Read this article in Hindi to learn about the political thought of Vir Savarkar.
विनायक दामोदर सावरकर उत्कट राष्ट्रवादी, क्रांतिकारी और भारत के स्वतंत्रता-संग्राम के यशस्वी सेनानी थे । उन्हें ‘वीर सावरकर’ के रूप में याद किया जाता है ।
उन्होंने बीसवीं शताब्दी के आरंभिक दशकों में इंग्लैंड में शिक्षा पाई जहाँ वे मादाम कामा, लाला हरदयाल और मदनलाल ढींगरा जैसे क्रांतिकारियों के संपर्क में आए और उनके साथ मिलकर उन्होंने क्रांतिकारी गतिविधियाँ चलाई । इन्हीं गतिविधियों के कारण उन्हें पचास वर्ष के कारावास का दंड दिया गया परंतु 1937 में उन्हें मुक्त कर दिया गया ।
इसके बाद उन्होंने लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक की ‘डेमोक्रेटिक स्वराज पार्टी में, और फिर हिंदू महासभा में प्रवेश लिया । उन्होंने हिंदू महासभा में क्रांति की भावना और दृढ़ संकल्प-शक्ति भरने का भगीरथ प्रयत्न किया ।
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सावरकर के मन में हिंदुओं की सांस्कृतिक और दार्शनिक परंपरा के प्रति गहरा अनुराग था । अपनी चर्चित कृति ‘हिंदुत्व’ (1923) के अंतर्गत उन्होंने यह दावा किया कि हिंदू चिंतन में मानवीय चिंतन की सर्वोत्तम उपलब्धियों के दर्शन होते है । सावरकर इस दृष्टिकोण के आरंभिक समर्थकों में थे कि 1857 का सैनिक विद्रोह भारत का पहला स्वाधीनता संग्राम था । उन्होंने इस संग्राम के वीर सेनानियों की अत्यंत सराहना की ।
राष्ट्रत्व की संकल्पना:
भारत के राष्ट्रत्व का विचार सावरकर के राजनीति-दर्शन का केंद्र-बिंदु है । उनका विचार था कि भारतीय राष्ट्रवाद की भौगोलिक अभिव्यक्ति उसकी सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का प्रतिबिंब है । उन्होंने इसकी पहचान ‘हिंदू राष्ट्रवाद’ के रूप में की है । उनकी दृष्टि में, हिंदू वह है जो सिंधु नदी से समुद्र-तट तक की भारत भूमि को अपनी पितृभूमि और पुण्य भूमि मानता है ।
अतः ‘हिंदुत्व’ का विचार केवल उस धर्म का संकेत नहीं देता जिसे हिंदुओं की विशाल जनसंख्या मानती है, बल्कि यह भारत के राष्ट्रत्व का मूल मंत्र है । यह भारत की विशाल जनसंख्या के मन और अंतरात्मा में बसता है । अतः यह विचार इस देश के भीतर और इसके निकटवर्ती क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के विश्वास का आधार है, चाहे वे किसी भी मत के अनुयायी हों ।
सावरकर के शब्दों में – ”हमारे देश के करोड़ों सिक्ख, जैन, लिंगायत, भिन्न-भिन्न समाजियों और अन्य लोगों की दस-दस पीढियों के इतिहास को पलटकर देखे तो पता चलेगा कि उनकी धमनियों में भी हिंदुओं का रक्त बह रहा है । यदि उनसे अचानक यह कहा जाए कि वे हिंदू नहीं रह गए हैं तो वे अत्यंत रुष्ट हो जाएंगे ।”
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हिंदू धर्म के सब संप्रदाय और मत-मतांतर हिंदू संस्कृति की छत्रछाया में पले-बढ़े हैं । हिंदुओं का धर्म हिंदुओं के देश के साथ इतना एकाकार हो गया है कि वह न केवल उनकी पितृभूमि रह गया है, बल्कि उनकी पुण्यभूमि बन गया है ।
हिंदू धर्म की इस विस्तृत अवधारणा के आधार पर वीर सावरकर ने यह मान्यता रखी कि हिंदुओं का बहुमत ही इस राष्ट्र के भावी रूप को निर्धारित करेगा । इस देश के अल्पसंख्यक वर्गों-अर्थात् ईसाई, मुस्लिम, सिर और जैन, इत्यादि को चाहिए कि वे हिंदुत्व के विकास के लिए बहुसंख्यक वर्ग के साथ मिल-जुलकर कार्य करें, और अपने-आपको इस राष्ट्र के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन में आत्मसात् कर ले ।
हिंदू राष्ट्र की पहचान पर बल देते हुए सावरकर ने यह चेतावनी दी कि जिन लोगों ने मामूली फायदे के लिए अपना धर्म-परिवर्तन कर लिया है, उन्हें ‘शुद्धीकरण’ की प्रक्रिया से हिंदू धर्म में वापस आ जाना चाहिए अन्यथा उनके लिए इस पुण्यभूमि में कोई जगह नहीं है । उन्होंने यह घोषणा की कि देश के स्वतंत्रता संग्राम में हिंदुओं को मुख्य भूमिका निभानी है, चाहे मुस्लिम उनका साथ दें या न दें ।
मतलब यह कि मुस्लिम लोगों के सहयोग के बिना भी स्वराज प्राप्त किया जा सकता है । उन्होंने राष्ट्र-निर्माण के कार्य में मुसलमानों और ईसाइयों को बराबर के भागीदार मानने से भी इनकार कर दिया ।
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उनका दावा था कि राजनीतिक सत्ता के हिस्सेदार वही लोग होंगे जो इस देश को अपनी पुण्य भूमि मानते हुए भावात्मक स्तर पर इसके साथ जुड़े हैं परंतु हिंदू लोग देश के नागरिक और राजनीतिक जीवन में तथा सार्वजनिक नियुक्तियों के मामले में आनुपातिक- प्रतिनिधित्व और समतामूलक वितरण के आधार पर अल्पसंख्यक वर्गों के सहयोग को सहर्ष स्वीकार करेंगे । उन्हें योग्यता के आधार पर न्यायपूर्ण प्रतिस्पर्धा में भाग लेने की अनुमति भी रहेगी ।
सावरकर अपने समय की राजनीति में इस बात से चिंतित थे कि एक ओर इंडियन नेशनल कांग्रेस सब तरह के लोगों को अपने साथ मिलाने को आतुर थी, दूसरी ओर सर्व इस्लामवाद का खतरा बढता जा रहा था । उन्होंने तर्क दिया कि इन परिस्थितियों में हिंदुओं को संगठित करना जरूरी था ।
उन्होंने हिंदुओं की एकता को सुदृढ़ करने के लिए जाति-प्रथा जैसी विभाजनकारी प्रवृत्तियों के अंत पर बल दिया और अंतर्जातीय विवाह का समर्थन किया । इस व्यवस्था के अंतर्गत जैन, सिद्ध, आर्य समाजियों और ब्रह्म समाजियों, इत्यादि को भी हिंदू माना जाएगा ।
उन्होंने हिंदुओं को यह प्रेरणा दी कि उन्हें नेतृत्व के संघर्ष में अपने प्रतिद्वंद्वियों को मात देने के लिए शिवाजी के आदर्श का अनुकरण करना चाहिए जिन्होंने अपने संगठन के बल पर मुगलों की ताकत को आगे बढ़ने से रोक दिया था । उन्होंने यह स्वीकार किया कि हिंदुओं और मुसलमानों में अलगाव पैदा करने से भारत की सामाजिक संस्कृति को क्षति पहुँचेगी क्योंकि उसमें इस्लाम का उल्लेखनीय योगदान रहा है, परंतु मुस्लिम जगत की बढ़ती हुई युद्धप्रियता के दौर में अन्य कोई उपाय भी नहीं था ।
निष्कर्ष:
वीर सावरकर ने स्वतंत्रता-सेनानी और क्रांतिकारी के रूप में जो भूमिका निभाई, और देश-हित के लिए जेल की काल-कोठरी में जो लंबा समय बिताया, उसे देखते हुए उनके बलिदान की अनदेखी नहीं की जा सकती परंतु उनके राजनीतिक विचार सदैव तीव्र विवाद के घेरे में घिरे रहे हैं । वे गांधीजी से कभी सहमत नहीं हुए । उन्हें अहिंसा या सब धर्मों की समानता में विश्वास नहीं था ।
उनका विचार था कि अहिंसा के सिद्धांत का पालन केवल दिव्य युग या ईश्वरीय राज्य में किया जा सकता है । वर्तमान युग अच्छाई और बुराई के संघर्ष का युग है; इस संघर्ष के दौरान न्याय को बढ़ावा देने के लिए हिंसा का सहारा लेना जरूरी होगा ।
उन्होंने हिंदुओं और मुसलमानों को समान अधिकार देने में तत्परता नहीं दिखाई । 1939 में उन्होंने हिंदू महासभा की अध्यक्षता करते हुए यह कहा था- ”आइए, हम साहसपूर्वक इस अप्रिय सत्य को स्वीकार करें कि भारत में दो राष्ट्र पाए जाते हैं-हिंदू और मुस्लिम ।”
इस विचार में उन मुस्लिम सप्रदायवासियों के विचारों की प्रतिध्वनि सुनाई देती है जिन्होंने इस देश के टुकडे करने में बढ़-चढ़कर भूमिका निभाई ।
कुछ भी हो, वीर सावरकर का ‘हिंदुत्ववाद’ मानववाद और विश्ववाद के विरुद्ध नहीं था । उन्होंने ‘द वर्ल्ड’ के संपादक जी.ए. अल्केड के नाम एक पत्र में लिखा था- ”मैं राष्ट्रवाद और संघवाद के माध्यम से मानवता की प्रगति का इच्छुक हूँ ।” इसका तात्पर्य यह था कि राष्ट्रवाद का अंतिम लक्ष्य मानववाद को साकार करना है जो संपूर्ण धरती को अपनी मात्रभूमि के रूप में देखता है ।