सागर को प्रदूषित करनेवाले पदार्थों में कदाचित् सबसे अधिक हानिकारक और घातक है रेडियोधर्मी पदार्थ । इनसे समुद्री जीव-जंतुओं को ओर उनके माध्यम से मनुष्यों को न केवल तात्कालिक हानि पहुँचती है, वरन् उत्परिवर्तन भी हो सकते हैं जिनके परिणामस्वरूप जीव-जंतुओं की संपूर्ण नस्लें ही बदल सकती हैं ।

साथ ही मनुष्यों को ऐसे असाध्य रोग हो सकते हैं जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलें और जिनसे मृत्यु ही छुटकारा दिला पाए । यद्यपि समुद्री पानी में रेडियोधर्मिता का पता काफी पहले (वर्ष 1906 में ही) बेकरल द्वारा प्रथम रेडियोधर्मी पदार्थ (यूरेनियम) की खोज के मात्र 10 वर्ष बाद ही चल गया था पर सागर में रेडियोधर्मिता की मात्रा में भयंकर वृद्धि हुई नाभिकीय परीक्षणों और नाभिकीय रिएक्टरों की स्थापना के बाद ।

सागर के अंदर और छोटे टापुओं पर नाभिकीय परीक्षण करने से सागर के पानी में रेडियोधर्मिता प्रत्यक्ष रूप से बहुत बढ़ गई जबकि नाभिकीय रिएक्टरों से उसमें परोक्ष रूप से काफी वृद्धि हुई । नाभिकीय रिएक्टरों में बचे रहनेवाला कचरा (व्यर्थ पदार्थ) भी घातक रूप से रेडियोधर्मी होता है ।

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अगर उसे समुचित रूप से ठिकाने नहीं लगाया जाता तो वह मनुष्य के लिए घातक सिद्ध हो सकता है । आजकल उसे ठिकाने लगाने का सर्वोत्तम उपाय गहरे सागर में फेंक देना ही समझा जाता है । यद्यपि पिछले कुछ दशकों में मनुष्य के क्रिया-कलापों के फलस्वरूप सागर की रेडियोधर्मिता में वृद्धि हुई है परंतु प्राकृतिक कारणों से भी सागर रेडियोधर्मी होता रहा है ।

ऐसा पिछले करोड़ों-अरबों वर्षों से चल रहा है । इसलिए सागर के रेडियोधर्मी प्रदूषण की चर्चा करते समय पहले प्राकृतिक रेडियोधर्मी पदार्थों पर दृष्टिपात करना श्रेयष्कर होगा ।

सागर में कैसे पहुँचते हैं ? (How Radioactive Elements Reach Ocean Water?):

पृथ्वी पर थल की अपेक्षा जल (सागर) अधिक क्षेत्र में फैला हुआ है । इसलिए रेडियोधर्मी धूलि की भी अधिक मात्रा सागर पर गिरती है । वहाँ रेडियोधर्मी स्ट्रांशियम की सांद्रता थल की अपेक्षा कहीं अधिक पाई जाती है । सागर में ‘सूखे’ दिन की अपेक्षा वर्षा के दौरान कहीं अधिक रेडियोधर्मी धूलि पहुंचती है । समझा जाता है कि समुद्री फुहार (सी स्प्रे) भी धूलि को सागर में पहुंचने में मदद देती है ।

सागर में रेडियोधर्मी पदार्थ उस समय भी काफी मात्रा में पहुंचते हैं जब नाभिकीय विस्फोट सागर के भीतर ही, या छोटे टापुओं पर किया जाता है । साथ ही थल पर किए गए विस्फोटों से उत्पन्न रेडियोधर्मी मलबे का भी एक अंश नदियों के पानी में मिलकर अथवा वर्षा के पानी के साथ बहकर सागर में पहुँच जाता है ।

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जब नाभिकीय विस्फोट सागर के अंदर किया जाता है तब उत्पन्न होनेवाले न्यूट्रान सागर के पानी के विभिन्न घटकों के साथ क्रिया करके अनेक प्रकार के रेडियोधर्मी पदार्थ उत्पन्न करते हैं । इनमें से अधिकांश पदार्थों की अर्द्ध आयु बहुत कम होती है और कुछ ही दिनों में उनका क्षय हो जाता है ।

ऐसे कुछ प्रमुख पदार्थ हैं- रेडियोधर्मी, कैल्सियम, सोडियम ब्रोमीन, पोटैशियम, मैग्नीशियम, स्ट्रांशियम, क्लोरीन आदि । थल पर गिरनेवाली रेडियोधर्मी धूलि बहुत धीमी गति से सागर तक पहुँचती है । प्रयोगों में पाया गया है कि वर्ष-भर में जितना रेडियोधर्मी स्ट्रांशियम थल पर गिरता है उसका लगभग 1 से 10 प्रतिशत भाग ही वर्षा के साथ बहकर सागर में पहुंच पाता है । वैसे थलीय जल में स्ट्रांशियम इतनी कम मात्रा में उपस्थित होता है कि उसे ठीक-ठीक मापना भी कठिन होता है ।

रेडियोधर्मी स्ट्रांशियम की भाँति रेडियोधर्मी सीजियम भी थलीय जमावटों के साथ बहुत स्थायी यौगिक बनाता है । उसकी भी केवल 2 से 6 प्रतिशत मात्रा ही पानी के साथ बहकर सागर तक पहुँच पाती है । ट्रिटियम के साथ भी ऐसा ही होता है ।

पृथ्वी पर कहां, भूमि में, स्ट्रांशियम के रेडियोधर्मी समस्थानिकों की मात्रा कितनी है । रेडियोधर्मी धूलि की धरती पर गिरनेवाली मात्रा ज्ञात करने के लिए आमतौर से रेडियोधर्मी स्ट्रांशियम और सीजियम की मात्राएं मापी जाती हैं, यद्यपि उनकी तुलना में रेडियोधर्मी लोहा कहीं अधिक मात्रा में गिरता है ।

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इसके कारण हैं विस्फोटों में स्ट्रांशियम और सीजियम की अधिक मात्रा में उत्पत्ति, लंबी अर्द्ध आयु और सरल निश्चयन विधि । इनकी सांद्रता को मापने से पता चलता है कि सागर की सतह के पानी में ही रेडियोधर्मिता बढ़ती है । उसके बाद रेडियोधर्मी पदार्थ गहरे सागर में जमने लगते हैं । वैसे कुछ समय बाद अनेक पदार्थ विघटित भी हो जाते हैं ।

रेडियोधर्मी पदार्थ व्यर्थ (Unproductive Radioactive Pollutants):

आजकल बिजली की अधिकांश मात्रा ताप बिजलीघरों में बनाई जाती है । उनमें कोयला अथवा क्रूड पेट्रोलियम जलाया जाता है । इसके तथा अन्य प्रयोगों के फलस्वरूप कोयला और पेट्रोलियम के भंडार तेजी से कम होते जा रहे हैं । इससे अधिकाधिक देश परमाणु ऊर्जा बनाने के प्रयत्न कर रहे हैं ।

यद्यपि इन परमाणु बिजलीघरों में दीर्घ अवधि में बिजली उत्पादन में बहुत कम लागत आती है पर इनमें रेडियोधर्मी पदार्थों के लीक होने का खतरा बना रहता है । आमतौर से इस प्रकार से लीक होनेवाले रेडियोधर्मी पदार्थों की मात्रा बहुत कम होती है पर समय-समय पर होनेवाली दुर्घटनाओं में इनकी बड़ी मात्राएँ उत्पन्न हो जाती हैं जिनका कुछ अंश अंतत: सागर में पहुँच जाता है ।

आजकल जब नाभिकीय विस्फोट नहीं किए जा रहे हैं, सागर में पहुँचनेवाले 99 प्रतिशत रेडियोधर्मी पदार्थों का स्रोत पारमाणविक ईंधन संवर्धन प्लांट ही हैं । इनके बहिःस्रावों में रेडियोधर्मी आयोडीन, जैनान, स्ट्रांशियम, सीजियम, ट्रिटियम, पोटैशियम आदि शामिल हैं ।

अनेक स्थानों पर इन प्लांटों से, पाइप लाइन के माध्यम से, द्रव रेडियोधर्मी कचरा सीधा सागर में डाल दिया जाता है । इस प्रकार प्रतिवर्ष हजारों टन रेडियोधर्मी द्रव सागर में पहुँच जाता है । इसमें अन्य पदार्थों के साथ बड़ी मात्रा में ट्रिटियम तथा कुछ प्लूटोनियम और यूरेनियम होता है ।

इसी प्रकार शोधकार्यों आदि के लिए स्थापित किए गए नाभिकीय रिएक्टरों, नाभिकीय शक्ति से चलनेवाले जल-जहाजों और पनडुब्बियों तथा सागर तल पर की जानेवाली खुदाई आदि से भी रेडियोधर्मी पदार्थ उत्पन्न होते हैं । ये भी सागर को प्रदूषित करते हैं ।

पर इनकी मात्रा उन व्यर्थ पदार्थों से कम होती है जो रेडियोधर्मी कचरे के रूप में सागर में फेंके जाते हैं । नाभिकीय रिएक्टरों, परमाण्वीय ईंधन संवर्धन प्लाटों और परमाणु बिजलीघरों में उत्पन्न होनेवाले ठोस रेडियोधर्मी कचरे (व्यर्थ पदार्थों) को फेंकने के लिए सागर की गहराइयाँ बहुत उपयुक्त जगह समझी जाती हैं । इस प्रकार के कचरे को ऐसे पैकेटों में जो आसानी से क्षतिग्रस्त नहीं हों, जिनमें छिद्र नहीं हों और जिनका घनत्व कम-से-कम 1.2 ग्राम प्रति धन सेंटीमीटर हो, 2000 फैदम की गहराई में फेंका जाता है ।

रेडियोधर्मी कचरे को इस्पात के डिब्बों में भी भरकर उनके मुँह को सीमेंट कंक्रीट से बंद करके 2,000 मीटर से अधिक गहरे सागर में डुबो दिया जाता है । पर हमेशा ऐसा नहीं हो पाता जिससे सागर की रेडियोधर्मिता बढ़ जाती है । वैसे भी इस प्रकार के पैकेटों की आयु 10-20 वर्ष ही होती है ।

उसके बाद उनसे रेडियोधर्मी पदार्थ लीक होने लगते हैं । पिछले कुछ वर्षों में परमाणु बिजलीघरों में तेजी से वृद्धि होने के फलस्वरूप सागर में फेंके जानेवाले रेडियोधर्मी कचरे की मात्रा में भी वृद्धि हुई है और धीरे-धीरे वह चिंता का विषय बनती जा रही है ।

नाभिकीय रिएक्टरों में पैदा होनेवाले रेडियोधर्मी कचरे के निपटान के बारे में कुछ दिलचस्प घटनाएं घटी हैं । इस संबंध में मजेदार बात यह है कि रेडियोधर्मी कचरे को समुचित रूप से ठिकाने लगाने की समस्या सबसे पहले उस देश के सामने आई जिसे नाभिकीय ऊर्जा से (उसके गलत उपयोग से) सबसे अधिक हानि पहुँची है ।

वह देश है जापान । हाँ, जापान में ही वर्ष 1966 में सबसे पहले यह समस्या उठी थी कि वह अपने नाभिकीय रिएक्टरों से निकलनेवाले रेडियोधर्मी कचरे का निपटान कैसे करें । जापान की स्थिति यह है कि वहाँ न तो पर्याप्त मात्रा में कोयला मिलता है और न ही पेट्रोलियम ।

उसे इन वस्तुओं की अपनी लगभग संपूर्ण माँग आयात से ही पूरी करनी पड़ती है । इसलिए काफी पहले ही उसने नाभिकीय ऊर्जा में दिलचस्पी लेनी शुरू कर दी थी । फलस्वरूप वहाँ काफी जल्दी ही नाभिकीय रिएक्टर स्थापित हो गए थे और उनसे रेडियोधर्मी कचरा निकलने लगा था ।

आरंभ में इस कचरे की विशेष प्रकार के कनस्तरों में भरकर रखा जाने लगा था । प्रत्येक कनस्तर में लगभग 200 लिटर कचरा भरा जाता था । निश्चय ही इस कचरे में रेडियोधर्मिता का स्तर काफी कम था । शीघ्र ही इन कनस्तरों की संख्या तेजी से बढ़ने लगी ।

वर्ष 1977 तक इनकी संख्या 4,60,000 हो गई । अब जापान की सरकार को उन्हें किसी ‘सुरक्षित स्थान’ पर ठिकाने लगाने की चिंता होने लगी । उसने उन्हें प्रशांत महासागर में मेरिआना खड्ड के निकट फेंकने का प्रस्ताव रखा ।

(मेरिआना खड्ड संसार का सबसे गहरा स्थल है उसकी गहराई सागर तल से, लगभग 11,000 मीटर है) । अपने इस प्रस्ताव को कानूनी जामा पहनाने की दृष्टि से जापान, 1980 में, एक अंतरराष्ट्रीय करार (लंदन डंपिंग कनवेंशन-एल.डी.सी.) का सदस्य बन गया ।

यह करार संयुक्त राष्ट्रसंघ के तत्वावधान में लंदन में हुए एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में, वर्ष 1972 में, विभिन्न देशों के बीच हुआ था और इसका संबंध अपशिष्टों तथा अन्य हानिकारक पदार्थों को सागर में फेंकने से उत्पन्न समुद्री प्रदूषण को रोकने से था ।

पर जापान का इरादा प्रगट होते ही प्रशांत महासागर के द्वीप-देशों में अच्छा-खासा हंगामा मच गया । दक्षिणी प्रशांत महासागर में स्थित द्वीप-देशों ने इस प्रस्ताव का जमकर विरोध किया । उन्होंने जापान से कहा कि वह अपना रेडियोधेर्मी कचरा प्रशांत महासागर में फेंकने के बजाय अपनी ही भूमि में गाड़े ।

साथ ही उन्होंने संयुक्त राज्य अमेरिका से भी प्रशांत महासागर में कोई भी नाभिकीय परीक्षण न करने का आग्रह किया । उक्त देशों ने इस बारे में अनेक सम्मेलन किए, अंतरराष्ट्रीय मंचों पर शोर मचाया और रेडियोधर्मी कचरे को सागर में फेंकने के शीघ्रगामी और दीर्घगामी दुष्प्रभाव ज्ञात करने के लिए अनेक वैज्ञानिक अध्ययन कराए ।

इन अध्ययनों के कुछ महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष इस प्रकार से थे:

(1) सागर में फेंका गया रेडियोधर्मी कचरा अकसर ही लीक कर जाता है;

(2) इस प्रकार लीक होनेवाले पदार्थ सागर की खाद्य-श्रृंखला में पहुंच जाते हैं । वे उन जीवों के शरीर में भी पहुंच जाते हैं जिन्हें मनुष्य खाता है;

(3) इसके परिणामस्वरूप कैंसर तथा अन्य बीमारियों के खतरे बढ़ गए हैं ।

इनके अतिरिक्त अन्य देशों ने भी रेडियोधर्मी कचरे को सागर में डालने पर कई बार एतराज किए और अपने विचारों को अनेक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में प्रकट भी किया । यद्यपि रेडियोधर्मी पदार्थों को सागर में डालने के काफी नुकसान हैं पर जब तक इस बारे में कोई उपयुक्त विकल्प नहीं मिल जाता तब तक इस कचरे को सागर में ही डाला जाता रहेगा ।

सागर मे रेडियोधर्मी पदार्थ के वितरण (Distribution of Radioactive Pollutants in Ocean):

सागर में पहुँचनेवाले अधिकांश रेडियोधर्मी पदार्थ उसकी सतह, तट अथवा उसकी तली पर मिलते हैं । दूसरे शब्दों में, वे सागर में पवन, थल और जल की सीमाओं पर मिलते हैं । इसलिए उन पर इन सब सीमाओं की परिस्थितियों के अत्यधिक प्रभाव पड़ते हैं ।

वे निम्नलिखित में से किसी भी तरीके से वितरित हो सकते हैं:

(क) सागर के पानी में घुले रह सकते हैं,

(ख) पानी में तिरते हुए कणों द्वारा अथवा सागर की तली की जमावटों द्वारा अवशोषित हो सकते हैं और

(ग) उर्णित (फ्लोकुलेट) होकर तली पर अवक्षेपित हो सकते हैं ।

इनके अतिरिक्त वे सागर के पौधों और जंतुओं द्वारा अवशोषित भी किए जा सकते हैं । वे सब क्रियाएँ एक साथ भी हो सकती हैं । रेडियोधर्मी समस्थानिक सागर में ज्वारीय और तटीय जलधाराओं द्वारा प्रक्षुब्ध विसरण (टरबुलेंट डिफ्यूजन) और जंतुओं द्वारा तनुकृत करके वितरित होते रहते हैं । पर तनुकरण और वितरण के साथ-साथ उनका सांद्रीकरण भी होता रहता है ।

वे समुद्री जीव-जंतुओं के शरीरों में रासायनिक रूप से अवशोषित होकर संचित होते रहते हैं और खाद्य-श्रृंखला के अंग बनते रहते हैं । उनके इस प्रकार के संचय में आयन-विनिमय, उर्णन और अवक्षेपण जैसी क्रियाएँ योग देती हैं ।

इन समस्थानिकों की समुद्री पारितंत्र (इकोसिस्टम) में शामिल होने का तरीका और दर अलग-अलग होती हैं । वे मुख्य रूप से समस्थानिक विशेष के रासायनिक गुणों और जीवों के लिए उसकी उपयोगिता पर निर्भर होती हैं ।

समुद्री पानी में तिरते कणों द्वारा अवशोषित हो जानेवाले समस्थानिक पानी के ‘संवहन चक्र’ (सागर में विभिन्न कारणों से सतह का पानी निरंतर तली की ओर जाता रहता है और तली का पानी ऊपर उठता रहता है । इस प्रकार बननेवाला चक्र ‘संवहन चक्र’ कहलाता है ।) के साथ तली पर पहुँचते रहते हैं ।

थर्मोक्लाइन के ऊपर इस प्रकार के ऊर्ध्वाधर परिक्षेपण (वर्टिकल डिसपरशन) की दर आण्विक विसरण (मॉलीक्यूलर डिफ्यूजन) की तुलना में बहुत अधिक होती है । पर यह क्षैतिज विस्तार की अपेक्षा काफी कम होती है ।

तेजी से बहती हुई हवाएँ और जलधाराएँ इन कणों को दूर-दूर तक बहा ले जाती हैं । थर्मोक्लाइन के ऊपर ऐसा अपेक्षाकृत काफी अधिक होता है । रेत आदि के कणों के साथ तली पर बैठ जानेवाले रेडियोधर्मी समस्थानिक सागर की रेडियोधर्मिता के परिमापन के लिए बहुत महत्वपूर्ण पाए गए हैं ।

वैसे कणों द्वारा इन समस्थानिकों के अवशोषण की दर समस्थानिक विशेष के रासायनिक गुण, कणों के आकार पानी की लवणता, अन्य रेडियोधर्मी समस्थानिकों की उपस्थिति आदि अनेक कारकों पर निर्भर होती है ।

जीव कैसे ग्रहण करते हैं ? (How Aquatic Organisms Intake Radioactive Elements):

समुद्री जीव दो तरीकों से रेडियोधर्मी पदार्थ ग्रहण करते हैं:

(1) सीधे समुद्री पानी से भौतिक अधिशोषण द्वारा अथवा विशिष्ट आयनों के जटिल विनिमय द्वारा और

(2) ऐसे जीवों अथवा पदार्थों का भक्षण करके जो पहले ही रेडियोधर्मी पदार्थ अपने शरीर में संचित कर चुके हों ।

आमतौर से वे दोनों तरीकों का उपयोग करते हैं । जीव सब चीजों से- पानी, उसमें तिरते कणों, अन्य जीवों और तली की जमावटों से एक साथ रेडियोधर्मी पदार्थ ग्रहण करते रहते हैं । ऐसा हो सकता है कि कुछ जीव उसी पर्यावरण में रहनेवाले उसी जाति के अन्य जीवों की तुलना में बहुत अधिक मात्रा में रेडियोधर्मी पदार्थ ग्रहण कर लें ।

रेडियोधर्मी लोहा, ताँबा, मैंगनीज, कोबाल्ट, जस्त, निकेल आदि ग्रहण करते समय ऐसा ही होता है । कभी-कभी ऐसा भी होता है कि समुद्री पानी में किसी पदार्थ की सांद्रता बढ़ा देने से जंतु भी उसे अधिक मात्रा में ग्रहण करने लगते हैं । पर प्रयोगों में इसकी विपरीत क्रिया भी पाई गई है ।

इसके उदाहरण के रूप में आमतौर से सीप का उल्लेख किया जाता है । सागर के पानी में रेडियोधर्मी जस्त की मात्रा बढ़ जाने से सीप के शरीर में उसकी सांद्रता घटने लगती है । जीव-जंतु आमतौर से उस समय तक रेडियोधर्मी पदार्थ संचित करते रहते हैं जब तक इर्द-गिर्द के पानी और जीवों के ऊतकों में उपस्थित रेडियोधर्मी पदार्थों के बीच साम्यावस्था स्थापित नहीं हो जाती ।

अनेक समुद्री जीव रेडियोधर्मी समस्थानिकों को अपने शरीर में बहुत अधिक मात्रा में संचित कर लेते हैं । इस प्रकार उनके शरीर में, इर्द-गिर्द के समुद्री पानी की तुलना में कई हजार-लाख गुनी मात्राओं में रेडियोधर्मी पदार्थ सांद्रित हो जाते हैं । फलस्वरूप उनके शरीर में रेडियोधर्मिता बहुत बढ़ जाती है जो उन्हें हानि पहुँचाती है ।

इस प्रसंग में एक बार फिर से यह बता देना उचित होगा कि समुद्री पानी में रेडियोधर्मी पदार्थों की सांद्रता बहुत सूक्ष्म, एक अरब भाग में एक भाग, जैसी सूक्ष्म होती है ।

एक बार जंतु ऊतकों द्वारा ग्रहण कर लिये जाने के बाद और जंतु के शरीर से बाहर निकलने से पहले रेडियोधर्मी समस्थानिक उस जंतु के अन्य अंगों में फैल जाते हैं । जंतु के शरीर में मौजूद रहने के दौरान इन समस्थानिकों की भौतिक अवस्था में भी परिवर्तन हो सकता है ।

वे विघटित भी हो सकते हैं । इसलिए किसी जंतु के शरीर में समस्थानिक विशेष की क्रियाशीलता पानी में उसी समस्थानिक की क्रियाशीलता की तुलना में क्षीण हो सकती है । इसी प्रकार एक जंतु से दूसरे जंतु के शरीर में पहुंचने (पहले जंतु के दूसरे जंतु द्वारा भक्षण से) पर भी उसकी क्रियाशीलता कम होती जाती है ।

समुद्री पानी में 60 से अधिक प्राकृतिक तत्व घुल सकते हैं । इसलिए अनेक बार एक ही तत्व एक साथ दो रूपों-सामान्य रूप और रेडियोधर्मी अवस्था में मौजूद हो सकता है । आमतौर से समुद्री पानी में इन दोनों रूपों की सांद्रताएँ अलग-अलग होती हैं ।

सागर के जीव इन दोनों रूपों को, पानी में मौजूद उनके अनुपात के अनुसार ही, ग्रहण करते हैं । पर इनकी ग्राह्यता को भी अनेक कारण प्रभावित करते हैं । प्रयोगों में पाया गया है कि पादप प्लांक्टन, कुछ परिस्थितियों में, रेडियोधर्मी और साधारण जस्त में अंतर कर सकते हैं ।

यद्यपि जीव-जंतु भी सागर में रेडियोधर्मी पदार्थों को एक स्थान से दूसरे स्थान को ले जाते हैं पर इस प्रकार ढोए जानेवाले पदार्थों की मात्रा जल धाराओं द्वारा ढोई जानेवाली मात्रा से बहुत कम होती है । जंतु प्लांक्टन कुछ पदार्थों को निचले स्तरों तक ले जाते हैं ।

वे हेलोक्लाइन के नीचे जाकर उन्हें उत्सर्जित कर देते हैं । ऐसे पदार्थों में रेडियोधर्मी कोबाल्ट सबसे महत्त्वपूर्ण है । इस प्रकार के उत्सर्जित पदार्थों को, अनेक बार जीव ग्रहण कर लेते हैं । अनेक समुद्री जीवों के बाह्य खोलों पर भी रेडियोधर्मी पदार्थ एकत्रित हो जाते हैं ।

जब ये खोल डूबते हैं, सतह से तली की ओर जाते हैं, तब इन पर एकत्रित रेडियोधर्मी पदार्थ भी तली पर पहुंच जाते हैं । इस प्रकार भी तली की रेडियोधर्मिता बढ़ती रहती है । इस तरीके से विशेष रूप से रेडियोधर्मी जस्त तली पर एकत्रित हो जाता है ।