Read this article in Hindi to learn about the political thought of M.N. Roy.

मानबेंद्र नाथ राय आधुनिक भारत के अत्यंत प्रतिभाशाली राजनीति-विचारक और क्रांतिकारी थे । उनका संबंध भारतीय साम्यवादियों की पहली पीढ़ी से था । रूस में बोल्दोविक क्रांति (1917) के बाद वे वहीं चले गए, और लेनिन (1870-1924) के निकट सहयोगी रहे ।

फिर, 1930 में भारत लौटकर उन्होंने यहां की स्थिति का विश्लेषण किया । आगे चलकर उन्होंने एक नए सिद्धांत नव-मानववाद (New-Humanism) का प्रतिपादन किया जो उनकी ख्याति का मुख्य आधार है ।

भारत में क्रांति की संभावनाएं (Prospects of Revolution in India):

राय ने अपनी आरंभिक कृति ‘India in Transition -1922’ के अंतर्गत मार्क्सवादी दृष्टिकोण से भारत की तत्कालीन स्थिति का विश्लेषण प्रस्तुत किया । राय ने तर्क दिया कि ब्रिटिश सरकार भारत में बढ़ते हुए जन-आक्रोश के खतरे से चौक गई है । उसने रोकने के उद्देश्य से वह भारत के बुर्जुवा वर्ग को कुछ रियायतें देकर उसका समर्थन प्राप्त करना चाहती है ।

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उधर पूंजीवादी अर्थव्यवस्था ने उद्योगों के साथ-साथ कृषि-उत्पादन को भी अपने नियंत्रण में ले लिया है । परिणाम यह है कि ग्रामीण क्षेत्र में भारत के कृषक वर्ग को विदेशी और भारतीय दोनों तरह की पूंजी की दोहरी मार सहनी पड़ रही है ।

भारतीय इतिहास का जो क्षण मशीनी उत्पादन युग के आरंभ के लिए उपयुक्त था, तब यहाँ ब्रिटिश आक्रमण हो गया जिससे औद्योगीकरण की प्रक्रिया को बहुत धक्का लगा । इसी से यही शहरी सर्वहारा के विकास में देर लगी । अब यही पूंजीवाद के विकास के परिणामस्वरूप वर्ग संघर्ष को बल मिला है, और यह संघर्ष राष्ट्रीय स्वतंत्रता के संघर्ष के साथ-साथ चल रहा है ।

राय ने यह मत व्यक्त किया कि भारत का भविष्य बड़े-बड़े उद्योगों के भविष्य पर निर्भर है । औद्योगिक उन्नति से कामगार वर्ग के सदस्यों की संख्या बहुत बढ़ जाएगी । अतः भारत को स्वतंत्र कराने का दायित्व मजदूर और किसान वर्ग मिलकर सँभालेंगे जो वर्ग संघर्ष के प्रति सजग हो जाने के कारण संगठित हो जाएंगे ।

दूसरे विश्व युद्ध (1939-45) के दिनों में राय ने अपने फासिस्ट-विरोधी दृष्टिकोण के कारण ब्रिटिश सरकार का समर्थन किया । इसके बाद उनका झुकाव माकर्रवाद से हटकर एक तरह के उदारवाद की ओर हो गया । अपने नए चिंतन को उन्होंने ‘नव-मानववाद’ के रूप में विकसित किया ।

नव-मानववाद की संकल्पना (Concept of Neo-Humanism):

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राय ने नव-मानववाद की संकल्पना अपनी अनेक कृतियों के अंतर्गत प्रस्तुत की । इनमें ‘New Humanism: A Manifesto – 1947’ ‘Reason, Romanticism and Revolution’, ‘The Problem of Freedom’, ‘Scientific Politics’ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं ।

इस नव-मानववाद को ‘उत्कट मानववाद’ या ‘आमूलपरिवर्तनवादी मानववाद’ तथा ‘वैज्ञानिक मानववाद’ की संज्ञा भी दी गई है । इसका मूल स्वर ‘मनुष्य की स्वतंत्रता’ है जो उसकी सृजनात्मक शक्तियों के प्रयोग में निहित है । अज्ञान की स्थिति में मनुष्य अंधविश्वासों में फँस जाता है और अलौकिक शक्तियों में विश्वास करते हुए अपने-आपको विवश अनुभव करता है जिससे उसकी सृजनात्मक शक्तियाँ कुंठित हो जाती हैं । ज्ञान और विज्ञान मनुष्य को इन निराधार विश्वासों से मुक्ति प्रदान करते हैं ।

राय ने तर्क दिया कि आधुनिक युग में विज्ञान की उन्नति ने मनुष्य को अंधविश्वासों और भूत-प्रेतों के भय से मुक्त कर दिया है । इसने सिद्ध कर दिया है कि सृष्टि की कोई भी शक्ति ऐसी नहीं जिसे मनुष्य अपने ज्ञान और सूझबूझ के बल पर अपने वश में नहीं कर सकता ।

अतः मनुष्य स्वयं अपनी नियति का नियंता है । किसी युग में मनुष्य अपनी नियति को कैसे नियत करेगा- यह ज्ञान-विज्ञान की उन्नति पर निर्भर है । ज्ञान-विज्ञान की उन्नति की कोई सीमा नहीं है, इसलिए मनुष्य के भविष्य की कोई निश्चित रूपरेखा प्रस्तुत नहीं की जा सकती ।

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अतः नव-मानववाद स्वतंत्रता के प्रयोग की अनंत संभावनाओं में आस्था रखते हुए उसे किसी ऐसी विचारधारा के साथ नहीं बांधना चाहता जो किसी पूर्वनिर्धारित लक्ष्य की सिद्धि को ही उसके जीवन का ध्येय मानती हो ।

दार्शनिक आमूल परिवर्तनवादियों ने अपनी समकालीन सामाजिक-आर्थिक स्थिति के प्रति आलोचनात्मक दृष्टिकोण अपनाकर नैतिक समस्याओं के बारे में व्यक्तिवादी सिद्धांत विकसित किया था । मार्क्स ने उनके दृष्टिकोण को बुर्जुवा मनोवृति मानते हुए इसका खंडन किया था- यह उसकी भूल थी ।

आधुनिक सभ्यता जिस व्यापक नैतिक और सांस्कृतिक संकट से गुजर रही है, उसके निवारण के लिए मानववादी मूल्यों का पुनरुत्थान जरूरी है । आज के युग की मूल समस्या सर्वाधिकारवाद से मानव-स्वतंत्रता की रक्षा करना है । ‘पूंजी बनाम श्रम’ की आर्थिक समस्या आज का मुख्य मुद्दा नहीं है हालांकि इसका समाधान भी जरूरी है ।

राय ने भौतिकवाद के साथ-साथ मानव-विकास के सिद्धांत में विश्वास करते हुए यह तर्क दिया कि स्वयं ‘मनुष्य का अस्तित्व भौतिक सृष्टि के विकास का परिणाम है । भौतिक सृष्टि अपने-आपमें निश्चित नियमों से बँधी है, इसलिए उसमें सुसंगति पाई जाती है । मनुष्य के अस्तित्व में यह सुसंगति तर्कशक्ति या विवेक के रूप में सार्थक’ होती है ।

दूसरे शब्दों में, मनुष्य का विवेक भौतिक जगत में व्याप्त सुसंगति की ही प्रतिध्वनि है, यह मनुष्य के जीव-वैज्ञानिक विकास की परिणति है । अपने विवेक से प्रेरित होकर मनुष्य जिन सामाजिक संबंधों का निर्माण करते हैं, उनमें भी वे ऐसी सुसंगति लाने का प्रयत्न करते हैं जो नैतिकता के रूप में व्यक्त होती है ।

जब मनुष्यों के सामाजिक संबंध नियमित तौर तरीकों में बँधकर एक स्थिर ढाँचे का रूप धारण कर लेते हैं, तब समाज का जन्म होता है । व्यक्ति का जीवन केवल तर्कसम्मत आत्माभिव्यक्ति है; उसका आदि-अंत स्वतन्त्रता है; सामाजिक संबंध इसके साधन मात्र है । व्यक्ति आत्मसिद्धि के लिए ही समाज को अपनाता है ।

आदर्शवादी नैतिकता को तर्कबुद्धि से ऊँचा मानते हैं, और समाज को व्यक्ति से ऊँचा स्थान देते हैं । राय ने इस दृष्टिकोण का खंडन करते हुए यह तर्क दिया कि मनुष्य ही अपनी तर्कबुद्धि से समाज और नैतिकता के स्वरूप को निर्धारित करता है ।

अतः उसका स्थान सबसे पहले और सबसे ऊँचा है । मनुष्य स्वयं अपने जीवन और जगत का निर्माता है । कोई सामाजिक दायित्व या नैतिक सिद्धांत मनुष्य को स्वतंत्रता में कटौती नहीं कर सकता । राय का नव-मानववाद मनुष्य को संपूर्ण सृष्टि का मानदंड स्वीकार करता है ।

राय के अनुसार, मनुष्य का बौद्धिक पुनर्जागरण राजनीतिक और सामाजिक पुनर्निर्माण की जरूरी शर्त है । स्वतंत्रता की क्षमता स्वयं मनुष्य में निहित है । यदि मनुष्य अपनी सृजनात्मक शक्तियों के प्रति सजग हो जाए तो वह परंपरागत धार्मिक सत्ता और अलौकिकवाद के बंधनों को काटकर आध्यात्मिक स्वतंत्रता प्राप्त कर सकता है । स्वतंत्र मनुष्य ही स्वतंत्र समाज का निर्माण कर सकते हैं ।

राय ने तर्क दिया कि राजनीतिक चिंतन की प्रत्येक प्रचलित परंपरा-चाहे वह उदारवादी हो, रूढ़िवादी हो, या समाजवादी; कम्युनिस्ट हो या फासिस्ट-मनुष्य के अस्तित्व को जनपुंज में विलीन कर देती है, और इस तरह वह किसी विशेष राजनीतिक प्रणाली के वर्चस्व को स्थापित करके मनुष्य को नगण्य बना देती है ।

नव-मानववाद ऐसी प्रत्येक परंपरा का खंडन करता है । यह राष्ट्रवाद की जगह विश्व-भ्रातृत्व को मान्यता देता है जिसमें मनुष्य सहज-स्वाभाविक सहयोग और साहचर्य की भावना से प्रेरित होंगे । नव-मानववाद मार्क्सवाद के आर्थिक नियतिवाद का खंडन करता है और मानव-इच्छा को ही सामाजिक विकास की प्रेरक-शक्ति मानता है ।

इसके अनुसार, क्रांति का ध्येय समाज का आर्थिक पुनर्गठन मात्र नहीं, बल्कि उसे स्वतंत्रता और सामाजिक न्याय के नए जगत का निर्माण करना चाहिए ।

मार्क्सवाद, गांधीवाद और लोकतंत्र की समीक्षा (Review of Marxism, Gandhian and Democracy):

भारत के पुनर्निर्माण के लिए कौन-सा मार्ग अपनाया जाए- इस मामले में मार्क्सवाद, गांधीवाद और लोकतंत्र अपनी-अपनी श्रेष्ठता का दावा करते है । राय ने अपने नव-मानववाद के परिप्रेक्ष्य में इन तीनों की समीक्षा प्रस्तुत की है । उन्होंने तर्क दिया कि मार्क्सवाद केवल आर्थिक प्रेरक और आर्थिक हितों के संघर्ष को मानव-इतिहास की प्रेरक शक्ति मानता है । यह दृष्टिकोण उपयुक्त नहीं है ।

वस्तुतः मानव-जीवन परस्पर सहयोग का प्रयास है, और सुसंगति या सामंजस्य की तलाश उसकी प्रेरणा-शक्ति है । मार्क्सवाद मनुष्य की गरिमा को उचित मान्यता नहीं देता, इसलिए वह मूल नैतिक समस्याओं पर अपना ध्यान केंद्रित नहीं कर पाया है । जब सारी मानवता सवाधिकारवाद के जाल में फँसती जा रही है, तब भी मार्क्सवाद ‘पूंजी बनाम श्रम’ के विवाद में उलझा है । अतः वह मानव मुक्ति के जिस उद्देश्य की पूर्ति के लिए जन्मा था, उसे ही इसने विफल कर दिया है ।

एम.एन. राय महात्मा गांधी के व्यक्तिगत गुणों और नेतृत्व की क्षमता के प्रशंसक थे, परंतु उन्हें गांधीवाद की मान्यताएं सही नहीं लगीं । उन्होंने तर्क दिया कि गांधीवाद भारत में पुराने अध्यात्मवाद के पुनर्वास का प्रयत्न है जबकि देश उससे बहुत आगे बढ़ चुका है । यह देश को पीछे की ओर ले जाने का प्रयास है ।

गांधीवाद को जनसाधारण के सांस्कृतिक पिछड़ेपन के कारण सम्मान मिला है । गांधीजी के नेतृत्व ने अनजाने में जनसाधारण की तर्कसम्मत क्रांति की आग को ठंडा करने की भूमिका निभाई है । इसी के परिणामस्वरूप भारत में एकाधिकार-पूंजीवाद का पंजा फैलता जा रहा है । फिर, आधुनिक लोकतंत्र भी मनुष्य की स्वतंत्रता का साधन नहीं रह गया है ।

वैसे लोकतंत्र व्यक्ति को राज्य की नागरिकता प्रदान करता है जिससे ऐसा लगता है कि वह व्यक्ति के स्वतंत्र अस्तित्व को मान्यता देता है परंतु वस्तुतः वह व्यक्ति को राष्ट्र का उपाश्रित बना देता है । इस तरह लोकतंत्र व्यक्ति की स्वतंत्रता को राष्ट्र-राज्य के क्षेत्रीय विस्तार तक सीमित कर देता है जिसमें उसका अस्तित्व विलीन हो जाता है, चाहे वही एकदलीय प्रणाली प्रचलित हो या बहुदलीय प्रणाली हो ।

निष्कर्ष:

एम.एन. राय के अनुसार, व्यक्ति की तर्कशक्ति उसके ज्ञान के विस्तार के साथ जुड़ी है । अतः जहाँ अज्ञान की सीमाएं टूटती हैं, वहाँ वह नई जीवन-पद्धति की तलाश करता है । यही तलाश उसकी स्वतंत्रता को सार्थक करती है । अतः मनुष्य की स्वतंत्रता ज्ञान के विस्तार के साथ-साथ अपनी आकांक्षाओं के विस्तार में निहित है ।

मार्क्सवाद, गांधीवाद और लोकतंत्र में से कोई भी प्रणाली व्यक्ति को अपनी अनंत स्वतंत्रता की तलाश नहीं करने देती क्योंकि ऐसी प्रत्येक विचारधारा अपनी-अपनी प्रयोजनवादी विश्व-दृष्टि से बंधी है । ऐसी प्रत्येक विचारधारा पहले से उपलब्ध ज्ञान पर आधारित है, और वह मनुष्य के जीवन को किसी-न-किसी पूर्व-निर्धारित लक्ष्य के साथ बाँध देती है । अतः वह ज्ञान के अनंत विस्तार और स्वतंत्रता की अनत संभावनाओं को मान्यता नहीं देती ।

राय का नव-मानववाद ‘मनुष्य’ को संपूर्ण सृष्टि की धुरी मानता है । वह शुद्ध ‘मनुष्य’ को मान्यता देता है-ऐसे मनुष्य को नहीं जो किसी ‘वर्ग’, ‘राष्ट्र’ या अन्य प्रकार के सीमित समूह के पूर्व-निर्धारित लक्ष्य के साथ बँधा हो । स्वतंत्र मनुष्य अपनी सहज-स्वाभाविक तर्कशक्ति से प्रेरित होकर अपनी सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए परस्पर सहयोग के संबंध में बंध जाते हैं । ये स्वैच्छिक संबंध या संगठन मनुष्य की स्वतंत्रता में कोई बाधा नहीं डालते ।

संक्षेप में, राय ज्ञान के अनंत विस्तार और मानव-विकास की अनंत संभावनाओं के प्रति आशावान हैं । चूंकि इस विकास की कोई सीमा नहीं है, इसलिए हमारे वर्तमान ज्ञान के आधार पर इसका कोई पूर्व-निर्धारित लक्ष्य स्वीकार नहीं किया जा सकता । स्वतंत्रता की पहली शर्त वर्तमान बंधनों को तोड़ना है ।

पिंजरा तोड़ देने पर पंछी खुले आकाश में किधर उड़ेगा-यह तय करने का प्रयत्न निरर्थक है । राय के चिंतन में समकालीन आलोचनात्मक सिद्धांत का पूर्वसकेत मिलता है ।