प्रदूषण पर निबंध: कारण और प्रभाव | Essay on Pollution: Causes and Effects in Hindi.

खानों में सबसे बड़ा वायु-प्रदूषक तत्व धूलि है । खान के भीतर धूलि इतनी अधिक होती है कि साँस लेना मुश्किल हो जाता है । खानों में प्रयोग की जाने वाली विभिन्न प्रक्रियाओं में अलग-अलग मात्रा में धूलि उत्पन्न होती है ।

प्रति इकाई आयतन वायु में धूलि-कणों की संख्या जितनी अधिक होगी, उस वायु में साँस लेना स्वास्थ्य के लिए उतना ही हानिकर हो जाता है । रोग का होना, धूलि की सांद्रता के अलावा धूलि के कणों के आकार तथा उसके प्रभाव में रहने की अवधि पर निर्भर करता है ।

खानों में धूलि की सांद्रता 1755 कण प्रति घन सेंटीमीटर से 7340 कण प्रति घन सेंटीमीटर तक पाई गई है । भारत में खानों की संख्या अपेक्षतया कम है । सभी खानों में कुल मिलाकर लगभग साढ़े सात लाख व्यक्ति काम करते हैं ।

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इनमें से लगभग आधे लोग कोयले की खानी में हैं । खनन-कर्म में सामान्यतया ऐसी तकनीकें (उदाहरणार्थ- मशीन से कटाई, ड्रिलिंग व विस्फोट आदि) प्रयुक्त की जाती हैं, जिनसे धूलि बहुत उत्पन्न होती है । कोयले की खान में काम करने वालों को बहुधा फुस्फुस धूलिमयता रोग सोने की खान में काम करने वालों की सिकतामयता तथा लौह-अयस्क के खानकर्मियों को लौह-सिकतामयता होने की संभावना अधिक रहती है ।

कोयला खनन में विभिन्न तरह से जो धूलि उत्पन्न होती है उसमें विभिन्न आकारों के कण होते हैं । बड़े आकार के कण तो शीघ्र ही बैठ जाते हैं, परंतु महीन कण वायु में तैरते रहते हैं । ये महीन कण ही, वस्तुतः अनेक रोगों के कारण बनते हैं ।

यह पाया गया है कि 5 माइक्रोन से कम व्यास वाले धूलिकण फुस्फुस धूलिमयता के लिए उत्तरदायी होते हैं । अत: कोयले की खान में धूलिजन्य स्वास्थ्य-संकटों के मूल्यांकन के लिए 1-5 माइक्रोन तक के कणों की सांद्रता का ही पता लगाया जाना आवश्यक होता है ।

झरिया कोयला-क्षेत्र के खानकर्मियों में फुस्फुस धूलिमयता की घटना के अध्ययन के लिए जिन 950 कर्मियों का एक्स-रे किया गया, उनमें से 178 व्यक्ति (18.8%) इस रोग से ग्रस्त पाए गए । एक अन्य अध्ययन में, जो कि केंद्रीय खनन अनुसंधान-केंद्र, धनबाद द्वारा किया गया, 952 कोयला खनिकों के एक्स-रे लेने पर पता चला कि 35 (3.7%) कर्मी इस रोग से पूर्णतः ग्रस्त हैं तथा 106 (11.1%) में इसके होने की आशंका है ।

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यद्यपि कोयला-खानों के अधिकाधिक यंत्रीकरण से धूलि की समस्याएं भी बढ़ती जा रही हैं, तो भी हमारे देश की कोयला खानों में अमेरिका व इंग्लैंड आदि देशों की तुलना में धूलि की सांद्रता कम होती है । कोयला खाना में धूलि के अतिरिक्त मीथेन, कार्बन मोनोक्साइड आदि गैसें भी खनिकों के स्वास्थ्य के लिए हानिकर होती हैं, परंतु सबसे बड़ा संकट उनके स्वास्थ्य के लिए खान की वायु में व्याप्त धूलि ही है ।

भारत में लगभग 2,100 करोड़ टन लौह-अयस्क का भंडार प्रकृति में है जिससे लगभग 1,200 करोड़ टन लोहा प्राप्त किया जा सकता है । देश में 300 के करीब लौह-अयस्क खानें हैं जिनमें 60,000 कर्मी कार्य करते हैं । लौह-अयस्क के खनन व संसाधन की विभिन्न क्रियाओं में अभ्रक-धूलि खान के वातावरण में व्याप्त हो जाती है और वही धूलि श्वास द्वारा खनिकों के फेफड़ों में जाकर जमा होती रहती है । 6-10 वर्ष तक इसी प्रकार के धूलिमय वातावरण में काम करते रहने पर खनिक को लौहमयता (साइडरोसिस) रोग होने की संभावना रहती है ।

परंतु लौहमयता कोई गंभीर रोग नहीं है । यह एक प्रकार की सुदम्य फुस्फुस धूलिमयता है । हाँ, समस्या तब गंभीर हो जाती है जब लौह-अयस्क के साथ वायु में सिलिका धूलि भी व्याप्त हो जिसके कारण खनिकों को लौह-सिकतामयता (साइडरो-सिलिकासिस) रोग हो जाता है जो कि अपेक्षतया एक गंभीर रोग है ।

मैंगनीज की खानों में भारत में लगभग 50,000 व्यक्ति कार्य करते हैं । मैंगनीज की भूमिगत खानों में हवा आने-जाने की बहुधा प्राकृतिक सुविधा ही होती है, जिसके कारण वायु का प्रवाह बहुत धीमा रहता है और धूलि वायु में तैरती रहती है ।

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अब कुछ वर्षों से कानूनन यह अनिवार्य कर दिया गया है कि शुष्क खनन न करके आर्द्र खनन किया जाए जिससे वायु में कम धूलि व्याप्त हो पाएगी । मैंगनीज खननजन्य धूलि का प्रभाव मनुष्य के स्वास्थ्य पर अन्य धूलियों से भिन्न प्रकार से होता है । मैंगनीज-धूलि अन्य खानों की धूलि की भाँति फेफड़ों में जाकर जम नहीं जाती ।

यह शरीर के तरलों में विलीन हो जाती है और रक्त में मिलकर शरीर के अंग-प्रत्यंग में पहुंच सकती है । यदि काफी अरसे तक मैंगनीज-धूलि शरीर में इसी प्रकार पहुँचती रहे तो मनुष्य में तंत्रिका-विकृति आ जाती है और उसका मानसिक संतुलन बिगड़ जाता है ।

खानों के धूलिमय वातावरण के कारण होने वाले फेफड़ा-रोगों के नियंत्रण के लिए विभिन्न देशों में खान के वातावरण में व्याप्त धूलि की सांद्रता की अधिकतम सीमा निर्धारित कर दी गई है । परंतु भारत में अभी इस ओर विशेष ध्यान नहीं दिया गया है । केंद्रीय खनन अनुसंधान केंद्र ने इस समस्या की ओर ध्यान दिया है और वहाँ इस दिशा में कार्य प्रगति पर है ।

खानों की धूलि तथा अन्य वायु-प्रदूषक तत्वों तथा स्वास्थ्य-संकटों की समस्या को तभी हल किया जा सकता है अथवा न्यूनतम किया जा सकता है जबकि खनन क्रिया के यंत्रीकरण के साथ-साथ वैज्ञानिक ढंग से इस समस्या के निराकरण के भी उपाय किए जाएँ तथा सरकार द्वारा प्रदूषण नियंत्रण के लिए कानून भी बनाए जाएँ ।

मनुष्य शौक में तंबाकू पीना या खाना आरंभ करता है और फिर उसका दास बनकर रह जाता है । धूम्रपान के बाद वह उद्दीपन का अहसास करता है । उसे लगता है कि काम करने के लिए उसमें नई स्फूर्ति आ गई है ।

लेकिन उसके लिए एक कीमत चुकानी पड़ती है- स्वास्थ्य के नुकसान की । तंबाकू का प्रयोग अनेक प्रकार से होता है, जैसे सिगरेट, बीड़ी, सिगार, चुरुट, पाइप तथा हुक्का के रूप में उसका ध्रूममान करके अथवा चबाकर एवं सूँघकर ।

जब भी तंबाकू का नाम आता है तो मैनपुरी का नाम उससे पहले जुड़ जाता है, क्योंकि 20वीं सदी के शुरू से ही मैनपुरी और तंबाकू एक-दूसरे के पर्याय रहे हैं । मैनपुरी में जो नाना प्रकार के तंबाकू बन रहे हैं उनमें सबसे अधिक चर्चित है- कपूरी तंबाकू ।

कपूरी तंबाकू में कपूर का प्रयोग होता है जो मुख को शीतलता देता है । अपनी सुगंध विशेष के कारण ही यह लोगों को रुचिकर लगता जा रहा है । यह अपने जनपद की सीमा को पार करके एटा, फतेहगढ़, आगरा, कानपुर, दिल्ली, लखनऊ, कोलकाता, मुंबई तथा पंजाब तक में अपनी जडें जमाने लगा है ।

एक सर्वेक्षण के अनुसार मैनपुरी में प्रत्येक दूसरा व्यक्ति इसका व्यसनी हो गया है । एक ओर मैनपुरी के तंबाकू निर्माता इसकी बढ़ती खपत के कारण अनाप-शनाप पैसे कमा रहे हैं तो दूसरी ओर इसके खाने वाले भयानक रोगों के शिकार होकर मौत की नींद सोते जा रहे हैं ।

विगत वर्षों में ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि तंबाकू खाने वाले मुँह की अनेक बीमारियों से ग्रसित हो जाते हैं, जिसमें मुँह का कैंसर सबसे ज्यादा खतरनाक होता है । इसी तंबाकू के कारण मुँह का कैंसर सबसे अधिक मैनपुरी और उसके आसपास के जिलों में पाया जाता है ।

मैनपुरी में तंबाकू खाने वालों का जब सर्वेक्षण किया गया तो पाया कि लगभग 38 हजार लोगों में एक हजार व्यक्तियों को मुँह का कैंसर तथा दस हजार व्यक्ति मुँह की अन्य बीमारियों से पीड़ित थे । तंबाकू का सेवन करते रहने से मुँह की अंदरूनी त्वचा और मांसपेशियाँ कपूर के कारण कठोर हो जाती हैं । फिर उनमें ऐसी अकड़न आ जाती है जिससे तंबाकू व्यसनी का मुँह कम खुलने लगता है और आगे चल कर ऐसी स्थिति भी आ जाती है जब भोजन करना भी दुष्कर हो जाता है ।

कपूरी तंबाकू का लगातार सेवन करते रहने से मुँह के अंदर गाल और जीभ पर सफेद रंग के छाले पड़ जाते हैं । ये छाले उन लोगों को अधिक होते हैं जो तंबाकू को मुख में दबाकर सो जाते हैं और फलस्वरूप मुख में कैंसर हो जाता है । मुँह से बदबू आने लगती है तथा दाँतों में ठंडा पानी लगता है ।

मिर्च या नमक खाने पर मुँह में जलन होने लगती है । भूख कम हो जाती है । तंबाकू के अतिरिक्त प्रत्येक खाद्य-वस्तु स्वादहीन लगने लगती है । पाचन-तंत्र बेकार हो जाता है और उच्च स्वर में बोलने पर परेशानी होती है । ये सब लक्षण ‘म्यूकस फाइब्रोसिस’ की शुरुआत के लक्षण हैं, जो बाद में कैंसर का मूल कारण बनता है ।

किसी-किसी को तंबाकू खाने से अम्लता हो जाती है और चक्कर आने लगते हैं । मैनपुरी तंबाकू का सर्वाधिक कुप्रभाव कामशक्ति पर पड़ता है, जिसको तंबाकू व्यसनी आसानी से जान नहीं पाता । धीरे-धीरे उसकी यौनशक्ति क्षीण होने लगती है । अत: मैनपुरी में कपूरी तंबाकू के निर्माण पर रोक लगाना परम आवश्यक है । कुछ ऐसे नियम बनने चाहिए जिससे इसका निर्माण, प्रचार व प्रसार रोका जा सके । सिगरेट का धुआँ, गैसों, असंघनित और तरल विविक्त पदार्थों का विषम मिश्रण है ।

जब धूम्र मुख में प्रवेश करता है, वह हवा का एक संकेंद्रित बबूला होता है जिसमें करोडों कण बहुत ही थोड़ी जगह में इकट्ठे हो जाते हैं । सिगरेट के जलने का ताप 884 डिग्री सेल्सियस होता है और इतने ऊँचे ताप पर धूम्र में ऑक्सीकरण, डिहाइड्रोजनीकरण, संघनन होता है ।

इनमें मुख्य रूप से अम्ल, ग्लिसरोल, ग्लाइकोल, एल्डिहाइड, कीटोन, एलिफेटिक और ऐरोमेटिक हाइड्रोकार्बन तथा फीनोल हैं । ऐरोमेटिक हाइड्रोकार्बन और फीनोल कैंसर के कारण समझे जाते हैं । यह रसायन तंबाकू की पत्ती में सैलूलोस का होता है जौ इतने ऊँचे ताप पर पाइरोलिसिस से बैंजोपाइरीन बनाता है ।

यह भी एक कैंसरजनक पदार्थ है । यही कारण है कि सिगार, बीड़ी, पाइप और हुक्का पीने से सिगरेट की अपेक्षा कैंसर होने की संभावना कम रहती है । निकोटीन तंबाकू का मुख्य भाग है । यह एक इंडोल एल्केलाइड होता है तथा द्रव के रूप में निष्कर्षित किया जा सकता है । जब कोई धूम्रपान करता है तो लगभग 2.3 भाग निकोटीन बाहर वायु में निकल जाता हैं और शेष 1/3 भाग मुंह में रह जाता है तथा इसका 1/5 भाग ही अवशोषित होता है । शुद्ध रूप में निकोटीन अत्यधिक विषैला होता है ।

यदि कोई बीस सिगरेट प्रतिदिन की दर से धूम्रपान करे तो सप्ताह-भर में ली गई निकोटीन की मात्रा लगभग 100 मि. ग्रा. होगी, जो यदि एक ही बार में ली जाए तो मनुष्य उतनी ही शीघ्रता से मर जाएगा जितना कि बंदूक की गोली मारने से ।

एक वयस्क के लिए निकोटीन की प्राणघातक मात्रा 60 मि. ग्रा. होती है, परंतु अनभ्यस्त व्यक्ति के लिए मात्र 4 मि. ग्रा. ही चिंताप्रद लक्षण प्रदर्शित कर सकती है । यद्यपि निकोटीन एक विष है, परंतु धूम्रपान करने वाला मनुष्य इससे नहीं मरता, क्योंकि मानव-शरीर धीरे-धीरे इस विष की अधिकाधिक मात्रा के लिए अपने को सहनशील बना लेता है ।

एक डिब्बी सिगरेट प्रतिदिन की दर से एक वर्ष में लगभग 840 मि. ग्रा. तंबाकू का टार शरीर में प्रविष्ट हो जाएगा । तात्पर्य यह हुआ कि गला एवं फेफड़ें 27 तरल आउंस तंबाकू के टार से जिसमें बैंजोपाइरी विद्यमान है- भीग चुका होगा । बैंजोपाइरीन कोल-टार में भी पाया जाता है और कैंसर उत्पन्न करने वाला पदार्थ होता है ।

इसकी कैंसर उत्पादन-क्षमता की परख जानवरों की त्वचा पर वृद्धि बनाने वाले प्रयोगों द्वारा की गई । बैंजोपाइरीन, जो हाइड्रोकार्बन फिनेंथ्रीस से भी बनाया जा सकता है, विष से भी अधिक उत्तेजित करने वाला होता है और अधिक धूम्रपान करने वालों के लिए निकोटीन से अधिक हानिकारक है ।

फिल्टर सिगरेट में लगभग 30% (भारानुसार) टार कम हो जाता है । सिगरेट के धुएँ में एक अन्य विष कार्बन मोनोक्साइड (CO) होता है । औसत रूप में सिगरेट के धुएँ में 12.5 प्रतिशत (आयतनानुसार) CO होता है । प्रयोगों द्वारा यह दर्शाया गया है कि कम एवं अधिक इच्छा से धूम्रपानित सिगरेट के प्रथम आधे भाग से निकलने वाले धुएँ में क्रमशः 0.3 से 3 तथा 1 से 3.4 प्रतिशत विषैली कार्बन मोनोक्साइड होती है जो प्रयोग की गई तंबाकू की बनावट पर निर्भर करती है ।

दूसरे आधे भाग से गैस का अधिक प्रतिशत क्रमशः 1.1 से 3.6 तथा 1.8 से 6.3 प्रतिशत निकलता है । दूसरी ओर, बीड़ी के धुएँ में 5 से 9 तथा 8 से 11 प्रतिशत गैस निकलती है । दूसरे आधे भाग से कार्बन मोनोक्साइड की वृद्धि का कारण सिगरेट के चारों ओर कम वायु का प्रवेश है । जब कश लिया जाता है ओर तंबाकू जलता है तो वाष्प एवं उत्पन्न टारमय पदार्थ पीछे की और तंबाकू पर संघनित हो जाते हैं और पुन: कश लेने पर धुएँ का रास्ता रुक जाता है ।

कागज सरलता से एवं शीघ्रता से जल जाता है जिससे कि बिना पका हुआ तंबाकू खुल जाता है जो परिधि की ओर वायु से प्रेरित होकर जलता है । लेकिन सिगरेट की त्रिज्या की ओर कम वायु के प्रवेश के कारण केंद्र की ओर तंबाकू अपूर्ण रूप से जलता है और इसके परिणामस्वरूप अधिक कार्बन मोनोक्साइड उत्पन्न होती है ।

यदि तंबाकू अधिक सघन रूप से भरा जाए तो कार्बन मोनोक्साइड और अधिक उत्पन्न होगी । तीन घंटे के संपर्क के लिए कार्बन मोनोक्साइड की विषैली सीमा 0.01% होती है । इसकी 0.2% से 0.3% मात्रा 30 से 60 मिनट तक और 1% मात्रा कुछ ही मिनटों में खतरनाक एवं प्राणघातक सिद्ध हो सकती है ।

धूम्रपान से नाड़ी की गति लगभग 20 धड़कन प्रति मिनट तेज हो सकती है । यह प्रभाव विभिन्न व्यक्तियों पर भिन्न-भिन्न होता है तथा औसत रूप में 10 धड़कन अधिक हो जाती हैं । धूम्रपान की आदत से अरहाइथमिया तथा अक्रमबद्ध रूप से हृदय की धड़कन कम एवं अधिक होने जैसे रोग उत्पन्न हो जाते हैं ।

धूम्रपान व्यसनी व्यक्तियों में धूम्रपान करने वालों से 50% तीव्र हृदय की धड़कन की संभावना रहती है । यह रक्तदाब में वृद्धि करता है तथा यह वृद्धि केवल अस्थायी होती है । धूम्रपान से रक्त-वाहिनियाँ संकुचित हो जाती हैं जिससे हाथों तथा पैरो में तापमान गिर जाता है ।

निकोटीन के प्रभाव से शिराएँ संकुचित होती हैं जबकि इसके विपरीत अलकोहल से फैलती हैं । न्यूरोलॉजिस्टों का विश्वास है कि धूम्रपान मस्तिष्क का विनाश करता है तथा रक्त अंशों के रासायनिक नियंत्रण में बाधा पहुँचाता है ।

स्वीडन के शोधकर्ताओं के अनुसार निकोटीन सीधा मस्तिष्क में पहुँचता है तथा इसे लगभग 5 मिनट तक उत्तेजित करता है, लगभग 10 मिनट में औषधि मस्तिष्क से खाली हो जाती है और यह यकृत तथा गुर्दे में चयापचित हो जाती है और तब मूत्र द्वारा विसर्जित हो जाती है ।

धूम्रपान का गले पर दुष्प्रभाव सर्वविदित है । इससे गले की म्यूकस झिल्ली में जलन पैदा होती है और प्रायः दीर्घकालीन खाँसी को प्रोत्साहित करती है । इसके प्रभाव से वायु-प्रणाली के कोष्ठों में पाए जाने वाले छोटे-छोटे रोमों, जो कि फेफड़ों तक बाह्य कणों की पहुँचने से रोकते हैं, के नष्ट हो जाने के कारण फेफड़ों के ऊतकों की हानि होती है और परिणामस्वरूप फेफड़े की सूजन का रोग हो जाता है ।

अधिक धूम्रपान करने वालों में प्लाज्या कार्टिको स्टीराइड बढ़ जाते हैं । उनके रक्त में कैल्सियम तथा कोलेस्ट्रॉल की मात्रा अधिक हो जाती है तथा रक्त जमने एवं रक्तवाहिनियों में कोलेस्ट्रॉल के जमने की क्षमता में वृद्धि हो जाती है जिसके कारण हृदय रोग होने की संभावनाएँ बढ़ जाते हैं ।

धूम्रपान करने वालों में बर्जर नामक रोग हो जाने की अधिक संभावना रहती है जिसमें पैर में बाहर की ओर की धमनियाँ एवं शिराएँ प्रभावित होती हैं और घूमने के बाद पैरों में दर्द एवं रात में जलन के साथ पैरों में दर्द तथा पिंडलियों की मांसपेशियों में सूजन आ जाती है ।

सामान्य रूप से फेफड़ों द्वारा ऑक्सीजन ग्रहण की जाती है और रक्त में विद्यमान हीमोग्लोबिन के संयोग से ऑक्सी-हीमोग्लोबिन बनता है और इसी के माध्यम से ऑक्सीजन शरीर की विभिन्न कोशिकाओं को पहुँचाई जाती है ।

जब धुएँ में विद्यमान कार्बन मोनोक्साइड हीमोग्लोबिन के संपर्क में आता है तो एक रासायनिक यौगिक कार्बाक्सी हीमोग्लोबिन का निर्माण होता है । यह स्थायी होता है एवं शरीर की विभिन्न कोशिकाओं में ऑक्सीजन में बाधक होता है ।

ऐसी स्थिति को हाईप्रोक्सिया कहते हैं ओर यह सिरदर्द का कारण हो सकता है । आवश्यक ऑक्सीजन को पूर्ण करने के लिए शरीर को अधिक लाल रक्त कणिकाएँ उत्पन्न करनी होती हैं । परिणामस्वरूप रक्त अधिक गाढ़ा एवं शीघ्रता से जमने वाला हो जाता है तथा हृदय रोगों के हो जाने में सहायक होता है ।

गर्भावस्था के समय में धूम्रपान करने वाली महिलाओं से जन्म लेने वाले बच्चों का भार, धूम्रपान न करने वाली महिलाओं से जन्म लेने वाले बच्चों की तुलना में औसतन 150 से 250 ग्राम कम पाया गया । धूम्रपान से गर्भपात एवं भ्रूणविकृति भी हो सकती है ।

धूम्रपान वीर्य की मात्रा तथा गति को भी प्रभावित करता है । अत्यधिक धूम्रपान करने वालों में नपुंसकता की दर अधिक होने की संभावना होती है । विश्व-भर में धूम्रपान की इस आत्मघातक आदत को रोकने के लिए विभिन्न प्रकार के तरीके ढूँढ़े जा रहे हैं ।

यूरोपीय देशों में अब ऐसी गोलियाँ उपलब्ध हैं जिनमें विद्यमान रसायन एक खराब स्वाद देता है, जब धूम्रपान का आदी सिगरेट का कश लेता है । जर्मनी में च्युंगम, जिनमें सिल्वर ऐसीटेट, अमोनियम क्लोराइड तथा एंजाइम कोकार्बोक्सिलेज होता है, धूम्रपान के अभ्यस्तों द्वारा प्रयोग की जाती है ।

यह धूम्रपान को त्यागने में सहायक होती है । ऐसा पाया गया है कि क्षारीय लवण जैसे सोडियम बाइ-कार्बोनेट के प्रयोग से धूम्रपान में कमी लाई जा सकती है, क्योंकि इससे शरीर में निकोटीन निर्वात में कमी आ जाती है । जापान की कंपनी ने एक अनूठे प्रावधान द्वारा अपने यहाँ काम करने वालों के स्वास्थ्य एवं क्षमता में उन्नति की है ।

इसके अनुसार कारीगरों को धूम्रपान न करने के भत्ते के रूप में 10,000 से 13,000 येन प्रतिमाह दिए जाते हैं तथा कारीगरों को अपने कार्य-काल में-कंपनी-कार इत्यादि चलाते हुए अथवा कंपनी के किसी समारोह में भाग लेते हुए धूम्रपान न करने की शपथ लेनी होती है ।

धूम्रपान एक ऐसा व्यसन है जिससे आँखों में कड़वाहट, नाक में घृणा उत्पन्न होती है तथा यह शरीर के प्रत्येक अंग, विशेषकर हृदय तथा फेफड़ों के लिए हानिकारक है । धूम्रपान करने वाले अपने मुँह तथा फेफड़ों के अंदर जो धुआँ ले जाते हैं उसमें दो विभिन्न हानिकारक रसायन निकोटीन तथा बेंजोपाइरीन होते हैं ।

तंबाकू में एक से तीन प्रतिशत तक जो एल्केलाइड निकोटीन होता है, उसका प्रभाव नशीला होता है । तंबाकू चाहे पीया जाए या खाया जाए, उसका निकोटीन एक रंगहीन वाष्पशील तरल पदार्थ है जो गरम होने पर गैस बन जाता है ।

तंबाकू में निहित निकोटीन खून में रक्तचाप बढ़ाता है जिससे हृदय की गति 28 धड़कन प्रति मिनट तक बढ़ सकती है और हृदय को अपनी शक्ति से अधिक कार्य करना पड़ता है । सिगरेट पीने वालों को होंठ का कैंसर तथा हुक्का पीने वालों को खाँसी की बीमारी अधिक होने की संभावना होती है ।

यह पूरे विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि सिगरेट पीने से चिरकारी श्वसनीशोथ ओर खाँसी की बीमारी होती है । इसके अतिरिक्त धूम्रपान से स्वरयंत्रशोथ की बीमारी और गले का कैंसर हो सकता है । धूम्रपान का हृदय ओर रक्त-वाहिकाओं पर भी काफी प्रभाव पड़ता है । बैराकएर रोग के रोगियों को तंबाकू का प्रयोग किसी भी रूप में नहीं करना चाहिए । यह बीमारी केवल एक सिगरेट पीने मात्र से बढ़ सकती है या दोबारा हो सकती है ।

आँख की बीमारी, जिसमें रेटिना की रक्त-वाहिनियों में ऐंठन होती है तथा रेनौड रोग, जिसमें उंगलियों और पैर में रक्त का बहना रुक जाता है, में भी धूम्रपान घातक होता है । धूम्रपान से रक्त-वाहिनियों सिकुड़ जाती हैं । धूम्रपान से हृदय-गति अकसर कभी तेज और कभी धीमी हो जाती है जिससे हृदय रोगी की हालत बिगड़ जाने का अंदेशा रहता है ।

अमेरिकी कैंसर विशेषज्ञ डॉ. हेमंड और डॉ. हान पचास से सत्तर वर्ष की आयु के 1,87,000 व्यक्तियों पर अनुसंधान करने के बाद इस परिणाम पर पहुंचे कि जो व्यक्ति धूम्रपान करते हैं उनमें कोरोनरी हृदय का रोग धूम्रपान न करने वालों से दुगुनी मात्रा में होता है ।

न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय के डॉ. वेटरमेन और डॉ. एरनकील्ड का कहना है कि यद्यपि धूम्रपान के कारण अल्सर नहीं होता, किंतु यदि अल्सर पहले से हो तो उसके बिगड़ जाने की आशंका रहती है । तंबाकू खाने वालों को प्रायः एक ऐसा रोग हो जाता है जिसके कारण रेटिना के कुछ भाग में प्रकाश के लिए संवेदना चली जाती है । तंबाकू का प्रयोग बंद करने से यह बीमारी ठीक हो सकती है ।

भारत में प्रत्येक वर्ष धूम्रपान से मरने वाली की संख्या छह लाख तीस हजार है । दक्षिण-पूर्व एशिया में 90% मौतें तंबाकू खाने के कारण मुँह के कैंसर से होती है । प्रत्येक तेरह सेकंड में एक मरने वाला तंबाकूजनित रोगों के कारण मरता है । विकासशील देशों में तंबाकू के प्रयोग के कारण मरने वालों में युवाओं की संख्या ही अधिक है । हाल में हुए अध्ययन से यह स्पष्ट हुआ है कि महिलाओं में इसकी संख्या बढ़ी है ।

महिलाओं में तंबाकू के बढ़ते प्रयोग एवं उससे पड़ने वाले खतरनाक प्रभाव को देखकर विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 21 मई, 1990 को तंबाकू विरोध दिवस मनाने का निश्चय किया । एक सूचना के अनुसार फ्रांस में 17% महिलाएँ धूम्रपान करती हैं, जबकि इंग्लैंड में 40% और अमेरिका में 50% । भारतीय समाज में लगभग 6.4% महिलाएँ तंबाकू खाती हैं ।

किसी भी रूप में तंबाकू का सेवन गर्भ के विकास के लिए हानिकारक हो सकता है । धूम्रपान करने वाली महिलाओं के प्रसव के दौरान संतान की मृत्यु-दर धूम्रपान न करने वाली महिलाओं की अपेक्षा 34% अधिक होती है । महिलाओं में धम्रपान करने से दिल का दौरा, जननांगीय कैंसर, शीघ्र बुढ़ापा ओर प्रजनन क्षमता पर बुरा प्रभाव जैसे संकटों की संभावना बढ़ जाती है ।

धूम्रपान के कारण माँ में बनने वाले दूध की मात्रा कम हो जाती है और इस दूध के पीने वाले बच्चों में चिड़चिड़ाहट, घबराहट, हृदय की धड़कन में तेजी और दस्त जैसी बीमारियाँ होने का भय बना रहता है । धूम्रपान से उत्पन्न समस्याओं को ध्यान में रखते हुए सरकार ने सभी अस्पतालों, औषधालयों, स्वास्थ्य केंद्रों, शिक्षण संस्थाओं, सभागारों, देश में वायुयानों, वातानुकूलित यानों, वातानुकूलित रेल डिब्बों, उपनगरीय रेलगाड़ियों, वातानुकूलित बसों तथा अन्य सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान पर प्रतिबंध लगाया है ।

पूर्व प्रधानमंत्री श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने आदेश का कठोरता से पालन करने के निर्देश दिए थे । सभी मादक द्रव्य जैसे- शराब, तंबाकू, सिगरेट, बीड़ी, जरदा, हेरोइन, गाँजा, चरस, कोकीन, ब्राउन शुगर आदि मनुष्य को जर्जर तो कर ही देते हैं, बाद में जाकर प्राणघातक भी सिद्ध होते हैं ।

अधिकतर लोग एक-दूसरे को देखकर ही इन नशों को अपनाते हैं और फिर उनके आदी हो जाते हैं । कई परिवारों में घर के बड़े लोग शराब का सेवन करते हैं या सिगरेट का धुआँ उड़ाते हैं, अत: बच्चे भी उनका अनुसरण करने लगते हैं ।

आज के युवाओं में शराब व सिगरेट पीना एक फैशन ही गया है । किंतु मादक द्रव्य, चाहे वह शराब हो या सिगरेट अथवा कुछ और, मनुष्य के जीवन के लिए सभी घातक हैं । अत: फैशन की अंधी दौड़ मैं मौत को गले लगाना कहाँ की बुद्धिमत्ता है ?

विवाह-शादियों में बैंड के सामने नाचना एक फैशन हो गया है और फिर उसके लिए उन्हें चाहिए शराब । बड़े अफसोस की बात है कि ऐसे शुभ अवसरों पर हम अपने भविष्य की कब्र तैयार करते हैं । निकट संबंधी एक-दूसरे के शत्रु हो जाते हैं और इस मद्यपान के कारण अनेक खुशियों का वातावरण मातम में बदल जाता है । लड़ाई-झगड़े होकर रंग में भंग हो जाता है ।

एक समय था कि विवाह-शादियों में शराब पीने वालों को आमंत्रित नहीं किया जाता था, क्योंकि वह शराबी का रूप धारण कर बकवास करता तथा अनैतिक कार्य-दुर्व्यवहार करता था, किंतु आज मद्यपान न करने वाले को आमंत्रित नहीं किया जाता, क्योंकि बदलते माहौल के आधुनिक समाज में उठना-बैठना वह नहीं जानता और शराबियों के विचारों से सहमत नहीं होता, ऐसा आरोपित है ।

जो लोग आर्थिक दृष्टि से मादक पदार्थों के सेवन के शौक को पूरा नहीं कर पाते वे फिर चोरी करके अथवा अन्य गलत काम करके उसे पूरा करते हैं । इस प्रकार वे उस जाल में फँसते ही जाते हैं और परिणामस्वरूप न केवल परिवार के लिए अपितु संपूर्ण समाज के लिए भी भार हो जाते हैं ।

मार-पिटाई, कलह, नालियों में पड़े रहना और निकम्मापन ये सब उसी के परिणाम होते हैं । कुछ लोगों का कहना है कि वे शराब अपना गम दूर करने के लिए पीते हैं जिससे कि वे अपने आपको भूल जाएँ । यह तो एक बीमारी को दूर करके दूसरी बीमारी को आमंत्रण देना है ।

अत: यह उपाय तर्कसंगत नहीं है जो आपकी समस्याओं को और बढ़ाए । नई दिल्ली में स्थित कॉलेज ऑफ चेस्ट फिजीशियंस के अध्यक्ष डी. बी. एल. खन्ना ने सर्वेक्षण कर दिल्ली में मादक पदार्थों के सेवन संबंधी आंकड़ें एकत्रित किए ।

सर्वेक्षण के समय एकत्रित आँकड़ों से ज्ञात होता है कि व्यक्तियों के विभिन्न वर्गों में मादक औषधियों का सेवन करना एक चिंता का विषय है और इन द्रव्यों के कारण हमारा समाज और विशेषकर युवा वर्ग किस सीमा तक इस प्रदूषण से प्रभावित एवं पथभ्रष्ट है ।

धूम्रपान की विश्वव्यापी समस्या से अमीर-गरीब सभी पीड़ित हैं । जिन्हें बीड़ी-सिगरेट पीने की लत लग जाती है वे उसे सभी प्रयासों के उपरांत भी नहीं छोड़ पाते । किंतु अब फ्लोरिडा (अमेरिका) स्थित एक भारतीय डॉक्टर अब्दुल्ला फतह ने निकपिट नामक ऐसी गोली बनाई है जिसके सेवन से डेढ़ माह में सिगरेट की लत छूट सकती है ।

गोली का मुख्य तत्व ‘लोबलीन सल्फेट’ है जो सिगरेट छुड़ाने की प्रायः सभी दवाओं में प्रयोग किया जाता है, लेकिन इसका स्वाद कड़वा होने के कारण प्रायः लोग उन दवाओं का नियमित सेवन नहीं कर पाते हैं, किंतु ‘निकपिट’ का स्वाद, रूप व गंध सब अच्छे हैं ।

धूम्रपान छुड़ाने के लिए ‘बिदिना’ नामक औषधि भी बाजार में उपलब्ध है । इसमें लोबलीन सल्फेट (2 मि. ग्राम), मैग्नीशियम कार्बोनेट (125 मि. ग्राम) तथा ट्राईबेसिक कैल्सियम फास्फेट (180 मि. ग्राम) रासायनिक पदार्थ होते है । ‘बिदिना’ की तीन गोलियाँ प्रतिदिन दूध से पाँच दिन तक और इसके बाद पंद्रह दिन तक दिन में दो गोली देनी चाहिए । इसका सेवन अधिक दिनों तक भी किया जा सकता है ।

इसके अतिरिक्त ‘टिमिडजॉल’ 300 मि. ग्राम की पाँच दिन तक भोजन के बाद एक गोली और फिर दस दिन तक भोजनोपरांत एक-एक गोली दो बार तत्पश्चात् अगले दस दिनों तक एक गोली प्रतिदिन सेवन करने से धूम्रपान को तिलांजलि दी जा सकती है ।

मद्यपान के लिए ऐस्पेरल (टोरेंट) अथवा ऐंटाब्यूज 250 मि. ग्राम का सेवन किया जाता है । इन औषधियों की सेवन मात्रा प्रथम दिवस चार गोली, दूसरे दिन तीन तथा तीसरे दिन दो गोली और चौथे दिन एक गोली है । यदि आवश्यकता हो तो किसी भी दिन गोली ली जा सकती है । किंतु सावधान रहें कि इन औषधियों का सेवन किन्हीं बुद्धिमान चिकित्सक की देख-रेख एवं सलाह पर ही करें ।

धूम्रपान करने वाले दूसरों के लिए भी बीमारी पैदा करते हैं, क्योंकि उनके धूम्रपान से निकला धुआँ आसपास खड़े व्यक्तियों के शरीर में प्रवेश करता है, इससे दिल की तकलीफ, कैंसर, दमा आदि होने की आशंका कई गुना बढ़ जाती है ।

नागरिक जीवन का यह अभिशाप है कि साँस लेने के लिए स्वच्छ वायु भी बड़ी कठिनाई से मिल पाती है । मोटरकारों, बसों व ट्रकों की धूम-निकास नलिकाओं (एग्जास्टों) से निकलने वाला धुआँ जनता की परेशानी का कारण बना रहता है और जनता आए दिन इसकी शिकायत भी करती है ।

वैसे डीजल इंजन पेट्रोल इंजन से युक्त मोटरगाड़ियों में से निकलने वाले प्रदूषक पदार्थ एक ही प्रकार के होते हैं । केवल इन इंजनों के काम करने की विधि अलग-अलग होने के कारण ईंधन-तेल पेट्रोल की अपेक्षा कम वाष्पशील होता है ।

दूसरे, सामान्यतः इस इंजन में वायु का अधिक उपयोग होता है । डीजल इंजन एग्जॉस्ट से निकलने वाली गैस की समस्या घन काले धुएँ और दुर्गंध के कारण आम तौर पर स्थानीय होती है । दूसरी ओर, पेट्रोल इंजन से सामान्य अवस्था में यद्यपि ज्यादा धुआँ नहीं निकलता तो भी एक अदृश्य और रंगहीन गैस, कार्बन मोनोक्साइड जो कि स्वास्थ्य के लिए हानिकर होती है, पर्याप्त मात्रा में निकलती है ।

अत: वायु के प्रदूषण में इसका बहुत योग है । यह विचार गलत है कि डीजल चालितगाड़ियों की अपेक्षा पेट्रोलचालित गाड़ियाँ वातावरण को कम प्रदूषित करती हैं । धूम्र व कार्बन मोनोक्साइड जैसे मुख्य प्रदूषकों के साथ-साथ दोनों प्रकार के इंजन कार्बन डाइऑक्साइड, विभिन्न प्रकार के हाइड्रोकार्बन, नाइट्रोजन के विभिन्न ऑक्साइड और सल्फर के ऑक्साइड जैसे साधारण प्रदूषक भी उत्सर्जित करते हैं ।

एग्जॉस्ट से निकलने वाले प्रदूषकों की मात्रा प्रत्येक इंजन के साथ बदलती है । हमारे देश में डीजल से चलने वाली गाड़ियों में मुख्य रूप से बसें और ट्रक सम्मिलित हैं । इन्हें सड़कों पर काला धुआँ उगलते देखा जा सकता है ।

डीजल इंजन की यह दुर्भाग्यपूर्ण विशेषता है कि इसमें अधिक ईंधन छोड़ा जाए तो यह अधिक शक्ति प्रदान करता है; किंतु एक निश्चित मात्रा पर पहुँचने के उपरांत इसमें छोड़ा गया अतिरिक्त ईंधन एग्जॉस्ट में काले धुएँ के रूप में प्रकट होता है ।

धुएँ को देखकर जनता द्वारा विरोध प्रकट करना स्वाभाविक ही है । एग्जॉस्ट से निकलने वाले धुएँ में लगभग एक माइक्रोन परिमाण की सूक्ष्म कार्बनमय कणिकाएँ हुआ करती हैं और एक घनमीटर में इसकी सांद्रता 0.5 ग्राम से बढ़ जाती है तो घुआँ भलीभाँति दिखाई देने लग जाता है ।

यह इंजन में ईंधन के अपूर्ण दहन का नतीजा होता है । डीजल इंजन से निकलने वाली गंध चिरमिराहट उत्पन्न करती है, विशेषतया श्लेष्म झिल्ली में । यह देखा गया है कि जब गाड़ी में भार कम या अधिक हो या जबकि इंजन कार्यहीनता अथवा इसके उपरांत त्वरण के दौरान हो तब क्षोभकारी गैसें निकलने लगती हैं ।

मध्यम भार की दशा में एग्जॉस्ट से निकलने वाली गैसें सबसे कम क्षोभकारी होती हैं । वैसे अब तक ऐसी कोई भौतिक और रासायनिक विधि ज्ञात नहीं है, जिससे एग्जॉस्ट गैसों में विद्यमान रासायनिक यौगिकों की मात्रा से क्षोभ के परिणाम का ज्ञान हो सके ।

पहले यह समझा जाता था कि क्षोभकारी गंध के कारण डीजल एग्जॉस्ट में विद्यमान फार्मेल्डीहाइड और ऐक्रोलीन होते हैं । किंतु पेट्रोल इंजन से निकलने वाली एग्जॉस्ट गैसों में भी इनकी सांद्रता लगभग डीजल एग्जॉस्ट जितनी ही होती है जबकि अब यह कम क्षोभकारी समझी जाती है ।

डीजल एग्जॉस्ट में पाए जाने वाले प्रदूषकों के संरचक हैं- विभिन्न हाइड्रोकार्बन तथा नाइट्रोजन और गंधक के विभिन्न ऑक्साइड । ये प्रदूषक पेट्रोल इंजन से भी निकलते हैं, अत: इनका वर्णन आगे एक साथ किया गया है ।

पेट्रोल इंजन से युक्त मोटरगाड़ियों में कारें और स्कूटर जैसी हलकी गाड़ियाँ शामिल हैं । इनसे पर्याप्त मात्रा में कार्बन मोनोक्साइड की सबसे ज्यादा सांद्रता तब पाई जाती है जबकि इंजन कार्यहीनता (आइडिलिंग) की दशा में होता है, ओर जब इंजन मंदन की दशा म होता है तब हाइड्रोकार्बनों की सर्वाधिक मात्रा निकलती है ।

इन असामान्य उत्सर्जनों का कारण इंजन से होने वाला गैस का थोड़ी मात्रा में प्रवाह बतलाया जाता है । डीजल इंजन से निकलने वाले कार्बन मोनोक्साइड और हाइड्रोकार्बनों की मात्रा इसलिए कम होती है कि वहाँ ईंधन में वायु काफी मात्रा में मिल जाती है ।

साँस लेने के समय कार्बन मोनोक्साइड में जितनी अधिक देर तक रहना पड़ता है, इसका विषैला प्रभाव भी क्रमश: अधिकाधिक प्रकट होता है । इनके कारण हलके सिरदर्द से लेकर मृत्यु तक हो सकती है । लेकिन मोटरगाड़ियों से सड़कों पर इसकी सांद्रता इतनी नहीं होती कि आदमी उससे मर सके ।

फिर भी इससे सिरदर्द, सिर चकराना, आँखों के आगे तिलमिले आना तथा मितली आना- यह सब इस गैस की विभिन्न मात्राओं के कारण हो सकता है । वैसे सँकरी गलियों में जहाँ से इसकी छँटनी शीघ्र नहीं हो पाती, इसकी अत्यधिक मात्रा पाई जा सकती है ।

लंदन की सड़कों के आसपास किए गए सर्वेक्षणों में इसकी सांद्रता थोड़े समय के लिए तो दस लाख में 200 भाग तक पाई है । यद्यपि दस मिनट की अवधि में औसत रूप से दस लाख में 50 भाग (अर्थात् 50 पी. पी. एम.) पाई गई है ।

राष्ट्रीय पर्यावरणीय इंजीनियरी अनुसंधान संस्थान, नागपुर द्वारा कोलकाता में किए गए सर्वेक्षण में यह देखा गया है कि वही कार्बन मोनोक्साइडजन्य प्रदूषण संसार के अन्य देशों की तुलना में कोई खास कम नहीं हैं ।

एग्जॉस्ट गैसों में पाए जाने वाले हाइड्रोकार्बन अधजले व अनजले ईंधन के अवशेषों के कारण होते हैं । ईंधन का वह भाग जो ऐटमाइजर में पूरी तरह महीन कणिकाओं में नहीं बदल पाता अथवा जो जलने से पूर्व दहन-कक्ष की दीवार पर संघनित हो जाता है, पूरी तरह वह जल नहीं पाता और इसी दशा में एग्जॉस्ट में निकल जाता है ।

कहा जाता है कि एग्जॉस्ट गैसों में 3:4 बैंजपाइरीन भी पाई जाती है जो कि कैंसर उत्पन्न करती है । लेकिन मोटरगाड़ियों की अपेक्षा इसकी बड़ी मात्रा में उत्पत्ति के अन्य कई स्रोत हैं । वर्तमान अध्ययनों से तो ऐसा लगता है कि अभी यह चिंता का कारण नहीं बना है ।

डीजल और पेट्रोल इंजन दोनों में दहन-प्रक्रिया के दौरान नाइट्रोजन के ऑक्साइड विशेष तौर पर नाइट्रिक ऑक्साइड और नाइट्रोजन डाइऑक्साइड बन जाते हैं । ये इसलिए प्रदूषक माने जाते हैं क्योंकि सूर्य के प्रकाश में हाइड्रोकार्बन से प्रतिक्रिया करके ये प्रकाश रासायनिक धूम-कुहासे को जन्म देते हैं ।

कैलीफोर्निया (सं. रा, अमेरिका) में सन् 1945 में फैले एक बदनाम धूम-कुहासे के कारण यही थे । मोटरगाड़ियों से भारी मात्रा में निकलने वाली यह गैस ही उनकी कार्यहीनता (आइडिलिंग), त्वरण व मंदन की कारण होती है ।

सबसे बुरी हालत तब होती है जब ट्रैफिक इंच-इंच भर सरककर कभी रुककर, फिर कभी चालू होकर आगे बढ़ रहा है, जबकि गाड़ियों की संख्या कम नहीं की जा सकती जैसा कि बड़े शहरों की लाल बत्ती पर अकसर पाया जाता है ।

विषैले उत्सर्जनों को कम करने का उपाय यह है कि ट्रैफिक जाम हुए अथवा रुके बिना लगातार चलता रहे । भारी बोझे की अपेक्षा मध्यम भार की ढुलाई के समय विषैला उत्सर्जन कम होता है । डीजल बसों को गर्म रखने अथवा बस अड्डों व स्टॉपों पर यात्रियों को चढ़ाते-उतारते समय मोटर-इंजनों के आइडिलिंग पर नियंत्रण लगाने से, जैसा कि स्टॉकहोम (स्वीडन) में किया गया है (वहाँ इस काम के लिए बसों को तीन मिनट से अधिक नहीं ठहराया जा सकता), प्रदूषकों के उत्सर्जन में कमी की जा सकती है ।

डीजल ईंधन में विभिन्न संयोजी मिलाने से-विशेषतया बेरियम के कार्बनिक यौगिकों से धुएँ की मात्रा काफी कम की जा सकती है । बंबई के डॉ. आई. के. भारती ने कार्बन डाइऑक्साइड के शुद्ध ऑक्सीजन में परिवर्तन करने की एक युक्ति ‘थर्मोरिएक्टर’ विकसित की है जिसको मोटर वाहन की निकास नली पर लगाने से न केवल वायु-प्रदूषण दूर होगा अपितु पेट्रोल का खर्चा भी कम होगा ।

मोटरगाड़ियों से निकलने वाले प्रदूषकों की मात्रा सरकार द्वारा निर्धारित कर दी जानी चाहिए और उसका उल्लंघन करने वालों का पता लगाने और उन्हें दंड देने की कोई कारगर व्यवस्था होनी चाहिए । अमेरिका में मोटरगाड़ियों से निकलने वाली कार्बन मोनोक्साइड की मात्रा 1.5-4.0 प्रतिशत होती है जबकि भारत में यह 5.5-10.00 प्रतिशत है ।

निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि मोटरगाड़ियों द्वारा किया जाने वाला प्रदूषण हमारे देश में अभी सीधे तौर पर स्वास्थ्य-संकट नहीं बना है । यद्यपि यह जनता के लिए कष्टकारक, असुविधाजनक अवश्य है । यहाँ प्रदूषण उन्हीं क्षेत्रों में है जहाँ ट्रैफिक बहुत अधिक है । फिर भी इससे उत्पन्न असुविधा का यह तकाजा है कि इस प्रकार के प्रदूषण पर नियंत्रण लगाया जाए ।

एक हजार गैलन पेट्रोल का उपयोग करने में मोटर वाहन निम्नलिखित विषैले पदार्थों को वायुमंडल में उत्सर्जित करता है:

मोटर वाहनों से निकलने वाला सल्फर डाइऑक्साइड प्रदूषण की दृष्टि से बहुत महत्वहीन होता है । ईंधन में पाया जाने वाला अधिकांश सल्फर जलकर सल्फर डाइऑक्साइड बन जाता है । स्वीडन में किए गए परीक्षणों में यह पाया गया है कि ईंधन में भार के अनुपात में विद्यमान 0.4 प्रतिशत सल्फर जब निकास नलिका (एग्जॉस्ट) में निकलता है तब उसकी मात्रा 0.01 से 0.02 प्रतिशत होती है और पेट्रोल इंजनों में तो इसके अनुपात से अंतत: इसकी मात्रा एक तिहाई से भी कम होती है ।

किसी मोटरगाड़ी से होने वाला प्रदूषण उससे केवल कुछ ही गजों के फासले तक फैला करता है । डीजल गाड़ी द्वारा छोड़े गए धूम की मात्रा 40 गज के फासले पर मूल स्थान से केवल 10 प्रतिशत रह जाती है । इसका कारण यह है कि वातावरण में फैलने पर इसकी सांद्रता कम हो जाती है, विशेषतया वातावरण में मौजूद ऑक्सीजन से प्रतिक्रिया करने की प्रवृत्ति के कारण ।

मोटर इंजनों से निकलने वाले प्रदूषकों की मात्रा गाड़ियों के सही रख-रखाव होने पर काफी कम हो जाती है । डीजल इंजन के इंजेक्शन पंप की सही समायोजना करने पर अनेक प्रदूषकों की मात्रा में कटौती की जा सकती है ।

इसी प्रकार आइडिलिंग की दशा में उत्पन्न कार्बन मोनोक्साइड की अत्यधिक सांद्रता को कार्बुरेटर को समायोजित कर बहुधा कम किया जा सकता है । इंजन का नियमित रख-रखाव, विशेषत: वायु छन्ने और ईंधन व्यवस्था, से धूम की मात्रा कम की जा सकती है ।

कार द्वारा उत्पन्न प्रत्येक प्रदूषक तत्व की मात्रा को इकाई माना गया है और इसी इकाई के आधार पर अन्य साधनों द्वारा उत्पन्न प्रदूषक तत्वों को भिन्न अंश के रूप में दिया गया है । बसें और रेलें, कार की अपेक्षा प्रति यात्री प्रति किलोमीटर, अधिक धूलिकण (महीन कण) उत्पन्न करती हैं । बसें गंधक के ऑक्साइड अधिक छोड़ती हैं ।

वायु-प्रदूषक तत्व, जैसे धूम तथा सल्फर डाइऑक्साइड, क्लोरीन आदि गैसें, वायुमंडल में प्रविष्ट होते ही इसका विभिन्न अंग बन जाते हैं । वायुमंडल में इनकी उपस्थिति के फलस्वरूप ये विसर्जित प्रदूषक तत्व अधिकाधिक मात्रा में वायु में मिलते जाते हैं और यात्रा-पथ में इनकी सांद्रता बदलती जाती है ।

जन-स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिए यह आवश्यक है कि इन विसर्जित तत्वों की सांद्रता निरापद स्तर से अधिक न होने पाए । वायु-प्रदूषण को दूर करने का सर्वोत्तम व आदर्श उपाय है- विसर्जन की पूरी तरह रोकथाम । परंतु तकनीकी व आर्थिक कारणों से यह उपाय प्रायः संभव नहीं है । आप अब तक जान गए होंगे कि प्रदूषक तत्व मुख्यतः रसायन, धूलि, धूम, वाष्प, कुहासा तथा गैसें हैं जिनके कारण वायुमंडल प्रदूषित होता रहता है ।

इनके अतिरिक्त कुछ ऐसे भी तत्व हैं जिनका मनुष्यों को आभास नहीं होता । धूलि, धूम, वाष्प, कुहासा तथा गैसें केवल स्थानीय प्रदूषक तत्व हैं जिनके कारण जहाँ ये उत्पन्न अथवा फैलती हैं केवल वे ही स्थान प्रदूषित होते हैं ।

किंतु कुछ ऐसे भी तत्व हैं जो विदेश में हुए प्रदूषित वातावरण को अपने देश तक ला सकने में समर्थ हैं । इन प्रदूषक तत्वों में लंबी उड़ान भरने वाले प्रवासी पक्षी हैं जो परोक्ष रूप से पर्यावरणीय प्रदूषण का नाना प्रकार से अनेक बीमारियाँ फैलाकर प्रदूषित करते रहते हैं ।

बाहर से आने वाले पक्षियों में- सारंग, मैना, चकवा, नीलहंस, गुर्गाबी, बतख, किरी तथा खंजन हैं । इनके अलावा अन्य सैलानी सुंदर पक्षी हैं- सुरखाब, मेलार्ड, हंसावर, गोल्डन प्लोवर, चैती, सिखापर, टोक, हवालिस और स्पाटविल ।

भारत में करीब 1200 प्रकार के पाए जाने वाले पक्षियों में 300 पक्षी हर साल बाहर से आते हैं । भारतीय पक्षियों में टिलयर (रोजीपोस्टर) मई के महीने में अपना घोंसला छोड़कर उड़ जाता है और अगस्त के अंत में वापस लौटता है । हमारे यहाँ की कुछ जंगली बतखें 48,000 किलोमीटर दूर साइबेरिया में पाई गई हैं ।

भारत में ज्यादातर पक्षी रूस के साइबेरिया, तिब्बत, अफगानिस्तान, मंगोलिया, चीन, अलास्का, जर्मनी, हॉलैंड, फ्रांस से आते हैं । इन स्थानों से आने वाले कुछ पक्षी जुलाई के अंत में और कुछ सितंबर के अंत में आने शुरू हो जाते हैं और मई-जून तक अपने मूल निवास को वापस लौट जाने हैं ।

प्रवासी पक्षियों का अप्रत्यक्ष रूप से एक देश से दूसरे में रोग फैलाने में हाथ होता है । कर्नाटक, आंध्र, महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान के कुछ गाँवों में भेड़ों, बंदरों, बकरियों तथा दुधारू पशुओं में ऐसे रोगाणु पाए गए हैं जो मंगोलिया, ऑस्ट्रेलिया, तिब्बत और हॉलैंड में होते हैं ।

रूस से आने वाली कुछ बतखें, चीन से आने वाले कुछ पक्षी तथा जर्मनी, फ्रांस से आने वाली कुछ प्रकार की चिड़ियों का प्रवासी पक्षी विशेषज्ञों ने अध्ययन कर यह निष्कर्ष निकाला है कि ये कई बार विभिन्न प्रकार के रोगों को फैलाने वाले कीटाणुओं से युक्त होती हैं ।

रूस के कोरलैंड स्थित स्टेशन पर जहाँ पक्षी-विशेषज्ञ वहाँ से गुजरने वाले सैलानी प्रवासी पक्षियों का अध्ययन करते हैं, यह पाया है कि पक्षी कई बार एक स्थान से दूसरे स्थान पर रोग फैलाते हैं ।

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