति के प्रयोग में अपना उपयुक्त हिस्सा कभी नहीं मिल पाएगा ।
इसका मतलब यह है कि यदि हम सामाजिक जीवन में लोकतंत्र स्थापित नहीं कर पाते तो राजनीतिक जीवन में लोकतंत्र ज्यादा दिनों तक टिका नहीं रह सकता । अंबेडकर ने चेतावनी दी कि भारत में वीर-पूजा की भावना लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा है ।
सांविधानिक विधि की वरेण्यता (Variance of Constitutional Law):
अंबेडकर का विचार था कि इस देश में लोकतंत्र को कायम रखने के लिए तीन बातों का ध्यान रखना जरूरी है । पहली यह कि हमें अपने सामाजिक और आर्थिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए केवल सांविधानिक विधि का सहारा लेना चाहिए, इसमें कोई ढील नहीं देनी चाहिए । इसका अर्थ यह था कि गांधीजी ने सविनय अवज्ञा, असहयोग, और सत्याग्रह का जो रास्ता दिखाया था, वह सही रास्ता नहीं था ।
अंबेडकर के अनुसार, इन विधियों को तभी अपनाना चाहिए जब सामाजिक और आर्थिक उद्देश्यों की पूर्ति के अन्य सब रास्ते बंद हो चुके हों, अन्यथा ये विधियाँ समाज को अराजकता के गर्त में धकेल देंगी । दूसरे, हमें अपनी स्वतंत्रता को महापुरुषों के चरणों में अर्पित नहीं कर देना चाहिए ।
कोई मनुष्य किसी के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के लिए आत्मसम्मान को दाँव पर नहीं लगा सकता, कोई स्त्री किसी के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए अपने सतीत्व को दाँव पर नहीं लगा सकती; और कोई राष्ट्र किसी के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए अपनी स्वाधीनता को दाँव पर नहीं लगा सकता ।
अंबेडकर के अनुसार, भारत में लोकतंत्र की दुर्दशा का कारण यह नहीं था कि यहाँ के अधिकांश मतदाता निरक्षर थे । इसका मुख्य कारण यह था कि यहाँ का नेतृत्व मतदाताओं को पालतू पशुओं की तरह हांकने में विश्वास करता था । उसे विधि के शासन और लोकतंत्रीय प्रक्रिया में कोई अभिरुचि नहीं थी ।
अंततः हमें अपने लोकतंत्र को राजनीतिक लोकतंत्र तक सीमित नहीं रखना चाहिए, बल्कि उसे सामाजिक लोकतंत्र का रूप दे देना चाहिए । सामाजिक लोकतंत्र ऐसी व्यवस्था है जिसमें स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को एक-जितना महत्व दिया जाता है । अंबेडकर इस बात से बहुत खिन्न थे कि इस देश में समानता का नितांत अभाव है ।
समानता का सिद्धांत (Principle of Equality):
अंबेडकर यह मानते थे कि मनुष्यों में केवल राजनीतिक समानता (Political Equality) और कानून के समक्ष समानता (Equality before the Law) स्थापित करके समानता के सिद्धांत को पूरी तरह सार्थक नहीं किया जा सकता । जब तक उनमें सामाजिक-आर्थिक समानता स्थापित नहीं की जाती, तब तक उनकी समानता अधूरी रहेगी ।
भारतीय संविधान का प्रारूप प्रस्तुत करते समय उन्होंने संविधान सभा में कहा था ”इस संविधान को अपनाकर हम विरोधाभासों से भरे जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं । इससे राजनीतिक जीवन में तो हमें समानता प्राप्त हो जाएगी, परंतु सामाजिक और आर्थिक जीवन में विषमता बनी रहेगी । राजनीति के क्षेत्र में तो हम ‘एक व्यक्ति, एक वोट, एक मूल्य’ के सिद्धांत को मान्यता प्रदान कर देंगे, परंतु हमारा सामाजिक और आर्थिक ढांचा इस ढंग से नहीं बदल जाएगा जिससे ‘एक व्यक्ति, एक मूल्य’ के सिद्धांत को सार्थक किया जा सके ।”
दूसरे शब्दों में, समानता का सिद्धांत सच्चे अर्थ में तभी सार्थक होगा जब मानव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में- अर्थात् राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक तीनों क्षेत्रों में- प्रत्येक व्यक्ति की समान नैतिक मूल्यवता को साकार किया जा सके । संविधान का वर्तमान स्वरूप इस लक्ष्य की सिद्धि के लिए पर्याप्त नहीं था ।
अतः डॉ. अंबेडकर ने इस स्थिति पर चिंता प्रकट करते हुए यह प्रश्न उठाया था ”हम कब तक इन विरोधाभासों से भरा जीवन जीते रहेंगे?” हम कब तक सामाजिक और आर्थिक जीवन में समानता को अपनाने से इनकार करते रहेंगे ?”
निष्कर्ष:
डॉ. अंबेडकर का यह विचार सही है कि किसी भी उत्पीड़ित समूह को अपने भीतर से नेतृत्व पैदा करना चाहिए-किसी अन्य समूह की सहानुभूति या नेतृत्व के सहारे उसे अपने उत्थान की आशा नहीं करनी चाहिए । परंतु जब किसी अन्य समूह से संबंध रखने वाला समाज-सुधारक इस समूह के उत्थान की ओर अग्रसर हो तो उसे सदैव संदेह की दृष्टि से नहीं देखना चाहिए ।
उदाहरण के लिए, स्वामी दयानन्द सरस्वती (1827-83), स्वामी विवेकानंद (1863-1902) और महात्मा गांधी (1869-1948) ने निम्न जातियों के उत्थान के लिए जो प्रयत्न किए, उन्हें निरर्थक मानकर परे नहीं रख सकते । देखना यह चाहिए कि क्या दूसरे समूह का नेता सच्चे मन से उनके लिए कुछ करना चाहता है, या वह केवल उनका राजनीतिक समर्थन जुटाकर शक्ति प्राप्त करने की जुगाड़ कर रहा है? जो सुधारक सच्चे मन से इनका साथ देने को तत्पर हो, उसे उपयुक्त सम्मान देना इनका कर्तव्य है ।