थॉमस हॉब्स और उनकी राजनीतिक विचार | Thomas Hobbes and his Political Thought in Hindi.
राज्य की उत्पत्ति से संबंधित समझौतावादियों में हॉब्स का प्रथम स्थान आता है जो एक अंग्रेज राजनीतिक विचारक था । हॉब्स के समय में इंग्लैण्ड संक्रमणकालीन अवस्था से गुजर रहा था । वहाँ गृहयुद्ध की स्थिति थी, जिसका काफी प्रभाव हॉब्स के राजनीतिक तथा सामाजिक जीवन पर पड़ा ।
अगर ये कहा जाए कि उसके सारे विचार उसी परिस्थिति की देन है जिसमें वह पला बढ़ा तो कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है । गृहयुद्ध में जब चार्ल्स प्रथम को फाँसी की सजा दी गई तो इस घटना का बहुत गहरा प्रभाव हॉब्स के जीवन पर पड़ा । इसी आधार पर उसने राज्य के संबंध में अपना विचार व्यक्त किया ।
हॉब्स ने प्राकृतिक अवस्था का वर्णन करते हुए मानव प्रवृत्ति का नकारात्मक वर्णन किया तथा एक ऐसे शासनधारी की स्थापना की जो अपने जीवन की सुरक्षा के साथ-साथ मूर्ख, अज्ञानी तथा स्वार्थी जनता को भी प्रतिबंधित कर सके और शासन को स्थायित्व दे सके ।
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हॉब्स की रचनाएँ:
1. De Cive – 1642
2. De Corpore – 1642
3. Leviathan – 1651
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4. Elements of Law – 1650
1. राज्य की उत्पत्ति संबंधी सिद्धांत (Principles of the State’s Origin):
हॉब्स राज्य की उत्पत्ति को मानव प्रकृत्ति और उसकी आवश्यकताओं की देन मानता है और कहता है कि यदि मनुष्य स्वभाव से ही शांतिपूर्ण होता और बिना किसी सर्वोच्च शक्ति के ही रह लेता तो शासन की आवश्यकता ही नहीं होती लेकिन मनुष्य ऐसा नहीं है, वह अपनी भावनाओं और अपने संवेगों को नियंत्रण में नहीं रख सकता, उसकी स्वार्थी वृत्तियाँ संघर्ष के बीज बोती रहती हैं ।
अतः स्वभावतः एक ऐसे व्यक्ति या व्यक्ति समुदाय की आवश्यकता पड़ती है जो मनुष्यों को नियंत्रण में रखकर उनको अनुशासनबद्ध करें । विवेकी आदेशों का मनुष्यों से समस्त पालन कराने और उनके उल्लंघन का दण्ड देने के लिए किसी सबल शक्ति का होना जरूरी है जिसमें इतनी सामर्थ्य हो कि वह ”मानव भावनाओं से उस भाषा में बात कर सके जिसे वे समझते हैं और वह है, भय तथा स्वहित की भाषा” ।
ऐसी सामान्य सत्ता की स्थापना के लिए यह आवश्यक है कि अनेक इच्छाओं के स्थान पर एक इच्छा का प्रभाव स्थापित करने के लिए प्राकृतिक नियम के अनुसार सब व्यक्ति अपने अधिकारों और शक्तियों को एक व्यक्ति या व्यक्ति सभा को प्रदान करें, वे अपनी सम्पूर्ण इच्छाएँ एक व्यक्ति की इच्छा को समर्पित कर दे ।
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हॉब्स ऐसी सत्ता अथवा शक्ति सिर्फ राज्य में पाता है जो समस्त व्यक्तियों की इच्छाओं की प्रतिनिधि होती है और जिसमें यह सामर्थ्य होता है कि वह सबसे विवेक के अनुसार आचरण करावे और ऐसा न करने वालों को दण्ड दे । हॉब्स के मतानुसार राज्य एक सामाजिक समझौते के फलस्वरूप अस्तित्व में आता है । राज्य की स्थापना का वर्णन ”लेवियाथन” के 18वें अध्याय में इस प्रकार है ।
”एक राज्य की स्थापना तब होती है जब अनेक व्यक्ति एक दूसरे से यह समझौता करते हैं कि समस्त व्यक्ति उस व्यक्ति अथवा व्यक्ति समूह के कार्यों को अपना कार्य समझेंगे जिसे उनके अधिकांश भाग ने अपना प्रतिनिधि चुना है ।”
यह समझौता इस प्रकार हुआ है मानो प्रत्येक व्यक्ति ने प्रत्येक व्यक्ति से यह कहा हो कि – ”मैं इस व्यक्ति को या व्यक्तियों के इस समूह को अपना शासन स्वयं कर सकने का अधिकार और शक्ति इस शर्त पर समर्पित करता हूँ कि तुम भी अपने इस अधिकार को इसी तरह समर्पित कर दो ।”
इस तरह सारा जन समुदाय एक व्यक्ति में संयुक्त हो जाता है । इसे ‘राज्य’ या ‘सिविटस’ कहते हैं । हॉब्स के अनुसार यही उस महान् ‘लेवियाथन या देवता’ का जन्म है जिसकी कृपा पर, अविनाशी ईश्वर की छत्रछाया में हमारी शांति तथा सुरक्षा निर्भर है ।
हॉब्स कहता है कि इस समझौते के बाद सबके अधिकार किसी विशिष्ट व्यक्ति या समुदाय को प्राप्त हो गये और वह प्रभुसत्ता सम्पन्न हो गया और अन्य उसकी प्रजा । चूंकि प्रभुसत्ताधारी उस समझौते में किसी दल के रूप में नहीं था इसलिए उसके अधिकार असीमित ही रहे ।
इस समझौते में कोई शर्तें नहीं थी क्योंकि शर्तें होने से अनिश्चित और अविश्वास की भावना उत्पन्न हो सकती थी जिससे झगड़े होने की सम्भावना उत्पन्न हो सकती थी और उसका निपटारा न होने पर पुन: अराजकता फैल जाती और प्राकृतिक अवस्था फिर से उत्पन्न हो जाती ।
अतः अब प्रजा को प्रभुसत्ता द्वारा निर्मम अत्याचार करने पर भी विरोध करने का अधिकार नहीं रहा, क्योंकि शासन के विरूद्ध जाने का अभिप्राय प्राकृतिक अवस्था की ओर लौटना था जो हो नहीं सकता था, अतः उसकी सत्ता और इच्छा अन्तिम रही ।
2. समझौते की विशेषताएँ : प्रभुसत्ता का स्वरूप (Characteristics of the Agreement: Nature of Sovereignty):
हॉब्स के समझौते की विशेषताओं में हम निम्नलिखित बिन्दुओं पर ध्यान देगें:
1. समझौते के भागीदार किसी प्रकार के दल या संस्था नहीं हैं वे प्राकृतिक अवस्था में रहते हुए वे व्यक्ति हैं जो समाज तथा प्राकृतिक अधिकारों का उपभोग करते रहे हैं । यह संविदा किसी प्रवर और अवर के बीच अथवा एक प्रभुसत्ता सम्पन्न शासक के बीच की संविदा नहीं है ।
वह समकक्ष व्यक्तियों के बीच का एक समझौता है जिसे वे अपनी स्वतंत्र संकल्प शक्ति से करते हैं । वह एक ऐसी संविदा है जो विवेकपूर्ण परिकलन का परिणाम है, भय का नहीं ।
2. राज्य का प्रभुसत्ता सम्पन्न अधिकारी समझौते की कृत्रिम सृष्टि है । प्रभुसत्ता सम्पन्न अधिकारी की सृष्टि ही है जो सभ्य राजनीतिक समाज और प्रकृति की आदिम अवस्था के बीच भेद करती है । वास्तव में समाज राज्य का परिणाम है और राज्य प्रमुसत्ता सम्पन्न सरकार का परिणाम है जो समझौते के आधार पर सामने आती है । समाज तथा राजनीतिक समाज का उसी रूप में ‘लेवियाथन’ से भिन्न कोई अस्तित्व नहीं है । हॉब्स के अनुसार, राज्य और समाज में तथा राज्य और सरकार में भी अंतर नहीं है ।
3. समझौते के किसी पक्ष के रूप में सम्मिलित न होने से प्रभुसत्ता की शक्ति असीमित और उसके अधिकार निरंकुश हैं । प्रभुसत्ता किसी शर्त के साथ नहीं सौंपी गई है । प्रभुसत्ताधारी ऐसा कोई इकरार नहीं करता कि वह अपनी शक्ति का उपयोग लोगों की इच्छा के अनुसार या उनकी सम्मति से करेगा । अतः यदि वह निरंकुश आचरण करता है तो भी उसे दोष नहीं दिया जा सकता ।
4. प्रभुसत्ता ही विधियों का स्रोत है । नियम या विधि उसका आदेश है । प्रभुसत्ता के आदेशों को अनियमित नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि वह विवेक और नैतिक आचरण का सार है । न्याय करने का, राष्ट्रों तथा अन्य शक्तियों से युद्ध अथवा संधि का अधिकार पूर्णतः प्रभुसत्ता को प्राप्त है । राजकीय अधिकारियों को चुनने और नियुक्ति करने का भी अधिकार उसी को है ।
5. यह समझौता स्थायी है क्योंकि सब लोग अपनी इच्छा से एक राज्य की स्थापना कर सब अधिकार प्रभुसत्ता को सौंप देते हैं । इसलिए उन व्यक्तियों द्वारा प्रभुसत्ता के आदेशों का पालन करना आवश्यक है । अगर ऐसा नहीं हुआ तो समझौते का उल्लंघन होगा । सामाजिक समझौते को रह करने और पूर्ण अराजकता का स्थिति में वापस का उन्हें आदेशों का पालन करने के लिए बाध्य करता है, और प्रभुसत्ता सम्पन्न शासक की शक्तियों को बढाता है ।
हॉब्स कहता है कि देश में क्रांतियाँ हो सकती हैं परंतु वैधानिक ढंग से नियुक्त प्रभुसत्ता सम्पन्न अधिकारी की सत्ता को पदच्युक्त करने का इसके अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है कि सर्व-सम्मति से सभी लोग प्रकृति की अवस्था में वापस लौट जाने का निर्णय करें ।
6. समझौता लागू करते समय तथा उसके बाद भी अल्पमत को बहुमत के आदेशों का पालन करना पड़ता है । बहुमत द्वारा प्रभुसत्ता सम्पन्न अधिकारी के निर्वाचन में अल्पमत को आपत्ति उठाने का कोई अधिकार नहीं है ।
यदि अल्पमत के लोग शासक के चुनाव में राजधर्म विरोधी बने रहेंगे तो उन्हें नागरिक समाज के बाहर ही रहना होगा और बहुमत राज्य के अंग बने रहना पसंद करते हैं तो कहा जा सकता है कि उन्होंने मौन रूप से बहुमत की इच्छा स्वीकार कर ली है । अल्पमत को बहुमत के विरूद्ध विद्रोह करने का कोई अधिकार नहीं है ।
7. समझौते का मूल उद्देश्य आंतरिक या बाह्य अतिक्रमण से व्यक्ति के जीवन की रक्षा करना है । आत्मरक्षा का अधिकार ही हॉब्स के दर्शन का हृदय है । समझौते के समय व्यक्ति अपने जीवन के अधिकार के अतिरिक्त सभी अधिकार प्रभुसत्ता सम्पन्न शासक के हवाले कर देते हैं । अतः प्रभुसत्ता सम्पन्न अधिकारी व्यक्ति के जीवन को क्षति नहीं पहुँचा सकता ।
8. यद्यपि हॉब्स के सामाजिक समझौते के अनुसार प्रमुसत्ता सम्पन्न एक व्यक्ति, दो व्यक्ति या अनेक व्यक्ति भी हो सकते हैं परंतु हॉब्स एक व्यक्ति के शासन को ही अधिक पसंद करता है । वेपर कहते हैं “हॉब्स यह विश्वास करता है कि ‘अन्य पुरूष’ जो समझौते का लाभग्राही है अर्थात् शासन-सत्ता का प्रापक राजा ही होना चाहिए ।
आदमी होने के नाते वह अन्य आदमियों की भांति स्वार्थी होगा, परंतु एक आदमी की विषय शक्ति अनेक आदमियों की विषय शक्ति से सस्ती ही होगी” परंतु हॉब्स की योजना में शासक के व्यक्तिगत पूर्वाग्रह किसी महत्व के नहीं हैं । निरंकुश राज्य के पक्षपाती निरंकुश राजा के नहीं । ”जब तक यह स्वीकार किया जाता है कि ‘लेवियाथन’ के पास निरंकुश शक्ति है तब तक यह प्रश्न कि ‘लेवियाथन’ एक है या अनेक है एक गौण प्रश्न ही रह जाता है ।”
आलोचना:
यद्यपि हॉब्स का सामाजिक समझौते का सिद्धांत सबसे विलक्षण है जिससे उस समय की परिस्थिति की कल्पना की जा सकती है तथापि वह आलोचना से उन्मूक्त नहीं है ।
उसकी आलोचना निम्नलिखित तर्कों के आधार पर की जा सकती है:
1. व्यक्तियों का एक-दूसरे से समझौता उनके लिए स्वतंत्रता का कोई अधिकार पत्र नहीं है । उसके विपरीत हॉब्स के हाथों में वह दासता का एक बंधनपत्र बन जाता है । वे पूर्ण रूप से अपनी स्वतन्त्रता खो बैठते हैं और बदले में उन्हें सिवाय जंजीरों के और कुछ नहीं मिलता ।
2. उसकी आलोचना इस आधार पर भी की जा सकती है कि व्यक्ति अपने शासकों को बदलने का अधिकार हमेशा के लिए छोड़ देते हैं । शासक जो एक बार चुना जाता है, भ्रष्ट सिद्ध हो सकता है परंतु लोग उसे हटा नहीं पायेंगे क्योंकि उन्हें प्रकृति की दशा में वापस लौट जाने का डर रहेगा ।
3. समझौता करते समय सब लोग विवेकपूर्ण निर्णय की शक्तियाँ रखते हैं । वे जानते हैं कि वे क्या कर रहे हैं । वे समझौते के सभी निहितार्थों को भी जानते हैं । वे ये भी जानते हैं कि अपने जीवन की रक्षा के लिए ही उन्होंने समझौता किया है फिर भी यह बात हमारी समझ में नहीं आती कि समझौते को लागू करने के लिए हॉब्स एक सर्वशक्तिमान सत्ताधारी की सृष्टि पर क्यों जोर दे रहे हैं ।
यदि लोग इतने युक्ति-युक्त हैं कि वे अपने हित-अहित पहचान सकते हैं तो एक निरंकुश शासक की स्थापना की आवश्यकता ही क्या थी ? इस संदर्भ में सेबाइन कहते हैं कि – ”कहने के लिए यह एक समझौता है । भली प्रकार देखा जाए तो यह समझौता केवल एक तार्किक रचना है जिसमें वे अपने मनोविज्ञान की समाज विरोधी रचना के प्रति तुलना कर देना चाहते हैं ।”
4. आलोचक कहते हैं कि पहले समाज का आविर्भाव होता है उसके बाद राज्य का और अंत में सरकार का आविर्भाव होता है परंतु हॉब्स के समझौते ने प्रभुसत्ता सम्पन्न सरकार की सृष्टि की है जो उनके मत में राजनीतिक समाज का मूल उद्देश्य है । राजनीतिक समाज सामाजिक पारस्परिकता का आधार है वास्तव में हट इन तीनों शब्दों को एक ही अर्थ देते हैं और वे तीनों को एक ही वस्तु मानते हैं ।
5. हॉब्स की आलोचना इस प्रकार भी की जा सकती है कि वे इस समझौते का सिद्धांत प्रस्तुत करने में असफल रह गये हैं क्योंकि वह यह नहीं बता सके कि यह समझौता जिन्होंने किया है उनकी पीढियों तक भी चलेगा या नहीं अथवा वे भी इसके बाध्यकारी हैं या नहीं क्योंकि यदि उनके उत्तराधिकारियों को इस समझौते का बाध्य नहीं किया तो प्रत्येक पीढ़ी के बाद वे एक नया समझौता करेंगे जो अत्यंत दुष्कर हो सकता है ।
निष्कर्ष:
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि हॉब्स ने अपने व्यक्तियों को केवल दो विकल्प दिये हैं या तो दासता या अराजक समाज संबंधी ऐसा सिद्धांत जो भय या आतंक पर आधारित है, घृणा का पात्र होगा । ऐसा समाज या राज्य चिरकाल तक रह भी नहीं सकता । बल प्रयोग या भय द्वारा राज्य की स्थापना या नींव रखने का अर्थ बालू पर महल खड़ा करने के बराबर है ।
अंत में प्रो॰ वाहन कहते हैं कि हॉब्स के सामाजिक समझौते के सिद्धांत में कठिनाईयों का सामना हमें इसलिए करना पड़ता है कि वे एक विशिष्ट प्रकार की शासन पद्धति अर्थात् निरंकुश राजतंत्रवाद का समर्थन करने पर तुले हुए थे । ऐसी शासन पद्धति को न्यायोचित सिद्ध करने के लिए उन्हें अपनी अन्य दृष्टि से देदीप्यमान सिद्धांत को मोड़ना पड़ा और तथ्यों की मिथ्या व्याख्या देनी पड़ी ।
प्रभुसत्ता का सिद्धांत (Sovereignty Theory):
प्रभूसत्ता, राज्य की असंयमित शक्ति है जिसको विग्रह बल (Coerciveforce) का समर्थन प्राप्त है और जिसका कार्य-क्षेत्र एक नियत प्राकृतिक क्षेत्र के अंदर स्थित सभी संस्थाओं और व्यक्तियों पर है । प्रभुसत्ता की आधुनिक परिभाषा इस प्रकार दी जा सकती है कि वह विधि का निर्माण करने और उसका प्रशासन करने के लिए राज्य का अनियंत्रित एवं सर्वोच्च अधिकार है और जिससे राज्य को पूरा विग्रह बल प्राप्त है ।
यहाँ राज्य के अधिकार और प्रभुसत्ता में कोई अतर नहीं है । प्रभुसत्ता के बारे में हम चाहे जैसे भी विचार दें लेकिन यह सत्य है कि प्रभुसत्ता संबंधी यह विचार हॉब्स से पहले अज्ञात था । अतः हॉब्स को सही अर्थ में ”आधुनिक प्रभुसत्ता-सम्पन्न राज्य का पिता” कहा जाता है परंतु इस अवधारणा का श्रेय बोदों (Bodin) को ही प्राप्त है ।
हॉब्स का प्रभुसत्ता संबंधी सिद्धांत:
हॉब्स प्रभुसत्ता का प्रबल समर्थक है । उसकी प्रभुसत्ता का आधार है सामाजिक संविदा (समझौता) । स्पष्ट या अस्पष्ट किसी भी रूप में हो, संविदा या अनुबंध से ही प्रभुसत्ता प्राप्त होती है । हॉब्स के अपने ही शब्दों में प्रभुसत्ता सम्पन्न अधिकारी वह व्यक्ति है ”जिसके कार्यों से जनसाधारण पारस्परिक प्रसंविदा द्वारा अपने आपको बाध्य मानता है । इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए वह उन सबकी शक्ति और साधनों का उस प्रकार प्रयोग करें कि जिस प्रकार वह उनकी शांति तथा सामान्य रक्षा के लिए समयोचित समझता है ।”
इससे स्पष्ट हो जाता है कि प्रभुसत्ता ऐसे कानून बनाने की शक्ति में निहित है जो सारी प्रजा पर बाध्यकारी है । हॉब्स का ‘लेवियाथन’ अथवा सम्पूर्ण सर्वप्रभुत्व सम्पन्न शासक पूर्णतः निरंकुश है । उसका आदेश ही कानून है । उसका प्रत्येक कार्य न्यायपूर्ण है । प्रभुसत्ता निरपेक्ष, अविभाज्य, स्थाई एवं अदेय है । उसका हस्तक्षेप कार्यों और विचारों पर है ।
बोन्दा ने प्रभुसत्ता पर जो मर्यादाएं लगाई है हॉब्स ने उन्हें हटा दिया है । गैटेल के अनुसार “हॉब्स के अतिरिक्त अन्य कोई ऐसा लेखक नहीं हुआ है जिसने प्रभुसत्ता के बारे में इतना अतिवादी दृष्टिकोण अपनाया हो ।”
अतः हॉब्स के प्रभुसत्ता के सिद्धांत को सही प्रकार समझने के लिए उसकी विशेषताओं को जानना जरूरी है जो निम्नलिखित है:
हॉब्स के प्रभुसत्ता की विशेषताएं:
1. संप्रभुसत्ता अप्रतिबंधित तथा सर्वव्यापक है:
संप्रभु को सर्वसाधारण पर अपरिमित अधिकार प्राप्त है । वह निरपेक्ष है । उसकी विधि निर्माण शक्ति किसी भी मानवीय शक्ति से अप्रतिबंधित है और उसके आदेश सभी पर समान रूप से लागू होते हैं । हॉब्स का मत है कि, ”संप्रभु की घोषणा चूंकि एक बड़े भाग के सहमतिपूर्ण स्वर से होती है । अतः उसे भी जो उससे सहमत नह हैं, शेष से सहमत होना चाहिए अर्थात् उसे सम्प्रभु के सब कार्यों से सहमत होना चाहिए अन्यथा यह न्याय होगा कि शेष उसे नष्ट कर दें ।”
हॉब्स लिखता है कि राज्य में संप्रभु का कोई भी समकक्ष अथवा प्रतिद्वंदी नहीं होता । संप्रभु ही कानूनों का व्याख्याता भी है । प्राकृतिक कानून भी उस पर बंधन नहीं लगा सकते क्योंकि वे वस्तुतः कानून न होकर विवेक के आदेश होते हैं जिनके पीछे किसी विवशकारी शक्ति का अभाव होता है । दैवी कानून भी संप्रभु को प्रतिबंधित नहीं करते क्योंकि वही उनका व्याख्याता होता है ।
2. संप्रभुसत्ता निरंकुश होती है:
हॉब्स राज्य की उत्पत्ति में सामाजिक समझौते का वर्णन करता है और कहता है कि यह समझौता मनुष्यों द्वारा आपस राजनीतिक विचार में किया गया है जिसमें संप्रमुसत्ता शामिल नहीं होती । समझौते में शामिल न होने के कारण वह किसी के प्रति उत्तरदायी नहीं है तथा वह पूर्णतः निरंकुश होती है । अतः स्पष्ट है कि संप्रभु की सत्ता अपार है उस पर कोई प्रतिबंध नहीं होता है और वह निरंकुश होता है ।
3. सम्प्रभु का कोई कार्य अन्यायपूर्ण नहीं हो सकता:
हॉब्स का मत है कि संप्रभुसत्ता का कोई भी कार्य अन्यायपूर्ण नहीं हो सकता क्योंकि वह उन सब व्यक्तियों की प्रतिनिधि होती है तथा उसमें उन सब व्यक्तियों के हित निहित होते हैं जिन्होंने परस्पर समझौता करके उसकी स्थापना की होती है ।
राज्य सत्ता के किसी भी कार्य से अगर किसी व्यक्ति को कष्ट पहुँचता है तो उसमें संप्रभु का कोई दोष नहीं होता, क्योंकि जो कुछ वह करती है उसका अधिकार उसे उस व्यक्ति की ओर से होता है जिसे कोई कष्ट पहुँचा है । हॉब्स ने यह माना है कि संप्रभुसत्ताधारी अनौचित्य पूर्ण कार्य कर सकता है, पर अन्याय या हानि नहीं कर सकता ।
4. संप्रभुसत्ता मतों व नीतियों की निर्णायक एवं नियंत्रक होती है:
हॉब्स के अनुसार संप्रभु शक्ति का अधिकार व्यक्ति के शरीर पर ही नहीं होता वरन् उसके विचारों व विश्वासों पर भी होता है क्योंकि लोगों के विचारों व विश्वासों पर भी समाज की शांति व व्यवस्था निर्भर होती है, जिसे बनाए रखना उसका एकमात्र उद्देश्य होता है ।
5. संप्रभुसत्ता मनुष्य के सम्पत्ति संबंधी अधिकारों व कार्यों का नियमन करती है:
हॉब्स ने बोदी द्वारा संप्रभु पर लगाए गये सम्पत्ति संबंधी बंधन को ठुकरा दिया है । उनके अनुसार संप्रभु ही सम्पत्ति का सृजनहार है क्योंकि वही समाज में शांति और व्यवस्था स्थापित करता है जिसके फलस्वरूप लोग धनोपार्जन कर पाते हैं ।
धन-संग्रह से ही सम्पत्ति का उत्पादन होता है । अतः संप्रभुसत्ता को संपत्ति संबंधी विधायन का अधिकार है । वह संपत्ति का विधाता है तथा करारोपण और प्रजा की संपत्ति लेने तक का अधिकारी है । उसके लिए आवश्यक नहीं है कि वह करारोपण के बारे में जनस्वीकृति ले ।
6. संप्रभुसत्ता अविभाज्य व अपृथक्करणीय होती है:
हॉबर के अनुसार संप्रभु सत्ताधारी की शक्ति को विभाजित नहीं किया जा सकता और न ही उसके किसी भाग को संप्रभु के अतिरिक्त किसी अन्य में निहित किया जा सकता है । उसके विविध अधिकारों के प्रयोग की अंतिम शक्ति उसी में निहित होती है, क्योंकि ऐसा न होने पर शासन कार्य का सुचारू रूप से संचालन संभव नहीं हो सकता ।
7. प्रभुसत्ता की शक्ति किसमें है अथवा इसका प्रयोग कौन करेगा?:
बोदी की भांति ही हॉब्स ने भी शासन-प्रणालियों का अंतर इस बात पर आधारित किया है कि प्रभुसत्ता का निवास कहीं है? यदि प्रभुसत्ता एक व्यक्ति में निहित है तो शासन का स्वरूप राजतंत्र है, कुछ व्यक्तियों में निहित है तो कलीनतंत्र है और सब लोगों में निहित है तो लोकतंत्र है । मिश्रित अथवा सीमित शासन-प्रणाली की बात करना व्यर्थ है क्योंकि प्रभुसत्ता अविभाज्य है ।
हॉब्स ने राजतंत्र को सर्वश्रेष्ठ इसलिए माना है कि प्रथम तो इसमें राजा का और राज्य का वैयक्तिक तथा सार्वजनिक हित एक होता है, एवं द्वितीय इसमें शासन का स्थायित्व अपेक्षाकृत अधिक पाया जाता है । यद्यपि राजतंत्र में कृपा पात्रों को धन और अधिकार देने की प्रवृत्ति होती है, तथापि कुलीनतंत्र और लोकतंत्र गे यह प्रवृत्ति बहुत अधिक बढ़ जाती है ।
हॉब्स के विचारों की आलोचना और मूल्यांकन:
हॉब्स के विचारों को समर्थन मिलना तो दूर रहा, सर्वत्र उसकी तीव्र आलोचना की गई । राजतंत्रवादी, संसदज्ञ, धार्मिक विचारक सभी उसके आलोचक हो गए । ”निरंकुश राजतंत्र के समर्थक उसके व्यक्ति-स्वेच्छा के सिद्धांत तथा दैवी सिद्धांत के निराकरण के कारण संदिग्ध थे । संसद के समर्थक उसकी अमर्यादित अनुदार राजतंत्रीय निष्ठा के कारण नाराज थे । धार्मिक विचारक उसकी धर्म-विरोधी धारणा तथा व्यवस्था से सुख थे । जनतंत्रवादी उसे अनैतिक तथा विचार-भ्रष्ट मानते थे । व्यक्तिवादी राज्य में व्यक्ति-स्वातंज्य और मौलिक अधिकारों की घोषणा के अभाव में उससे भयभीत थे । तर्कवादी उसके सिद्धांतों और बौद्धिकता की अतिशयता (Ultrarationalistic) से खिन्न थे । वैज्ञानिक उसकी बातों को भानुमति का पिटारा समझते थे । मनोवैज्ञानिक उसके मानव-स्वभाव के चित्रण को भ्रामक, अतिरंजित एवं त्रुटिपूर्ण मानते थे । विधि-शास्त्री उसे संकीर्ण, अनभिज्ञ तथा उत्पीड़क मानते थे । लीक और रूसो भी उसके विरुद्ध थे ।”
उसके ग्रंथ ‘लेवियाथन’ की विचारकों द्वारा कटु आलोचना की गई । वाहन का विचार है कि, ”जहाँ तक राजनीतिक चिन्तन के सजीव विकास का प्रश्न है, लेवियाथन एक प्रभावहीन और परिणामहीन (निष्फल) ग्रंथ रहा । वह एक प्रभावपूर्ण वर्णसंकर है जिसमें प्रजनन की कोई सामर्थ्य नहीं है और वह इस उपेक्षा का पात्र भी है ।
क्लेरेडन ने हॉब्स की पुस्तक को जलाकर यही तक कह डाला ”मैंने कभी कोई ऐसी पुस्तक नहीं पड़ी जिसमें इतना राजद्रोह, विश्वासघात और धर्मद्रोह भरा हो ।” मुरे के अनुसार ”हॉब्स की जीवनी लिखने वाले को एक ही समर्थक मिल सका जबकि उसके शत्रु अनेक थे ।”
हॉब्स की आलोचना के बारे में निम्नलिखित तर्क दिये जा सकते हैं:
1. हॉब्स पर प्रथम दोष यह लगाया जाता है कि उसका मानव-स्वभाव का चित्रण अनुचित, अतिरंजित और एकपक्षीय है । हॉब्स द्वारा मनुष्य को असामाजिक और समाज-विरोधी कहना अरस्तू के इस स्वाभाविक सत्य सिद्धांत के विरुद्ध है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है जिस में दया सहानुभूति, सहयोग, प्रेम, त्याग और आत्म-सम्मान जैसे दैवी गुण होते हैं ।
2. हॉब्स की सामाजिक अनुबंध की कहानी नितांत भ्रमपूर्ण है । मनुष्य अपनी स्थिति ठीक करने पर ही किसी प्रकार के समझौते करने की अवस्था में आता है । सामाजिक समझौते की बात तो मनुष्य के अपेक्षाकृत विकसित होने पर ही समझ में आ सकती है । जब मनुष्य पूर्णतः असामाजिक, स्वार्थी, झगडालू और हिंसक हैं तो उनमें समझौते की सामाजिक भावना का उदय कैसे हो गया और वे कानून-प्रिय एवं विनम्र नागरिक कैसे बन गए?
वाहन के शब्दों में – ”हॉब्स का कहना है कि प्राकृतिक अवस्था संघर्ष की वह अवस्था है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति अन्य सभी व्यक्तियों के प्रति युद्धरत रहता है । पशुबल और धोखा इस अवस्था के विशेष गुण हैं । इस स्थिति में गलत, न्याय और अन्याय की धारणाओं के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता । इन सब में कोई पारस्परिक संगति नहीं है लेकिन इसके अवसान की तो इससे कोई संगति हो ही नहीं सकती । यह कैसे माना जा सकता है कि ऐसे गुणों से विभूषित दानव-रूपी व्यक्ति किसी ऐसी अवस्था में प्रवेश कर सकते हैं अथवा प्रवेश करने की इच्छा भी कर सकते हैं कि जिसमें उनकी पूर्व स्थिति एकदम विपरीत हो जाए अर्थात् ऐसी स्थिति या अवस्था जिसमें युद्ध की जगह शांति का साम्राज्य हो, पशुबल और धोखाधडी का परित्याग कर दिया गया हो और सत्य एवं न्याय जिनके आधार हों । जिस तरह एक हब्शी अपना रंग नहीं बदल सकता उसी तरह हॉब्स द्वारा वर्णित रक्त-पिपासु व्यक्ति शांतिप्रिय श्रमिक नहीं बन सकता ।” वाहन की आलोचना में सत्य के गहरे अंश हैं ।
3. हॉबन समाज को अराजकता से बचाने का एकमात्र विकल्प सर्वोच्च एवं निरंकुश शासन-सत्ता को समझता है पर यह धारणा सही नहीं है । उसके सामने मध्ययुगीन यूरोप का इतिहास था जिसमें शासन-सत्ता चर्च एवं राज्य के मध्य विभाजित थी । उस समय संघर्ष होते थे किंतु प्राकृतिक अवस्था सी अराजकता नहीं थी ।
प्राकृतिक दशा की तुलना में स्थिति अत्यंत ही सुधरी हुई थी । उस समय प्रभुसत्ता की अविभाज्यता का सिद्धांत विद्यमान नहीं था । वर्तमान में संयुक्त राज्य अमेरिका में प्रभुसत्ता शासन के तीन प्रधान अंगों में बेटी हुई है, किंतु वहाँ अराजकता नहीं है । आधुनिक इतिहास इस बात का प्रमाण है कि मिश्रित तथा सांविधानिक शासनों में अराजकता नहीं रहती ।
4. राजसत्ता को निरंकुश एवं असीमित रूप से शक्तिशाली बनाए रखने के लिए हॉब्स ने उसे समझौते में सम्मिलित पक्षों से अलग रखा है । तार्किक दृष्टि से ऐसा एक-पक्षीय समझौता असंगत है । समझौता तो सदैव दो पक्षों में होता है । फिर यह समझौता भंग भी नहीं किया जा सकता, यह बात मानव-युक्ति के विपरीत है ।
5. हॉब्स राज्य और सरकार के बीच कोई भेद नहीं करता जबकि ये दो भिन्न सत्ताएँ है । यदि जनता विद्रोह द्वारा किसी निरंकुश राजा का अन्त करने का प्रयत्न करती है तो वह राज्य संस्था की जड पर कुठाराघात नहीं करती । वह केवल सरकार में परिवर्तन करती है । हॉब्स राज्य की स्वेच्छाचारिता और सरकार की स्वेच्छाचारिता में कोई अंतर नहीं देखता ।
6. हॉब्स के अनुसार अराजक दशा के जीवन से भयभीत होकर आत्म-रक्षा एवं शांति की स्थापना के लिए समझौते द्वारा राज्य को जन्म दिया गया । भय और स्वार्थ जैसी हेय-भावनाओं पर राज्यरूपी कल्याणकारी संस्था की नींव खडी करना उचित नहीं कहा जा सकता । वास्तव में राज्य अथवा समाज भय एवं स्वार्थ पर नहीं बल्कि अनुमति, सदभावना, सहयोग एवं सामाजिक हित की भावना पर आधारित है ।
रूसो के अनुसार – हॉब्स का सबसे बड़ा दोष यह है कि वह एकदम निरंकुश शासन स्थापित करता है । उसका कहना है कि ”जो व्यक्ति अपनी स्वतंत्रता का परित्याग करता है वह अपने मनुष्यत्व को भी छोड़ देता है । उसके समझौते से बना हुआ समाज वस्तुतः समाज नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उसमें संपूर्ण जीवन केवल एक ही व्यक्ति ‘लेवियाथन’ में केन्द्रित है और शेष सभी व्यक्ति इस धरती पर निरर्थक भार-मात्र हैं ।”
7. हॉब्स के विधि सम्बन्धी विचार भी अति संकीर्ण हैं । वह विधि के केवल ऊपरी पालन से ही संतुष्ट प्रतीत होता है । लोग चाहे विधि में विश्वास करें या न करें, उन्हें विधि को मानना ही होगा, पर होना यह चाहिए कि लोग विधि में भी विश्वास करें और उसका पालन भी करें ।
हॉब्स की चाहे कितनी भी आलोचना की गई हो, राजनीतिक चिंतन को उसकी महान देन है । वह राजनीतिशास्त्र की विस्तृत और व्यवस्थित पद्धति का निर्माण करने वाला पहला अंग्रेज विचारक है । प्रभुसत्ता का प्रतिपादन चाहे पहले किया जा चुका था, किन्तु एक निरपेक्ष और असीम प्रभुसत्ता का स्पष्ट विवरण सर्वप्रथम उसने ही दिया । प्रभुसत्ता और कानून पर उसके विचार बोदी से आगे बड़े हुए थे ।
उसकी प्रभुसत्ता और विधेयात्मक कानून सम्बन्धी धारणा का ही विकास 19वीं सदी के महान् विचारक जॉन ऑस्टिन ने किया । वास्तव में हॉब्स ने ही प्रभुसत्ता को वह स्वरूप दिया जो आज तक चला आ रहा है । हॉब्स के अनुबंध सिद्धांत द्वारा ही यह सुनिश्चित हुआ है कि राजसत्ता सर्वोपरि है जिसके आदेशों का पालन राज्य के नागरिकों और निवासियों के लिए अनिवार्य है ।
इस मत की व्यावहारिकता से किसी को आपत्ति नहीं हो सकती कि शांति एवं व्यवस्था स्थापित करने के लिए दृढ़ तथा शक्ति सम्पन्न शासन की आवश्यकता होती है ।
हॉब्स ही वह प्रथम विचारक था जिसने राज्य की उत्पत्ति के सिद्धांत का अभिनवीकरण किया । यद्यपि पहले भी अनुबंध द्वारा राज्य की उत्पत्ति का चित्रण किया गया था लेकिन साथ ही इसकी उत्पत्ति को दैवी भी माना जाता था । हॉब्स ने दैवी सिद्धांत के समर्थकों द्वारा प्रस्तुत राज्य के रहस्यात्मक ऐश्वर्यपूर्ण चरित्र को नष्ट-भ्रष्ट करने का महान् कार्य किया ।
उसने ही स्पष्ट रूप से बतलाया कि राज्य दैवी इच्छा का नहीं बल्कि मानवीय इच्छा का परिणाम है । इस प्रकार उसने राज्य को एक मानवीय संस्था घोषित किया । प्राकृतिक विधि की परम्परागत प्रतिष्ठा को समाप्त किया गया है, दैविक ज्ञान की सम्भावना से इन्कार किया गया है और वहाँ केवल स्वतंत्र प्राणी रह गया है जो सामाजिक जीवन के आदेशों का स्वयं अन्वेषी है ।
राजनीतिक व्यवस्था को पवित्र चरित्र से वंचित कर दिया गया है । उसमें अब वह दैविक चमत्कार नहीं रहा तो सन्त पॉल ने अपने इस उपदेश द्वारा कि – ”जो भी शक्ति है, परमात्मा द्वारा प्रदत्त है”, समस्त ईसाइयों के हृदय पर अंकित कर दिया था ।
एक भावुकतायुक्त आकर्षण उस धार्मिक आतंक का स्थान लेता है जिससे शासकों को देखा जाता था । अब राज्य मनुष्य की सृष्टि है और उसका एकमात्र औचित्य उसकी उपयोगिता है । जब राज्य मानव आवश्यकताओं की संतुष्टि में विफल रहता है तो वह अपने उस एकमात्र औचित्य को गँवा देता है ।
हॉब्स की बहुत बड़ी देन उसके व्यक्तिवाद की है । सम्प्रभुतावादी हॉब्स के विचारों में हमें व्यक्तिवाद का प्रबल समर्थन मिलता है । उसने व्यक्ति के कल्याण और उसकी सुरक्षा को साध्य घोषित किया है । उसने राज्य के निरंकुश अधिकार इसीलिए दिए हैं कि वह समाज में शांति स्थापित रखे, व्यक्तियों का जीवन और सम्पत्ति सुरक्षित रखे ।
सेबाइन ने इसीलिए कहा है कि – ”हॉब्स के प्रभु की सर्वोच्च शक्ति उसके व्यक्तिवाद का आवश्यक पूरक (Necessary Complement) है ।” उसने बतलाया कि राज्य का एकमात्र औचित्य उसकी उपयोगिता है । स्मरणीय है कि “हॉब्स कोई जनतन्त्रवादी नहीं था । उसके लिए जनता, सामान्य इच्छा (General Will) अथवा सामान्य हित जैसी किसी चीज का अस्तित्व नहीं है । अस्तित्व केवल मात्र व्यक्तियों का है । उनकी रक्षा करना राज्य का कर्त्तव्य है । उनके निजी हितों का योग ही सामाजिक हित है ।”
हॉब्स के विचारों से उपयोगितावादियों ने बहुत कुछ प्राप्त किया । ”राज्य के व्यक्तियों के परस्पर विरोधी हितों का मध्यस्थ बन कर वह उपयोगितावादियों का पूर्व सूचक बन गया ।”
प्रो. वेपर के अनुसार – ”यह कोई आकस्मिक घटना नहीं है कि कैथम वहाँ भी उसका उतना ही ऋणी है जितना सुख विषयक हॉब्स के विचारों का । आने वाली सन्तति का प्रायः उससे मतभेद रहा है किन्तु यह कहने में कोई अतिशयोक्ति न होगी कि उन्हें उसमें एक ऐसी खान मिली जिसको खोदना उनके लिए श्रेयस्कर है क्योंकि उसमें से एक मूल्यवान धातु निकलती है ।”
हॉब्स का महत्व इस दृष्टि से भी है कि उसने न्याय सम्बन्धी पुरानी मान्यता का खण्डन किया और बतलाया कि न्याय की रचना विधि द्वारा होती है तथा न्याय विधि का प्रतिबिम्ब नहीं है । वास्तव में उसने अपने प्रबल तर्कों द्वारा तत्कालीन राजनीतिशास्त्रवेत्ताओं और विद्वानों को अपनी ओर आकृष्ट किया और उन्हें अपने सिद्धांतों की गहराई में जाने के लिए विवश कर दिया है ।