Read this article in Hindi to learn about how pesticides pollute ocean water.

मनुष्य के पदार्पण के बहुत पहले ही कीट-पतंग, फफूँद, कवक आदि पृथ्वी पर अपना अड्डा जमा चुके थे । उनके हजारों वंश और प्रजातियां विकसित हो चुकी थीं और भलीभांति फल-फूल रही थीं ।

ये वंश वनस्पतियों और जंतुओं पर पलते थे । उनसे अपना भोजन प्राप्त करते थे और उन्हीं पर वंश-वृद्धि करते थे । जंतुओं के बीच मनुष्य के आ जाने पर इन नाशक जीवों ने उसे भी अपने दायरे में शामिल कर लिया ।

जब मनुष्य ने खेती करना सीखा तब इन्होंने फसलों पर भी हमला करना शुरू कर दिया और उस समय से लेकर आज तक नाशक जीवों ने मनुष्य का पीछा नहीं छोड़ा है और न ही भविष्य में छोड़ने की कोई आशा है ।

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ये आज भी मनुष्य के भोजन, वस्त्र, मकान और खेती को ही नहीं, उसके शरीर को भी बहुत हानि पहुँचाने की कोशिश करते है । ये मनुष्य को अनेक व्याधियों से ग्रस्त कर देते है । इन नाशक जीवों को नष्ट करने अथवा कम-से-कम उन्हें नियंत्रित रखने के लिए मनुष्य प्राचीन काल से ही प्रयत्नशील रहा है ।

पर उसे ऐसा करने में, कुछ दशक पूर्व तक, केवल अत्यंत अल्प मात्रा में ही सफलता मिल पाई थी । पिछले कुछ दशकों में रसायन शास्त्र के क्षेत्र में कल्पनातीत प्रगति होने पर मनुष्य ने नाशक जीवों के नियंत्रण में भी अनेक महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ हासिल की ।

उसने ऐसे रसायन विकसित कर लिये हैं जो कीटों, कवकों, खरपतवारों, शाकों, सूक्ष्मजीवों आदि को नष्ट कर सकते हैं । ये रसायन ‘नाशक जीवनाशी’ अथवा ‘पीड़कनाशी’ (पेस्टीसाइड) कहलाते हैं । इनका ‘पीड़कनाशी’ नाम अधिक प्रचलित है ।

इसलिए हम भी इनके लिए पीड़कनाशी नाम का ही उपयोग करेंगे । आज ऐसे पीड़कनाशी विकसित कर लिये गए हैं जो किसी भी नाशक जीव की किसी भी वांछित प्रजाति को नष्ट कर सकते हैं । अब तक विकसित पीड़कनाशियों की संख्या 1000 से भी अधिक हो गई है ।

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आज हमारे देश में भी पचासों किस्म के पीड़कनाशियों का उत्पादन हो रहा है । पीड़कनाशियों के उपयोग से कृषि उत्पादन में अत्यधिक वृद्धि हुई । अनेक देशों में, जिनमें हमारा देश भी शामिल है, इन्होंने हरित क्रांति लाने में बहुत मदद की । इसलिए इनका बड़े पैमाने पर उत्पादन और उपयोग होता है ।

वैसे पीड़कनाशियों का बड़े पैमाने पर उत्पादन करने में द्वितीय महायुद्ध ने भी योग दिया था । युद्ध के दौरान, उन रसायनों को बड़े पैमाने पर संश्लेषित करने की आवश्यकता जोरों से सामने आई, जो दुर्गम्य जंगलों, दलदलों, पहाडों आदि में युद्धरत सैनिकों की जहरीले कीड़ों और कवकों आदि से रक्षा कर सके ।

साथ ही, प्रयोगशाला में युद्ध के लिए रसायन तैयार करते समय कुछ पदार्थों के पीड़कनाशी गुणों का भी पता चला । इससे उनके उत्पादन को बढ़ावा मिला । धीरे-धीरे सरल रसायनों से जटिल पीड़कनाशी तैयार किए जाने लगे ।

इन रसायनों में केवल उन वस्तुओं को जिन्हें नाशक जीव खाते हैं, विषाक्त करने की ही क्षमता न थी वरन् स्वयं जीवों के शरीर में प्रवेश कर उनकी महत्त्वपूर्ण क्रियाओं को गड़बड़ा देने के गुण भी थे । एक बार पीड़कनाशियों की अद्भुत क्षमता सिद्ध हो जाने पर उनका उपयोग तेजी से बढ़ने लगा । उनकी अधिकाधिक मात्राएँ इस्तेमाल की जाने लगीं ।

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जब ऐसा होने लगा तो तसवीर का दूसरा पहलू भी सामने आने लगा । लगभग बीस वर्ष की लघु अवधि में ही संश्लेषित जीवनाशी जीवित और अजीवित पदार्थों में बुरी तरह घुल-मिलकर सर्वव्यापी बन गए । वे भूमि में रम गए; नदी-नालों में पहुँच गए और भूमिगत जल में भी जा पहुँचे ।

उन्होंने सुदूर पर्वतीय झीलों की मछलियों को ही प्रदूषित नहीं किया बल्कि वे चिड़ियों के अंडों में भी प्रविष्ट कर गए और मानव शरीर में भी पहुंच गए । वे सागर में नदी-नालों के पानी के माध्यम से ही नहीं वरन् पवनों के साथ उड़कर भी जा पहुँचे ।

आज परिस्थिति यह हो गई है कि पीड़कनाशियों के अवशेष संसार के हर सागर और लगभग हर प्रजाति के समुद्री जीवों में मौजूद हैं । वे पादप प्लांक्टनों से लेकर समुद्री कीटों, सीपों, मछलियों और सागर के सबसे बड़े जीव, ह्वेल, के शरीर में भी पाए गए हैं । वे उन पक्षियों के शरीर में भी पहुँच गए हैं जो समुद्री मछलियों पर ही अपना जीवन निर्वाह करते हैं । खाद्य मछलियों, झींगों, लोबेस्टरों आदि के माध्यम से ये पीड़कनाशी अंतत: मनुष्य के शरीर में भी जा पहुँचे हैं ।

पीड़कनाशियों को आमतौर से चार समूहों में बाँटा जाता है:

(1) कार्बक्लोरीन (आर्गेनोक्लोरीन),

(2) कार्बफास्फेट (आर्गेनो-फास्फेट),

(3) पॉलीक्लोरिनेटेड बाइफेनिल (पी.सी.बी.) और

(4) कार्बामेट ।

1. कार्बक्लोरीन (Carbochlorine):

पिछले कुछ दशकों में कार्बक्लोरीन वर्ग के पीड़कनाशियों के इस्तेमाल में बहुत वृद्धि हुई है । कृषि और जनस्वास्थ्य के क्षेत्रों में अकसर इन्हीं का उपयोग किया जाता है । आमतौर से ये स्थायी होते हैं और काफी वर्षों तक बिना विघटित हुए पर्यावरण में बने रहते हैं ।

साथ ही जीव-जंतु अपने पर्यावरण से इन्हें काफी अधिक मात्रा में अपने शरीर में सांद्रित कर लेते हैं । साधारणतया ये पानी में अघुलनशील होते हैं, पर वसा में आसानी से घुल जाते हैं । बड़े क्षेत्रों में अनेक बार खड़ी फसलों पर इन्हें वायुयान से छिड़का जाता है ।

इस प्रकार काफी बड़े क्षेत्र पर काफी कम समय में इनका छिड़काव हो जाता है । पर इससे फसलों तक पचास प्रतिशत से भी कम पीड़कनाशी पहुंच पाते हैं । शेष वायुमंडल में फैल जाते हैं और उसका बड़ा भाग हवा के साथ उड़कर सागर तक जा पहुँचता है ।

कार्बक्लोरीन पीड़कनाशी मृदा आदि कणदार पदार्थों द्वारा अवशोषित कर लिये जाते हैं । अतएव केवल भारी वर्षा के दौरान ही, जब मृदा कटकर बहने लगती है, वे आमतौर से नदी-नालों में पहुँचते हैं । इसीलिए नदियों के माध्यम से कार्बक्लोरीनों की बहुत कम मात्रा ही सागर में पहुँच पाती है ।

सागर के जीवों के शरीर में पहुँचने के बाद ये तैलीय पदार्थों में पुल जाते हैं, पर उपापचयी क्रियाओं से प्रभावित नहीं होते । इसलिए ये शरीर से बाहर नहीं निकलते और सांद्रित होते रहते हैं । इसी कारण ये अनेक प्रजातियों के समुद्री जीवों के शरीर में, बहुत अधिक मात्रा में, सांद्रित हो जाते हैं । ओएस्टर अपने इर्दगिर्द के पानी की तुलना में, एक माह के भीतर ही, 70,000 गुने तक डी.डी.टी. सांद्रित करती पाई गई है ।

यद्यपि वैज्ञानिकों को अब तक एकदम सही रूप से यह ज्ञात नहीं है कि कार्बक्लोरीन शरीर में पहुँचकर क्या क्रियाएँ करते हैं परंतु मोटे रूप से केंद्रीय तंत्रिका-तंत्र में संवेगों के पारेषण में बाधा उत्पन्न करते हैं । वैसे उपयुक्त मात्रा में ये हर समुद्री जीव के लिए घातक सिद्ध हो सकते हैं । सागर के पानी में अगर कार्बक्लोरीनों की मात्रा 0.003 भाग प्रति दस लाख भाग से अधिक हो जाती है तब वह श्रिंप के लिए घातक हो जाती है ।

परीक्षणों में यह पाया गया है कि ज्वारनदमुखों के पानी में निस्यंदी अशन (फिल्टर फीडिंग) सीप कार्बक्लोरीनों की उपस्थिति की उत्तम सूचक होती हैं । ये स्थानबद्ध जीव हैं और इनके मृदु ऊतकों में कार्बक्लोरीन सांद्रित हो जाते हैं । यह सांद्रता इर्द-गिर्द के समुद्री पानी की तुलना में कई हजार गुनी तक हो सकती है ।

मजेदार बात यह है कि, ऐसी सीपों को, जिन्होंने अपने ऊतकों में कार्बक्लोरीन संचित कर ली हों, जब शुद्ध पानी में रखा जाता है तब वे उन्हें अपने शरीर से बाहर निकाल देती हैं । इसलिए सीपों की मदद से सागर के पानी में किसी भी कार्बक्लोरीन विशेष की उपस्थिति ज्ञात की जा सकती है ।

इसके विपरीत खुले सागरों में विचरण करनेवाली मछलियों से कार्बक्लोरीनों के प्रदूषण स्थल का अनुमान नहीं लगाया जा सकता क्योंकि हो सकता है कि उन्होंने ये रसायन उससे भिन्न स्थान पर ग्रहण किए हों जहाँ वे आकर सागर में मिले थे ।

पादप प्लांक्टनों पर कार्बक्लोरीनों के प्रभाव उनकी प्रजातियों के अनुसार अलग-अलग होते हैं । कुछ पादप प्लांक्टन उस समय भी प्रभावित नहीं होते जब पानी में इनकी सांद्रता 1000 भाग प्रति एक अरब भाग तक हो जाती है ।

साइक्लोटेला प्रजाति के पादप प्लांक्टनों में डाइल्ड्रिन और एंड्रिन के प्रभावस्वरूप कोशिका विभाजन एकदम रुक जाता है जबकि डी.डी.टी. कोशिकाओं के विभाजन को मंद-भर करती है । परीक्षणों में यह पाया गया है कि तट के निकट के पादप प्लांक्टन उन्मुक्त सागर के पादप प्लांक्टनों की तुलना में कार्बक्लोरीनों के प्रति अधिक रोधी होते हैं ।

सागर के पानी में मिराक्स कार्बक्लोरीन की सांद्रता बढ़ जाने से केकड़ों की शारीरिक वृद्धि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने लगते हैं । इस गुण का उपयोग वैज्ञानिक सागर के पानी में मिराक्स प्रदूषण की मात्रा का अनुमान लगाने के लिए भी करते हैं ।

डी.डी.टी. कार्बक्लोरीन वर्ग के पीड़कनाशियों में कदाचित् सर्वाधिक प्रचलित पदार्थ है । कुछ दशक पूर्व तक यह ही सबसे अधिक इस्तेमाल किया जानेवाला पीड़कनाशी था । इसके ही व्यापक इस्तेमाल से मलेरिया फैलानेवाले मच्छरों पर काफी हद तक काबू पाया जा सका था ।

डी.डी.टी (D.D.T):

1960 के दशक में विश्व स्वास्थ्य संघटन ने मलेरिया के उन्मूलन के लिए डी.डी.टी. का ही उपयोग सुझाया था । अनेक देशों ने इस सुझाव को तुरंत कार्यान्वित कर दिया था । उसके फलस्वरूप अनेक देशों में, जिनमें हमारा देश भी शामिल है, मलेरिया से होनेवाली मृत्यु संख्या में बहुत कमी आ गई थी ।

भारत में मलेरिया से मरनेवालों की संख्या 7,50,000 प्रतिवर्ष से घटकर मात्र कुछ हजार ही रह गई थी । पर उसी समय, इसके 10-15 वर्षों तक लगातार उपयोग करने के दुष्प्रभाव भी सामने आने लगे । यह लगभग पूरी पृथ्वी में, उत्तरी ध्रुव से लेकर दक्षिणी ध्रुव तक वितरित हो गई थी ।

यह पवन और बहते हुए पानी के माध्यम से दूर-दराज के सागरों में भी जा पहुँची और सुदूर अंटार्कटिक में रहनेवाले पेनगुइनों की चर्बी का हिस्सा बन गई । अमेरिकी गेहूँ को परिरक्षित करने के लिए जो डी.डी.टी. मिलाई गई थी वह भारत आ पहुंची और भारतीयों के शरीरों में जमा होने लगी ।

मच्छरों और फसलों को हानि पहुंचानेवाले कीड़ों को मारने के लिए व्यापक पैमाने पर किए गए छिड़काव तथा अमेरिकी गेहूँ के साथ आई डी.डी.टी. आदि के फलस्वरूप हम भारतीयों के शरीरों में डी.डी.टी. की काफी मात्रा संचित हो गई है ।

कुछ वर्ष पूर्व दिल्ली में किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार वहाँ के निवासियों के शरीर में 20 भाग प्रति दस लाख भाग तक डी.डी.टी. मौजूद है । इसकी तुलना में अमेरिका के निवासियों के शरीर में औसतन 7 भाग और फ्रांस के निवासियों के शरीर में 2 भाग प्रति दस लाख भाग डी.डी.टी. पाई गई है ।

डी.डी.टी. का पूरा नाम है डाइक्लोरो डाइफेनिल ट्राइक्लोरोईथेन । सबसे पहले इसका उपयोग द्वितीय विश्वयुद्ध में सैनिकों और कैदियों की जूँ मारने के लिए किया गया था । डी.डी.टी. चूर्ण रूप में त्वचा द्वारा अवशोषित नहीं होती; पर तेल में घोलने से विषैली हो जाती है ।

यह जंतुओं के शरीरों में खाद्य सामग्रियों अथवा हवा से पहुंचती है । वहाँ यह वसा प्रधान अंगों में संचित होने लगती है । यह मुख्यत: जिगर, गुर्दों और आँतों को सँभाले रखनेवाली आंत्रयोजनी की वसा में जमा हो जाती है । इसके अल्पांश से ही शरीर के एंजाइमों का संदमन हो जाता है और जिगर की कोशिकाओं का ह्रास हो जाता है । साथ ही अन्य दुष्प्रभाव भी परिलक्षित होने लगते हैं ।

डी.डी.टी. शीघ्र ही डी.डी.ई. (डाइक्लोरो डाइफेनिल डाइक्लोरोईथलीन) में विघटित हो जाती है और डी.डी.ई. अपेक्षाकृत अधिक विषैला पदार्थ है । यही प्रमुख रूप से जीव-जंतुओं को हानि पहुँचाता है । यह स्थायी पदार्थ है । इसे बैक्टीरिया भी विघटित नहीं करते ।

आमतौर से फसलों पर डी.डी.टी. का चूर्ण रूप में छिड़काव किया जाता है जिससे वह पवन के साथ उड़कर दूर-दूर तक जा पहुँचती है । सागर को प्रदूषित करनेवाली डी.डी.टी. की काफी मात्रा पवन के माध्यम से ही वहाँ तक पहुँचती है । सागर में पहुँचने पर वह काफी समय तक सतह पर ही रहती है ।

पर धीरे-धीरे कार्बनिक पदार्थों के साथ समावेशित होकर अथवा अवसादन क्रिया द्वारा पानी में काफी गहराई तक जा पहुंचती है । समुद्री जीवों में डी.डी.टी. को अपने शरीर में सांद्रित कर लेने की आश्चर्यजनक क्षमता होती है ।

पवन के साथ उड़कर अथवा पानी के साथ बहकर सागर में पहुँचनेवाली डी.डी.टी. की सांद्रता आमतौर से दस लाख भाग में 0.000002 भाग जैसी सूक्ष्म होती है । सागर में पहुंचने पर प्लांक्टन उसे अपने शरीर में सांद्रित करने लगते हैं ।

जंतु प्लांक्टन अपने शरीर में 0.04 भाग प्रति दस लाख भाग अर्थात् आसपास के पानी की तुलना में लगभग 20,000 गुनी तक डी.डी.टी. सांद्रित कर लेते हैं । इन प्लांक्टनों को मछलियों खाती हैं । डी.डी.टी. जीवों के शरीर में होनेवाली पाचन संबंधी क्रियाओं से बहुत कम प्रभावित होती है, इसलिए वह शरीर से बाहर नहीं निकलती वरन् सांद्रित होती रहती है ।

छोटी मछलियों के शरीर में उसकी सांद्रता 0.5 भाग प्रति दस लाख भाग तक हो जाती है । इन छोटी मछलियों को खानेवाली बड़ी मछलियों के शरीर में वह 1.5 भाग प्रति दस लाख भाग तक सांद्रित हो जाती है । पर जब समुद्री पक्षी इन मछलियों को खाते हैं तब उनके (पक्षियों के) शरीर में सांद्रता 13-14 गुनी बढ़ जाती है ।

केलिफोर्निया के दक्षिणी तट पर रहनेवाले और समुद्री मछलियाँ खानेवाले पक्षियों के शरीर में डी.डी.ई. और पी.सी.बी. की बड़ी मात्राएँ पाई जाती हैं । कत्थई पेलीकन (पेलीकेनस ऑक्सीडेंटेलिस) और दुहरी कलँगी कोरमोरेंट (फैलाक्रोकोरैक्स ऑरिटस) के शारीरिक लिपिडों में डी.डी.ई. की मात्रा 1000 भाग प्रति दस लाख भाग तक पाई गई है ।

कभी-कभी यह मात्रा 2,500 भाग तक पहुँच जाती है । केलिफोर्निया के निकट के सागर में, मछलियों में डी.डी.टी. के अवशेषों की काफी सांद्रता पाई गई है । परंतु पूर्वी प्रशांत महासागर तथा बाल्टिक सागर की मछलियों के शरीर में डी.डी.टी. के अवशेष अपेक्षाकृत बहुत कम, 0.2 से 2.00 भाग प्रति दस लाख भाग तक ही पाए गए हैं ।

समुद्री जंतुओं के शरीर में डी.डी.टी. के जो अवशेष पाए जाते हैं उनमें प्राय: सदैव डी.डी.ई. की मात्रा 80 प्रतिशत होती है । बाकी भाग में मुख्य रूप से डी.डी.टी. और डी.डी.डी. (डाइक्लोरो डाइफेनिल डाइक्लोरोईथेन) होते हैं ।

परीक्षणों में पाया गया है कि सागर के पानी में डी.डी.टी. की मात्रा लगभग 10 भाग प्रति एक अरब भाग हो जाने पर कुछ प्रजाति के पादप प्लांक्टनों की प्रकाश-संश्लेषण क्षमता में काफी कमी आ जाती है, परंतु अधिकांश प्रजातियों के पादप प्लांक्टनों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता ।

डी.डी.टी. के हानिकारक और घातक प्रभाव ज्ञात हो जाने पर उसका इस्तेमाल काफी कम कर दिया गया । कुछ देशों में तो उसके उपयोग पर कठोर प्रतिबंध लगा दिए गए हैं । हमारे देश में प्रतिबंध तो नहीं लगाए गए पर उसका उपयोग बहुत कम कर दिया गया ।

इससे मनुष्य के शरीर, खेती, वस्त्र आदि को हानि पहुँचानेवाले नाशक जीवों ने अपने कुकृत्य पुन: जोरों से आरंभ कर दिए हैं । मलेरिया, जो एक बार संसार के नक्शे से लगभग समाप्त हो गया था, फिर से विश्वव्यापी समस्या बनने लगा ।

इसलिए डी.डी.टी. के स्थान पर अन्य कार्बक्लोरीनों का उपयोग करने पर विचार किया जाने लगा है । इस संबंध में एंडोसल्फान का नाम सामने आया । यह स्तनधारियों के लिए काफी कम विषाक्त होता है ।

परंतु जिन मछलियों के शरीर में एंडोसल्फान पहुँच जाता है उनमें अनेक जैवरासायनिक और एंजाइमी परिवर्तन होने लगते हैं और उनके गलफड़े क्षतिग्रस्त हो जाते हैं । एंडोसल्फान क्लैमों के प्रजनन को भी कुप्रभावित करता है ।

एल्ड्रिन, डाइल्ड्रिन, एंड्रिन तथा अन्य कार्बक्लोरीन:

डी.डी.टी. का उपयोग कम होने के फलस्वरूप एल्ड्रिन और डाइल्ड्रिन के उपयोग अधिक मात्रा में होने लगे हैं । पर ये दोनों पीड़कनाशी डी.डी.टी. से भी अधिक विषैले होते हैं, विशेष रूप से उच्च जंतुओं के लिए । कुछ जंतुओं के लिए इनकी अत्यंत सूक्ष्म मात्राएँ भी घातक होती हैं ।

ये दोनों डी.डी.टी. की तुलना में अधिक स्थायी भी हैं । इसलिए एक बार इस्तेमाल किए जाने पर ये काफी दिनों तक वातावरण में बने रहते हैं । यद्यपि ये डी.डी.टी. के मुकाबले में पानी में अधिक घुलनशील हैं पर सागर तक इनका भी अधिकांश भाग पवनों के माध्यम से ही पहुंचता है ।

एल्ड्रिन और डाइल्ड्रिन भी जंतुओं के ऊतकों में सांद्रित होते रहते हैं । जैसे-जैसे हम खाद्य श्रृंखला के उच्चतर जंतुओं की ओर बढ़ते हैं, इनकी सांद्रता बढ़ती जाती है । इस प्रकार उच्च जंतुओं के शरीर में, वातावरण की तुलना में, यह कई हजार गुनी अधिक हो जाती है ।

एल्ड्रिन और डाइल्ड्रिन परजीवी जंतुओं (वे जंतु जो अन्य जंतुओं का भक्षण करते हैं) के शरीर में विशेष रूप से सांद्रित हो जाते हैं । इस बारे में डाइल्ड्रिन एल्ड्रिन की तुलना में अधिक सक्रिय है । इसीलिए कदाचित् आज पूरे संसार में, लगभग हर जाति के जंतुओं के शरीर में डाइल्ड्रिन पाई जाती है ।

वह अंटार्कटिक महाद्वीप के छोटे-छोटे द्वीपों पर रहनेवाले जंतुओं के शरीर में भी पाई गई है । साथ ही, ग्रेट ब्रिटेन और उत्तरी अमेरिका के समुद्री पक्षियों के शरीरों में भी । एल्ड्रिन और डाइल्ड्रिन की तुलना में एंड्रिन बहुत कम क्षेत्र में फैलती है । इससे नाशक जीवों का तेजी से सफाया हो जाता है ।

पर यह मेढक, मछलियों और साँपों का भी तेजी से सफाया कर देती है । यह आमतौर से स्थानीय ही रहती है, पर उन सागरों में, जो उन्मुक्त सागर से नहीं जुड़े होते, एंड्रिन के प्रभाव काफी हानिकारक हो सकते हैं । यह श्रिंप और मछलियों के लिए घातक सिद्ध होती है ।

कुछ प्रजातियों की शिशु मछलियां यदि अपने शरीर में एंड्रिन की 2.5 भाग प्रति अरब भाग जैसी सूक्ष्म मात्रा भी सांद्रित कर लेती हैं तब भी उनकी मृत्यु हो जाती है । यही दशा समुद्री पक्षियों की भी होती है । कुछ वैज्ञानिकों का अनुमान है कि संयुक्त राज्य अमेरिका के लुइसीआना के तटीय क्षेत्रों से कत्थई पेलीकन पक्षी के एकाएक लुप्त हो जाने का एक प्रमुख कारण उन पक्षियों द्वारा एंड्रिनयुक्त मछलियों का भक्षण था ।

2. कार्बफास्फेट (Carbophospahte):

कार्बफास्फेट वर्ग के पीड़कनाशियों में प्रमुख पदार्थ हैं पैराथिऑन, मेलाथिऑन, क्लोरथियम, फोसड्रिन, डायजिनान, फोरेट । ये ‘प्रतिकोली-नेस्टेरेज’ भी कहलाते हैं क्योंकि इनमें कोलीनेस्टेरेज एंजाइम को विषाक्त करने अथवा उसकी क्रियाशीलता को संदमित करने की अपूर्व क्षमता होती है ।

कोलीनेस्टेरेज एंजाइम जंतुओं के तंत्रिका तंत्र के सुचारु रूप से कार्य करने के लिए बहुत आवश्यक होता है । मछलियों की मांसपेशियों में कोलीनेस्टेरेज की मात्रा अधिकांश स्तनधारियों की तुलना में अधिक होती है । पिछले कुछ वर्षों के दौरान इन पीड़कनाशियों पर बहुत अधिक साहित्य रचा गया है ।

कार्बफास्फेट पानी में अपेक्षाकृत अधिक घुलनशील होते हैं । इसलिए इनकी अधिकांश मात्रा नदियों के पानी में घुलकर सागर में पहुंचती है । वर्षा के पानी के साथ बहकर भी ये सागर में जा पहुँचते हैं । अधिकांश कार्बफास्फेट कार्बक्लोरीनों की तुलना में कम स्थायी होते हैं ।

इसलिए जल्दी ही विघटित हो जाते हैं । पानी के संपर्क में आने पर ये धीरे-धीरे जल अपघटित होते रहते हैं । कार्बफास्फेट समुद्री जंतुओं के शरीर में अपेक्षाकृत कम मात्रा में सांद्रित होते हैं और जल्दी ही विघटित हो जाते हैं । इसलिए जंतुओं के शरीर में इनकी सांद्रता को इतना महत्व नहीं दिया जाता जितना कार्बक्लोरीनों को ।

कम स्थायी होने के कारण ये आमतौर से ज्वारनदमुखों में ही रहनेवाले जंतुओं, विशेष रूप से नवजात जंतुओं, के लिए विषाक्त होते हैं । सामान्यत: कार्बफास्फेटों से जलीय प्राणी थलचरों की अपेक्षा कम प्रभावित होते हैं । वैसे भी ये जैविक ऊतकों में कम समय तक ही टिकते हैं ।

पर जिन क्षेत्रों में ये छिड़के जाते हैं उनमें ये नाशक जीवों के अतिरिक्त अन्य प्राणियों की भी, बड़े पैमाने पर, मृत्यु का कारण सिद्ध होते हैं । सामान्य रूप से ये वातावरण में दूर तक नहीं फैलते । इसलिए कार्बक्लोरीनों की तुलना में अपेक्षाकृत कम हानिकारक समझे जाते हैं और इसीलिए उनका इस्तेमाल अधिक होने लगा है ।

वैसे किसी जंतु के शरीर में काफी मात्रा में पहुँच जाने पर कार्बफास्फेट मुख्य रूप से सूत्र युग्मन की सामान्य क्रिया को मंद कर देते हैं । इनके प्रभावस्वरूप तंत्रिका-तंत्र की सामान्य क्रियाएं गड़बड़ा जाती है । परीक्षणों में पाया गया है कि यदि कुछ कार्बफास्फेटों को थोड़े समय के लिए इस्तेमाल किया जाए तो वे समुद्री जीवों के लिए अपेक्षाकृत अधिक घातक सिद्ध हो सकते है । कार्बफास्फेटों से प्रदूषित समुद्री जीवों के भक्षण से मनुष्य की मृत्यु नहीं होती । वैसे इन पीड़कनाशियों में मनुष्य के लिए सबसे घातक पैराथिमन समझा जाता है ।

3. पॉलीक्लोरीनेटेड बाइफेनिल (पी.सी.बी.) [Poly Chlorinated Biofenyl (P.C.B)]:

पॉलीक्लोरीनेटेड बाइफेनिलों की खोज आज से लगभग छ: दशक पहले, स्वीडन में, हुई थी और उसी समय से ये विभिन्न उद्योगों; यथा- पेंट, प्लास्टिक, एडहेसिव, रबर, कागज, स्याही, विद्युत आदि, में बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किए जा रहे हैं । साथ ही, कृषि में भी इनका उपयोग हो रहा है ।

आमतौर से लोग इन्हें ‘पी.सी.बी.’ (संक्षिप्त) के नाम से पुकारते हैं । हम भी इन्हें इसी नाम से संबोधित करेंगे । पी.सी.बी. की उपयोगिता उनके अणुओं के रासायनिक स्थायित्व के फलस्वरूप होती है । यह स्थायित्व पी.सी.बी. को अग्नि और रसायनों के प्रति रोधी बनाता है ।

अपनी इस क्षमता के कारण ही ये अनेक प्राकृतिक और संश्लेषित पॉलीमरों के साथ आसानी से इस्तेमाल किए जा सकते हैं । अपने परावैद्युत् गुणों, अग्नि प्रतिरोधकता, निष्क्रियता और उच्च तापों पर स्थायित्व के कारण ही पी.सी.बी. ट्रांसफार्मरों, संधारित्रों और उष्मा संयंत्रों में इस्तेमाल किए जाते हैं ।

पर इनके ये सब गुण तथा पानी में इनकी बहुत कम घुलनशीलता यह दर्शाती है कि इस्तेमाल के बाद भी पी.सी.बी. लंबे समय तक वातावरण में रहते हैं । एक बार वातावरण में आ जाने के बाद वे खाद्य श्रृंखला में उसी तरह शामिल हो जाते हैं जैसे डी.डी.टी. ।

इसीलिए अनेक जंतुओं के शरीरों में उनके अवशेष पाए जाते हैं । पी.सी.बी. का उपयोग आरंभ होने के कुछ दिन बाद ही ब्रिटेन, नीदरलैंड और उत्तर अमेरिका के वन्य-जंतुओं में उनके अवशेष पाए जाने लगे थे । बड़े क्षेत्रों पर आमतौर से पी.सी.बी. को अकेले नहीं छिड़का जाता ।

साधारणत: उन्हें किसी अन्य पीड़कनाशी के साथ मिला लिया जाता है । इसीलिए इन यौगिकों का सागर तक पहुंचने का सही मार्ग पूरी तरह ज्ञात नहीं है । समझा जाता है कि ये औद्योगिक अपशिष्टों और सीवेज आपंक के साथ सागर तक पहुंचते हैं ।

सागर में पहुँचकर पी.सी.बी. लगभग उसी तरह से व्यवहार करते हैं, जैसे- कार्बक्लोरीन । वे डी.डी.टी. की भाँति ही बड़े क्षेत्रों में फैल जाते हैं । यद्यपि इनकी तीव्र विषाक्तता अपेक्षाकृत कम होती है परंतु दीर्घगामी विषाक्तता काफी अधिक है ।

डी.डी.टी. की भाँति ही इन्हें पक्षियों के अंडों की परत को पतला करने के लिए दोषी ठहराया जाता है । कार्बक्लोरीनों की तुलना में पी.सी.बी. यौगिक काफी कम मात्रा में समुद्री जंतुओं में सांद्रित होते हैं । पक्षाभी जंतु टेट्राहाइमेना पर ‘एरोक्लोर-1254’ (संयुक्त राज्य अमेरिका की मानसेंटी नामक फर्म द्वारा तैयार किया गया एक पी.सी.बी. यौगिक; ‘एरोक्लोर-1254’ व्यावसायिक नाम है) के प्रभाव ज्ञात करने के लिए किए गए परीक्षणों में पाया गया, यह जंतु अपने शरीर में सागर के पानी की तुलना में 60 गुना अधिक पी.सी.बी. सांद्रित कर लेता है ।

एरोक्लोर-1254 से टेट्राहाइमेना की शारीरिक वृद्धि-दर कम हो जाती है और जनसंख्या घनत्व भी कम हो जाता है । इसी प्रकार एरोक्लोर-1254 के पांच माइक्रोग्राम प्रति लीटर जलीय घोल में युवा ओएस्टरों (क्रास्सोस्ट्रिआ विरजिनिका) को 24 हफ्तों तक रखने पर उनकी ऊँचाई और वजन कम हो गया ।

इन ओएस्टरों को एरोक्लोर के एक भाग प्रति एक अरब भाग जैसे तनु घोल में रखने पर उन्होंने (ओएस्टरों ने) एक लाख गुने से भी अधिक एरोक्लोर अपने शरीर में सांद्रित कर लिया । ओएस्टरों की वृद्धि-दर से सागर के पानी में पी.सी.बी. की उपस्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है । ऐरोक्लोर मछलियों के यकृत में संचित हो जाता है ।

4. कार्बामेट (Carbomate):

डी.डी.टी. का उपयोग कम हो जाने के बाद कार्बामेट यौगिकों का उपयोग बढ़ गया । फसलों को हानि पहुँचानेवाले कीड़ों और मलेरिया फैलानेवाले मच्छरों को नियंत्रित करने के लिए कारबेरिल नामक कार्बामेट का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल होने लगा है ।

कार्बामेट यौगिक स्थायी नहीं होते । शायद इसीलिए वे सागर के पानी में अथवा उसके जंतुओं के शरीर में व्यापक रूप से नहीं पाए जाते । वे मुख्य रूप से ज्वारनदमुखों की सिल्ट में पाए जाते हैं । कार्बफास्फेटों की भांति कार्बामेट भी कोलीनेस्टेरेज की क्रियाओं का संदमन करते हैं । इनकी विषाक्ता अलग-अलग जातियों के जंतुओं के लिए भिन्न-भिन्न होती है । कारबेरिल क्रिस्टेशियाई जंतुओं के लिए काफी विषाक्त होते हैं पर मछलियों या सीपियों के लिए नहीं ।

कार्बामेट से प्रदूषित समुद्री मछलियों या शैलफिशों के भक्षण से मनुष्य में रोग उत्पन्न होते नहीं पाए गए हैं । ज्वारनदमुखों की मछलियों में एसिटाइल कोलीनेस्टेरेज एंजाइम के संदमन को कार्बमेटों की उपस्थिति का संकेत समझा जा सकता है ।

कार्बामेट एंजाइम के सक्रिय स्थलों को बाँध देते हैं और एसीटाइल कोलीन के विघटन को रोक देते हैं । इससे ऐसिटाइलकोलीन की बहुत अधिक मात्रा संचित होने लगती हैं । परिणामस्वरूप तंत्र संवेगों का स्थानांतरण रुक जाता है ।