आर्थिक विकास और प्रदूषण | Economic Development and Pollution in Hindi!
आवश्यकता आविष्कारों की जननी है । ज्यों-ज्यों मनुष्य की आवश्यकताएँ बढ़ती गईं, त्यों-त्यों आविष्कारों ने अपने करिश्मे दिखाने आरंभ किए । इन आवश्यकताओं की तृष्णा को बुझाने के लिए उद्योगधंधों की स्थापना हुई ।
शनैः-शनैः मनुष्य परिश्रम करने के पश्चात् आराम करने लगा और धनाढ्य लोग बिना परिश्रम किए विलास का जीवन बिताने लगे । अत: जितना मनुष्य विलासिता का इच्छुक होता गया, संसार उतना ही मशीनीकृत होता गया । यहाँ तक कि इस औद्योगिकीकरण के कारण अनेक जटिल समस्याएँ सामने आने लगीं । अपनी सुख-समृद्धि के लिए मानव प्रकृति के नियमों का संतुलन बिगाड़ता रहा है ।
आज का पाश्चात्य समाज भी, जो औद्योगिकीकरण एवं विकास की दौड़ में सबसे आगे है, इस समस्या के विकराल रूप को देखकर चकरा गया है । एक समय था जब ऋषियों की भूमि भारत में प्रदूषण नाम की कोई वस्तु ही नहीं थी ।
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संपूर्ण समाज यज्ञ और हवन के धुएँ से सुगंधित रहता था, किंतु आज सभी विकासशील देशों की भाँति भारत में भी राष्ट्र के सामाजिक, आर्थिक और औद्योगिक विकास में जल की आवश्यक मात्रा की उपलब्धि और सफाई का उचित प्रबंध तथा मल का उपचार और निपटान प्रमुख आवश्यकताएँ हैं ।
साथ ही, यदि औद्योगिकीकरण से समाज को अधिकतम लाभान्वित करना है तो औद्योगिक विकास का साथ-साथ व्यर्थ निपटान की समस्या, वायु-प्रदूषण तथा व्यावसायिक संकटों की समस्या सुलझाना भी आवश्यक है ।
हमारे देश की आवश्यकताएँ, विशेषकर इसके आकार और अधिक जनसंख्या के कारण, जटिल हैं । प्रदूषण किसी भी क्षेत्र के साथ पक्षपात करता दिखाई नहीं देता, चाहे वायुमंडल हो या जल अथवा थल, सब ही स्थानों में यह दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है ।
यदि इस समस्या का कोई समाधान नहीं ढूँढ़ा गया तो कहा नहीं जा सकता कि इसका अंत कितना दुःखदायी होगा ? यह सोचकर प्रदूषण की रोकथाम के लिए अनेक दिशाओं में कदम उठाए जा रहे हैं । हाल ही में अमेरिका में एक स्वतंत्र संस्था ‘एनवायरनमेंटल पॉल्यूशन एजेंसी’ (ई. पी. ए.) का गठन किया गया है ।
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इन क्षेत्र-विशेष में भारत के योगदान से पूर्व संयुक्त राष्ट्र संघ के अंतर्गत कार्य कर रही ऐसी संस्था की चर्चा करना आवश्यक है जिसने विश्व के सबसे बड़े संकट के उत्तरदायित्व का भार अपने ऊपर लिया है । यह संस्था संपूर्ण विश्व में भारत के सहयोग से भी कार्य कर रही है ।
अत: जन-स्वास्थ्य की रक्षा करने एवं स्वास्थ्य-स्तर को उन्नत करने के उद्देश्य से विश्व स्वास्थ्य संगठन की स्थापना 7 अप्रैल, 1948 ई. को हुई । यह संस्था संयुक्त राष्ट्रसंघ की आर्थिक एवं सामाजिक परिषद् के अंतर्गत कार्य करती है । इसका मुख्य कार्यालय जेनेवा (स्विट्जरलैंड) में स्थित है ।
इसके सचिवालय में 3,000 से अधिक अंतर्राष्ट्रीय सार्वजनिक कर्मचारी हैं । 12 राष्ट्रों के चिकित्सक, नर्सें एवं इजीनियर मुख्य कार्यालय से विश्व-भर में संघटन का कार्यक्रम बनाते हैं । कार्य की सुविधा के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन ने विश्व के सभी सदस्य राष्ट्रों को छह क्षेत्रीय संगठनों में बाँटा है ।
प्रत्येक क्षेत्रीय संगठन से संबंधित राष्ट्रों को प्रत्यक्ष सहायता देने की जिम्मेदारी क्षेत्रीय कार्यालयों की है, जो ब्राजाविले (अफ्रीका), वाशिंगटन (अमेरिका), अलैक्जैंड्रिया (पूर्वी भूमध्य सागरीय क्षेत्र), कोपेनहैगन (यूरोप), मनीला (फिलीपींस) एवं नई दिल्ली (भारत) में स्थित हैं ।
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विश्व स्वास्थ्य संगठन ने सार्वजनिक स्वास्थ्य संबंधी शिक्षा-संस्थाओं की पहली निर्देशिका सन् 1967 ई. में प्रकाशित की जिसमें डॉक्टरों एवं नर्मों की समस्या पर जोर दिया गया । विश्व स्वास्थ्य संगठन नए संस्थान, विशेष रूप से मेडिकल एवं नर्सिंग महाविद्यालय तथा राष्ट्रीय सार्वजनिक सेवाओं को खोलने के लिए प्रोत्साहन एवं सहायता देता है, शैक्षणिक सम्मेलन तथा प्रशिक्षण पाठ्यक्रम आयोजित करता है ।
इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए संगठन शिक्षावृत्तियाँ एवं प्रशिक्षण-अनुदान देता है । सन् 1955 ई. में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने सर्वप्रथम विश्वव्यापी मलेरिया रोग उन्मूलन का कार्यक्रम आरंभ किया । अब पहले के मलेरियाग्रस्त क्षेत्रों में रहने वाले 78 प्रतिशत व्यक्ति सुरक्षित हैं । अमेरिका, एशिया महाद्वीप अब मलेरिया से मुक्ति पा चुका है । परंतु अब भी सहारा (अफ्रीका) के दक्षिण-स्थित क्षेत्र में लगभग सभी वयस्क एवं आधे से अधिक बच्चे मलेरिया के चंगुल में हैं ।
सन् 1970 ई. में विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा कई पाठ्यक्रम अंतर्राष्ट्रीय मलेरिया उन्मूलन प्रशिक्षण केंद्र मनीला में चलाए गए, जिसमें अल्जीरिया, ब्राजील, लंका, इथोपिया, भारत ईरान, मलेशिया, मेक्सिको, पाकिस्तान, फिलीपींस एवं सूडान राष्ट्रों को सहायता तथा सलाह दी गई ।
सन् 1970 ई. में विश्व-भर में चेचक के केवल 10,000 रोगी थे जबकि सन् 1967 ई. में 1,31,100 रोगी थे, जिनमें से अधिकतर सहारा के दक्षिण-स्थित क्षेत्र में थे । विश्व स्वास्थ्य संगठन के कार्य के फलस्वरूप दुनिया के 30 राष्ट्रों को इस रोग के उन्मूलन में सहायता मिली है ।
हैजा-पीड़ित देशों की सहायता के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन ने आपातकालीन सेवा शुरू की है एवं हैजे के टीके का बैंक खोला है । कोढ़ रोग औद्योगिकीकरण, शहरीकरण एवं रोगी मनुष्यों के आवागमन से कई राष्ट्रों में फैल रहा है ।
सन् 1965 ई. से सन् 1970 ई. के बीच 75 राष्ट्रों में 5,00,000 रोगियों का इलाज किया गया । रोग पर काबू पाने के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 24 राष्ट्रों को आर्थिक एवं तकनीकी सलाह प्रदान की । कैंसर जैसी घातक बीमारी पर विश्व स्वास्थ्य संगठन के कार्य सराहनीय हैं । मद्रास में कैंसर उन्मूलन पर एक प्रायोगिक योजना बनाई गई । छाती के कैंसर पर विश्वव्यापी अध्ययन किया जा रहा है ।
अंतर्राष्ट्रीय कैंसर अनुसंधान संस्था में कैंसर रोग के कारणों एवं उसकी व्यापकता पर कार्य हो रहा है । हृदय रोग के बारे में सन् 1965 ई. में विश्व के 23 औद्योगिक क्षेत्रों में वि. स्वा. सं. द्वारा किए गए अध्ययन से पता चला कि वहाँ पर 90 प्रतिशत मृत्यु हृदय रोग के कारण होती है ।
वि. स्वा सं. क्षेत्र विशेषज्ञों या विशिष्ट जन-समूहों में तथा व्यापक रूप से होने वाले रोगों का अध्ययन तो करता ही है, जानवरों में स्वत: उत्पन्न होने वाली उन दशाओं का अध्ययन भी करता है जो मनुष्य के हृद्-वाहिक रोगों से मिलती-जुलती हैं ।
मानसिक रोगियों के लिए अब सक्रिय उपचार आरंभ किए जा रहे हैं जिनमें प्रायः मनोवृत्तिक (साइकोट्रोपिक) ओषधियाँ प्रयोग की जाती हैं । वि. स्वा. सं. रोग-प्रतिरोध क्षमता विज्ञान (एम्युनोलॉजी) के क्षेत्र में अनुसंधान का एक कार्यक्रम चला रहा है । संक्रमण से रक्षा, एलर्जी, इम्युनोपैकोलॉजी एवं ट्यूर इम्युनोलॉजी की समस्याओं के विषय में अधिक जानकारी प्राप्त की जा रही है । सन् 1970 में वि. स्वा. सं. ने रोगवाहक कीटों के बारे में एक विश्वव्यापी अध्ययन शुरू किया ।
पेस्टीसाइड (कीटनाशी), इनसैक्टीसाइड (कृमिनाशी), डी. डी. टी. एवं अन्य कीटाणुनाशक रासायनिक पदार्थों के प्रयोग को सीमित रखना चाहिए । प्रदूषण एवं इससे होने वाले रोगों के विषय में वि. स्वा. सं. ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि टाइफाइड, हैजा, पेचिश एवं आँतों के अन्य रोग दूषित जल से फैलते हैं ।
भारत में वि. स्वा. सं. के कार्य सराहनीय हैं । भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद के तत्त्वावधान में वि. स्वा. सं. द्वारा रोहा नियंत्रण एवं उसके उपचारों के बारे में अध्ययन करती है । योजना में देश के पंद्रह राज्यों के 2,494 गाँवों के नमूने का सर्वेक्षण किया गया जिससे यह स्पष्ट हुआ कि इस रोग के कारण 80 से 90 प्रतिशत लोगों की नजर खराब होती है ।
सन् 1958 ई. से सन् 1963 ई. के बीच किए गए अध्ययन के फलस्वरूप वि. स्वा. सं. की सहायता से भारत सरकार ने 31 मार्च, 1963 ई. को राष्ट्रीय रोहा नियंत्रण कार्यक्रम प्रारंभ किया । वि. स्वा. सं. के रोहा विशेषज्ञ ने इस कार्यक्रम में सलाहकार के रूप में कार्य किया ।
भारत में पोषण की कमी से होने वाले नेत्र-रोगों एवं अन्य शारीरिक कमजोरियों के बारे में भी वि. स्वा. सं. ने अध्ययन किया है । जे. पी. नारायण अस्पताल, नई दिल्ली के डॉ. वैष्णव ने वि. स्वा. सं. के सहयोग से मधुमेह के विषय में गहन अध्ययन किया ।
वि. स्वा. सं. की सहायता से देश में कई बुनियादी अस्पताल एवं प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र स्थापित किए गए हैं । देश में वि. स्वा. सं. के सहयोग से अन्य रोगों के बारे में भी अनुसंधान कार्य चल रहा है । वि. स्वा. सं. जो एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था है, विश्व की जनता के स्वास्थ्य सुधार के लिए बहुत ही सराहनीय कार्य कर रही है । आज के युग में एक अंतर्राष्ट्रीय संगठन ही इस कार्य को कर सकता है, क्योंकि वैज्ञानिक अनुसंधान एक अंतर्राष्ट्रीय कार्य है ।
वि. स्वा. सं. के उत्साहवर्धक कार्य के कारण समय-समय पर भारत सरकार द्वारा स्थापित समितियों और आयोगों ने सन् 1952 ई. से सन् 1956 ई. के बीच इन अनेक प्रदूषण समस्याओं का सर्वेक्षण किया ओर इनकी गंभीरता की ओर ध्यान आकृष्ट किया ।
अगस्त, 1956 ई. में नई दिल्ली में स्वास्थ्य मंत्रालय के तत्वावधानों में आयोजित जन-स्वास्थ्य इजीनियरों की एक सभा ने उचित मात्रा में जल-प्रदाय तथा वाहित मल निपटान की योजनाओं में संतोषजनक प्रगति व अनुसंधान कार्य करने के लिए एक केंद्रीय अनुसंधान संस्थान की आवश्यकता पर बल दिया ।
राष्ट्रीय पर्यावरणीय इंजीनियरी अनुसंधान संस्थान (नीर), नागपुर की स्थापना की । वास्तविक आवश्यकता उस समय अनुभव हुई जब दिल्ली क्षेत्र में यमुना का पेयजल वाहित मल से संदूषित हो गया । दिल्ली में सन् 1955 ई. में फैले पीलिया रोग का मुख्य कारण पेयजल का वाहित मल से संदूषण ही था इसलिए उस समय से, विशेषकर भारत में, जन-स्वास्थ्य के अंतर्गत वाहित मल में रोगजनक वायरसों तथा उनके नियंत्रण पर ध्यान केंद्रित किया गया है ।
केंद्रीय जन-स्वास्थ्य इंजीनियरी अनुसंधान संस्थान (सीफेरी) की स्थापना मई, 1958 ई. में नागपुर (महाराष्ट्र राज्य) में हुई । इसका नाम अब बदलकर राष्ट्रीय पर्यावरणीय इंजीनियरी अनुसंधान संस्थान (नीरी) कर दिया गया है ।
संस्थान का कार्य जल उपचार तथा वितरण, बाधित मल उपचार एवं निपटान, औद्योगिक व्यर्थ निपटान, वायु-प्रदूषण नियंत्रण, औद्योगिक सफाई यंत्रीकरण, देहातों में सफाई और ठोस व्यर्थों के निपटान से संबद्ध है । संस्थान भारत में ही नहीं, अपितु सारे दक्षिण-पूर्व एशिया में अपने ढंग की एक ही संस्था है ।
इसकी सारे देश में आठ क्षेत्रीय प्रयोगशालाएँ अहमदाबाद, मुंबई, कोलकाता, दिल्ली, हैदराबाद, जयपुर, कानपुर तथा चेन्नई में कार्य कर रही हैं । सन् 1968 व सन् 1969 ई. में वायु-प्रदूषण विभाग ने मुंबई, कोलकाता तथा दिल्ली में सर्वेक्षण किया ।
इस विभाग ने देखा कि यूरोप और उत्तरी अमेरिका की अपेक्षा यहाँ पर धूलि की सांद्रता 2-5 गुणा अधिक है । सन् 1970 ई. से नीरी (भारत) में भी मास्को तथा टोकियो की भाँति वि. स्वा. सं. के अंतर्गत वायु-प्रदूषण के विषय में क्षेत्रीय संदर्भ केंद्र स्थापित किया गया ।
जल-अनुसंधान का क्षेत्र विस्तृत है जिसमें, पेयजल में से अतिरिक्त फ्लोराइड अंश को हटाने के लिए फ्लोराइड हटाने वाली स्वदेशी सामग्री का विकास, जल उपचार में फिटकरी का प्रयोग कम करने के लिए स्वदेशी स्कंदन सहायकों का निर्माण और इस तरह जल-उद्योग में गंधक की खपत कम करना, विभिन्न जलों के तुरंत विसंक्रमण तथा सफाई के लिए क्लोरीन, आयोडीन (डबल एक्शन) गोलियाँ ओर आयातित फिल्टरों के प्रतिस्थापक के रूप में जल तथा वाहित मल में जीवाणुओं के शीघ्र विश्लेषण के लिए संश्लेषित कला फिल्टरों का विकास, लोह और मैंगनीज हटाने वाली यूनिट आयातित मैकोनी ब्राथ के स्थान पर जीवाणु विश्लेषण के लिए स्वदेशी माध्यम का विकास, और निस्पंदन सहायकों का विकास शामिल है ।
इन सभी परियोजनाओं को भारतीय परिस्थितियों के अनुकूल पूर्ण जानकारी ज्ञात कर पेटेंट कर लिया गया है । इस संस्थान (नीरी) ने तंजानिया राष्ट्र के जल में फ्लोराइडों की मात्रा कम रखने के लिए संयंत्र स्थापना हेतु सर्वेक्षण किया है ।
उत्तर तंजानिया के आरुश नामक क्षेत्र के जल में फ्लोराइडों की मात्रा 3 से 18 मि. ग्रा. प्रति लिटर तक पाई गई है । दाँतों को हानि से बचाने के लिए फ्लोराइड लाभकारी तो है, पर पानी में उसकी मात्रा 1.0 मि. ग्रा. प्रति लिटर से अधिक बढ़ जाने पर वे हानि पहुँचने लगते हैं ।
इस संस्थान ने अपने देश में 5,000 से 8,000 गैलन प्रतिदिन क्षमता वाले अनेक संयंत्र स्थापित किए हैं । इसमें डी. फ्लोरीन नामक विधि प्रयुक्त होती है । तंजानिया में इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु डी. फ्लोराइडनेशन संयंत्र लगाने का सुझाव भारत सरकार के समक्ष रखा गया है । संयंत्र इस संस्थान द्वारा भारत में ही निर्मित किया जाएगा । पीने के पानी से फ्लोराइड बिलगाने की दो विधियों नालगोंडा तकनीक ओर टी. डब्ल्यू. ए. डी. (तमिलनाडु वाटर सप्लाई एंड ड्रेनेज) तकनीक विकसित हुई हैं ।
दोनों विधियों का विवरण आगे दिया जा रहा है:
(1) नालगोंडा तकनीक:
यदि थोड़ी मात्रा में पानी को उपचारित करना हो तब यह विधि बहुत उपयोगी होती है । इस विधि के अनुसार बर्तन में रखे पानी में अल्कली (चूना ओर खाने का सोडा), फिटकरी तथा ब्लीचिंग पाउडर मिलाते हैं ।
बर्तन की तली से 3-5 सेंटीमीटर ऊपर एक नल फिट कर देते हैं ओर बर्तन में पानी डालकर सभी रसायन उचित मात्रा में मिलाकर दस मिनट तक पानी को हिलाते रहते हैं । इस तरह एक घंटे में गंदगी नीचे बैठ जाती है ।
ऊपर का साफ पानी निकाल लिया जाता है और गंदगी फेंक दी जाती है । आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु तथा राजस्थान के कुछ गाँवों में इस तकनीक को प्रदर्शित किया जा चुका है । इसका विकास नेशनल एनवायरनमेंटल इंजीनियरिंग रिसर्च इस्टीट्यूट, नागपुर ने किया है ।
(2) टी. डब्ल्यू. ए. डी. तकनीक:
यह विधि तमिलनाडु जल संभरण तथा मल विकास बोर्ड द्वारा विकसित की गई है और उसी संस्था के नाम पर टी. डब्ल्यू. ए. डी. विधि कहलाती है । इससे बड़े पैमाने पर भी पानी में से फ्लोराइड बिलगाए जा सकते हैं । इसके लिए ऐसे यंत्र, पंप आदि का उपयोग करना पड़ता है जिससे कुंओं का पानी एक विशेष बर्तन में पहुँच सके । यहाँ अलग-अलग बाल्टियों में चूना और फिटकरी भरे रहते हैं । ये रसायन पानी में उचित अनुपात में मिलाए जाते हैं ।
फिर रसायन मिश्रित पानी दूसरी नली द्वारा एक गोल टंकी के शंक्वाकार पेंदे में जाता है । इसके पेंदे में नदी के गोल कंकड़ भरे रहते हैं । पानी की गंदगी इन कंकड़ों पर जम जाती है । शुद्ध पानी को टंकी के ऊपर से निकाल लिया जाता है ।
इस विधि की विशेषता यह है कि पानी में चूना-फिटकरी मिश्रण से उत्पन्न गंदगी तैरने के बजाय कंकड़ों के ऊपर बैठ जाती है । इस विधि द्वारा फ्लोराइडों के साथ-साथ पानी एल्युमिनियम लवण (जो फिटकरी के साथ हुई क्रिया से बनते हैं) भी दूर हो जाते हैं । एल्युमिनियम के लवण भी स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होते हैं । इस विधि से फ्लोराइड का स्तर 5 मि. ग्राम प्रति लिटर से शून्य तक लाया जा सकता है ।
अधिक मात्रा में फ्लोराइड होने पर इस विधि को कुछ चरणों में प्रयुक्त किया जा सकता है । विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा प्रायोजित एक परियोजना के अंतर्गत ‘लघु सामुदायिक जल प्रदाय का विसंक्रमण’ नामक एक पुस्तक प्रकाशित की गई है, जिसमें विसंक्रमण की सभी तकनीकों का समावेश किया गया है ।
न्यूयॉर्क स्थित कारनेल विश्वविद्यालय के कृषि वैज्ञानिकों ने जल-मल को साफ करने की एक ऐसी नई प्रौद्योगिकी विकसित की है, जिससे सस्ते में काफी स्वच्छ जल उपलब्ध हो सकता है, यह प्रौद्योगिकी जीवाणु-आधारित है, नई प्रौद्योगिकी के आविष्कारक विलियम जे. जेवेल के अनुसार, अगर आरंभिक अध्ययन व्यापक तौर पर व्यावहारिक साबित हुआ तो जल-मल भी भारी मुनाफा कमाने का एक साधन बन जाएगा । इस नई प्रणाली से भूमि के बजाय पौधे पानी में उगाए जाते हैं ।
जमीन के बदले पौधों के लिए पानी का उपयोग करने से कीचड़ उत्पन्न नहीं होता । पानी वाले पौधों का इस्तेमाल करके जल-मल को स्वच्छ करने के दो दर्जन से अधिक संयंत्र इन दिनों अमेरिका में काम कर रहे हैं । इनमें से अधिकांश दक्षिण अमेरिका में हैं, जहाँ की गर्म पौधों के विकास के लिए उपयुक्त मानी जाती है ।
इस जीवाणु प्रणाली से अधिक पौष्टिक खाद्ययुक्त पौधे उगाये जा सकते हैं और जीवाणुओं से ही भरी मात्र में गैस पैदा की जा सकती है । इस प्रौद्योगिकी का सर्वप्रथम प्रयोग न्यूयॉर्क में नगरपालिका के जल-मल को साफ करने के लिए किया गया था । इस परियोजना में जीवाणु प्रणाली द्वारा साफ किए गए पानी में कैटेलस पौधे उगाए गए ।
तेजी से विकसित होने वाले इन पौधों को यही जीवाणु मीथेन गैस में बदल देते हैं । इससे खाद भी पैदा होती है । न्यूयॉर्क नगरपालिका परियोजना का एक अध्ययन शिकागो स्थित गैस अनुसंधान संस्थान और न्यूयॉर्क राज्य ऊर्जा अनुसंधान और विकास प्राधिकरण की ओर से कराया गया ।
इस प्रौद्योगिकी संयंत्र में प्रतिदिन एक सौ व्यक्तियों की आबादी से उत्पन्न 38,000 लिटर जल-मल का उपयोग होता है । जेवेल के अनुसार इस परियोजना में कैटेलस पौधों का इस्तेमाल इसलिए किया गया है कि वे लगभग सभी हिस्सों में कम लागत वाले प्लास्टिक के ग्रीन हाउसों में सौर ऊर्जा पर निर्भर रह सकते हैं ।
इसका उपयोग ईंधन के रूप में निर्माण तथा पैकेजिंग के काम में और पशुओं के चारे के रूप में किया जा सकता है । गुलाब, घासें, झाड़ियाँ और कई प्रकार के अन्य पौधे प्रदूषित जल से भी पोषण प्राप्त करने में सक्षम हैं । टमाटर, गेहूँ और धान जैसी खाने वाली फसलों को भी यह पानी देकर पैदा किया जा सकता है ।
यद्यपि बहुत-से ऐसे पौधे हैं जो गंदी कीचड़ में बिना ऑक्सीजन उगाए जा सकते हैं, लेकिन जल-मल में शामिल कुछ जहरीले तत्वों का पौधों में अंश न हो, इसके लिए सर्वप्रथम जल-मल का शोधन किया जाता है । इसके लिए प्रदूषित पानी में ‘एनारोबिक’ जीवाणु छोड़ दिए जाते हैं जो ऑक्सीजन-रहित पानी में धीरे-धीरे विकसित होते है ।
ये गंदे पानी में मौजूद गंदगी के कणों को विघटित करके मीथेन गैस में बदल देते हैं । कोलकाता शहर में प्रतिदिन 57 करोड़ लिटर जल-मल उत्पन्न होता है और इसे हुगली नदी में बहा दिया जाता है । कोलकाता शहर का नगर निगम कारनेल विश्वविद्यालय से यह पूछताछ कर रहा है कि क्या भारतीय शहरों द्वारा उत्पन्न मल-जल का शोधन करके सब्जियाँ उगाई जा सकती हैं और मछली पालन किया जा सकता है ?
अगर जेवेल की इस नई प्रणाली को पूरी तरह व्यावहारिक रूप में उपयोग में लाया जा सके, तो हमारी कई समस्याएँ एक साथ कम हो सकती है । पर्यावरण की दृष्टि से मल-जल की सफाई की, खेती में उत्पादन की वृद्धि तथा ऊर्जा और साफ पानी की समस्याएं कुछ हद तक तो सुलझ ही सकती हैं ।
आवश्यकता है इस विषय पर और अनुसंधान की । वाहित माल उपचार की समस्या के समाधान के लिए केवल अनुमानिक आधार पर प्रयोग करना भारतीय परिस्थितियों में संतोषप्रद नहीं है । यह प्रचलित जानकारी मशीनी उपकरणों के कारण खर्चीली बैठती है तथा प्रशिक्षितकर्मी न होने के कारण भी इसमें कठिनाई होती है । संस्थान ने बहुत-सी कम खर्च वाली उपचार विधियों, जैसे स्थिरीकरण पौंड्स पासवीर किस्म की अपचयन खाई, वातित लैगून आदि का कार्य किया है ।
प्रचलित सुविधाओं की तुलना में व्यर्थ स्थिरीकरण पौंड्स कम खर्च वाले तथा सुविधाजनक रहते हैं । यह भारतीय परिस्थितियों के लिए उपयुक्त हैं और संपूर्ण वर्ष-भर अधिक सूर्यप्रकाश उपलब्ध होने के कारण और भी लाभदायक हैं ।
संस्थान ने इस तरह की वाहित मल उपचार की क्रिया में मार्गदर्शन के लिए हाल ही में ‘व्यर्थ स्थिरीकरण पौंड्स : भारत में अभिकल्पन, निर्माण तथा प्रचालन’ पर एक पुस्तक प्रकाशित की है । संस्थान द्वारा किए गए अध्ययनों से पता चलता है कि वहि:स्राव का सिंचाई के लिए उचित उपयोग किया जा सकता है तथा यह सिट्रोनेला तथा मेंथा जैसे तेलों की खेती में काफी लाभदायक होता है ।
इस समय संस्थान में भारत में वाहित मल कृषि में रत कर्मियों के स्वास्थ्य का जायजा लेने का कार्य चल रहा है । विभिन्न प्रकार के संश्लेषित भेषजों का निर्माण करने वाले हैदराबाद स्थित उद्योग से निकलने वाले व्यर्थों के उपचार हेतु संस्थान में अनुसंधान कार्य हो रहा है । यह एक उदाहरण मात्र है ।
इसी प्रकार अन्य विविध उद्योगों से निकलने वाले व्यर्थ पदार्थों के उपचार के लिए संस्थान उचित विधियाँ विकसित करता है । फैक्टरी व्यवस्थापकों ने उक्त डिजाइन को व्यर्थ उपचार के लिए कम खर्चीला तथा अन्य सभी दृष्टियों से स्वीकार कर लिया है ।
संस्थान ने विभिन्न प्रकार के औद्योगिक व्यर्थों, जैसे- उर्वरक, लुगदी ओर कागज, इस्पात संयंत्र, मद्यशालाओं, चीनी, कपड़ा, रेयन, दूध, खाद्य-संसाधन तथा डिव्याबंदी, चमड़ा कमावन, कुछ रसायन तथा ओषधि आदि उद्योगों का वर्गीकरण किया है ओर आवश्यकतानुसार उचित प्राथमिक प्रयोगशालीय ओर आदिप्रारूप संयंत्र के अध्ययन के पश्चात् व्यर्थ पदार्थों के उपचार के लिए कम खर्च वाली विधियाँ विकसित की हैं ।
व्यर्थ उपचार की कीमत कम करने के लिए उपउत्पाद की उपलब्धि पर भी विशेष ध्यान दिया जाता है । संस्थान ने विसकोंस रेयन व्यर्थ से जस्त की उपलब्धि और मद्य निर्माणशाला के व्यर्थ से पोटाश की उपलब्धि जैसी क्रियाओं पर भी कार्य किया है ।
इस शताब्दी के प्रथम बीस वर्षों तक यदि भारतीय चिकित्सा क्षेत्र में उच्च शिक्षा प्राप्त करना चाहता था तो उसे विदेश जाना पड़ता था ऐसी शिक्षा केवल कुछ धनी व्यक्ति ही प्राप्त कर सकते थे । इसके अतिरिक्त विशेषतया जन-स्वास्थ्य के विशेषज्ञों को एक और बड़ी कठिनाई थी । भारत एक उष्णकटिबंध देश है जहाँ जलवायु की विशेषता के आधार पर कुछ विशेष सार्वजनिक रोगों का बाहुल्य है । ये रोग उष्णकटिबंधीय रोग कहलाते हैं ।
इंग्लैंड में, जहाँ बहुधा विद्यार्थी उच्च शिक्षा के लिए जाते थे, जलवायु भिन्न होने के कारण वहाँ के सार्वजनिक रोग भी भारत से भिन्न थे । अत: इस कमी को पूरा करने के लिए सर्वप्रथम सन् 1920 ई. में उष्णकटिबंधीय चिकित्सा शिक्षा संस्थान (स्कूल ऑफ ट्रॉपिकल मेडिसिन) की स्थापना कोलकाता में हुई ।
सन् 1939 ई. सिंगूर (जिला हुगली) में पाँच वर्षों के लिए राकफलेर फाउंडेशन के द्वारा बंगाल प्रांत की सरकार के सहयोग से एक ग्राम्य स्वास्थ्य यूनिट खोली गई । सन् 1944 ई. में इस संस्थान के अंतर्गत ही, सिंगूर में ही, प्रशिक्षण के लिए एक यूनिट स्थापित हुई । तदुपरांत इस ग्राम्य स्वास्थ्य एवं प्रशिक्षण केंद्र (रूरल हैल्थ एंड ट्रेनिंग सेंटर) की मातृ एवं शिशु की स्नातकोत्तर उपाधि सन् 1955 ई. में कोलकाता विश्वविद्यालय की उपाधि में परिणत हो गई ।
सन् 1948 ई. में स्वास्थ्य इंजीनियरी की स्नातकोत्तर उपाधि (मास्टर ऑफ इंजीनियरिंग इन पब्लिक हैल्थ) तथा सन् 1949 ई. में आहार विज्ञान की स्नातकोत्तर उपाधि (डिप्लोमा इन डाइटेटिक्स) की शिक्षा प्रारंभ हुई । ये दोनों ही उपाधियाँ कोलकाता विश्वविद्यालय की हैं । इस संस्थान ने अपने विकास, कर्मतत्परता एवं कार्यकुशलता के द्वारा राष्ट्रीय संस्थान से बढ़कर अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली है ।
प्रशिक्षण के लिए दक्षिण कोलकाता के ‘चेतला’ क्षेत्र में भारत सरकार ने विश्व स्वास्थ्य संगठन तथा यूनीसेफ के सहयोग से एक महत्वपूर्ण प्रसूति एवं शिशु स्वास्थ्य अभियान प्रारंभ किया । यही केंद्र सन् 1955 ई. में विद्यार्थियों के लिए नागरिक स्वास्थ्य विषयक प्रशिक्षण केंद्र बन गया ।
सन् 1951 ई. में शिल्प-श्रमिक स्वास्थ्य विज्ञान की स्नातकोत्तर उपाधि (डिप्लोमा इन इंडस्ट्रियल हाइजीन) तथा सन् 1953 ई. में खाद्य पुष्टि विज्ञान (डिप्लोमा इन न्यूट्रिशन) की शिक्षा की व्यवस्था प्रारंभ की गई । स्वास्थ्य-शिक्षा (हैल्थ एजूकेशन) के कई प्रकार के सर्टिफिकेट कोर्स इस काल में चलाए गए । यह प्रशिक्षण ओर शिक्षा बड़ा ही हितकारी साबित हुआ, क्योंकि इस समय सभी राष्ट्रीय स्वास्थ्य विकास कार्यों में इनकी आवश्यकता थी । इसके अतिरिक्त, कई ओर सर्टिफिकेट कोर्स खोले गए ।
गत दस वर्षों में तीन ओर महत्वपूर्ण स्नातकोत्तर उपाधि के कोर्स ‘स्वास्थ्य शिक्षा’ (डिप्लोमा इन हैल्थ एजूकेशन), ‘चिकित्सा सांख्यिकी’ (डिप्लोमा इन मेडिकल स्टैस्टिक्स) तथा मास्टर ऑफ वेटेरिनरी पब्लिक हैल्थ क्रमश: 1966, 1966, 1970 में आरंभ किए गए ।
दो नए विभाग, निरोधक एवं सामाजिक औषधि (प्रीवेंटिव एंड सोशल मेडिसिन), स्वास्थ्य शिक्षा विभाग एजूकेशन स्वास्थ्य परिचालन विभाग से पृथक् खोले गए । इस समय संस्थान में निम्नलिखित विषयों में एक वर्ष की अवधि से कोर्स की शिक्षा और आवश्यक प्रशिक्षण दिया जाता है- डिप्लोमा इन पब्लिक हैल्थ, डिप्लोमा इन इंडस्ट्रियल हाइजीन, डिप्लोमा इन मैटरनिटी एंड चाइल्ड वेलफेयर, डिप्लोमा इन डाइटैटिक्स, डिप्लोमा इन एजूकेशन, मास्टर ऑफ वेटेरिनरी पब्लिक हैल्थ, लाइसेंस इन पब्लिक हैल्थ, सर्टिफिकेट इन पब्लिक हैल्थ नर्सिंग ।
इस संस्थान में अनुसंधान डॉक्टर ऑफ साइंस (डी. एस. सी.), डॉक्टर ऑफ फिलॉसफी (डी. फिल.) उपाधियों के लिए अनुसंधान शिक्षा में मार्गदर्शन प्राप्त करते हैं । भारत सरकार के तीन केंद्रीय परिवार नियोजन प्रशिक्षण केंद्रों में से एक यह संस्थान भी है ।
इसे पूर्वांचलिक क्षेत्र का परिवार नियोजन प्रशिक्षण केंद्र (रीजनल फैमिली प्लानिंग सेंटर फॉर ईस्टर्न रीजन) के नाम से संबोधित किया जाता है । इसकी स्थापना सन् 1965 ई. में हुई । यह सेंटर अब केवल डॉक्टरों को ही परिवार नियोजन में प्रशिक्षण देता है ।
यहाँ विद्यार्थी न केवल भारत के प्रांतों से वरन् विदेशों से भी अध्ययन करने आते हैं । विदेशी छात्र बहुधा विश्व स्वास्थ्य संगठन या यूनिसेफ की छात्रवृत्ति पर अपने देश की सरकारों द्वारा भेजे जाते हैं । अब तक हजारों से अधिक विदेशी छात्रों ने यहाँ से शिक्षा प्राप्त की है ।
इस संस्थान ने स्वास्थ्य-संबंधी काफी अनुसंधान कार्य भी किए हैं । 30 वर्षों में इस संस्थान ने संक्रामक रोगों जैसे- ज्ञानपदिक जलशोथ (एपीडेमिक ड्रॉप्सी), टाइफस ज्वर व इसके निदान तत्व, प्लेग तथा यक्ष्मा की संक्रामकता, जलशुद्धीकरण ओर व्यर्थ पदार्थों के निपटान (डिस्पोजल ऑफ वेस्ट), पोषण (न्यूट्रिशन), पोषक तत्वों की न्यूनता-प्रभाव और निदान, परिवार नियोजन आदि क्षेत्रों में विशेष उल्लेखनीय कार्य किया ।
इस समय शिल्प श्रमिक स्वास्थ्य परिवार नियोजन, पोषण आदि की अनेक महत्वपूर्ण समस्याओं पर अनुसंधान कार्य किया जा रहा है । व्यावसायिक स्वास्थ्य और कार्य-स्थलों में स्वास्थ्य-विज्ञान संबंधी समस्याओं पर चिकित्सा अनुसंधान के लिए राष्ट्रीय उद्योग स्वास्थ्य-संस्थान 8 नवंबर, 1970 को अहमदाबाद में स्थापित किया गया ।
इस संस्थान ने व्यावसायिक स्वास्थ्य के प्राचीनतम संस्थान सन् 1904 ई. में ‘मिलान’ में स्थापित क्लिनिका डेल लावोरो तथा प्राग, हैलसिंकी स्वीडन, फ्रांस, जर्मनी, रूस, अमेरिका व ब्रिटेन के व्यावसायिक स्वास्थ्य संस्थान से प्रेरणा प्राप्त की है ।
व्यावसायिक स्वास्थ्य संस्थान वैज्ञानिक अनुसंधान के साथ रोग परीक्षा व शिक्षण की व्यवस्था करता है तथा स्वास्थ्य मंत्रालय से प्राप्त अनुसंधान-अनुदान और उद्योग व समाज सुरक्षा संस्थाओं की सेवा से होने वाली आय पर संस्थान निर्भर है । इस संस्थान का एक विश्वविद्यालय एवं मेडिकल कॉलेज व अस्पताल से संबंध होने के कारण इससे लंदन, मिलान, फिनलैंड और स्वीडन के आधुनिक संस्थानों का एक दृष्टांत प्रस्तुत होता है ।
यह संस्थान एक बहुफलक हीरे के समान है और इसमें केवल चिकित्सक की रुचि का ही कार्य नहीं होता वरन् औद्योगिक स्वास्थ्य-विज्ञानी, कार्य का अध्ययन करने वाला शरीर क्रिया-विज्ञानी, औद्योगिक मनोवैज्ञानिक, स्वास्थ्य-विज्ञान इंजीनियर, समाज-विज्ञानी, सूक्ष्म जीव-विज्ञानी भी इसके कार्य में रुचि लेते हैं ।
संस्थान वैज्ञानिक अनुसंधानों ओर चिकित्सकों को, फैक्टरी और खनन कर्मियों और वहाँ की कार्यदशाओं के साथ सीधे संपर्क में लाएगा ताकि विचारों और ज्ञान का आदान-प्रदान हो सके । संस्थान में व्यावसायिक स्वास्थ्य की समस्याओं के सभी पहलुओं पर एक साथ अनुसंधान करने के लिए वैज्ञानिकों का दल एक समन्वित दृष्टिकोण के साथ कार्य करता है ।
किसी भी उद्योग में होने वाले व्यावसायिक रोग के पीछे बहुत-से भौतिक व रासायनिक पर्यावरण संबंधी तथा सामाजिक व मनोवैज्ञानिक कारण होते हैं । अत: यह आवश्यक है कि रोगी-कर्मी के साथ उसके कार्य तथा कारखाने का भी अध्ययन किया जाए ।
भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र, मुंबई ने पर्यावरण के सामान्य तथा रेडियोधर्मी प्रदूषण के बारे में काफी महत्वपूर्ण अध्ययन व तकनीकी विकास-कार्य किया है । इस क्षेत्र में केंद्र द्वारा किया गया अधिकांश कार्य केंद्र के स्वास्थ्य भौतिक विभाग ने किया है ।
प्रदूषण कम करने की तकनीकों तथा उपकरणों का विकास करके केंद्र के व्यर्थ उपचार विभाग ने भी काफी उपयोगी कार्य किया है । विभिन्न उद्योगों के विकास के फलस्वरूप अनेक नए कार्बनिक यौगिकों, रसायनों तथा विषैली धातुओं का प्रयोग उद्योगों में होने लगा है ।
इन विषैली पदार्थों का उद्योगकर्मियों के स्वास्थ्य पर कुप्रभाव पड़ना स्वाभाविक ही है, क्योंकि ये पदार्थ उनके शरीर में ज्यों-के-त्यों उपउत्पाद के रूप में जमा होकर काफी क्षति पहुँचाते हैं ओर अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न करते हैं । इस समस्या के निदान हेतु सन् 1965 ई. में वैज्ञानिक और अनुसंधान परिषद के अंतर्गत लखनऊ में औद्योगिक विष-विज्ञान अनुसंधान केंद्र की स्थापना हुई ।
अध्ययन करने के पश्चात् हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि विश्व के अन्य राष्ट्रों की भांति भारत सरकार भी इस पर्यावरणीय प्रदूषण को लेकर बहुत चिंतित है और जन-स्वास्थ्य के कल्याण हेतु ऐसी अनुसंधानशालाओं, केंद्रों तथा संस्थानों की स्थापना की ओर पूर्णरूपेण जागरूक है ।
हमारा देश भी हर तरह के प्रदूषण की चुनौती स्वीकार करने में समर्थ एवं तैयार है । पर्यावरण में विद्यमान प्रदूषणों अथवा स्वास्थ्य-संकटों के नियंत्रण व रोकथाम के उपायों के लिए उनका समुचित मूल्यांकन करना आवश्यक है । इसके मूल्यांकन के लिए दो प्रकार का सर्वेक्षण किया है ।
एक तो प्राथमिक ओर दूसरा अन्वेषणात्मक । प्राथमिक सर्वेक्षण में सामान्य स्वच्छता, प्रयुक्त कच्चे माल तथा उत्पादों व उपउत्पादों के विषय में पूरी जानकारी, धूलि, धूम, गंध आदि प्रदूषकों के स्रोत, विकिरित ऊष्मा, शोर, अल्प प्रकाश आदि भौतिक कारकों के स्रोत, इन्हें नियंत्रित करने के लिए प्रयुक्त उपायों आदि का अध्ययन किया जाता है ।
अन्वेषणात्मक सर्वेक्षण विस्तारपूर्वक किया जाता है और इसमें इन उपादानों का विशेष अध्ययन किया जाता है- पदार्थ की प्रकृति अथवा वहाँ की दशाएँ, प्रभावन-काल, प्रभावित व्यक्तियों की संख्या, वैकल्पिक प्रक्रमों अथवा पदार्थों की संभावना ओर व्यक्तिगत सुग्राह्यता ।
इन्हीं सर्वेक्षणों के आधार पर विभिन्न उपादानों के प्रभाव में प्रतिदिन रहने पर मनुष्य के लिए उन प्रदूषकों की ग्राह्य परंतु अहानिकर मात्राओं की सीमाएं निर्धारित की जाती हैं जिनसे स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव न हो । परंतु ये सीमाएं सभी व्यक्तियों पर एक समान लागू नहीं होतीं, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति की रोग-ग्राह्यता अलग-अलग होती है ।
सन् 1949 ई. की स्वास्थ्य कमेटी के अनुसार भारत की केवल सात प्रतिशत जनसंख्या के लिए पाइपों द्वारा पेयजल की व्यवस्था थी ओर यह अनुमान किया गया था कि सारे देश के लिए आगे आने वाले चालीस वर्षों में पेयजल की व्यवस्था हो सकेगी ।
विश्व स्वास्थ्य संगठन ओर यूनिसेफ के सहयोग से एक सौ पचास करोड़ रुपया लगाकर पेयजल की व्यवस्था के लिए चार हजार योजनाएँ चलाई गईं । जिनके परिणामस्वरूप सन् 1969 ई. तक 4,10,700 नए कुएँ खोदे गए, 5,54,000 पुराने कुएँ ठीक किए गए और 17,500 गाँवों में पाइप द्वारा पेयजल पहुँचाया गया ।
अनुमान है कि देश के गाँव-गाँव तक पेयजल पहुंचाने के लिए 732 करोड़ रुपए की आवश्यकता होगी । यद्यपि यह राशि बहुत बड़ी प्रतीत होती है, परंतु नागरिकों के स्वास्थ्य एवं जीवन की महत्ता की तुलना में नगण्य है । निस्संदेह जल-प्रदूषण एक राष्ट्रव्यापी विकट समस्या है, लेकिन यदि देश के समस्त नागरिक एवं उद्योग पेयजल को प्रदूषण से बचाने का हरसंभव प्रयत्न करें तो कोई कारण नहीं कि समस्या हल न हो ।
पर्यावरणीय प्रदूषण को रोकना तथा उसका नियंत्रण करना एक जटिल समस्या है । अमेरिका, ब्रिटेन तथा यूरोप के कुछ विकसित देशों में औद्योगिक बहि:स्राव के उपचार की मात्रा निर्धारित करने तथा वायु-प्रदूषण की मात्रा निर्धारित करने के लिए सरकार द्वारा सख्त कानून बनाए गए हैं ।
हमारे देश में भी अब लोगों में इस समस्या के प्रति अधिकाधिक जागरूकता पैदा हो रही है । कुछ समय पूर्व ही महाराष्ट्र सरकार ने एक जल-प्रदूषण नियंत्रण स्वीकार किया था । यह इस दिशा में समाधान हेतु एक दूरगामी प्रभाव वाला बहुत ही सुलझा हुआ कानून है ।
इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु निर्मित एक बोर्ड मानक निर्धारित कर, अन्वेषण करेगा, व्यक्तियों को प्रशिक्षण देगा, आंकड़ें संकलित कर प्रकाशित करेगा, सूचना का प्रचार करेगा, राज्य के सभी जल-प्रदूषण नियंत्रण मंत्रालय क्रियाओं का समन्वय करेगा ओर सरकार को परामर्श देगा ।
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने भी ड्राफ्ट वायु-प्रदूषण नियंत्रण बिल के लिए एक विशेषज्ञ समिति नियुक्त की है । अन्य कार्यों के अतिरिक्त यह समिति अमेरिका तथा ब्रिटेन जैसे अन्य देशों के वायु-प्रदूषण कानूनों का अध्ययन कर रही है तथा यह देश में वायु-प्रदूषण पर पहले से ही उपलब्ध सामग्री एकत्र करके इस दिशा में विभिन्न संस्थाओं द्वारा किए गए कार्यों का अध्ययन कर रही है ।
यह विभिन्न प्रदूषकों द्वारा वायु की अधिकतम प्रदूषण क्षमता के लिए मानक निर्धारित करेगी तथा वायु के नमूने प्राप्त करने ओर विश्लेषण करने की विधियाँ ढूँढेगी । इसके साथ ही वायुमंडलीय प्रदूषण रोकने के लिए आचार-संहिता बनाएगी ।
भारतीय मानक संस्थान ने 25-26 वर्ष पूर्व जलधाराओं में औद्योगिक बहिःस्राव के विसर्जन हेतु मानक निर्धारित करके इस दिशा में सही कदम उठाया है । गत कुछ वर्षों में जनसाधारण तथा तकनीकी और प्रशासकीय संस्थाएँ जल-प्रदूषण नियंत्रण के प्रति काफी जागरूक हुई हैं ।
इसके परिणामस्वरूप अनेक राज्य सरकारों ने इस समस्या को सुलझाने के लिए नियम तथा विनियम पारित किए हैं । परंतु इस जागरूकता के साथ ही साथ अनेक नए उद्योग भी आरंभ हुए हैं और इसलिए नई प्रदूषण समस्याएँ सामने आ रही हैं ।
यह अनुभव किया जाने लगा है कि अब ऐसी स्थिति आ गई है जबकि इन मानकों का पुनरीक्षण नियम बनाने वाले अधिकारियों के अनुभव तथा उद्योग द्वारा इन मानकों का पालन करने में सामने आने वाली कठिनाइयों के आधार पर किया जाना चाहिए । राष्ट्रीय पर्यावरणीय इंजीनियरी अनुसंधान संस्थान, नागपुर तथा भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद में भी गत कुछ वर्षों में महत्वपूर्ण अनुसंधान किए गए हैं और काफी आंकड़ें एकत्र किए गए हैं ।
इन सभी से अब मानकों का पुनरीक्षण करके उनको वर्तमान आवश्यकताओं के अनुसार बनाने में सहायता मिलेगी । व्यर्थ की वस्तुओं को एक बार प्रयोग में लाने के बाद सामान्य रूप में फेंक देना बर्बादी का सूचक हो सकता है, अमीरी का नहीं ।
क्योंकि जिस गति से प्राकृतिक साधनों का ह्रास हो रहा है और माँग बढ़ती जा रही है उसे देखते हुए इस कचरे के उपयोग का विचार वैज्ञानिकों को काफी पहले सूझा था । इसे वे पुनर्चक्रण कहते हैं । पुनर्चक्रण की सबसे बड़ी विशेषता है ऊर्जा की बचत और प्राकृतिक साम्य का संरक्षण ।
यदि कचरे को यों ही पड़ा रहने दिया जाए तो वह सड़ेगा, पर्यावरण प्रदूषण बढ़ेगा, रोग फैलेंगे ओर कचरे के संपूर्ण तत्व घुल-धुलकर मिट्टी में संचित होंगे जिन्हें पौधे ग्रहण करेंगे, जिनसे वे पशुओं तथा मनुष्यों में पहुँचेंगे । इसलिए पर्यावरण की स्वच्छता के लिए कचरे का निपटान आवश्यक है ।
यह निपटान सामान्य विधियों से अथवा उच्च प्राविधिक तरीकों से संभव है । हमारे देश में कृषीय कचरे के सदुपयोग का पहला प्रयास 1924 ई. में हावर्ड तथा बैड नामक दो वैज्ञानिकों ने किया था । उन्होंने कपास के डंठलों, खलिहानों से निकले सभी अवशिष्टों एवं चिथड़ों को गड्ढों में भरकर कंपोस्ट तैयार की । यह विधि ‘इंदौर प्रणाली’ के नाम से विख्यात है । इस प्रणाली की महात्मा गांधी तक ने भूरि-भूरि प्रशंसा की थी ।
इसी तरह इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अंतर्गत ‘शीला धर मृदा शोध संस्थान’ के भूतपूर्व निदेशक एवं सुप्रसिद्ध रसायनविज्ञानी स्वर्गीय डॉ. नीलरत्न धर ने 1935 ई. से ही लगातार इस बात पर बल दिया कि सभी प्रकार के कृषि अवशिष्टों को यदि खेतों में डालकर जोत दिया जाए तो मिट्टी की उर्वरता बढ़ती है ।
इस तरह गरीब किसानों के लिए कृषीय अवशिष्ट उत्तम कार्बनिक खाद का काम दे सकते हैं । हमारे देश में कचरे के जितने साधन हैं उनमें कृषि से निकलने वाले व्यर्थ पदार्थों की मात्रा अत्यधिक है । इन्हें ‘कृषि अवशिष्ट’ कहा जाता है ।
कृषि अवशिष्टों के अंतर्गत आलू तथा शकरकंद की लतरें, खरपतवार, भूसा, सनई तथा जूट के डंठल, फसलों की जड़ें, सड़ा अन्न, मक्के की गिल्ली, फलों तथा तरकारियों के अवशेष तथा विविध कुटीर उद्योगों से निकलने वाला रद्दी माल-यथा गुड़ उद्योग से निकली खोई, धान कूटने से प्राप्त धान की भूसी, लकड़ी चिराई से प्राप्त बुरादा, तेलघानी से निकली खलियाँ, आम की गुठलियाँ, नारियल की जटा या फिर बबूल तथा खैर की छाल अथवा ताल-तलैयों में उगी जलकुंभी या सिंघाड़े की लतरें, काडयाँ आदि उल्लेखनीय अवशिष्ट हैं ।
एक अनुमान के अनुसार 1965-66 में कृषि से प्रति हैक्टेयर 2.25 (सवा दो) टन कचरा निकलता था जो 1979-80 में बढ़कर 4.75 (पौने पाँच) टन प्रति हैक्टेयर हो गया । वर्तमान समय में कुल कृषि अवशिष्ट की मात्रा 283 मिलियन टन की गई है, जो 2000 ई. में बढ़कर 336 मिलियन टन हो गई । इस तरह इन अवशिष्टों की भावी मात्रा में 20 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि संभावित है । स्पष्ट है कि इतनी विशाल मात्रा का सदुपयोग किया जाना है ।
इस समय कृषीय कचरे के चार मुख्य उपयोग हैं:
i. चारे के रूप में,
ii. कंपोस्ट बनाने में,
iii. ऊर्जा उत्पन्न करने में तथा
iv. रासायनिक पदार्थ तैयार करने में ।
स्मरण रहे, इस कचरे के सदुपयोग के पूर्व इसकी प्रकृति की सही-सही जानकारी उपलब्ध होनी चाहिए । कचरे का अधिक अंश वानस्पतिक अवशेष के रूप में होता है जिसमें लिग्नोसेल्यूलोस नामक रासायनिक अंश रहता है ।
यह अंश सीधे आहार, ईंधन तथा चारे के अतिरिक्त विविध रासायनिक उत्पादों-अल्कोहल आदि में परिणत किया जा सकता है । किंतु इसके लिए सूक्ष्म जैविकी, रसायन विज्ञान, एंजाइम टेक्नोलॉजी, कृषि तथा रासायनिक इंजीनियरी, सामाजिक अर्थशास्त्र को एकजुट होकर काम करना होता है । कृषीय कचरे या अन्य किसी कचरे के उपयोग पर बल दिए जाने के अनेक कारण हैं ।
यथा:
(1) साधन का संरक्षण,
(2) पर्यावरण की सुरक्षा,
(3) रोजगार की उपलब्धि,
(4) आर्थिक विकास में सहयोग तथा
(5) जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति ।
प्रायः कचरे को घृणित एवं अस्वास्थ्यकर समझा जाता रहा है, किंतु अब इस विचारधारा में परिवर्तन आ रहा है और देश के कर्णधार इसे ‘नकदी माल’, ‘कल का कच्चा माल’ या ‘भावी संपत्ति’ कहने लगे हैं । यद्यपि ज्वार, बाजरा तथा मक्के के डंठलों की कुट्टी बनाकर पशुओं को चारे के रूप में खिलाया जाता है, किंतु भविष्य में कृषि के मशीनीकरण के साथ ही पशुओं की संख्या में कमी आएगी ।
अत: फसलों के इन डंठलों का उपयोग चारे के रूप में नहीं हो पाएगा । तब वे व्यर्थ पड़े रह सकते हैं । ऐसी दशा में इनका कोई श्रेष्ठ उपयोग होना चाहिए । विदेशों में ऐसा किया जा चुका है । उदाहरणार्थ, अमेरिका में मक्का के डंठलों में गंधक की मात्रा कम होती है, इसलिए इस प्रकार के ईंधन से पर्यावरण प्रदूषण कम होगा ।
सुप्रसिद्ध ग्रामविज्ञानी चन्द्रशेखर लोहुमी ने मक्के की गिल्ली से कोयला तथा राख बनाने की विधि निकाली है, जिसे उन्होंने पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय की सहायता से अत्यंत उपयोगी प्रदर्शित किया है । राख का उपयोग फसलों तथा तरकारियों के कीटों का नाश करने के लिए किया जा सकता है ।
कुछ रसायनशालाओं एवं कुछ स्थानों ने कृषीय अवशिष्टों से कुछ उपयोगी खाद्य-पदार्थ, रसायन तथा व्यापारिक वस्तुएं तैयार करने में सफलता प्राप्त की है । उदाहरणार्थ, फसलों की हरी पत्तियों से प्रोटीन निकालने के प्रयास हुए हैं ।
इसी तरह कपास के डंठलों से सेल्यूलोस प्राप्त किया जाता है । यही नहीं, छाल निकालने के बाद डंठलों से काठ-कोयला भी बनाया जा सकता है । नारियल के खोपड़े या धान की भूसी से ‘एक्टिवेटेड कार्बन’ तैयार किया जाता है, जिसका उपयोग बिजली उद्योग में होता है ।
धान की भूसी-जो अभी तक व्यर्थ जाती थी-को जलाकर सोडियम सिलिकेट तथा एक्टीवेटेड कार्बन तैयार किया जाता है । यही नहीं, ‘फरफ्यूरल’ नामक उत्पाद भी प्राप्त किया जाना है, जिसका पेट्रोलियम उद्योग में उपयोग होता है । सोडियम सिलिकेट साबुनों के बनाने में प्रयुक्त होता है ।
अनुमान है कि हमारे देश में 15 मिलियन टन धान की भूसी प्रतिवर्ष निकलती है । इसका उपयोग इन रसायनों के लिए अल्प लागत पर किया जा सकता है । लकड़ी के बुरादे तथा वृक्षों की चैलियों को क्षार से उपचारित करके पशु-आहार तैयार किया जाता है ।
बुरादे, पुआल तथा जलकुंभी से अल्कोहल बनाया जाता है । टमाटर के बीज, अंगूर के बीज, तरबूज के बीज- इन सभी से तेल निकाला जाता है, जिसका उपयोग जलाने तथा साबुन बनाने में किया जाता है । आम की गुठलियाँ गरीबों का भोजन हैं और पशु भी उन्हें खाते हैं, किंतु अब विशेष उपचार द्वारा इनसे प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट तथा वसा विलग किया जाता है । 100 पौंड गुठलियों से उतना ही प्रोटीन मिल सकता है जितना 80 पौंड जौ से और उतना ही स्टार्च निकलेगा जितना 86 पौंड जौ में होता है ।
विकासशील देशों को तो चाहिए कि कचरे को किसी भी दशा में व्यर्थ न जाने दें । यह एक महत्वपूर्ण कच्चा माल है- यह अत्यंत विचित्र बात लगती है कि एक ओर जहाँ जापान, जर्मनी, अमेरिका जैसे विकसित राष्ट्रों में कचरों के उपयोग की दिशा में बहुत पहले से ध्यान दिया जाता रहा है, वहीं भारत जैसे विकासशील देश में कचरे के प्रति अभी संकल्प करना शेष है ।
दुर्भाग्यवश ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी विज्ञान का सही ढंग से प्रवेश नहीं हो पाया है । यदि किसी ग्रामीण से कृषीय अवशिष्ट से आहार बनाए जाने की बात की जाए तो उसे आश्चर्य होगा और यदि उसे ऐसा आहार काम में लाने के लिए कहा जाए तो वह इसके लिए तैयार भी नहीं होगा ।
वह तो ईंधन, चारा तथा खाद इन तीनों रूपों में कृषीय अवशिष्टों का उपयोग अपने ढंग से करता रहा है, इसलिए उसे इस दिशा में नवीनतम उपलब्धियों से परिचित कराए जाने की आवश्यकता है । साथ ही कृषीय अवशिष्टों से बहुउपयोगी रसायन भी बनाए जाने की आवश्यकता है ।
केंद्रीय चमड़ा अनुसंधान संस्थान, चेन्नई के वैज्ञानिकों ने बेकार समझे जाने वाली चमड़ा-कतरनों से चमड़ा-बोर्ड ‘ईसोल काउंटर’ जैसे उपयोगी पदार्थ बनाने की विधि विकसित की है जिसमें बहुतायत से व्यर्थ के रूप में फेंकी जाने वाली कतरनों का भी व्यापारिक उपयोग किया जा सकेगा ।
इस विधि से बेकार क्रोम-कमाए और वनस्पति-कमाए चमड़ों की बेकार कतरनों का सदुपयोग किया जा सकेगा । इन कतरनों से व्यापारिक हानि के अतिरिक्त प्रदूषण की भी संभावना रहती है । इस चमड़ा बोर्ड से साइकिल औजार रखने का थैला, पुस्तकों की जिल्द जैसे अनेक उपयोगी सामान बनाए जा सकते हैं ।
क्रोम-कमाए चमड़े की कतरनों से तैयार किया गया चमड़ा-बोर्ड अपेक्षाकृत अधिक स्थायी और अधिक तापरोधी होता है । आज देश में लगभग 5,000 टन बोर्ड प्रति वर्ष तैयार किए जाते हैं पर माँग लगभग 10,000 टन की जाती है । ये बोर्ड मुख्य रूप से छाल-कमाए चमड़े से तैयार किए जाते हैं ।
इस प्रकार चमड़ा-व्यर्थ को उपयोगी बनाकर वायु-प्रदूषण तथा स्थल-प्रदूषण में कमी की जा सकती है । यदि पदार्थों को उपयोगी बनाया जाए तो देश किसी सीमा तक प्रदूषणता से बच सकता है और साथ ही साथ समृद्धशाली भी होगा ।
उद्योग व उद्योगकर्मियों की भलाई के लिए तथा मानवीय व आर्थिक दृष्टि से उद्योगों में स्वास्थ्य-संकटों को दूर करने का हरसंभव प्रयास किया जाना चाहिए । इसके लिए इंजीनियरी तथा चिकित्सात्मक दोनों ही उपाय किए जाने चाहिए और किए भी जाते हैं ।
क्षेत्रीय अनुसंधान प्रयोगशाला, जोरहाट ने शीरा से बेकर खमीर के उत्पादन का प्रक्रम में और भी सुधार लाने के प्रयास किए जा रहे हैं । धान की भूसी के चूर्ण से ईंटों के उत्पादन संबंधी प्रक्रम को पूरा किया गया । धान की भूसी की राख से फर्श के लिए उपयुक्त टाइल के निर्माण पर अन्वेषण हो रहा है ।
केंद्रीय चमड़ा अनुसंधान, मद्रास ने खालों की बालयुक्त कतरनों से कई प्रकार के आहार तैयार किए हैं । इन कतरनों में 60-80% प्रोटीन होती है । चमड़े की बेकार छीलन तथा खाल की कतरनों से प्रोटीन आधारित प्रक्षालक तैयार किए गए हैं ।
इससे लॉण्ड्री डिटरजेंट, शैंपू और शरीर की सफाई के लिए सामग्री बनाने के लिए कार्य किया जा रहा है । मेढकों से तैयार किए गए आहार में अमीनो एसिड का विश्लेषण करने पर इस संस्थान में पता चला कि इससे कुक्कुटों के आहार में प्रोटीन की कमी पूरी की जा सकती है ।
ढोरों के मस्तिष्क में से पित्त सांद्रण निकालकर बनाए गए आहार का निकटस्थ विश्लेषण करने पर उसमें 47% प्रोटीन पाई गई । भेषज उद्योग में उपयोग के लिए पशु अवशिष्टों से सक्रिय कार्बन बनाने के लिए एक प्रक्रम विकसित किया गया ।
तैयार उत्पाद बी. एस. (British Standards) और आई. एस. (Indian Standards) मानकों के अनुरूप पाए गए । इस संस्थान में खाल ओर चमड़ों के शोधन में फिर से उपयोग के लिए प्रयुक्त लवण के परिष्करण के लिए एक सरल और सस्ती विधि तैयार की गई ।
इस परिष्कृत लवण से शोधित चमड़ा वाणिज्यिक लवण द्वारा शोधित चमड़े से गुणों में अच्छा रहा । परिष्कृत लवण का उपयोग प्रयुक्त लवण को ठिकाने लगाने का सस्ता उपाय है । इस लवण को काम में लेने के बाद बाहर फेंक देने से पर्यावरण प्रदूषण का खतरा बढ़ता है ।
चमड़े की वस्तुओं को लाने-ले जाने अथवा भंडारण के समय कवक से बचाने के लिए एक कवकरोधी गोली तैयार की गई जिसका आधार नेफ्थेलीन है । इस गोली की कार्यक्षमता संतोषजनक है ओर लगभग दस ग्राम प्रति फुट स्थान के लिए 20 दिन तक काम देती है ।
केंद्रीय ईंधन अनुसंधान संस्थान, धनबाद ने विभिन्न कार्बनिक ओर अकार्बनिक बंधकों के मिश्रण द्वारा राखी से तापरोधी ईंटें प्रयोगशाला स्तर पर तैयार की और इन्हें 1100-1150° सेल्सियस ताप पर पकाया गया । ईंटों में रंध्रता संतोषजनक (55-63%) पाई गई ।
इसका शीतल दलन सामर्थ्य (14-18 किलोग्राम प्रति सेंटीमीटर) भी संतोषजनक था । एक कम खर्च वाला जनता जल निष्यंदक सेट, जिससे शुद्ध और बैक्टीरिया मुक्त पेयजल प्राप्त हो सकता है, केंद्रीय काँच और सिरैमिक अनुसंधान संस्थान, कोलकाता का आवश्यकता आधारित योगदान है ।
संस्थान में देशज कच्चे माल से विकसित सिरैमिक निष्यंदक कैंडल का इस सेट में उपयोग किया जाता है । संपूर्ण सेट दो मिट्टी के पात्र, एक सिरैमिक निष्यंदक कैंडल और एक टोंटी से बना होता है । इसकी लागत केवल 22 रुपए के आसपास होती है, जबकि बाजार में उपलब्ध पत्थर अथवा धातु पात्र से बना सेट लगभग 120 रुपए में आता है । निष्यंदक सेट ऐसे गाँवों के लिए विशेष उपयोगी होगा जहाँ सामान्यतः कूप या तालाब का जल पीने के लिए प्रयुक्त किया जाता है । इसके अतिरिक्त यह बाढ़ और महामारी के समय भी उपयोगी होगा ।
राष्ट्रीय पर्यावरणीय इंजीनियरी अनुसंधान संस्थान, नागपुर ने जल के विभिन्न डिफ्लुओराइडीकरण के लिए एक नालगौंडा तकनीक का विकास किया है । इस तकनीक में पानी का उपचार क्रमश: सोडियम एल्युमिनेट या चून और फिटकरी से किया जाता है जिसमें फिर ऊर्णन, अवसादन और निष्यंदक होता है ।
वाहित मल और प्रदूषित जल में मल के कोलायडल रूपी जीवों की पहचान व गणना करने के लिए एक दुत, विश्वसनीय तथा संवेदी सवन प्लेट (पोर प्लेट) तकनीक विकसित की गई है । वाहित मल के लिए इस तकनीक में सुधार करके उसे मानकीकृत कर दिया गया है ।
नेशनल डिजाइन इंस्टीट्यूट में उत्पाद का उपस्कर डिजाइनरों के लिए आर्गोनोमिक्स की शिक्षा हेतु राष्ट्रीय उद्योग स्वास्थ्य संस्थान, अहमदाबाद ने शिक्षण पाठ्यक्रम विकसित किए हैं तथा चलाए हैं । स्थापत्य (स्कूल ऑफ आर्किटेक्चर) के विद्यार्थियों के लिए चार मास की अवधि का एक पाठ्यक्रम ‘मनुष्य और पर्यावरण’ और दूसरा पाठ्यक्रम औद्योगिक हाइजीन तकनीशियनों के लिए आरंभ किया गया है ।
पर्यावरणीय संकटों के अपेक्षित नियंत्रण के लिए निम्नलिखित विधियाँ अपनाई जाती हैं, परंतु ये केवल भौतिक और रासायनिक प्रदूषकों के लिए ही प्रयुक्त की जा सकती हैं । अधिक विषैले पदार्थों की अपेक्षा कम विषैले पदार्थों का प्रयोग, उदाहरणार्थ- कार्बन टेट्राक्लोराइड के स्थान पर मैथिल क्लोरोफॉर्म, डाइक्लोरोमीथेन, पेट्रोलियम हाइड्रोकार्बन जैसे विषैले विलायक का प्रयोग, मशीनों आदि को बंद कक्ष में चलाना, उदाहरणार्थ- अत्यधिक संकटास्पद क्रियाओं को स्वचालन द्वारा संपन्न करना अथवा वायुरोधित भवन में संपन्न करना जैसे कि टेट्रोऐथिल लैड, विस्फोटक के निर्माण, रेडियम डायल पेटिंग आदि में ।
प्रदूषण अथवा संदूषण का स्रोत पर ही नियंत्रण, स्वच्छ वायु से प्रदूषकों की सांद्रता कम करना, व्यक्तिगत आरक्षण युक्तियों का उपयोग करना, मशीनों आदि की समुचित देख-रेख तथा उद्योगकर्मियों को संकटों के बारे में शिक्षा तथा उद्योग विशेष के अनुसार कुछ विशिष्ट उपाय करना ।
उपर्युक्त उपायों के अतिरिक्त व्यावसायिक रोगों के निदान व चिकित्सा के लिए डॉक्टरी निगरानी आवश्यक है । कर्मियों की छाती का एक्स-रे, रक्त, मूत्र-विश्लेषण, श्रवण-परीक्षा, चक्षु-परीक्षा तथा कार्यक्षमता आदि की परीक्षा समय-समय पर होती रहनी चाहिए । इसके अतिरिक्त कर्मी को भी अपनी शारीरिक स्वच्छता का विशेष ध्यान रखना चाहिए ।
औद्योगिक व्यर्थ उपचार की विधियों पर केंद्रीय तथा राज्य स्तर पर अनेक अनुसंधान संस्थानों द्वारा कार्य हो रहा है । दिसंबर सन् 1969 ई. में बंगलौर में जल-प्रदूषण तथा औद्योगिक व्यर्थ उपचार पर हुए अखिल भारतीय परिसंवाद में प्रदूषण के कारण जल-स्रोतों की गुणात्मकता में ह्रास पर चिंता व्यक्त करते हुए एक प्रमुख प्रस्ताव पारित किया गया तथा उचित कानून बनाने की आवश्यकता पर जोर दिया गया ।
विज्ञान परिषद् (इलाहाबाद) द्वारा आयोजित संगोष्ठियों में प्रदूषण संबंधी अनेक महत्वपूर्ण सुझाव दिए गए और जनचेतना का कार्य किया । आज प्रदूषण के बढ़ते स्तर को देखते हुए यह विश्वास नहीं होता कि उन्नीसवीं शताब्दी से ही प्रदूषण नियंत्रण के लिए अधिनियम बनाए जाने लगे थे ।
स्वतत्रता के पूर्व और उपरांत बनाए गए ये कानून कितने प्रभावशाली सिद्ध हुए, यह विचारणीय है । भारतीय संविधान के निर्देशक-सिद्धांतों (धारा 48 और 51 ए) के अनुसार वन और वन्य-प्राणियों सहित नैसर्गिक पर्यावरण की सुरक्षा और उनका विकास करना प्रत्येक भारतीय नागरिक के लिए कानूनन अनिवार्य है ।
सर्वप्रथम सन् 1873 ई. में ‘द नॉर्थ इंडिया कैनाल एंड ड्रेनेज एक्ट’ तैयार किया गया और फिर सन् 1881 में ‘द ऑब्सट्रक्सन ऑफ फेयरवेज एक्ट’ । इस प्रकार प्रदूषण नियंत्रण अधिनियमों की एक श्रृंखला आरंभ हो गई । सन् 1897 में ‘द इंडियन फिशरीज एक्ट’, सन् 1905 में औद्योगिक प्रदूषण के विरुद्ध कानून बनाया गया तभी घुआं कानून (स्मोक नुइसेन्स एक्ट) के रूप में वायु-प्रदूषण को रोकने के स्थानीय नियम, कोलकाता (1905), मुंबई (1912) और कानपुर (1958) बनाए गए थे ।
सन् 1948 में ‘द दामोदर वैली कॉरपोरेशन’ (प्रिवेंशन ऑफ पोल्यूशन ऑफ वाटर) रेग्यूलेशन एक्ट तैयार किया गया । तदुपरांत प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में पर्यावरण की सुरक्षा से संबंधित अनेक कानून बनाए गए हैं, जो हमारे पर्यावरण के संरक्षण और शुद्धता के प्रति भारत सरकार की चिंता के द्योतक हैं ।
इनमें मुख्य हैं- कारखाना संशोधन अधिनियम 1948 (1976 में संशोधित), द रिवर बोर्ड्स एक्ट 1959, कीटनाशी अधिनियम 1968, द मर्चेंट शिपिंग (एमेंडमेंट) एक्ट 1970, वन्य-जीव संरक्षण कानून 1972, वन्य-प्राणी संवर्धन कानून 1974, जल-प्रदूषण नियंत्रण कानून 1974, द वाटर (प्रिवेंशन एंड कंट्रोल ऑफ पोल्यूशन) एक्ट 1974, जल-प्रदूषण अधिनियम 1975, जल-प्रदूषण कर कानून 1977, वायु-प्रदूषण अधिनियम 1968, वन-संरक्षण कानून 1981, वायु-प्रदूषण नियंत्रण व निरोधक कानून 1981, केंद्रीय मोटर वाहन एक्ट 1990 तथा खाद्य अवमिश्रण कानून आदि ।
इनके अतिरिक्त ‘उड़ीसा रिवर पोल्यूशन प्रिवेंशन एक्ट 1953’ तथा ‘महाराष्ट्र प्रिवेंशन ऑफ वाटर पोल्यूशन एक्ट 1969’ भी राज्य सरकारों द्वारा अधिनियम तैयार किए गए । ‘एकेडेमी ऑफ एनवायरनमेंटल लॉ कंजरवेशन एंड रिसर्च’ के अध्यक्ष न्यायमूर्ति नगेन्द्रसिंह ने सुझाव दिया था कि संसद को एक कानून पारित करना चाहिए, जिसमें देश-भर के पर्यावरण प्रदूषण के सभी पहलुओं का समग्र रूप में समावेश हो जाए ।
आशा की जाती है कि सरकार आरंभ किए गए विभिन्न कार्यों के फलस्वरूप वायु तथा जल-प्रदूषण नियंत्रण में आशानुकूल प्रगति हो सकेगी । इतनी बड़ी समस्या के समाधान हेतु सरकार काफी कुछ कर सकती है, परंतु स्वयंसेवी संस्थाओं की भूमिका भी इसमें कम महत्वपूर्ण नहीं है ।
कुछ समय पूर्व ही मुंबई में स्वच्छ वातावरण बनाए रखने तथा संरक्षण हेतु एक समिति स्थापित की गई है । देश में अपने तरह की सर्वप्रथम इस समिति (सोक्लीन) का उद्देश्य लोगों को स्वस्थ रहने की शिक्षा देना तथा प्रदूषित वातावरण से उत्पन्न संकट के प्रति जागरूक करना है ।
आशा की जाती है कि बड़े शहरों में ऐसी अनेक समितियाँ बनाई जाएँगी और वे जन-साधारण का ध्यान पर्यावरणीय प्रदूषण नियंत्रण की ओर आकृष्ट करेंगी । भारत में यद्यपि प्रदूषण नियंत्रण के लिए कानून बने हुए हैं, लेकिन विभिन्न प्रदेशों के कानूनी में समानता नहीं है ।
दुःख तो इस बात का है कि क्षति हो जाने के उपरांत विभिन्न विनियम बनाए जाते हैं- यह नहीं कि कुछ दूरदृष्टि से काम लेकर क्षति को होने ही नहीं दिया जाए । भारतीय दंड संहिता (इंडियन पीनल कोड), दंड प्रक्रिया संहिता (क्रिमिनल प्रोसीजर कोड) तथा विभिन्न प्रादेशिक अधिनियमों में लोक न्यूसेंस के विरुद्ध व्यवस्थाएँ हैं, जिनके अधीन फैक्टरियों के जिला निरीक्षक कानूनन कारखानेदारों को बाध्य कर सकते हैं कि औद्योगिक व्यर्थ पदार्थों का निपटान से पूर्व समुचित उपचार किया जाए ।
लेकिन ऐसी व्यवस्था के बावजूद प्रदूषण की रोकथाम नहीं हो पाई है, संभवतया इसलिए कि व्यर्थ पदार्थों के समुचित उपचार सुझाने के लिए विशेषज्ञों की कोई स्थायी व्यवस्था नहीं है । उत्तर प्रदेश में सन् 1955 ई. में एक बहिःस्राव बोर्ड की स्थापना हुई थी ।
उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, बिहार और महाराष्ट्र में जल बोर्ड बने हुए हैं । यह आशा की जानी चाहिए कि केंद्रीय जल-प्रदूषण नियंत्रण अधिनियम और कीटनाशियों को हानिरहित उपयोग के लिए पेस्टीसाइड्स अधिनियम के बन जाने पर देश में जन-स्वास्थ्य और मत्स्य संपदा की समुचित रक्षा हो जाएगी । जहाँ भारत सरकार इस जटिल समस्या के समाधान हेतु नाना प्रकार के प्रयास कर रही है वहाँ यह नितांत आवश्यक है कि जनता को भी तन-मन-धन से पूर्णरूपेण इस संकट निवारण में सहयोग देना चाहिए ।
यदि इस विषय में किंचित मात्र भी लापरवाही से कार्य किया गया तो न केवल भारत, बल्कि संपूर्ण संसार प्रदूषित हो जाएगा और अनेक बीमारियाँ मानव-जाति पर आधिपत्य जमाने का प्रयास करेंगी । तदुपरांत यह ब्रह्मांड स्वर्ग न रहकर नरक का रूप धारण कर लेगा ।
अत: ऐसे संकट में सभी को बुद्धि तथा विवेक से कार्य करना होगा और समस्त संसार के राष्ट्र एक होकर पर्यावरणीय प्रदूषण के नियंत्रण में सहयोग दें, जिससे कि भारत के प्राचीन ग्रंथ ‘ऋग्वेद’ का नारा ‘वसुधैव कुटुंबकम’ फिर विश्व में ऊँचा हो । तभी मानव-जाति सुख का जीवन व्यतीत करेगी तथा सभी पौधों और जीव-जंतुओं का जीवन भी सुखमय रह सकेगा ।