Read this article in Hindi to learn about the political thought of Nicholo Machiavelli.

बौद्धिक पुनर्जागरण ने लोगों में नई चेतना, स्वतंत्रता के लिए एक नवीन प्रेम और जीवन के नवीन मूल्यों के प्रति अनुराग के भाव जगा दिये, मनुष्य ही प्रत्येक वस्तु का मापदण्ड है- इस उक्ति में आस्था प्रकट की जाने लगी । ज्ञान और निर्माण के इस ऊषाकाल में ही मैक्यावली पैदा हुआ जिसने विश्व को एक नई राजनीतिक सूझ-बूझ की दिशा प्रदान की ।

व्यवहारिक राजनीति में आदर्शगुरू के रूप में जो प्रतिष्ठा भारतीय ब्राह्मण कौटिल्य को प्राप्त है वही स्थान यूरोपीय राजनीति में मैक्यावली को भी प्राप्त है ।

सन् 1469 में निकोलो मैक्यावली पलोरेंस (इटली के एक नगर) में जन्मा जो पुनर्जागरण का केन्द्र था । सन् 1527 में वह 58 वर्ष की आयु में काल के गर्भ में समा गया । मैक्यावली ने पूरी तरह वैज्ञानिक तटस्थता की नीति अपनाते हुए अपने युग की समस्याओं को समझा फिर अपने निष्कर्ष दिये ।

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मैक्यावली ने इतिहास का प्रयोग अपने पूर्वकल्पित निष्कर्षों की पुष्टि में किया है लेकिन इस बारे में प्रो॰ डनिंग का मत है कि ”मैक्यावली की पद्धति देखने में जितनी ऐतिहासिक लगती है उतनी है नहीं ।”

सेबाइन के अनुसार – ”उसकी पद्धति पर्यवेक्षणात्मक थी ।”

जो भी हो इसमें कोई संदेह नहीं कि राजनीतिक समस्याओं के प्रति मैक्यावली का दृष्टिकोण अनुभव प्रधान था एवं उसकी भावना ऐतिहासिक थी । मैक्यावली की अध्ययन पद्धति पर उसके समय की परिस्थितियों का प्रभाव पड़ा है । मैक्यावली धर्मसत्ता का कट्‌टर विरोधी था ।

मैक्यावली ने दो महत्वपूर्ण ग्रंथों की रचना की थी, जिसमें उसका नाम राजदर्शन में अमर हो गया ।

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1. Discourses on Livy

2. The Prince

उसकी अध्ययन पद्धति ऐतिहासिक, पर्यवेक्षणात्मक, यथार्थवादी, वैज्ञानिक विशेषताओं से युक्त थी । उसने राजनीति को कला के रूप में स्वीकार किया है । मैक्यावली की पद्धति सर्वथा दोषरहित नहीं थी, वह पक्षपात, हठवादिता और एकांकी दृष्टिकोण से ग्रसित थी ।

मैक्यावली का राष्ट्र फलोरेंस था, ‘प्रिंस’ में उसने अपने राष्ट्र की परिस्थितियों का ही विवरण दिया है । मैक्यावली कोई असाधारण रूप से सफल कूटनीतिज्ञ रहा हो, ऐसी बात नहीं है, लेकिन वह एक ज्ञानी व्यक्ति अवश्य था । जिन राज्यों में वह जाता था, उसकी राजनीतिक अवस्था के मूल आधार को खोज निकालने की उसमें असाधारण क्षमता थी ।

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मैक्यावली लोकतंत्र का नहीं देश का भक्त था । निःसंदेह वह भावातिरेक से ग्रस्त व्यक्ति था । वह कठोर परिश्रमी भी था । आज भी उसकी कृति लोगों की भावनाओं को भड़काती है, और विवाद का विषय बनी हुई है ।

मानव संबंधी विचार (Human Thought):

अरस्तू, मैक्यावली, हॉब्स, बेन्थम, रूसो आदि अनेक राजनीतिक विचारकों ने राजनीतिक विचारों और संस्थाओं का आधार मानव स्वभाव को बनाया है । उनका कहना है कि राजनीति का स्वरूप और उनके संगठनों का प्रश्न इस बात पर निर्भर करता है कि मानव स्वभाव कैसा है और वह क्या चाहता है?

यदि मानव प्रकृति का अध्ययन किए बिना आदर्शों की रचना की जाती है तो वे कोरे सिद्धांत बन जाते हैं और उनकी कोई उपयोगिता नहीं रह जाती है । मानव स्वभाव का अध्ययन इसलिए परम आवश्यक है ।

मैक्यावली द्वारा मानव स्वभाव का अध्ययन (Studies of Human Nature by Machiavelli):

मैक्यावली ने जिस मानव का अध्ययन अपने मापदण्डों से नापकर किया है उसकी प्रकृति का वर्णन करते हुए वह कहते हैं कि मानव स्वभाव न तो बिल्कुल ही दुष्ट होता है और न ही पूर्णतया भला होता है लेकिन बाद में उसने अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ ‘प्रिंस’ में यह सिद्ध किया कि मानव स्वभावतः दुष्ट और धोखेबाज होता है इसलिए उसके साथ व्यवहार के लिए सरकार उतनी ही निरंकुश और शक्तिशाली होनी चाहिए ।

मैक्यावली ने मानव स्वभाव के बारे में कोई सिद्धांत प्रतिपादित नहीं किया है बल्कि केवल यह बताया है कि वह कैसा है ।

लेकिन मैक्यावली के अनुसार यह जानना आसान नहीं कि मनुष्य का हित किरन में है क्योंकि अधिकतर व्यक्ति बुद्ध और अविवेकी होते हैं । उसके अनुसार व्यक्ति स्वभाव से ईर्ष्यालु और महत्वाकांक्षी होता है । उसके हित-अहित संबंधी विचारों को आवेग प्रभावित करते हैं । व्यक्ति अपने व्यवहार में दो तत्वों से परिचालित होता है ।

”प्रेम और भय” इन दो के अतिरिक्त धनोपार्जन की प्रवृत्ति तीसरी प्रमुख शक्ति भी है । बहुत सारे लोग प्रेम प्राप्त करते भेंट और प्रेम के द्वारा अपने को दूसरों से निभाना चाहते हैं पर बहुतेरे भरा दिखाकर और आतंकित कर उनसे निपटते है ।

प्रेम और भय की तुलना से भय अधिक सर्वग्राही है । ईर्ष्या और महत्वाकांक्षा अन्य तत्व हैं जिनसे मानव स्वभाव निर्मित होता है ।

‘प्रिंस’ में वर्णित मैक्यावली की मानव स्वभाव संबंधी धारणाएं निम्नलिखित हैं:

1. मैक्यावली के अनुसार मनुष्य महत्वाकांक्षी होता है । उसकी एक आकांक्षा का प्रभाव उसकी दूसरी आकांक्षा पर भी पड़ता है और वह अपने को सुरक्षित करने का प्रयत्न करता है । उसके बाद दूसरी पर आक्रमण करता है यही उसका स्वभाव है ।

2. मनुष्य में स्वतन्त्रता की उत्कृष्ट अभिलाषा होती है, वह दूसरों से अपनी मुक्ति चाहता है और अपने तरीके से रहना चाहता है । अपना जीवन अपने तरीके से गढ़ना चाहता है और अपनी भलाई जिसमें है उसकी खोज स्वयं ही करना चाहता है परंतु अपनी मुक्ति का उपाय है दूसरी को परतंत्र बनाना इसलिए प्रत्येक व्यक्ति दूसरों पर हावी होना चाहता है । दूसरों पर शासन करना चाहता है ।

3. मैक्यावली के मतानुसार मनुष्य में आवेग दो प्रकार से होता है । पाने की इच्छा से भी और खोने के डर से भी । व्यक्ति और अधिक पाने की इच्छा ही इसलिए करता है कि उसे इस बात का डर होता है कि कहीं जो कुछ उसके पास है वह खो न जाए ।

यदि व्यक्ति के लिए इस बात की प्रत्याभूति हो कि उनके पास जो कुछ है वह खोयेगा नहीं या नष्ट नहीं होगा तो शायद वह और पाने की तृष्णा के पीछे इतना अधिक न दौड़े । इस अधिकाधिक संग्रह करने की दौड़ में एक दूसरे के साथ संघर्ष होता है, व्यक्ति-व्यक्ति के बीच में व्यक्ति और राज्य के बीच में भी ।

4. मानव पशु से भिन्न इसलिए है कि उसमें विवेक होता है परंतु सही तो यह है कि वह पशु ही है । मैक्यावली का विचार है कि मानव स्वभाव से ही झगड़ालु और आक्रामक होता है और जब तक उसे राज्य की निरंकुश शक्ति से नियंत्रित न किया जाए या उसके द्वारा कुचल डालने की व्यवस्था न कर ली जाए तब तक वह अपने इस स्वभाव में सुधार नहीं कर सकता । पाश्विक शक्ति का नियंत्रण क्रूर पाश्विकता से ही हो सकता है ।

5. मैक्यावली का विचार था कि अगर व्यक्ति के संघर्षमय स्वभाव को राज्य दण्ड या कानून द्वारा नियंत्रण न करे तो राज्य में अराजकता फैल जाए और उसका मानना है कि मानव स्वभाव में अराजक शक्ति जितनी ही अधिक हो सरकार की निरंकुशता भी उतनी ही अधिक होनी चाहिए ।

6. एक प्रशासक के लिए मैक्यावली ने सलाह दी है कि उसे हमेशा यह मानकर राज्य की व्यवस्था करनी चाहिए कि सामान्यतः सभी व्यक्ति बुरे होते हैं और एक दूसरे की सम्पत्ति और जीवन को नुकसान पहुंचाने के अवसर ढूँढते रहते हैं । सम्पत्ति अर्जन में मानव की प्रकृति सबरने अधिक होती है ।

मैक्यावली का कहना था कि – ”व्यक्ति अपने पिता की हत्या के अपराध को भी एक बार क्षमा कर सकता है पर अपनी सम्पत्ति के अपहरणकर्ता को वह कभी भी क्षमा नहीं कर सकता है ।”

लोग न केवल डरपोक एवं अज्ञानी होते हैं, बल्कि मनुष्य स्वभाव से ही दुराचारी होते हैं । वे केवल आवश्यकता पड़ने पर ही सदाचारी दिखाई पड़ते है । लोग अपनी वासनाओं के दास एवं अबल दर्जे के स्वार्थी होते हैं ।

7. मैक्यावली ने मानव स्वभाव संबंधी अपनी विचारधारा में मानवों को स्वार्थ एवं अहंवाद से भरा पाया है । उसके अनुसार मनुष्य विभिन्न कमजोरियों से ग्रसित है । प्रिंस के सत्रहवें अध्याय में मैक्यावली ने लिखा है कि सामान्यतः मनुष्य के बारे में यह कहा जा सकता है कि वे कृतध्न, चालाक, मिथ्यावादी, डरपोक और स्वार्थ लिप्त होते हैं, वे तभी तक आपके बने रहते हैं जब तक सफलता उसके पास है ।

वे तभी तक आपके लिए अपना रक्त, सम्पत्ति, जीवन आदि का बलिदान करने के लिए आगे बढ़ेंगे जब तक कि वास्तव में ऐसे बलिदानों की आवश्यकता दूर रहती है लेकिन जैसे ही यह आवश्यकता निकट आती है वे आपके विरूद्ध विद्रोह भी कर देते हैं । मनुष्य उसी समय तक प्रेम करते हैं जब तक उनका स्वार्थ सिद्ध होता है लेकिन जब वे अपनी कोई स्वार्थ सिद्धि नहीं देखते हैं तो वे विद्रोह कर देते हैं ।

8. मैक्यावली का विचार था कि जब कभी मनुष्य को स्वविवेक से कार्य करने की स्वतंत्रता दे दी जाती है तभी अव्यवस्था फैल जाती है । आशा लगाए हुए प्रत्येक व्यक्ति उस दिन का इंतजार करता है जब बाप मरता है और बैल बाँटते हैं ।

वह स्वार्थपरता को जन्मजात अवगुण मानता है उसके विचार में मानव का स्वभाव मूर्खता, दुर्बलता एवं दुष्टता का मिश्रण होता है । हॉब्स तथा मैक्यावली दोनों ही मनुष्य को कपटी, सनकी, कृतध्न, लोभी एवं कायर मानते थे । मानव के अन्दर जो लोभ, धोखा, भय, अभिमान तथा पशुता भरी है उन सबके पीछे एकमात्र स्वार्थ की ही भावना निहित है ।

मैक्यावली को मानव में केवल दोष ही दोष दिखता है । उसका कहना था कि मानव अपनी इच्छा से या अपनी खुशी से कोई कार्य नहीं करता है वरन् वह धमकी या भय से वशीभूत होकर ही प्रत्येक कार्य करता है ।

मैक्यावली के मानव-स्वभाव संबंधी विचारों की आलोचना:

मैक्यावली के मानव-स्वभाव का चित्रण हॉब्स के प्राकृतिक अवस्था के मानव-स्वभाव के चित्रण से मिलता-जुलता है परंतु मानव इतना बुरा, स्वार्थी और निम्नकोटि का नहीं है जितना उसे बतलाया गया है । उसमें सद्गुणों की कमी नहीं है । प्रेम, सहयोग, त्याग, अनुशासन आदि उच्च दैवी गुण मनुष्य में ही पाए जाते हैं । यदि मनुष्य उसके बताए अनुसार ही स्वार्थी है तब तो समाज का सुधार वह किसी भी परिस्थिति में नहीं कर सकता ।

यदि मनुष्य इतना ही पापी, द्रोही और अहंकारी है जितना मैक्यावली ने कहा है तो राज्य की कल्पना ही नहीं की जा सकती, क्योंकि राज्य तो सहयोगी भावनाओं से उत्पन्न हुआ है ।

वास्तव में यह प्रतीत होता है कि मैक्यावली की मानव-प्रकृति की निकृष्टता और अहमवादिता में इतनी दिलचस्पी नहीं थी जितनी कि इस बात में कि इन बुराइयों के कारण ही इटालियन समाज की बड़ी दुर्दशा हो गई थी । अपने समाज की अधोगति देखकर उसे मर्मान्तक पीड़ा होती थी । उसके विचार से इटली भ्रष्ट-समाज का सजीव उदाहरण था ।

जहाँ राजतंत्र ने फ्रांस और स्पेन में इस प्रकार की बुराइयों को किसी अंश तक दूर कर दिया था वही इटली में बुराइयों को दूर करने वाली कोई सत्ता नहीं थी । मानव-स्वभाव के जिन पक्षों का चित्रण मैक्यावली ने किया है, वे सब इटली में विद्यमान थे ।

मैक्यावली स्वयं मानव-स्वभाव के इन बुराइयों का मुक्त-भोगी था । अतः उसके हृदय में यदि मानव-स्वभाव के बुरे पक्ष का ही ध्यान रहा हो तो इसमें उसका दोष कम है, तत्कालीन परिस्थितियों और इटली में विद्यमान तत्कालीन वातावरण का अधिक ।

मैक्यावली के मानव-स्वभाव संबंधी विचारों का निष्कर्ष:

मैक्यावली का मानव प्रेरणाओं से संबंधित सिद्धांत प्लेटो और अरस्तू द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों से, जो राज्य का जन्म मनुष्य के सामाजिक स्वभाव में देखते हैं, खण्डन करता है । मैक्यावली ने राज्य और समाज की उत्पत्ति को एक आकस्मिक घटना माना है, जो मनुष्यों में सुरक्षा की आवश्यकता से उत्पन्न हुई है ।

एक बुद्धिमान शासक को यह मान कर चलना चाहिए कि मनुष्य की प्रेरक शक्तियाँ अहंकार और स्वार्थ हैं । वे नैतिक और परमार्थपूर्ण नहीं हैं, अतः शासक को सदैव इतना अधिक शक्तिशाली बनने का प्रयास करना चाहिए कि वह प्रजाजन को सुरक्षा प्रदान कर सके । शासक को अपनी नीतियों पर नैतिकता एवं आदर्शवादिता का मुलम्मा चढाने की कोई आवश्यकता नहीं है ।

राजनीति और नैतिकता का गठबन्धन अव्यावहारिक और उपहासप्रद है । मनुष्य जन्म से ही स्वार्थी तथा धर्म की अपेक्षा पाप की ओर प्रवृत रहता है । वह विवश किए जाने पर ही अच्छाई का कोई काम करता है । अतः शासक की आदर्श स्थिति यह होगी कि प्रजाजन उससे प्रेम भी करें और उससे डरे भी ।

चूंकि ये दोनों बातें अधिकांशतः एक साथ संभव नहीं हैं, इसलिए बेहतर यही है कि शासक मनुष्यों को शक्ति द्वारा नियंत्रित करता रहे । शक्ति भय की जननी है और भय प्रेम की अपेक्षा अधिक अनुशासन रखने में समर्थ है ।

मैक्यावली के इस कथन से कि – ”मनुष्य जन्म और स्वभाव से ही कपटी, स्वार्थी और लोभी होता है” – यह अर्थ निकालना अस्वाभाविक न होगा कि मनुष्य के आचरण में सुधार संभव नहीं है । जहाँ अरस्तू के राज्य में मनुष्य को शिक्षा द्वारा सद्‌गुणी बनाया जा सकता है वहाँ मैक्यावली के अनुसार मनुष्य अपनी स्वभावजन्य एवं अंतर्निहित बुराइयों के कारण युग-युगान्तर तक अपरिवर्तित ही बना रहेगा ।

राज्य के लिए उसके आचरण में सुधार करना न तो शिक्षा द्वारा संभव है और न सामाजिक एवं आर्थिक संस्थाओं के सुधार द्वारा । उसकी कुप्रवृतियों पर नियंत्रण का केवल एक ही उपाय है- वह है शक्ति या दमन ।

राज्य संबंधी विचार (State Thought):

मैक्यावली की राज्य संबंधी कल्पना अरस्तू से भिन्न है । अरस्तू राज्य को प्राकृतिक संस्था मानता है जबकि मैक्यावली मानव-कृत । उसका विचार है कि राज्य एक कृत्रिम संस्था है जिसे मनुष्य ने अपनी असुविधाओं को दूर करने के लिए बनाया है । वह राज्य के आविर्भाव का कारण मनुष्य का स्वार्थ मानता है और इसी कारण राज्य की मुख्य विशेषता उसका निरंतर विस्तार है ।

मैक्यावली नगर-राज्य की अपेक्षा रोमन साम्राज्य का उपासक था । राज्य की उत्पत्ति संबंधी मैक्यावली का विचार हॉब्स से मिलता जुलता है । जब सामान्य हित और कल्याण की भावना से व्यक्ति के हितों का संयुक्तीकरण हो गया तो राज्य की उत्पत्ति हुई । स्वार्थ को राज्य की उत्पत्ति का आधार मानते हुए मैक्यावली यह भी स्वीकार करता है कि राज्य की स्थापना असभ्य जातियों का संगठन करने के लिए हुई थी ।

इस तरह वह स्वार्थ के अतिरिक्त स्पष्टतः यह भी बतलाता है कि राज्य की उत्पत्ति ईश्वरीय न होकर समाज के बल का परिणाम है । मनुष्य की दुष्टता और स्वार्थपरता को सीमित एवं नियंत्रित करने के लिए बलशाली व्यक्ति की जरूरतें होती है जो राज्य द्वारा पूरी को जाती हैं ।

अरस्तू की भांति मैक्यावली राज्य को अन्य सभी संस्थाओं से उच्चतर (Higher) स्थान प्रदान करता है । राज्य की महता का आधार मैक्यावली ने भौतिक शक्ति एवं छल-कपट माना है । इनके बिना राज्य की वृद्धि व विस्तार नहीं हो सकता । राज्य किसी प्रकार के नैतिक आचरणों से बँधा हुआ नहीं है ।

उसके लिए वे सभी कार्य नैतिक हैं जो उद्देश्य की प्राप्ति में उसकी सहायता करते हैं । मैक्यावली का यह मानना है कि राज्य परिवर्तनशील है और उसके उत्थान एवं पतन का लम्बा इतिहास है ।

वह राज्य को दो भागों में विभाजित करता है:

(i) स्वस्थ राज्य तथा;

(ii) अस्वस्थ राज्य ।

स्वस्थ राज्य युद्धशील होता है और निरंतर संघर्ष में लगा रहता है । यह राज्य एकता का प्रतीक होता है क्योंकि लघु स्वार्थों के लिए उसके निवासी परस्पर लड़ते-झगड़ते नहीं है । स्वस्थ राज्य तेजस्वी और गतिशील होता है ।

अस्वस्थ राज्य शिथिल होता है जिसमें व्यक्ति अपने छोटे-छोटे स्वार्थों के लिए भी संघर्षरत रहते हैं । उन्हें राज्य की एकता और संगठन की कोई चिन्ता नहीं होती ।

मैक्यावली ने अपने सुप्रसिद्ध ग्रंथ में आदर्श राज्य के बारे में भी विचार व्यक्त किया है । मैक्यावली का आदर्श राज्य वह है जो किन्हीं भी तरीकों से अपनी भक्ति, सम्मान व प्रतिष्ठा को बढ़ाता है । द प्रिंस में उसने बताया है कि राजा को किस तरह से राज्य का विस्तार करना चाहिए ।

उसने कहा है कि – ”मनुष्य मानवता और पशुता के अंशों से मिलकर बनता है । अतः राजा को इन दोनों के साथ व्यवहार करने के उपायों का ज्ञान होना चाहिए । राजा को एक नम्बर का जोगी व बहुरूपिया होना चाहिए । उसे भाड़े के सिपाहियों पर कभी निर्भर नहीं रहना चाहिए, उसे अपनी विश्वास पात्र सेना रखनी चाहिए । राजा को दयालु अवश्य होना चाहिए लेकिन उसे ध्यान रखना चाहिए कि कोई उसका अनुचित लाभ ना उठा सके ।”

राज्य की श्रेष्ठता:

मैक्यावली ने राज्य को समस्त मानव सेवा में सबसे अधिक श्रेष्ठ बतलाया है । अरस्तू की भांति ही वह कहता है कि मानवकल्याण का राज्य से बढ़कर कोई दूसरा साधन नहीं हो सकता । मनुष्य जब अपने व्यक्तित्व को राज्य में विलीन कर देता है तभी वह राज्य के अस्तित्व को बनाए रखने में सफल होता है ।

राज्य का सर्वथा स्वतंत्र अस्तित्व है । राज्य अन्य सेवाओं से बिल्कुल अलग व श्रेष्ठ संस्था है । राज्य किसी के प्रति उत्तरदायी नहीं है । मनुष्यों की भांति राज्य की कोई नैतिक अथवा आचारिक संहिता नहीं है ।

राज्यों का वर्गीकरण:

मैक्यावली ने राज्यों का नहीं वरन् सरकारों का वर्गीकरण किया है । उसके शासन तंत्र का आदर्श किसी कल्पना पर नहीं वरन् सफलता पर टिका था । अरस्तू की भांति उसने समस्त शासनतंत्रों तथा उनके भ्रष्ट स्वरूपों को छह वर्गों में विभक्त किया है ।

रोमनों की भांति उसने भी मिश्रित शासनतंत्र को उचित माना है । जिसमें तीनों वर्गों के तत्वों का सम्मिश्रण है । तीनों तत्वों के मिश्रण से मिश्रित शासन तंत्र पर भली भांति नियंत्रण भी बना रहता है व शक्ति संतुलन भी बना रहता है । सम्पत्ति व राजसत्ता का घनिष्ठ संबंध है । धन, राजसत्ता के शक्ति संकलन में योग देता है ।

यदि राज्य का कोई बहुसंख्यक वर्ग ऐसा है जिसके आर्थिक हितों की उपेक्षा की जाती है तो उस राज्य में असंतोष होना स्वाभाविक है । जो वर्ग राज्य की समस्त सम्पत्ति पर अधिकार किये बैठा हो वह असंतोषी वर्ग को दबाने की चेष्टा करेगा और अपनी सत्ता से चिपका रहेगा ।

मैक्यावली ने ‘प्रिंस’ में एक ऐसे राजा की कल्पना की है जो सर्वशक्तिमान हो और सभी देशवासियों को एकता के सूत्र में पिरो सके । राजतंत्र की अपेक्षा गणतंत्रीय व्यवस्था आसानी से बदली जा सकती है । उसमें व्यक्ति की स्वतंत्रता भी सुरक्षित रहती है । निर्वाचित राजतंत्र ही समकालीन इटली की जरूरत है । शासनतंत्रों का स्वरूप समय के अनुकूल बदलते रहना चाहिए ।

राज्यों के प्रकार व उनकी प्राप्ति:

आज तक जितने प्रकार के राज्यों, रियासतों अथवा उपनिवेशों के अधीन लोग रहते आये हैं और आज भी रह रहे हैं वे सभी या तो लोकतांत्रिक पद्धति के शासन थे, या फिर किसी राजे-रजवाड़े की निजी सम्पत्ति । नये हाथों में जाने वाली रियासतों में कुछ ऐसे व्यक्ति भी राजा बनते हैं जो पहले कभी राजा नहीं थे । उन्हें प्राप्त करने वाला शासक कभी अपने बाहुबल से उनको प्राप्त करता है और कभी दूसरों की सहायता से, कभी भाग्यवश तो कभी कौशल से ।

प्रत्येक वस्तु परिवर्तनशील है और वह लगातार बदलती रहती हैं । इसलिए राज्य भी परिवर्तनशील है और वह भी बदलता रहता है । ज्यों-ज्यों राज्य जीर्ण होता जाता है त्यों-त्यों उसकी बुराईयां बढ़ती जाती है और सुधार की जरूरत पड़ती है ।

इस प्रकार मैक्यावली निम्नलिखित दो परस्पर विरोधी तत्वों के बीच समन्वय स्थापित करता है- शक्तिशाली नरेश या राजा, और स्वशासन योग्य जनता ।

मैक्यावली का मानना है कि गणतंत्र या राजतंत्र कोई भी शाश्वत नहीं है । वह गणतंत्र को आदर्श शासनतंत्र मानता है किंतु चूंकि मानव स्वभाव के कारण ऐसा राज्य संभव नहीं है इसलिए वह राजतंत्र की ओर झुक जाता है । इस प्रकार वह राज्यों का वर्गीकरण गणतंत्र व राजतंत्र में करता है ।

राजतंत्र:

मैक्यावली ने राजतंत्र को पैतृक और कृत्रिम राजतंत्र में विभक्त किया है । पैतृक राजतंत्र में राजा वंशानुगत आधार पर सिंहासनासीन होता है जबकि कृत्रिम राजतंत्र वह शासन है जो शत्रु को पराजित करने के बाद कोई दूसरा राज्य उसे परास्त राज्य पर लादता है । राजतंत्रों की स्थापना एक राजा द्वारा अथवा उसमें वृद्धि दूसरे को परास्त करने से होती है ।

मैक्यावली ने इन नव-संस्थापित राज्यों के पाँच प्रकार बताये हैं:

1. वे राज्य जो किसी प्राचीन राज्य के अंग हों

2. वे राज्य जो धर्म पर आधारित हों

3. जो अपहरण या चालाकी द्वारा स्थापित हों

4. वे राज्य जो दान में प्राप्त हों

5. वे राज्य जो पराक्रम द्वारा हस्तगत किए गये हों ।

प्रिंस के अध्ययन में हम उन देशों के राजतंत्रों को ही देखते हैं जो आपसी फूट के शिकार होते हैं, जिनके निवासी चरित्रहीन, भ्रष्ट हो । जहाँ अनैतिकता की पराकाष्ठा व भ्रष्टाचार हो । मैक्यावली ऐसे राज्य को आदर्श मानता है ।

गणतंत्र:

प्रिंस में यदि मैक्यावली ने राजतंत्र का गुणगान किया है तो डिस्कोर्सेज में उसने गणतंत्र की प्रशंसा की है । डनिंग का मत है कि ”अरस्तू की भांति उसका झुकाव गणराज्य व्यवस्था की ओर है और इस संबंध में उसके विचार यूनानियों से मिलते हैं ।” मैक्यावली गणराज्य को अनेक कारणों से राजतंत्र से उत्कृष्ट मानता है ।

1. जहां राजतंत्र में एक व्यक्ति या उसका परिवार शासन का लाभ उठाता है, वहाँ गणतंत्र में सभी व्यक्तियों को शासन में भाग लेने का पूर्ण अधिकार प्राप्त होता है ।

2. एक राजा की अपेक्षा समग्ररूप में जनता अधिक समझदार होती है । जनता में राजा की अपेक्षा अधिक बुद्धिमता और दृढ़ता पाई जाती है । जनता के निर्णय राजा से अधिक परिपक्व होते हैं ।

3. सरकार स्थायी होती है । जनता के हाथ में बागडोर होने से देश तेजी से उन्नति करता है ।

4. गणतंत्रात्मक राज्यों में विदेशों के साथ की गई संधियाँ अधिक स्थाई होती हैं ।

5. राजा राजनीतिक और कानूनी संस्थाओं की स्थापना करने में भले ही अधिक सफल हो लेकिन उन्हें बनाए रखने की क्षमता सामान्यतः गणतंत्रात्मक शासन में ही अधिक होती है ।

वह जनता को राजा से अधिक बुद्धिमान मानता है । ह्यूम ने लिखा है कि मैक्यावली के इन विचारों से हम यह परिणाम निकाल सकते हैं कि गणतंत्र अन्य प्रकार के शासनतंत्रों से अपेक्षाकृत अधिक स्थायी होता है । मैक्यावली ने गणतंत्र के दोष भी गिनाए हैं और उनके निवारण के उपायों का भी निर्देश किया है ।

गणतंत्रात्मक शासन का पहला, दोष यह है कि संकटकाल में वह अधिक सफल नहीं है । दूसरा, दोष यह है कि इसमें प्रायः बड़े अफसर अन्यायी व भ्रष्टाचारी हो जाते है क्योंकि उन पर कोई नियंत्रण नहीं होता, मैक्यावली कहता है कि ऐसे अधिकारियों के लिए दण्ड की व्यवस्था होनी चाहिए ।

तीसरे, दलबन्दी संबंधी दोषों को दूर करने के लिए प्रत्येक दल को विचार अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता दी जानी चाहिए क्योंकि इस पर रोक लगाने से ही असंतोष बढ़ता है । गणतंत्र की सफलता के लिए देश में कई जातियां नहीं होनी चाहिए क्योंकि इससे जातिवाद फैलता है, भाषा व धर्म के विवाद उठते हैं इसके साथ ही शासन में राजनीतिक और सामाजिक परम्पराओं के प्रतिकूल कानून नहीं बनाने चाहिए अन्यथा राज्य के विभिन्न तत्व संघर्षरत होकर राज्य की सत्ता के लिए संकट बन जाएँगे ।

कलीनतंत्र:

राजतंत्र और गणतंत्र के समर्थक मैक्यावली ने कुलीनतंत्र का विरोध किया है । उसका कहना है कि सामंत लोग स्वयं कोई कार्य नहीं करते । वे श्रम की चोरी द्वारा ही अपना जीवन बिताते हैं । उसके मन में कुलीनतंत्र के प्रति गहरी घृणा थी । सामन्तियों को वह निठल्ला व आलसी कहता है ।

सामंतों और धनिकवर्गों के विरूद्ध वह मध्यम वर्ग का समर्थन करता है । मध्यमवर्ग उत्तरदायी होता है और वह अपना हित-अहित समझता है । मैक्यावली ने पोप की भी बडी कठोर आलोचना की है और राजनीतिक दृष्टि से पोपतंत्र को सर्वथा अनावश्यक बतलाया है ।

राज्य का विस्तार:

राज्य के निरंतर विस्तृत होते रहने की जरूरत बतलाते हुए मैक्यावली ने कहा है कि मनुष्य का स्वभाव पारे की भांति है जो बराबर बढ़ता रहता है । उसी प्रकार राज्य को भी विस्तृत होते रहना चाहिए । मनुष्य स्वभाव चंचल है, वह स्थिर नहीं रह सकता । अतएव ऐसी कोई वस्तु शाश्वत या दीर्घजीवी नहीं हो सकती जो स्थिर रहे ।

इस संबंध में उसने रोमन साम्राज्य के पतन का उदाहरण देते हुए कहा है कि उसके पतन का कारण उसकी स्थिरता था । अतः प्रिंस तथा डिस्कोर्सेज में मैक्यावली ने राज्य विस्तार के लिए राजा को साम, दाम, दण्ड, भेद की नीतियों को काम में लाने के लिए कहा है । जरूरत पड़े तो सेना का प्रयोग भी वर्जित नहीं है लेकिन राज्य को सुरक्षा व शांति के लिए अपना भाग बढाते रहना चाहिए ।

राज्य की सुरक्षा:

राज्य को सुरक्षित रखना शासक का पहला कर्तव्य है ।

मैक्यावली ने राज्य सुरक्षा के लिए निम्नलिखित सुझाव दिये हैं:

1. प्रजा की सम्पत्ति की सुरक्षा

2. प्रजा को उचित भाषण व अन्य रचतंत्रताएं देना

3. परम्पराओं, लोकमर्यादाओं व प्रथाओं का सम्मान

4. कम से कम राजस्व वसूल करना चाहिए

5. लुभावनी योजनाएं बनाते रहना चाहिए

6. कला, संस्कृति व साहित्य के विकास पर ध्यान देना चाहिए

7. अत्यंत बलवान सेना रखनी चाहिए

8. राजा को धर्मनिरपेक्ष रहना चाहिए

उसका कहना है कि धर्म मनुष्य को शुद्ध करता है । वह व्यक्ति के लिए धर्म का महत्व समझता है लेकिन धर्म को वह राजनीति से दूर रखने के पक्ष में है ।

राजा के कर्तव्य या शासन कला का सिद्धांत:

मैक्यावली ने बताया है कि किस प्रकार से एक शासक को अपने शासन को संभालना चाहिए और इसके लिए उसको क्या-क्या करना चाहिए ।

1. निष्ठुरतापूर्वक बल का प्रयोग:

यही शायद मैक्यावली द्वारा उसके राजा को दिया हुआ सबसे महत्वपूर्ण उपदेश है । अपनी सत्ता का विरोध करने वालों को कुचल डालने के लिए राजा को बल का प्रयोग करने में निष्ठुर होना चाहिए । अपनी जनता की कठिनाइयों का अल्पमात्रा में ध्यान रखते हुए राजा को अपनी इच्छा बलपूर्वक लागू करनी चाहिए ।

यह नये राजतंत्रों के संबंध में विशेषतया सत्य है- अर्थात्, पुराने गणतंत्रों के संबंध में जिनमें स्वतंत्र शासन का किसी निरंकुश शासक द्वारा तख्ता पलट दिया गया है । वह निरंकुश शासक तानाशाह बन कर ही शासन कर सकता है ।

2. अनुनय-विनय का चतुराई से प्रयोग:

एक बुद्धिमान शासक केवल बल का ही सहारा नहीं लेगा क्योंकि बल का प्रयोग एक अत्यन्त खर्चीला और अकुशल (Inefficient) तरीका है । मैक्यावली दो मुख्य मार्ग सुझाता है जिससे अनुनय-विनय से लोगों को शांति तथा आत्म-समर्पण के मार्ग की ओर सुगमतापूर्वक प्रेरित किया जा सकता है । ये दो मार्ग हैं प्रचार तथा धर्म । इन दो उपायों का व्यवहारिक प्रयोग बल के प्रयोग को अनावश्यक बना सकता है ।

3. निश्चयात्मक रूप से कार्य करना:

जोन्स के शब्दों में मैक्यावली ने अपने काल्पनिक राजा को जो उपदेश दिया है उसे यदि एक ही वाक्य में प्रकट किया जाए तो वह यह है कि विनाश के सुनिश्चित रास्ते से हिचकना है ।

4. एक शक्तिशाली राष्ट्रीय सेना रखना:

एक अच्छे शासक को चाहिए कि अपने राज्य में एक शक्तिशाली और प्रशिक्षित नियमित सेना रखे । यह सेना राज्य के नागरिकों से बनी हो और राजा को कभी भाड़े के सैनिकों पर निर्भर नहीं रहना चाहिए ।

5. युद्ध की कला में निपुण होना चाहिए:

एक सफल राजा को युद्ध की कला तथा यंत्र विद्या दोनों में निपुण होना चाहिए । उसके पास सबसे उच्च कोटि के हथियार होने चाहिए । उसे सैनिक दलों के मनोबल को ऊँचा रखना चाहिए । राजा को संग्राम की कला और कार्य-योजना की पूरी तरह से जानकारी होनी चाहिए ।

6. जनता में लोकप्रिय होना:

राजा को अपनी प्रजा का अनुराग तथा प्रेम जीत लेना चाहिए । उसके पद या ओहदे की एकमात्र मजबूत नींव यही है कि जनता को उसकी आवश्यकता हमेशा महसूस होती रहे ।

7. प्रेम की अपेक्षा भय का पात्र होना चाहिए:

मैक्यावली का कहना है कि जनता के भय का पात्र बनना प्रेम का पात्र बनने की अपेक्षा अधिक अच्छा है । जनता का राजा से प्रेम करना तथा उससे भयभीत रहना दोनों ही उत्तम है परंतु अगर दोनों में से एक का गायब होना आवश्यक है तो यह बेहतर है कि राजा से जनता भयभीत रहे ।

8. प्रजा की सम्पत्ति तथा औरतों से दूर रहना:

जनता की घृणा से बचने का सबसे निरापद उपाय यह है कि राजा किसी भी हालत में अपनी प्रजा की सम्पत्ति अथवा औरतों को थोड़ी-सी भी क्षति न पहुंचाये । ये दोनों विषय ऐसे है जिनके बारे में प्रत्येक मानव अति संवेदनशील होता है ।

जब तक राजा लोगों की सम्पत्ति का हरण और औरतों के साथ दुर्व्यवहार नहीं कर बैठता तब तक वह उनकी घृणा का पात्र नहीं बनेगा । इसीलिए लोगों में यह मानवद्वेषी कहावत प्रचलित है कि आदमी अपनी पैतृक सम्पत्ति के अधिहरण की अपेक्षा पितृ-हत्या को अधिक आसानी से माफ कर देता है ।

9. चरम गोपनीयता का पालन:

राज्य के कार्यों का संचालन करने, योजनाएँ बनाने, संग्राम की योजना बनाने आदि में राजा को चरम गोपनीयता का पालन करना चाहिए । कभी उसकी योजनाओं का भेद खुल गया तो सब मिट्‌टी में मिल जायेगा ।

10. सार्वजनिक उत्साह उत्पन्न करना:

जैसे हम ऊपर विचार कर चुके हैं, सार्वजनिक उत्साह स्वस्थ राज्य का एक अनिवार्य अंग है । इसे उत्पन्न करने के लिए मैक्यावली अपने काल्पनिक राजा को शिक्षा, धर्म तथा प्रचार का सहारा लेने का परामर्श देता है ।

11. आवश्यकता पड़ने पर लोमड़ी और शेर का खेल खेलना:

भ्रष्ट लोगों को शासन के सूत्र में बांधने के लिए मैक्यावली ने प्रबुद्ध तानाशाही (Enlightened Tyranny) का समर्थन किया है । उसने लिखा है कि शासक को सामान्य मनुष्य से भिन्न होना पड़ेगा । इसके लिए उसने यूनानी पौराणिक कथाओं के एक प्रसिद्ध चरित्र ‘नराश्व’ (Centaur) का उदाहरण प्रस्तुत किया है ।

उसका शरीर घोड़े का होता है परंतु उसकी गर्दन पर मनुष्य का सिर लगा होता है । नराश्व की तरह शासक के चरित्र में भी अनेक प्राणियों के गुणों का संयोग अपेक्षित है । शासक को शरीर से शेर की तरह ताकतवर होना चाहिए परंतु दिमाग से लोमड़ी की तरह धूर्त होना चाहिए । इस तरह कुशल नृपति को अपने अंदर शेर ओर लोमड़ी दोनों के गुण पैदा करने चाहिए ।

शेर बहुत बहादुर होता है, परंतु वह फंदे में फँस जाने पर बाहर नहीं निकल पाता । लोमड़ी बहुत चालाक होती है, परंतु वह भेडियों से अपने-आपको नहीं बचा पाती । नृपति को फंदे से बाहर निकलने के लिए लोमड़ी जैसा चतुर होना चाहिए और भेड़ियों को खदेड़ने के लिए शेर जैसा बहादुर होना चाहिए ।

12. अच्छा परोपकारी दिखाई देना:

राजा को यह ढोंग रचना चाहिए कि वह मनुष्य के सभी सदगुणों की खान है । उसे अत्यंत उदार, दयालु, कृपालु, सहृदय, धार्मिक, तथा साहसी होने का प्रदर्शन करना चाहिये ताकि लोगों के मन में उसका सिक्का जम जाए । वास्तव में उसमें ये सभी गुण न भी हों तो भी सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उसे इन सभी गुणों के स्वामी के रूप में प्रतीत होना चाहिए ।

13. अवसरवादी होना:

एक सफल राजा को उच्च कोटि का अवसरवादी होना चाहिए । उसे जानना चाहिए कि उसका न कोई स्थायी मित्र है न कोई स्थायी शत्रु । किसी विशेष परिस्थिति में किसी विशेष व्यक्ति का स्वार्थपूर्ण हित ही यह निर्धारण करता है कि वह मित्र है अथवा शत्रु । अतः राजा के हित यदि उसके किसी तथाकथित मित्र के हितों के विरूद्ध होने लगे तो उसी पल उसे अपना शत्रु घोषित करने में राजा को धर्म-संकट में नहीं पड़ना चाहिए ।

कोई व्यक्ति राजा का मित्र उस हद तक ही हो सकता है जिस हद तक उसके हितों को बढावा देता हो । राजा के व्यक्तिगत हितों के बढ़ाने के सन्दर्भ में ही राजा को अपने मित्रों को चुनना चाहिए ।

14. चाटुकारों से बचना:

मैक्यावली अपने राजा को चाटुकारों से दूर रहने का परामर्श देता है । मैक्यावली जानता था कि जो लोग ऊँचे पद संभालते हैं उनमें खुशामद की सबसे बड़ी कमजोरी होती है, और खुशामद में भी उतना ही मादक प्रभाव होता है जितना शराब में, जो आदमी के अहम को प्रफुल्लित कर देता है और उसकी निर्णय शक्ति को निष्क्रिय कर देता है ।

15. सबकी सुनना परंतु मनमर्जी करना:

मैक्यावली अपने राजा को यह भी उपदेश देता है कि वह हर एक की बात सुने । जो किसी ऐरे-गैरे नत्थू खैरे का परामर्श लेता फिरता है वह जनता का सम्मान खो बैठेगा । उसे अपने परामर्शदाताओं को स्वयं चुनना चाहिए जिनकी संख्या कम हो और जो उनके प्रति वफादार भी हों ।

ऐसे व्यक्तियों को ही अपने निकट आने देना चाहिए जिनकी कठिन परीक्षा ली जा चुकी है और जो परीक्षा के बाद ही योग्य सिद्ध हुए है ।

16. किसी मित्र या शत्रु के प्रति आत्यंतिक दृष्टिकोण धारण करना:

राजा को चाहिए कि वह अपना मित्र या शत्रु बनाने में सावधानी बरते । यदि कोई व्यक्ति राजा का मित्र हो तो उसे उसकी सहायता तथा उसके समर्थन के लिए सब कुछ करना चाहिए । परंतु यदि कोई व्यक्ति राजा का मित्र न हो तो उसे बिलकुल नष्ट करने की चेष्टा करनी चाहिए । उसे अपने शत्रु की शक्ति को कभी कम नहीं आंकना चाहिए । शत्रु को उसके शक्तिशाली बन जाने से पहले ही समाप्त कर देना होगा ।

17. विस्तारवादी होना:

प्रत्येक विवेकी शासक आक्रमक या विस्तारवादी नीति ही अपनाएगा । विस्तारवादी होना किसी भी राजा के लिए स्वाभाविक है । राज्य क्षेत्र बढाने की निरंतर चेष्टा, जो मैक्यावली अपने नरेश को सुझाते है इसलिए आवश्यक बन पड़ती है कि कोई भी राज्य या तो हमेशा बढ़ता रहेगा या घटता रहेगा ।

युद्ध में भी उसे हमेशा आक्रामक ही रहना चाहिए । शासक के कमजोर पहलुओं से जनता का ध्यान भंग करने के लिए राजा को युद्ध का हौवा खड़ा कर देना चाहिए ।

मूल्यांकन:

व्यवहारिक राजनीति और सिद्धांत के क्षेत्र में मैक्यावली का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण है । मैक्यावली ने जिन सिद्धांतों का प्रतिपादन किया उनका समकालीन राजनीतिज्ञों ने बडा विरोध किया । जर्मनी के तत्कालीन सम्राट फ्रैडरिक महान ने तो मैक्यावली द्वारा अनुमोदित नीतियों का न केवल मौखिक विरोध किया अपितु एक पुस्तक भी लिख डाली परंतु मैक्यावली की जिन नीतियों का विरोध किया जाता है उन्हीं का व्यवहारिक राजनीति में अनुसरण सफलतापूर्वक होता है ।

समकालीन इटली ने भले ही मैक्यावली की बात न मानी हो किंतु 350 वर्षों के बाद इटली का राष्ट्रीयकरण हो गया । इससे राजनैतिक क्षेत्र में मैक्यावली के नैतिकता संबंधी दृष्टिकोण का औचित्य स्वयं सिद्ध हो जाता है । गणतंत्र को जन्म देने का श्रेय भी मैक्यावली को ही है । उसी ने सबसे पहले यह कहा कि जनमत शासक के निर्णय से कहीं अधिक उचित होता है, जनता राजा से अधिक बुद्धिमान होती है ।

निष्कर्ष:

मैक्यावली ने अपने बाद के आने वाले अनेक विचारकों को प्रभावित किया । मैक्यावली की महानता का इसी से पता चलता है कि उन्हीं के सिद्धांतों का भूत, भविष्य, वर्तमान में प्रयोग होता आ रहा है ।

मैक्यावली पर अनैतिकता और राजनीतिक हत्याओं के प्रोत्साहन का आरोप लगाया जाता है किंतु मैक्यावली ने स्वयं इसका उतर देते हुए कहा है ”कोई व्यक्ति पुस्तक पढ़कर अनैतिक बन गया हो”, यह मैने कभी नहीं सुना । उसका दोष यही है कि उसने सारी बातें सबके सामने रख दी ।

उसने राजनीतिक नैतिकता को भ्रष्ट नहीं किया, ऐसा तो सदियों पूर्व हो चुका था किंतु उसने जिस निर्ममतापूर्वक उन पवित्र षडयंत्रों का पर्दाफाश किया जो धार्मिक मंत्रोच्चार द्वारा बड़े-बड़े स्थानों में रचे जाते थे, वह प्रशंसा के योग्य है । उसे सच्चे और पक्के देश-भक्त होने और आधुनिक राष्ट्र का नेता होने का श्रेय भी दिया जाना चाहिए ।

सैद्धांतिकता के विरूद्ध व्यवहारिकता की ओर उसके तीव्र सुझावों ने निस्संदेह राजनीति दर्शन को मध्य युग के पाण्डित्यपूर्ण अस्पष्टवाद से बचाने में बहुत योगदान दिया और इस कारण उसे महान् कार्यकारणवादियों में सर्वश्रेष्ठ नहीं तो प्रथम कार्य-कारणवादी अवश्य स्वीकार किया जाना चाहिए ।