मध्य युग के राजनीति-विचारकों में सेंट ऑगस्टाइन, सेंट टॉमस एक्विनास, और मालियों ऑफ पादुआ के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं ।

1. सेंट ऑगस्टाइन (St. Augustine):

ओरेलियस ऑगस्टाइन (354-430) पांचवीं शताब्दी के शुरू के प्रसिद्ध मसीही राजनीति-दार्शनिक थे । उनका जन्म आज के अल्लीरिया में हुआ, उसने उत्तरी अफ्रीका और रोम में लेटिन अलंकारशास्त्र (Latin Rhetoric) का प्रशिक्षण प्राप्त किया और इसी विषय का प्रोफेसर बना ।

मिलान के बिशप एम्ब्रोस से मिलने के बाद ऑगस्टाइन ने लेटिन अनुवादो के माध्यम से नव-प्लेटोवादी दर्शन का अध्ययन किया और 386 ई में मसीही धर्म को अपना लिया । वह स्वयं हिप्पो के ऑगस्टाइन (Augustine of Hippo) नाम से भी प्रसिद्ध हैं । वह पहले ऐ२ने विचारक थे जिन्होंने मसीही विश्वास के अनुसार राज्य के उद्देश्य और भूमिका की नई परिभाषा दी ।

राज्य के प्रति मसीही दृष्टिकोण:

ADVERTISEMENTS:

ऑगस्टाइन के जीवनकाल में मसीही धर्म के इतिहास में महत्वपूर्ण घटनाएँ घटीं । चौथी शताब्दी के अंतिम दौर में रोम के सम्राट कांस्टेंटाइन ने मसीही धर्म को रोम के सरकारी धर्म के रूप में अपना लिया । फिर, 410 ई. में कुछ बर्बर जातियों ने रोम पर आक्रमण करके उसे पराजित कर दिया ।

बहुदेववादियों (Pagans) ने रोम के पतन का कारण यह बताया कि वही उनके पुराने देवी-देवताओं की पूजा बद कर दी गई थी और मसीही धर्म राज्य की रक्षा के प्रति उदासीन था । ऑगस्टाइन ने अपनी प्रसिद्ध कृति ‘City of God’ (413-425) के अंतर्गत इन बहुदेववादियों के तर्क का उत्तर देने का प्रयत्न किया ।

इसमें उसने राज्य के प्रति मसीही दृष्टिकोण का विस्तृत विवेचन किया, और चर्च तथा राज्य के उपयुक्त संबंध पर प्रकाश डाला जो ऑगस्टाइन के बाद अनेक शताब्दियों तक राजनीति-दर्शन में चर्चा का मुख्य विषय रहा ।

पुराने राजनीति-दार्शनिक राजनीतिक समस्याओं को समझने के लिए राजनीति के क्षेत्र से आगे बढ़कर तत्वमीमांसा की सहायता तो लेने लगे थे परंतु ऑगस्टाइन पहले ऐसे राजनीति-दार्शनिक थे जिन्होंने लौकिक और धार्मिक क्षेत्रों के बीच सीमा-रेखा खींचकर राजनीति-दर्शन की उपयुक्त सीमाओं की समस्या सामने रखी ।

ADVERTISEMENTS:

ये क्रमशः राज्य और चर्च के क्षेत्र थे जिनमें अतर करना जरूरी था । ऑगस्टाइन ने अरस्तू की तरह यह स्वीकार किया कि राज्य स्वतंत्र मनुष्यों के ऊपर स्वतंत्र मनुष्यों का शासन है प्रकृति की मांग इसे मनुष्य के लिए जरूरी बना देती है; इसका सही सरोकार न्यायपूर्ण व्यवहार और उत्तम आचरण से है परंतु उसने यह स्वीकार नहीं किया कि मानव जीवन की सार्थकता के लिए राज्य की नागरिकता ही पर्याप्त है ।

ऑगस्टाइन ने राज्य की उत्पत्ति पाप और पाप भावना से नहीं मानी (जैसा कि उसके कुछ व्याख्याकार बताते हैं), बल्कि उसने यह विचार प्रस्तुत किया कि जो राज्य लालसा और अहंकार पर टिका होता है, वह ‘स्वतंत्र मनुष्यों पर स्वतंत्र मनुष्यों का शासन’ नहीं रह जाता, बल्कि उसमें शासक अपनी प्रजा को दास बनाकर उस पर अत्याचार करने लगते हैं ।

केवल ऐसे राज्य की उत्पत्ति पाप और पाप भावना से होती है । मतलब यह कि राज्य संस्था अपने-आप में बुरी नहीं है; अच्छे और बुरे राज्य की अलग-अलग पहचान होती है । आदम के पाप के कारण मनुष्य आत्मरति (Self-Love) के जाल में फँस गया है, और आत्मज्ञान तथा आत्मसंयम से वंचित हो गया है ।

इससे संसार में लड़ाई-झगड़े और अशांति पैदा होती है । राज्य की स्थापना ईश्वर की स्वीकृति से हुई है ताकि वह यथा संभव सांसारिक शांति कायम रख सके । सामान्य राज्य की परिभाषा ‘स्वतंत्र मनुष्यों पर स्वतंत्र मनुष्यों के शासन’ के रूप में देकर ऑगस्टाइन ने सत्तावाद-विरोध की पुष्टि की जो आगे चलकर पश्चिमी राजनीति-दर्शन का मुख्य सिद्धांत बना ।

ADVERTISEMENTS:

दो नगरों की संकल्पना:

ऑगस्टाइन के अनुसार मानव-इतिहास दो तरह के नगरों के परस्पर संबंध की क्रमिक अभिव्यक्ति है- पार्थिव नगर और दिव्य नगर । ‘पार्थिव नगर’ के निवासियों में स्वार्थ या आत्मरति की प्रधानता रहती है; ‘दिव्य नगर’ के निवासियों में ईश्वर-प्रेम की । ‘पार्थिव नगर’ का इतिहास इस लोक का इतिहास है; यह मनुष्य के राजनीतिक जीवन का वृतांत है ।

‘दिव्य नगर’ का इतिहास मोक्ष का इतिहास है; यह ईश्वर के साथ मनुष्य के संबंध का इतिहास है । यह बात ध्यान देने की है कि ऑगस्टाइन के ये दोनों नगर क्रमशः ‘राज्य’ और ‘चर्च’ के समवर्ती नहीं हैं, अर्थात् उसका अभिप्राय यह नहीं कि राज्य ‘पार्थिव नगर’ का प्रतीक है, और चर्च ‘दिव्य नगर’ का ।

वह राज्य की अवमानना नहीं करना चाहता था बल्कि उसने यह शिक्षा दी कि राज्य के भीतर रह कर कर्म करना ‘दिव्य नगर’ के नागरिकों का कर्तव्य है, केवल उन्हें वहाँ की बुराईयों-लालसा और अहंकार से बचना चाहिए । केवल ‘ईश्वर के कृपापात्र ही राज्य को उसके उपयुक्त साध्य, अर्थात् लौकिक सर्वहित की ओर ले जा सकते हैं । ईश्वर और दिव्य कानून की उपेक्षा करने पर राज्य में इस साध्य की सिद्धि का कोई भी प्रयत्न अवश्य विफल हो जाएगा ।

निष्कर्ष:

पश्चिमी राजनीतिक चिंतन के इतिहास में ऑगस्टाइन को सिसरो (106-43 ई॰पू॰) के बाद और टॉमस एक्विनास (1225-74) से पहले का सबसे महान विचारक माना जाता है । उसने धार्मिक प्रभुत्व के युग में राज्य की सही-सही भूमिका और स्थान की पहचान की, और राज्य तथा चर्च के परस्पर संबंध को सही परिप्रेक्ष्य में रखकर देखने का प्रयत्न किया ।

यह ऐसा मुद्दा था जो उसके बाद शताब्दियों तक राजनीति-दर्शन का मुख्य विषय बना रहा । उसे आधुनिक राजनीति-दर्शन और चिरसम्मत राजनीति-दर्शन के बीच के पुल की आधारशिला कहा जाता है ।

उसके युग में जब धार्मिक मान्यताओं के दबाव के कारण राज्य को ‘अशुभ’ माना जाने लगा था, तब उसने राज्य के ‘शुभ’ और ‘अशुभ’ रूपों में अंतर स्पष्ट किया, और राज्य की खोई हुई प्रतिष्ठा को कुछ शर्तों के साथ फिर से स्थापित करने का बीडा उठाया परंतु जैसा कि उस युग में स्वाभाविक था, उसने राज्य की प्रतिष्ठा बढाने के लिए चर्च की प्रतिष्ठा को और भी बढाने का प्रयत्न किया ।

उसके बाद कहीं तेरहवीं शताब्दी में आकर सेंट टॉमस एक्विनास ने राज्य के स्वरूप और भूमिका को एक नए दृष्टिकोण से देखा, और ऑगस्टाइन की स्थिति से थोडा हटकर कुछ कहने का प्रयत्न किया ।

2. सेंट टॉमस एक्विनास (St. Thomas Aquinas):

सेंट टॉमस एक्विनास (1225-74) मध्ययुग का सबसे महान धर्ममीमांसक (Theologian) थे । तेरहवीं शताब्दी के मध्य में अरस्तू की अमर कृति ‘Politics’ का लैटिन अनुवाद प्रकाशित हुआ, जो कई शताब्दियों से अज्ञात रही थी । एक्विनास इससे बहुत प्रभावित हुए ।

उन्होंने अरस्तू के दर्शन को मसीही धर्म की मान्यताओं के साथ समन्वित करके धर्मशास्त्रीय, नैतिक और राजनीतिक सिद्धांतों की ऐसी प्रामाणिक प्रणाली विकसित की जो रोमन कैथोलिक शिक्षाओं का आधार बनी ।

प्राकृतिक कानून का सिद्धांत:

अपनी प्रसिद्ध कृति ‘Summa Theologia’ (1266-73) के अंतर्गत एक्विनाल ने चार तरह के कानून की पहचान की:

(1) शाश्वत कानून (Eternal Law);

(2) प्राकृतिक कानून (Natural Law);

(3) दिव्य कानून (Divine Law);

(4) मानवीय कानून (Human Law) या सकारात्मक कानून (Positive Law) ।

इसकी व्याख्या करते हुए एक्विनास ने यह संकेत दिया कि शाश्वत कानून ईश्वर का कानून है जो सृष्टि के मूल उद्देश्य या ध्येय के बारे में ईश्वर की सूझ-बूझ और योजना को व्यक्त करता है । अतः वे सब कानून जो सदविवेक के अनुरूप हों, शाश्वत कानून से ही प्राप्त होते हैं । प्राकृतिक कानून उन सिद्धांतों में निहित हैं जिन्हें विवेकशील प्राणी स्वभाव से ही मान्यता देते हैं, और उनका पालन करते हैं ।

दूसरे शब्दों में, यह शाश्वत कानून का वह अंग है जो सांसारिक स्तर पर मनुष्य के विवेक में प्रकट होता है । दिव्य कानून ईश्वर के धर्मादेशों में निहित है जिनका ज्ञान धर्म-ग्रंथों के माध्यम से प्राप्त होता है । यह मनुष्य के मार्गदर्शन के लिए प्राकृतिक कानून के पूरक की भूमिका निभाता है ।

अंततः मानवीय कानून या सकारात्मक कानून उन विशिष्ट कानूनी अधिनियमों में निहित है जिन्हें विवेकशील प्राणी अपनी संस्थाओं के उपयुक्त प्रशासन के लिए बनाते हैं ।

इन चार तरह के कानूनों में एक्विनारन ने प्राकृतिक कानून की भूमिका पर विशेष बल दिया है । प्राकृतिक कानून केवल मनुष्य की विशेषता है जो उसे अज्ञान से परे रहने और अपने सहचरों को कोई हानि न पहुँचाने की प्रेरणा देता है । अतः सब मनुष्यों के लिए सत्य और न्यायोचितता का एक ही मानदंड है जो सबको समान रूप से विदित होता है ।

कुछ विचारक यह मानते हैं कि सकारात्मक कानून उन रिक्त स्थानों की पूर्ति कर देता है जहाँ प्राकृतिक कानून मौन हो । इसके विपरीत एक्विनारन यह मानते हैं कि प्राकृतिक कानून इतना समृद्ध है कि उससे संपूर्ण सकारात्मक कानून प्राप्त किए जा सकते हैं ।

एक्विनास का एक और महत्वपूर्ण योगदान यह है कि उसने प्राकृतिक कानून की संकल्पना को अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के क्षेत्र में लागू करने का प्रयत्न किया । उसने यह तर्क दिया कि धरती के सारे राजा या शामक दिव्य सत्ता के प्रति उत्तरदायी हैं । फिर उसने राज्यों के बीच न्यायपूर्ण व्यवहार के नियम निर्दिष्ट किए ।

‘न्यायपूर्ण युद्ध’ की परिभाषा देते हुए उन्होंने इसके दो पक्षों पर विशेष बल दिया:

(1) ऐसा युद्ध जो न्यायपूर्ण ध्येय की पूर्ति के लिए शुरू किया जाता है; और

(2) ऐसा युद्ध जो शत्रुओं के बीच ‘न्यायपूर्ण व्यवहार’ के बुनियादी सिद्धांतों के अनुसार चलाया जाता है ।

इस तरह एक्विनास ने अंतर्राष्ट्रीय कानून के एक महत्वपूर्ण पक्ष के विकास का पूर्व-संकेत दे दिया ।

राजनीतिक समुदाय का स्वरूप:

एक्विनास ने राजनीतिक समुदाय या राजनीतिक समाज के बारे में सेंट ऑगस्टाइन के निराशावाद का त्याग करके अरस्तू के इस विचार का समर्थन किया कि राज्य का अस्तित्व सदजीवन के लिए है, और सर्वहित अपने-आप में व्यक्तिगत हित से भिन्न भी है, और श्रेष्ठ भी ।

एक्विनास्न ने यह स्वीकार किया कि राजनीतिक समुदाय एक प्राकृतिक संस्था है जो तर्कबुद्धि या विवेक पर आधारित है । यह मनुष्य के पाप का फल नहीं है, जैसा कि कुछ धर्ममीमांसक मानते थे । एक्विनास के अनुसार, यदि मनुष्य कभी पाप न करता तो भी राज्य-संस्था विद्यमान होती ।

उसने अरस्तू के प्रभाव से यह स्वीकार किया कि मनुष्य अपने-आपमें अपूर्ण है; राज्य उसे पूर्ण बनाता है । राज्य में प्रत्येक व्यक्ति और संपूर्ण समुदाय के बीच वही संबंध पाया जाता है जो किसी वस्तु के अंश और पूर्ण वस्तु में पाया जाता है । राज्य ‘पूर्ण समुदाय’ है ।

राज्य का संविधान तभी वैध होता है जब प्रत्येक कानून शासक की तर्कबुद्धि से अधिप्रेरित हो ताकि वह कानून प्रजा को प्रभावशाली ढंग से सदगुण की राह पर ले जाए । एक्विनास यही तक मानते हैं कि राज्य मनुष्य के सांसारिक अस्तित्व की सार्थकता और सिद्धि का साधन है परंतु राज्य की सत्ता असीम नहीं है ।

यदि सरकार अत्याचार पर उतर आए तो प्रजा को उसका विरोध करने का अधिकार है । फिर, धर्म के मामले में राज्य अपनी सत्ता का दावा नहीं कर सकता । इस तरह एक्विनास ने राज्य और चर्च के बीच सत्ता के विभाजन का समर्थन किया । चर्च या धार्मिक सत्ता शासकों के मामले में अपना निर्णय दे सकती है परंतु उनके लिए विधि-निर्माण तब तक नहीं कर सकती जब तक एक शासक स्वयं प्राकृतिक कानून का उल्लंघन न करने लगे ।

संपत्ति और व्यापार:

यूरोप में बारहवीं शताब्दी तक यह विचार प्रचलित था कि निजी संपत्ति की उत्पत्ति मनुष्य के पाप से हुई है । आदर्श समाज में तेरे-मेरे का कोई भेद नहीं होगा; सब वस्तुएं सबकी साझी होंगी । उस शताब्दी के उत्तरार्ध में विधिवेत्ता यह तर्क देने लगे थे कि संपत्ति का स्वामित्व तो साझा होना चाहिए, परंतु साधारणतः उसका प्रयोग निजी स्तर पर होना चाहिए ।

एक्विनास ने अरस्तू के चिंतन से प्रभावित होकर यह स्वीकार किया कि निजी संपत्ति मानव-समाज के व्यवस्थित संचालन के लिए आवश्यक है । भौतिक वस्तुओं का स्वामित्व मनुष्यों के लिए स्वाभाविक है, अतः निजी संपत्ति की अनुमति होनी चाहिए परंतु, सीमित आवश्यकताओं की पूर्ति और सीमित लाभ रख लेने के बाद किसी के पास जो अतिरिक्त संपत्ति रह जाए, उस पर निर्धन वर्ग का प्राकृतिक अधिकार है, अतः उसका उपयोग सामान्य हित में होना चाहिए परंतु यदि धनवान् अपने इस कर्तव्य का पालन नहीं करते, और कोई निर्धन व्यक्ति भूख से मर रहा हो, तब वह अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिए पराई चीज उठा लेता है, तो इसे ‘चोरी’ या ‘पाप’ कहकर निंदा का विषय नहीं बनाना चाहिए ।

परंपरागत धार्मिक दृष्टिकोण संपत्ति की तरह व्यापार के प्रति भी अनुकूल नहीं था । धर्मग्रंथों के आधार पर यही तक कहा जाने लगा था कि सच्चा ईसाई सौदागर नहीं हो सकता । एक्विनास ने यह पाया कि व्यापार के प्रति अरस्तू का दृष्टिकोण भी उतना अनुकूल नहीं था जितना संपत्ति के प्रति था ।

अरस्तू ने लिखा था कि व्यापारी का जीवन और नैतिक उत्कृष्टता एक साथ नहीं निभ सकते । अतः एक्विनास ने भी व्यापार का बहुत सीमित समर्थन किया । उसने लिखा कि व्यापार पर आधारित राज्य की तुलना में आत्मनिर्भर राज्य श्रेष्ठ होता है, फिर भी सौदागरों को राज्य से बिल्कुल बाहर नहीं निकाला जा सकता ।

राज्य में कुछ वस्तुओं की कमी और कुछ वस्तुओं की अधिकता हो सकती है । अतः व्यापार जरूरी हो जाता है परंतु किसी राज्य में सौदागर जितनी थोड़े हों उतना अच्छा ।

निष्कर्ष:

एक्विनास ने जिस युग में अपना चिंतन प्रस्तुत किया, उन दिनों यूरोप में आर्थिक गतिविधि बढ़ रही थी परंतु धार्मिक सत्ता के प्रभुत्व के कारण नई संस्थाओं की वैधता का आधार ढूंढना जरूरी था ।

एक्विनास ने अरस्तू के चिंतन में ऐसा तर्कसंगत आधार ढूंढ लिया, और धार्मिक मान्यताओं को भी कोई प्रबल चुनौती नहीं दी । उसने धार्मिक चिंतन के नैतिक पक्ष और अरस्तू के चिंतन के तार्किक पक्ष को बड़ी कुशलता से मिलाकर अपने युग की समस्याओं का व्यावहारिक समाधान प्रस्तुत कर दिया ।

3. माश्रींलियो ऑफ पादुआ (Masrielio of Padua):

मार्सीलियस या मारर्नीलियो ऑफ पादुआ (1275-1343) मध्य युग के अंतिम दौर का इतालवी विचारक था । उसने अरस्तू धर्मसूत्रवादियों और अन्य वृत्तकारों के विचारों का कुशल प्रयोग करके एक विस्तृत सैद्धांतिक ढांचा प्रस्तुत किया । इसके अंतर्गत लोकप्रिय प्रभुसत्ता के विचार को इतने सुलझे हुए ढंग से रखा गया था कि उसमें आधुनिक राजनीतिक चिंतन का पूर्वसंकेत मिल जाता है ।

यह बात ध्यान देने की है कि मध्य युग में चर्च की सत्ता प्रधान थी; राज्य की सत्ता गौण रह गई थी । मारर्नीलियो ने सबसे पहले गणतंत्रवाद का नारा बुलंद किया, और चर्च की तुलना में राज्य का वर्चस्व स्थापित करके आधुनिक राज्य की संकल्पना को बढावा दिया ।

पोप की सत्ता का खंडन:

मारर्नीलियो ने अपनी विख्यात कृति ‘Defensor Pacis -1324’ के अंतर्गत पोप की सर्वोपरि सत्ता पर प्रबल प्रहार किया । मध्य युग में यह मान्यता प्रचलित थी कि लौकिक शासकों (Secular Rulers) को न केवल धर्म संबंधी (Ecclesiastical) मामलों में, बल्कि लौकिक (Temporal) मामलों में भी पोपतंत्र (Papacy) के अधीन रहना चाहिए, ताकि पोप ही उन्हें स्थापित करे, उनकी जांच करे, और जरूरी हो तो उन्हें अपने पद से हटा दे ।

इसके विपरीत मार्सीलियो ने यह सिद्ध करने का बीड़ा उठाया कि पोपतंत्र और पुरोहित-वर्ग (Clergy) को न केवल लौकिक मामलों में, बल्कि आध्यात्मिक मामलों में भी सर्वसाधारण के अधीन रहना चाहिए । चूंकि लौकिक शासक सर्वसाधारण की ओर से सत्ता का प्रयोग करता है, इसलिए पोपतंत्र और पुरोहित-वर्ग को सभी लौकिक मामलों में लौकिक शासक के अधीन रहना चाहिए ।

सर्वसाधारण की सर्वोपरि सत्ता के सिद्धांत को ही मार्सीलियो ने ‘गणतंत्रवाद’ के रूप में मान्यता दी । पुरोहित-वर्ग की शक्ति विविध संस्कार संपन्न करने और दिव्य कानून की शिक्षा देने तक सीमित रहनी चाहिए परंतु उसके इन कार्यों का विनियमन और नियंत्रण भी सर्वसाधारण और उनकी निर्वाचित सरकार के हाथों में रहना चाहिए ।

मारर्नीलियो ने तर्क दिया कि यदि पुरोहितवर्ग साल शासन संभालने का दावा करता है तो वह राज्य को नष्ट कर देगा । राज्य ही आर्थिक, सैनिक, सरकारी और पुरोहितीय मामलों को संभालने की क्षमता रखता है जो कि ‘जीवन और सदजीवन’ दोनों के लिए सर्वथा आवश्यक है ।

अरस्तू से प्रेरित होकर मारर्नीलियो ने यह विचार व्यक्त किया कि राज्य मनुष्य को ‘यथेष्ट जीवन’ प्रदान करता है । इसमें ‘सामान्य हित’ और न्याय दोनों की सिद्धि निहित है । मार्सीलियो के अनुसार, राज्य तभी बचा रहेगा, जब उसकी सारी शक्तियाँ एक ही स्रोत से प्रवाहित हों ।

यदि उसमें एक से अधिक प्रतिस्पर्धी संगठन इन शक्तियों का दावा करेंगे तो राज्य और समाज नष्ट हो जाएंगे । मारर्नीलियो के इस तर्क से प्रभुसत्ता के सिद्धांत का पूर्व संकेत मिलता है जिसे बाद में फ्रांसीसी विचारक ज्यां बोन्दा (1530-96) ने विकसित किया ।

सकारात्मक कानून की संकल्पना:

राज्य मनुष्यों को न केवल ‘सद्‌जीवन’ और ‘यथेष्ट जीवन’ प्रदान करता है, बल्कि वह बल-प्रयोग का एकमात्र साधन है । मार्सीलियो ने संसार का ध्यान इस ओर खींचा कि मसीही धर्म के अंतर्गत पुरोहित-वर्ग को बल-प्रयोग से दूर रहने की शिक्षा दी गई है परंतु बल-प्रयोग के बिना संसार चल नहीं सकता ।

मनुष्य सर्वगुणसंपन्न नहीं है, अतः उनमें संघर्ष पैदा होना स्वाभाविक और अनिवार्य है । इन संघर्षों को नियमित और शांत करने के लिए बल-प्रयोग जरूरी होता है, अन्यथा समाज ही नष्ट हो जाएगा । केवल राज्य ही ऐसी संस्था है जो बल-प्रयोग करने में समर्थ है ।

फिर, कोई भी नियम या कानून सच्चे अर्थ में तब तक कानून नहीं बनता जब तक मनुष्य रूप में कोई विधायक उसे कानून के रूप में प्रख्यापित न कर दे । यही सकारात्मक कानून की संकल्पना है । मार्सीलियो के अनुसार, इस धरती पर ‘दिव्य कानून’ को भी तब तक लागू नहीं किया जा सकता जब तक उसे सकारात्मक कानून के रूप में व्यक्त नहीं कर दिया जाता ।

इस धरती पर सचमुच का कानून ‘विधायक’ की इच्छा की अभिव्यक्ति होता है । विधायक संपूर्ण समुदाय के नागरिकों का प्रतिनिधि होता है । मार्सीलियो के अनुसार, विधि-निर्माण की प्रक्रिया के साथ जितने ज्यादा लोग जुड़े होंगे, उसके न्यायपूर्ण होने की संभावना उतनी ही उज्जल होगी, क्योंकि साधारणतः सारे नागरिक राज्य को सुरक्षित रखने में तत्पर होते हैं और वे ‘सामान्य हित’ को पहचानने की क्षमता रखते हैं, कोई इक्के-दुक्के, मन-के-मैले या जड़बुद्धि लोग ही इसका अपवाद होते हैं । इस तरह मार्सीलियो की चिंतन प्रणाली के अंतर्गत ‘विधायक’ शब्द ‘सर्वसाधारण’ का ही पर्याय है ।

निष्कर्ष:

मार्सीलियो के अनुसार – सरकारी अधिकारियों के मामले में हम बल-प्रयोग का अधिकार उन्हीं व्यक्तियों को देते हैं जिन्हें सर्वसाधारण ने चुना हो । पुरोहित-वर्ग के मामले में यह जानने का कोई तरीका नहीं है कि उसे ‘दिव्य कानून’ के प्रवर्तन के लिए ‘ईश्वर’ ने नियुक्त किया है ।

अतः पुरोहित-वर्ग को कोई समानांतर राजनीतिक सत्ता प्रदान नहीं की जा सकती, यहाँ तक कि धार्मिक मामलों में भी उसे बल-प्रयोग का अधिकार अपने-आप नहीं दिया जा सकता । इस संसार के नियमों के अनुसार, धार्मिक मामलों में भी पुरोहित-वर्ग अपनी शक्ति का प्रयोग तभी कर सकता है जब उसकी नियुक्ति लोक सहमति या सार्वजनिक निर्वाचन के द्वारा की गई हो- उस पोप के द्वारा न की गई हो जो स्वयं एक गुटतंत्र (Oligarchy) के द्वारा चुना जाता है ।

मार्सीलियो ने तर्क दिया कि स्वयं पोप की सत्ता को तभी कोई मान्यता दी जा सकती है जब उसका निर्वाचन संपूर्ण मसीही जगत के द्वारा किया जाए ।

इसके अलावा, ‘दिव्य कानून’ की व्याख्या करने वाली महापरिषदों का चुनाव भी सर्वसाधारण को करना चाहिए । मार्सीलियो ने न केवल राज्य के लिए, बल्कि चर्च के लिए भी परंपरागत राजतंत्रीय या गुटतंत्रीय ढांचे की जगह गणतंत्रीय ढांचे का समर्थन किया । इस तरह उसने ‘गणतंत्रवाद’ और ‘लोकप्रिय प्रभुसत्ता के सिद्धांतों को बढावा दिया ।