जीन जैक रौसेऔ और उनके राजनीतिक विचार | Jean Jack Rousseau and his Political Thought | Hindi!

रूसो का नाम लोकतांत्रिक चिंतन से जुड़ा है । इसके विचार फ्रांस की क्रांति के प्रमुख प्रेरणा स्रोत थे । रूसो के राजनीतिक चिंतन में व्यक्तिवाद, समाजवाद, निरंकुशवाद और लोकतंत्र संबंधी विचारों आदि का सम्मिलित रूप देखने को मिलता है । रूसो की रचनाओं में ”सोशल कान्ट्रेक्ट” उल्लेखनीय रचना है । इसी ग्रंथ में वह ”सामान्य इच्छा” के सिद्धांत का प्रतिपादन करता है । रूसो को प्लेटो के बाद ऐसा महानतम दार्शनिक माना गया जिसने राज्य की प्राकृतिक अवस्था में बड़ी गहराई से झांका ।

वाहन के अनुसार – ”अरस्तू की पॉलिटिक्स के बाद सोशल कान्ट्रेक्ट राजदर्शन पर लिखी हुई सबसे अधिक मौलिक और विचारों की दौड़ में सबसे अधिक समृद्ध रचना है ।” रूसो को स्वतंत्रता व लोकतंत्र का अग्रदूत कहा जाता है ।

रूसो की प्रमुख रचनाएँ:

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1. डिसकोर्सेज ऑन दि मॉरल इफेक्टस ऑफ दि आर्टस एण्ड साइंसेज ।

2. डिसकोर्सेज ऑन दि ऑरिजिन ऑफ इनइक्वैलिटी ।

3. इकनॉमिक पालिटिक (1755)

4. सोशल कान्हेक्ट (1762) राजदर्शन संबंधी विचार

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5. लेटर्स दि ला मोण्टेन (1764)

6. दि ईमाइल (1762)

7. कन्फेशन्स

8. कान्सटीट्‌यूशन ऑफ कोर्सिका

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9. राइटिंग्स ऑफ सेण्ट पियरे (1761)

रूसो के प्रमुख राजनीतिक विचार (Rousseau’s Political Thoughts):

रूसो समाज के नैतिक पतन के प्रति अत्यधिक चिंतित था और चाहता था कि इस अभिशाप से मुक्त होकर मनुष्य का जीवन पुन: नैतिक दृष्टि से उच्च हो जाए । अतः वह समाज व राज्य की आदर्शवादी दृष्टिकोण से व्याख्या करता है । वह प्राकृतिक अवस्था के मानव-स्वभाव का वर्णन करते हुए, सोशल कान्ट्रेक्ट का प्रतिपादन करता है ।

1. मानव स्वभाव:

मानव-स्वभाव के संबंध में रूसो के विचार प्लेटो तथा लॉक के विचारों से मिलते-जुलते हैं । उसके अनुसार मनुष्य स्वभावतः सदाशय और अच्छा होता है । वह मनुष्य को स्वभावतः भोला (सीधा) मानता है जिसे किसी बात की चिन्ता नहीं है । उसका जीवनयापन प्रकृति की विश्रामदायिनी गोद में होता है ।

संसार में पाए जाने वाले पाप, भ्रष्टाचार, दुष्टता, आदि गलत एवं भ्रष्ट सामाजिक संस्थाओं की उत्पत्ति है । मनुष्य के पतन के लिए भ्रष्ट और दूषित सामाजिक संस्थाएं दोषी हैं । मनुष्य स्वभावतः बुरा नहीं होता अपितु भ्रष्ट कला के कारण बुरा बन जाता है ।

अपने विचारों को सिद्ध करने के लिए रूसो मानव स्वभाव की दो मौलिक नियामक प्रवृतियाँ बताता है । मानव-स्वभाव के निर्माण में सहायक प्रथम प्रवृत्ति है-

आत्म-प्रेम अथवा आत्म-रक्षा की भावना, जिसके अभाव में वह कभी का नष्ट हो गया होता । मानव-स्वभाव निर्माण में दूसरी सहायक प्रवृति है सहानुभूति अथवा परस्पर सहायता की भावना जो सभी मनुष्यों में पाई जाती है और जो सम्पूर्ण जीवधारी सृष्टि का सामान्य गुण है । इसके कारण ही जीवन संग्राम उतना कठिन प्रतीत नहीं होता । ये सभी भावनाएँ शुभ हैं, इसलिए स्वभावतया मनुष्य को अच्छा ही माना जाना चाहिए ।

2. प्राकृतिक अवस्था:

प्राकृतिक अवस्था एक मुक्त व्यवहार पूर्ण अवस्था थी किसी को भी किसी प्रकार का कोई कार्य करने की पूर्ण स्वतंत्रता थी । इस अवस्था में रूसो व्यक्ति के लिए ”आदर्श बर्बर” (Noble Savage) शब्द का प्रयोग करता है । इस अवस्था में मनुष्य एक भोले और अज्ञानी बालक की भांति सादगी और परम सुख का जीवन व्यतीत करता था ।

रूसो के अनुसार प्राकृतिक मनुष्य एकांकी, स्वतंत्र, नैतिक-अनैतिक भावनाओं से मुक्त, निःस्वार्थ व संपत्ति और परिवार से रहित स्वर्ण युग की स्वर्गीय दशा में रहता था । बौद्धिकता के अभाव में इस अवस्था को न अनैतिक और न सद्‌गुणी माना जा सकता है ।

3. सामाजिक समझौता:

रूसो की यह आदर्श व्यवस्था अधिक दिनों तक कायम न रह सकी व ज्ञान में निरंतर वृद्धि ने समाज में तेरे-मेरे का भाव उत्पन्न कर दिया । व्यक्तिगत संपत्ति के उदय तथा इसकी मान्यता के कारण समाज में हिंसा, द्वेष व कलह आदि का उदय हुआ ।

रूसो का कथन है कि – ”वह प्रथम मनुष्य ही नागरिक समाज का वास्तविक संस्थापक था जिसने भूमि के एक टुकड़े को घेर लेने के बाद यह कहा था कि यह मेरा है और उसी समय समाज का निर्माण हुआ था जब अन्य लोगों ने उसकी देखा-देखी स्थानों और वस्तुओं को अपना समझना प्रारम्भ किया ।”

संपत्ति ने व्यक्ति की स्वतंत्रता को परतंत्रता में बदल दिया, जिसको लक्ष्य करके रूसो कहता है कि ”मनुष्य स्वतंत्र उत्पन्न होता है, किंतु वह सर्वत्र बेड़ियों में जकडा हुआ है ।” स्वतंत्रता के प्रयोग के लिए इन बंधनों से मुक्ति का उपाय उनके चिंतन की मूल समस्या थी । इसीलिए वह ‘प्रकृति की ओर वापस’ ”Back to the Nature” लौटने का नारा देता है और कहता है कि हमें हमारा अज्ञान, भोलापन व हमारी गरीबी लौटा दो हम स्वतंत्र हो जाएंगे ।

राज्य (Rousseau’s View Related to State):

रूसो युद्ध और संघर्ष के वातावरण का अंत करने के लिए एक सामाजिक समझौते की कल्पना करता है । इस समझौते के तहत प्रत्येक व्यक्ति अपने अधिकारों का समर्पण समाज के लिए करता है व एक दूसरे की रक्षा का वादा भी करता है ।

समझौता करने वाले प्रत्येक व्यक्ति के व्यक्तिगत व्यक्तित्व के स्थान पर समूह बनाने की इस प्रक्रिया में एकदम एक नैतिक तथा सामूहिक निकाय (Collective Body) का जन्म होता है जो कि उतने ही सदस्यों से मिलकर बना है जितने कि उसमें मत होते हैं ।

सामाजिक समझौते द्वारा निर्मित ”राज्य” को ‘सामान्य इच्छा’ कहा जाता है । संप्रभुता की अभिव्यक्ति सामान्य इच्छा में होती है । सभी व्यक्ति इसके अधीन रहते हुए कार्य करते हैं । प्रत्येक नागरिक का संप्रभुता में एक भाग होता है ।

विशेषताएं:

i. समान समर्पण समानता की माँग करता है

ii. निजी व्यक्तित्व के स्थान पर एक सामूहिक व्यक्तित्व की स्थापना जिसकी पृथक पहचान, जीवन व इच्छा होती है

iii. वास्तविक रूप से स्वतंत्रता दृष्टिगोचर होती है

iv. व्यष्टि (व्यक्तिगत इच्छा) का स्थान समष्टि (सामान्य इच्छा) ले लेती है

v. इस प्रकार किसी सरकार की स्थापना न होकर एक संपूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न समाज की स्थापना होती है जिसका आधार सामान्य इच्छा होती है

vi. सामाजिक समझौता एक निरंतर चलने वाला क्रम है

vii. इस प्रकार राज्य का सावयव राज्य के रूप में उदय

आलोचना:

17वीं-18वीं शताब्दी में यह सिद्धांत लोकप्रिय रहा । रूसी की मृत्यु के बाद इसका पतन हो गया ।

बैन्थम, सर फ्रेडरिक, पोलक, वाहन, एडमण्ड बर्क, आदि ने इसकी कटु आलोचना की:

i. प्राकृतिक अवस्था की धारणा काल्पनिक है ।

ii. मानव स्वभाव का गलत आकलन ।

iii. रूसो के अनुसार यह समझौता व्यक्ति और समाज में होता है और दूसरी ओर रूसो यह बताता है कि समाज समझौते का परिणाम है । यह विरोधाभास है । सामाजिक प्रगति के सिद्धांत का विरोधी है ।

iv. राज्य समझौते का नहीं विकास का परिणाम है ।

v. व्यक्ति को सामान्य इच्छा की निरंकुशता के हवाले करता है ।

vi. व्यक्ति की दोहरी स्थिति हास्यास्पद है ।

vii. रूसो का राज्य ”शीश कटा लेवियाथन” है ।

फिर भी इस सिद्धांत ने ”देवी अधिकारी” पर कटु प्रहार किया है । राज्य को मानवीय संस्था बताकर निरंकुश शासन का विरोध किया है । राज्य व शासन का अधिकार जन सहमति बताया व इसने लोकप्रिय संप्रभुता को सुदृढ़ बनाया, अतः यह एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है ।

रूसो के शासन संबंधी विचार (Rousseau’s View Related to Government):

रूसो के अनुसार सामाजिक समझौते द्वारा निर्मित समाज जिसमें कि सामान्य इच्छा का वास होता है, राज्य है जबकि शासन अथवा सरकार केवल वह व्यक्ति अथवा व्यक्ति समूह है जिसको समाज द्वारा यह अधिकार दिया जाता है कि वह संप्रभु की इच्छा पूर्ण करे । शासन व सरकार तो संप्रभु व जनता के मध्य संस्था है ।

शासन का वर्गीकरण:

रूसो ने चार प्रकार की शासन प्रणालियाँ मानी है-राजतंत्र, कुलीनतंत्र, प्रजातंत्र और मिश्रित शासन । वे प्रत्यक्ष लोकतंत्र के समर्थक व अप्रत्यक्ष लोकतंत्र के विरोधी थे । वह कुलीनतंत्र को श्रेष्ठ शासन प्रणाली मानता है । उसने कुलीनतंत्र के तीन प्रकार माने हैं- प्राकृतिक, वंशानुगत तथा निर्वाचनात्मक । निर्वाचित कुलीनतंत्र को वह सर्वोत्तम शासन व्यवस्था मानता है ।

रूसो के कानून संबंधी विचार (Rousseau’s View Related to Law):

सामान्य इच्छा (संप्रभु) ही कानून का स्रोत है । रूसो सामान्य इच्छा की अभिव्यक्ति को कानून मानता है । प्रथम कानून सर्वमान्य हित (सार्वजनिक) से संबंधित होना चाहिए और द्वितीय उसका स्रोत संपूर्ण जनता होनी चाहिए ।

रूसी ने कानूनों के चार प्रकार गिनाए हैं:

1. संवैधानिक कानून

2. फौजदारी कानून

3. दीवानी कानून

4. परम्परागत कानून

रूसो ने कानून निर्माण के लिए एक विधि निर्माता की आवश्यकता प्रतिपादित की है । अतः वह स्वतंत्रता और कानून की आज्ञाकारिता में कोई अंतर नहीं मानता । वह स्वयं कहता है कि ”सच्ची स्वतंत्रता उन कानूनों का पालन करने में है जिन्हें हम स्वयं अपने लिए निर्धारित करते है ।”

रूसो के स्वतंत्रता संबंधी विचार (Rousseau’s Thoughts Related to Freedom):

रूसो को स्वतंत्रता का मसीहा कहा जाता है । उसके अनुसार स्वतंत्रता का अर्थ मनमाना कार्य करना नहीं है । सामान्य इच्छा द्वारा निर्मित कानूनों का पालन ही स्वतंत्रता है । रूसो ने स्वतंत्रता का सकारात्मक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है । रूसो इस बात में विश्वास करता है कि कानून के अनुसार जीवन व्यतीत करना ही सच्ची स्वतंत्रता है क्योंकि ऐसा करके व्यक्ति अपनी इच्छा का ही पालन करता है । स्वतंत्रता की रक्षा के लिए वह सत्ता पर बल देता है ।

हॉब्स से तुलना:

1. हॉब्स ने यांत्रिक राज्य की स्थापना की जबकि रूसो ने एक आंगिक राज्य की ।

2. हॉब्स का राज्य केवल शक्ति पर आधारित है जबकि रूसो का न्याय व नैतिकता पर ।

3. हॉब्स का संप्रभु एक व्यक्ति या कुछ व्यक्तियों का समूह होता है जबकि रूसो का समस्त जन समुदाय ।

4. हॉब्स का संप्रभु विधि निर्माता, कार्यपालक और न्यायाधीश सभी स्वयं होता है, परंतु रूसो का संप्रभु सिर्फ विधि निर्माता होता है ।

5. हॉब्स सब अधिकारों के समर्पण पर मात्र आत्मसूरक्षा प्राप्त करता है जबकि रूसो कोई अधिकार नहीं खोता, अधिकारों का पूर्ण समर्पण, अधिकारों की पूर्ण प्राप्ति में बदल जाता है ।

6. हॉब्स के संप्रभु पर किसी का अंकुश नहीं होता, जबकि रूसो के सामान्य इच्छा का न्यायपूर्ण और नैतिक होना आवश्यक है । सार्वजनिक कल्याण को परम उद्देश्य माना है ।

रूसो का राज्य भी निरंकुशता की दृष्टि से हॉब्स जैसा है किंतु जहाँ हॉब्स की निरंकुश प्रभुसत्ता राजा की स्वेच्छाचारिता का पोषण करती है, वहाँ रूसो की सामान्य इच्छा जनता की प्रभुसत्ता का प्रतीक है ।

रूसी का सामान्य इच्छा का सिद्धांत (Principle of General Desire):

रूसी के सामाजिक सिद्धांत का मूल आधार ”सामान्य इच्छा” है । सामान्य इच्छा का सिद्धांत लोकतंत्र तथा राजनीति दर्शन की आधारशिला है । एक ओर तो लोकतंत्र के समर्थकों ने मुक्त हृदय से इसका स्वागत कर इसे प्रजातंत्र का आधार स्तम्भ बनाया तो दूसरी ओर निरंकुश शासकों ने इसका दामन पकड़ जनता पर मनमाने अत्याचार किए हैं तथा इसकी दमनात्मक व निरंकुश प्रकृति की ओर ध्यान आकृष्ट किया है ।

सामान्य इच्छा क्या है?

मनुष्य एक विचारशील प्राणी है । किसी न किसी प्रकार के विचार व इच्छाएँ, अच्छी या बुरी उसके हृदय में सदा उठती रहती हैं ।

ये इच्छाएँ दो प्रकार की होती हैं:

1. यथार्थ इच्छा:

रूसो के अनुसार यथार्थ इच्छा स्वार्थ-प्रधान व भावना-प्रधान होती है । संक्षेप में, यथार्थ इच्छा संकुचित, अविवेकपूर्ण, अस्थाई और क्षणिक इच्छाएँ होती हैं ।

2. आदर्श इच्छा:

यह व्यक्ति की बौद्धिक चिंतन का परिणाम और वैयक्तिक स्वार्थ से रहित होने के कारण व्यक्ति की वास्तविक इच्छा होती है । दृष्टिकोण की व्यापकता, दूरदर्शिता, स्थायित्व, व्यक्ति व समाज के हित का सामंजस्य तथा इसमें आत्माविलोकन की प्रवृत्ति पाई जाती है ।

सामान्य इच्छा:

रूसी के अनुसार व्यक्ति में भावना प्रधान इच्छा की बाहुलता रहती है । ”जब भावना प्रधान इच्छा, स्वार्थ और संकीर्णता के घेरे से बाहर निकलकर परमार्थ तथा उदारता के घेरे में प्रवेश करती है तो वह सामान्य इच्छा की परिधि में आ जाती है ।”

समाज के विभिन्न व्यक्तियों की आदर्श इच्छा का सर्वयोग ही सामान्य इच्छा है ।

रूसो की मान्यता है कि सब नागरिकों की वह इच्छा जिसका उद्देश्य सामान्य हित हो, सामान्य इच्छा कहलाती है । यह सब व्यक्तियों में से आनी चाहिए व सब पर लागू होनी चाहिए ।

ग्रीन के अनुसार – यह ”सामान्य हित की सामान्य चेतना है ।”

वेपर के अनुसार – ”सामान्य इच्छा नागरिकों की वह इच्छा है जिसका लक्ष्य सबकी भलाई है, व्यक्तिगत स्वार्थ नहीं । यह सब की भलाई के लिए सबकी आवाज है ।”

सेबाइन के अनुसार – ”सामान्य इच्छा समाज का एक विचित्र प्रतिनिधित्व करती है । उसका उद्देश्य स्वार्थपरता और कुछ इने-गिने हितों की रक्षा न होकर सर्वसाधारण के हितों की रक्षा करना होता है ।”

रूसो का इच्छा को सामान्य बनाने की बात यह है कि निर्वाचकों की संख्या की अपेक्षा लोककल्याण की भावना कहीं अधिक महत्वपूर्ण है ।

सामान्य इच्छा का निर्माण:

प्रत्येक व्यक्ति में स्वार्थी और सामाजिक इच्छाओं में प्रायः विरोध होता रहता है, जब स्वार्थी इच्छाएँ नष्ट हो जाती है, तब सामाजिक इच्छाएँ शेष रहती हैं । सभी व्यक्तियों की इन सामाजिक इच्छाओं के मिश्रण से सामान्य इच्छा का निर्माण होता है ।

सामान्य इच्छा की विशेषताएँ:

1. अखण्डता:

सामान्य इच्छा एक संगठित इकाई होती है जिसका विभाजन नहीं हो सकता । रूसो ने कहा है- ”सामान्य इच्छा राष्ट्रीय चरित्र में एकता उत्पन्न करती है और उस्ने स्थिर रखती है ।”

2. संप्रभुता:

सामान्य इच्छा सर्वोच्च और संप्रभु होती है । इस पर किसी प्रकार के दैवी और प्राकृतिक नियमों का प्रतिबंध नहीं होता । यही कानून का निर्माण करती है, धर्म का निरूपण करती है तथा नैतिक और सामाजिक जीवन को संचालित करती है ।

3. अदेयता:

सामान्य इच्छा अदेय है अर्थात् यह इच्छा किन्हीं व्यक्तियों को हस्तांतरित नहीं की जा सकती है । अगर इसको किसी अन्य को दिया जाता है तो यह समाप्त हो जाएगी ।

4. अप्रतिनिधित्व:

सामान्य इच्छा प्रतिनिधियों द्वारा अभिव्यक्त किए जाने योग्य नहीं है । वस्तुतः रूसो प्रत्यक्ष लोकतन्त्र का उपासक है, जिसमें सब व्यक्ति अपनी इच्छा को स्वयंमेव अभिव्यक्त करते हैं ।

5. अचूक:

यह अचूक है क्योंकि यह हमेशा न्यायसंगत और उचित होती है । इसकी किसी भी बात का विरोध करने का अधिकार किसी को नहीं है ।

6. स्थायी:

सामान्य इच्छा स्थायी एवं शाश्वत है । यह इच्छा भावनाओं की उत्तेजना में तथा वक्ताओं के भाषण में नहीं पाई जाती और इसलिए क्षणिक नहीं होती । यह लोगों के स्वभाव और चरित्र का एक अंश बन जाती है । ज्ञान और विवेक पर आधारित होने के कारण इसमें स्थिरता होती है । रूसो के शब्दों में, ”इसका कभी अन्त नहीं होता, यह कभी भ्रष्ट नहीं होती । यह अनित्य, अपरिवर्तनशील तथा पवित्र होती है ।”

7. कानून द्वारा अभिव्यक्ति:

रूसो की सामान्य इच्छा कानून द्वारा अपने को व्यक्त करती है । अतः संप्रभु कानून के ऊपर नहीं माना जा सकता है ।

8. लोकल्याणकारी:

सामान्य इच्छा का ध्येय समाज के किसी भाग का कल्याण न होकर संपूर्ण समाज का कल्याण होता है । क्योंकि सामान्य इच्छा जनता की वास्तविक इच्छा का प्रतिनिधित्व करती है जो सार्वजनिक हित की इच्छा रखती है ।

9. निरंकुश:

सामान्य इच्छा सर्वोच्च व निरंकुश होती है ।

10. औचित्य:

सामान्य इच्छा सदैव शुभ, उचित तथा कल्याणकारी होती है और सदैव जनहित को लेकर चलती है । यह इच्छा सबकी श्रेष्ठ इच्छा है क्योंकि यह सबकी आदर्श इच्छाओं का योग है ।

सामान्य इच्छा व बहुमत:

सामान्य इच्छा रूसो के अनुसार बहुमत से भिन्न है । सामान्य इच्छा की अभिव्यक्ति में संख्या का कोई मूल्य नहीं है वह कुछ व्यक्तियों की इच्छा भी हो सकती है । यदि समाज का बहुसंख्यक वर्ग अपने अनुचित निर्णयों को अल्पसंख्यक वर्ग पर थोपने का प्रयत्न करे तो उसके इस कार्य को समाज की सामान्य इच्छा का प्रतीक नहीं माना जा सकता ।

सामान्य इच्छा और सर्वसम्मति:

प्रथम का लक्ष्य सार्वजनिक हित होता है जबकि दूसरे का लक्ष्य वैयक्तिक हित होता है । सर्वसम्मति व्यक्तियों के हितों से भी संबंधित हो सकती है, पर सामान्य इच्छा अनिवार्यतः समस्त समाज के कल्याण से ही संबंधित होती है ।

सामान्य इच्छा व लोकमत:

लोकमत कभी-कभी सामान्य इच्छा का प्रतिनिधित्व करती है । समाचारपत्र, रेडियो आदि प्रचार साधनों द्वारा लोकमत को भ्रष्ट किया जा सकता है पर सामान्य इच्छा कभी विकृत नहीं होती ।

आलोचना:

सामान्य तौर पर यह महत्वपूर्ण सिद्धांत है फिर भी वाल्टेयर ने उसे रूसो नीम हकीम, जंगली, हू- हू करने वाला उल्लू, स्विसवासी चाकर, डायोजीनीस के कुत्ते तथा हीरोस्ट्रेटस की कुतिया की दोगली संतान कहा है । मार्ले के अनुसार रूसो यद्यपि महान विचारक है तथापि वह यह नहीं मानता कि विचार किस प्रकार किया जाता हैं । फ्रेंच लोगों का कहना है ”अच्छा होता अगर रूसो के विचारों का अनुवाद न होता ।”

1. एक ओर रूसो ने कहा है कि व्यक्ति स्वतंत्र पैदा हुआ है । दूसरी तरफ वह कहता है कि व्यक्ति को सामान्य इच्छा का पालन करना चाहिए । ये विरोधाभासी विचार है ।

2. अनेक आधुनिक विद्वान इसे छू एवं अस्पष्ट मानते है ।

3. रूसो की सामान्य इच्छा का प्रभुत्व कार्य विधि, निर्माण और शासन तंत्र की नियुक्ति और उसे भंग करना है ।

4. अपने इस सिद्धांत के द्वारा रूसो ने व्यक्तिगत स्वार्थ की अपेक्षा सामान्य हित को उबारने में महत्वपूर्ण कार्य किया है ।

5. सामान्य इच्छा अनैतिहासिक तथा काल्पनिक है क्योंकि इतिहास में इस प्रकार के किसी भी सिद्धांत का वर्णन नहीं मिलता ।

6. यथार्थ और आदर्श का काल्पनिक भेद:

चूंकि व्यक्ति की इच्छा जटिल, पूर्ण और अविभाज्य है इसलिए उसका विभाजन संभव नहीं है ।

7. निरंकुशता को प्रोत्साहन देती है । सामान्य इच्छा अधिनायकवाद व सर्वाधिकारवाद की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन देती है । सामान्य इच्छा के नाम पर शासक द्वारा व्यक्ति पर मनमाने अत्याचार किए जा सकते हैं ।

डाइड के शब्दों में रूसो सामान्य इच्छा की आड़ में बहुमत की निरंकुशता का प्रतिपादन तथा समर्थन करता है ।

वाहन के अनुसार रूसो का सामान्य इच्छा का सिद्धांत हॉब्स का सिरविहीन लेवियाथन है ।

8. सार्वजनिक हित की परिभाषा करना कठिन है । इसके साथ ही व्यक्ति की महता नष्ट हो जाती है ।

9. सामान्य इच्छा की धारणा मात्र छोटे राज्यों में ही लागू की जा सकती है (प्रत्यक्ष लोकतंत्र की भांति) जबकि बड़े राज्यों में नहीं ।

10. प्रतिनिध्यात्मक प्रजातंत्र में सामान्य इच्छा का सिद्धांत कदापि लागू नहीं होता ।

महत्व:

 

सामान्य इच्छा का सिद्धांत लोकतंत्र का पोषक है क्योंकि वह संप्रमुसत्ता का आधार जन स्वीकृति मानता है ।

राज्य का उद्देश्य वर्ग विशेष का नहीं बल्कि संपूर्ण समाज के कल्याण का है । रूसो ने आदर्शवादी विचारधारा का प्रतिपादन किया है क्योंकि वह राज्य का आधार शक्ति नहीं वरन इच्छा मानता है । यह सिद्धांत सामाजिक स्वरूप को सुदृढ़ करता है । यह सिद्धांत घोषित करता है कि राज्य कृत्रिम न होकर एक स्वाभाविक संस्था है ।

इस प्रकार सामान्य इच्छा द्वारा स्पष्ट कर दिया कि लोकतांत्रिक संरचना ही लोकतंत्र की आत्मा नहीं होती नैतिकता न्याय और सदगुण के अभाव में लोकतांत्रिक संस्थाएं महत्वहीन हैं । राजनीतिक चिंतन के इतिहास में ही नहीं बल्कि व्यवहारिक राजनीति पर भी रूसो की सामान्य इच्छा के सिद्धांत का गम्भीर प्रभाव पड़ा है ।

रूसो का राजनीतिक जगत पर प्रभाव (Rousseau’s Influence on the Political World):

रूसी के मूल्यांकन के संबंध में आलोचकों की भिन्न-भिन्न राय है । एक ओर वेपर, लास्की, ग्रीन ने उसकी प्रशंसा की है, उसकी तुलना अरस्तू व प्लेटो से की गई है । वहीं दूसरी ओर वाल्टेयर, मार्ले, बर्क ने उसकी आलोचना कर उसे असभ्य वे मिथ्यावादी कहा है । फिर भी राजनीतिक विचारों के इतिहास में रूसो का नाम अमर है ।

जी॰डी॰एच॰ कोल ने रूसो को राजदर्शन का पिता कहा है तथा सोशल कान्ट्रेक्ट को राजदर्शन की दृष्टि से महानतम ग्रंथ माना है ।

1. रूसी एक विचारक के रूप में:

रूसो एक विचारक था, फ्रांस की पाठ्‌य पुस्तकों के रूप में उसके ग्रंथ बहुत मान्य हैं । क्रास व अमेरिका की क्रांति के प्रेरणा स्रोत उसके विचार थे । डायल के शब्दों में ‘रूसो ने घोर दुविधा एवं असंतोष के समय यूरोप के सामने एक प्राचीन और जर्जर ढाँचे को तोड़ डालने का औचित्य प्रदर्शित किया तथा एक ऐसे आदर्श को उसके सामने रखा जिसे वह विनाश के बाद प्राप्त कर सकता था ।’

2. आदर्शवाद का सूचक:

रूसी का राजनीतिक दर्शन आदर्शवाद का सूचक है । कांट का नैतिक दर्शन एवं हीगल का सदविषयक दर्शन रूसो की विचारधारा से अत्यधिक प्रभावित है ।

3. सामान्य इच्छा के सिद्धांत का जनक:

सामान्य इच्छा का भी राजनीतिक जगत में अत्यधिक महत्व है । रूसो का मत है कि समाज की उत्पति सामान्य इच्छा के द्वारा हुई है । सामान्य इच्छा राज्य के सिद्धांतों की मूल जड़ मानी जाती है ।

4. संप्रभुत्ता के सिद्धांत का नया रूप:

रूसो का संप्रभुत्ता का सिद्धांत सामान्य इच्छा में स्थापित है तथा सर्वप्रथम उसने लीक के संप्रभुता के सिद्धांत का प्रतिपादन किया । इससे पूर्व किसी भी विचारक ने व्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्ष में ऐसे विचार प्रस्तुत नहीं किए थे । उसके अनुसार स्वतंत्रता जीवन का परम तत्व थी । यह नैतिकता का आधार थी । इसका प्रभाव जर्मनी के दार्शनिकों पर भी स्पष्ट रूप से दृष्टिगत है ।

5. प्रजातंत्र का समर्थक:

हल, लॉक जहाँ निरंकुश राजतंत्र व संसदवादी थे वहीं रूसो खुलकर प्रजातंत्र को वकालत करते थे व सामाजिक समझौते का आधार ही प्रजातंत्र बताते थे । उसकी सामान्य इच्छा के पीछे जनता की इच्छा थी इसलिए व्यक्ति का समाज में विलय हो जाना समाज की समस्त शक्तियों का प्रयोग करना आदि बातें प्रजातंत्र के समान ही है ।

6. राष्ट्रवाद के प्रणेता के रूप में:

राष्ट्रवाद का समर्थक नहीं था परंतु राष्ट्रवादियों को उसके दर्शन से प्रेरणा अवश्य मिली ।

7. एक महान दूरदर्शी:

उसकी दूरदर्शिता व कुशलता इस बात में निहित होती है कि उसने संप्रभुता को सुरक्षित रखने के सुझाव दिए । इसका उदाहरण शक्ति विभाजन का सिद्धांत है ।

निष्कर्ष:

इस प्रकार स्पष्ट है कि रूसो के दर्शन में आधुनिक काल की सभी प्रमुख विचारधाराओं, समाजवाद, अधिनायकवाद, तथा व्यक्तिवाद, व निरंकुशवाद तथा लोकतंत्र के बीज मिलते है । जर्मन और ब्रिटिश आदर्श का तो यह अग्रदूत ही है । फ्रांस की क्रांति का प्रणेता तथा अमेरिकन व अन्य संविधानों में आरम्भ के शब्द ‘हम लोग’ रूसो की आवाज है । रूसो का उद्देश्य सत्ता व स्वतंत्रता का तालमेल स्थापित करना था ।

रूसो के बाद तानाशाहों ने रूसो का दुरूपयोग किया जिन्होंने जनता के हित की दुहाई देते हुए अनुशासन, शांति और व्यवस्था आदि के नाम पर अपनी इच्छा को सामान्य इच्छा बताते हुए नागरिकों के अधिकारों को समेट कर अपनी शक्ति की भूख मिटाई ।

अतः वह जनता को राजनीतिक शक्ति का अंतिम स्रोत समझता है । सामान्य हित को वह सरकार का समुचित लक्ष्य घोषित करता है । उसने इस बात पर अधिक बल दिया कि राज्य एक सामाजिक संस्था है ।

रूसो का प्रभाव राजनीतिक क्षेत्र के अतिरिक्त शिक्षा साहित्य तथा धर्म के क्षेत्रों में आशिक रूप से पड़ा है । अतः उसे आधुनिक प्रत्यक्षवाद का जनक भी कहा गया है ।