Read this article in Hindi to learn about three important heavy metals that pollute the oceans.
1. पारा (Mercury):
सागर में पारद यौगिक प्राकृतिक कारणों तथा मनुष्य के अनियंत्रित कार्य-कलापों, दोनों कारणों से मिलते हैं । ये गहरे सागर में तटीय सागर की अपेक्षा अधिक मात्रा में पाए जाते हैं । मध्य-महासागरीय पर्वत श्रृंखला के निकटवर्ती क्षेत्रों में इनकी मात्रा सबसे अधिक पाई गई है, लगभग 400 भाग प्रति एक अरब भाग ।
इसकी तुलना में यूरोप के औद्योगिक देशों के तटीय सागर में जहां बहुत बड़ी मात्रा में औद्योगिक अपशिष्ट मिलते हैं केवल 16 भाग प्रति एक अरब भाग ही पारद यौगिक मौजूद हैं । इससे वैज्ञानिकों को यह भ्रम होने लगा है कि मध्य-महासागरीय पर्वत श्रृंखला के निकट पारद यौगिकों के कुछ अन्य, बड़े स्रोत हो सकते हैं ।
पारद यौगिकों का उपयोग अनेक उद्योगों में होता है । क्लोरअल्कली रसायन, वैद्युत् स्विच, बैटरी, बढ़िया किस्म के प्रतिदूषण पेंट आदि बनानेवाले उद्योगों में इनका बड़े पैमाने पर उपयोग किया जाता है । साथ ही ये कृषि और बागवानी में बीज-जन्य और कवक-जन्य रोगों की रोकथाम के लिए और कागज उद्योग में अवपंकनाशी की भाँति इस्तेमाल किए जाते हैं ।
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कवक-नाशियों में पारे के मिथिल, इथिल, एल्कोक्सीइथिल, एरिल अथवा क्लोराइड यौगिक प्रयुक्त किए जाते हैं । इनके अवशेष अंतत: सागर में पहुँच जाते हैं । इस बारे में महत्वपूर्ण बात यह है कि पारद यौगिक पानी में बहुत कम घुलनशील होते हैं ।
इसलिए वे केवल बाढ़ के दौरान ही नदियों में और बाद में सागर तक पहुंच पाते हैं । कभी-कभी कोयले और पेट्रोल में भी पारद यौगिकों की सूक्ष्म मात्रा मौजूद होती है । इनके जलने के बाद बच रहनेवाले अवशेष पवन के माध्यम से सागर तक पहुंचने हैं और वहाँ वर्षा के साथ नीचे गिरते हैं ।
पारद यौगिकों से प्रदूषित जीवों के शरीर का न तो रंग बदलता है न ही स्वाद । पर जो जीव उन्हें खाते हैं उनके लिए वे हानिकारक और अनेक बार घातक भी हो जाते हैं । यही कारण था कि मिनीमाता खाड़ी के खोलवाले जीवों का भक्षण करते समय लोगों को कुछ भी असामान्य नहीं लगा था ।
बाद में शव परीक्षण करने पर ही उनके शरीर में पारे के एक कार्बनिक यौगिक की काफी मात्रा पाई गई थी । मिनीमाता व्याधि के बाद भी पारद यौगिक के कारण अनेक दुर्घटनाएँ हुईं । 1965 में जापान की ही अग्नो नदी की मछलियों को खाने से भी इसी प्रकार का रोग फैला था ।
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उसका असली दोषी मिथिल मर्क्यूरी पाया गया जो एक एसिटएल्डीहाइड बनानेवाले कारखाने से बहि:स्राव के रूप में निकलता था । कुछ समुद्री जीव सीधे पानी से ही पारद यौगिक ग्रहण कर लेते हैं तो कुछ अन्य उन जीवों के भक्षण से ग्रहण करते हैं जिन्होंने अपने शरीर में इन यौगिकों को संचित कर लिया हो ।
सागर की तली के जीव पारद यौगिकों को मिथिल मर्क्यूरी में बदल देते हैं । स्केंडेनेवियन देशों में, जहाँ पारद यौगिकों को बड़े पैमाने पर बीजों तथा लुगदी के संरक्षण हेतु इस्तेमाल किया जाता था, वन्यपशु बड़े पैमाने पर बीमार होने लगे ।
इस बीमारी का कारण पारद यौगिक ही पाए गए । दूसरी ओर इन यौगिकों की कुछ मात्राएँ धीरे-धीरे सागर में पहुँचने लगीं । फलस्वरूप समुद्री जीव और मछलियाँ इन्हें अपने शरीर में सांद्रित करने लगी । पारद यौगिकों से विषाक्त हुई मछलियों को खाने से समुद्री पक्षियों की मृत्यु होने लगी । परीक्षणों में इन पक्षियों के पंखों में पारद यौगिकों की काफी मात्रा पाई गई ।
मैकरल, हेरिंग और कॉड जैसी खाद्य समुद्री मछलियाँ अपने शरीर में बहुत बड़ी मात्रा में पारद यौगिक सांद्रित नहीं कर पातीं । इन तीनों मछलियों में कॉड ही सबसे अधिक अपने शरीर के प्रति एक ग्राम वजन पर 150 से 190 नैनोग्राम (एक नैनो ग्राम = एक ग्राम का एक अरबवाँ भाग) पारा सांद्रित करती हैं ।
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स्वीडन के वैज्ञानिकों ने यह जानने के लिए कि समुद्री वातावरण में विभिन्न जातियों की मछलियाँ किस प्रकार पारद यौगिक ग्रहण करती हैं अनेक प्रयोग किए हैं । इनसे उन्हें पता चला कि मछलियाँ मर्क्यूरी क्लोराइड और फेनिल मर्क्यूरिक ऐसीटेट को उस समय तक शरीर में सांद्रित करती रहती हैं जब तक इन रसायनों की मात्राएं घातक सिद्ध नहीं हो जाती ।
पर यदि समुद्री पानी की लवणता और ताप में वृद्धि हो जाती है तब इन रसायनों की घातकता कम होने लगती है । ताप और लवणता बढ़ने के साथ पारद यौगिक जीवों के गलफड़ों से उनके यकृत और अग्न्याश्य ग्रंथियों को अधिक तेजी से स्थानांतरित होने लगते हैं ।
इसका यह अर्थ हुआ कि निचले तापों पर गलफड़ों में पारद यौगिक अधिक मात्रा में मौजूद रहते हैं और शायद इसी करण निचले तापों पर पारद यौगिकों की घातकता अपेक्षाकृत अधिक होती है । फेनिल मर्क्यूरिक एसीटेट मर्क्यूरिक क्लोराइड की तुलना में अधिक विषैला होता है ।
पारद यौगिकों के परिणामस्वरूप मनुष्य और जंतुओं के तंत्रिका-तंत्र गंभीर रूप से प्रभावित हो जाते हैं । यदि इन यौगिकों के प्रभाव घातक नहीं होते तब भी पीड़ित जुत का तंत्रिका-तंत्र स्थायी रूप से क्षतिग्रस्त हो जाता है । यह क्षति जीवनपर्यंत बनी रहती है ।
वास्तव में मनुष्य को अपनी शारीरिक क्रियाओं के लिए पारद यौगिकों की जरूरत कभी नहीं होती । वे हमेशा ही मानव शरीर के लिए विषैले होते हैं । यदि पारद यौगिक मिथिल मर्क्यूरी है तब केंद्रीय तंत्रिका-तंत्र अवश्य प्रभावित हो जाता है । उससे मस्तिष्क की कोशिकाएँ भी क्षतिग्रस्त हो जाती हैं ।
पर कुछ परिस्थितियों में यह पाया गया है कि वर्षों तक पारद यौगिकों को ग्रहण करने के बाद भी मनुष्यों पर कोई हानिकारक प्रभाव नहीं पड़ते । उत्तरी ओंटारिओ (कनाडा) में स्थित क्ले झील के आसपास रहनेवाले लोग अनेक वर्षों तक उसी झील के पानी से मछलियाँ पकड़कर खाते रहे ।
पर उन लोगों में कभी भी तंत्रिका-तंत्र संबंधी रोग नहीं हुए । बाद में पता चला कि उस झील के पानी में पारद यौगिकों की मात्रा काफी अधिक थी । उस पानी से मछलियों ने भी अपने शरीर में पारद यौगिक सांद्रित कर लिये थे । यह एक विचित्र घटना थी, चिकित्सक जिसकी कोई स्पष्ट व्याख्या नहीं कर पाए हैं ।
हमारा शरीर पारद यौगिकों की कितनी सांद्रता सहन कर सकता है ? उसकी अधिकतम मात्रा क्या हो सकती है ? दूसरे शब्दों में, हम जिन जीवों (विशेष रूप से समुद्री जीवों) का भक्षण करते हैं उनमें पारद यौगिकों की अधिकतम सांद्रता कितनी हो सकती है, जो हमें कोई हानि न पहुँचाए ?
वैज्ञानिक अभी तक इन प्रश्नों के एकदम सही और सर्वमान्य उत्तर नहीं दे पाए हैं । पर अधिकांश वैज्ञानिक यह मानते हैं और संयुक्त राज्य अमेरिका के खाद्य और ओषधि प्रशासन का भी यही विचार है कि हमारे भोजन में पारद यौगिकों की मात्रा 0.5 भाग प्रति दस लाख भाग से अधिक नहीं होनी चाहिए, अन्यथा वह हमारे लिए हानिकारक हो सकती है ।
पर अब भी यह प्रश्न अनुत्तरित है कि उन जीवों का, जिनमें पारद यौगिकों की सांद्रता 0.5 भाग प्रति दस लाख भाग से कम होती है, भक्षण कितने दिनों तक और कितनी मात्रा में, बिना हानि के, किया जा सकता है । वैसे पारद यौगिकों की विषाक्तता केवल गर्भवती मादाओं को ही नहीं वरन् गर्भस्थ शिशुओं को भी प्रभावित करती है ।
यदि ये मादाएं निम्न पारद सांद्रता के वातावरण में रहती हैं तब मरती नहीं पर उनकी तथा उनके गर्भस्थ शिशुओं की तंत्रिका-तंत्र क्रियाएं अवश्य अव्यवस्थित हो जाती हैं । जन्म लेने के बाद इन शिशुओं में जीवनपर्यंत यह अव्यवस्था बनी रहती है ।
उनके मस्तिष्क के अनेक केंद्र सुचारु रूप से कार्य नहीं कर पाते । फलस्वरूप वे न तो सामान्य शिशुओं की भाँति सीख पाते हैं और न ही ताप-परिवर्तनों के प्रति स्वयं को समायोजित कर पाते हैं और न ही अपने शारीरिक संतुलन को भली प्रकार बनाए रख सकते हैं ।
उस समय जब पानी में पारद यौगिकों की मात्रा बहुत कम होती है तब वे, विशेष रूप से पारे के अकार्बनिक यौगिक, अनेक जीवों के लार्वों के लिए घातक हो सकते हैं । जहाँ तक वयस्क जंतुओं का प्रश्न है, ये यौगिक गलफड़ों, यकृत, गुर्दों और माँसपेशियों में संचित होते रहते हैं ।
इस बात के प्रमाण मिले हैं कि ये यौगिक उस परासरण नियमन व्यवस्था को संदमित कर देते हैं जो समुद्री जीवों के स्वास्थ्य और जीवन के लिए आवश्यक होती है । यह व्यवस्था जलीय जीवों के शरीर में उन तरलों की उपस्थिति के कारण होती है जिनकी रचना और परासरण क्षमता अपने वातावरण से भिन्न होती है ।
परीक्षणों से पता चला है कि मर्क्यूरिक क्लोराइड और मिथिल मर्क्यूरी अत्यंत सूक्ष्म मात्रा में भी मछलियों की परासरण नियमन व्यवस्था को, आयन परिवहन को, मंद करके अव्यवस्थित कर देते हैं । ये दोनों यौगिक, अपनी निम्नतम सांद्रता में भी, ए.टी.पी.एज. एंजाइम की क्रिया को बहुत अधिक घटा देते हैं ।
उपर्युक्त अव्यवस्थाओं के प्रभावस्वरूप जीव बहुत कमजोर हो जाता है । उसकी अन्य जीवों से संघर्ष करने की और स्वयं की रक्षा करने की क्षमता बहुत घट जाती है । इनके फलस्वरूप वह जल्दी ही अन्य समुद्री जंतुओं का शिकार बन जाता है ।
मिथिल मर्क्यूरी जंतुओं के शरीर में होनेवाली क्रियाओं में विघटित हो जाता है जिससे बननेवाले पदार्थों में अकार्बनिक पारा भी होता है । वास्तव में यह अकार्बनिक पारा ही हानि पहुंचाता है । इसीलिए मिथिल मर्क्यूरी आरंभ में जंतुओं को हानि नहीं पहुँचाता ।
जब वह अकार्बनिक पारे में बदल जाता है तब ही हानिकारक प्रभाव स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होते हैं । पारद यौगिकों के बारे में एक विचित्र बात यह है वे मादाओं की अपेक्षा नरों के लिए अधिक हानिकारक होते हैं । यह बात समुद्री केकड़ों पर विशेष रूप से लागू होती है ।
2. कैडमियम (Cadmium):
समुद्री प्रदूषण में भारी धातुओं के योग की दृष्टि से कैडमियम का स्थान भी महत्त्वपूर्ण है । परत चढ़ानेवाले और धातुकर्म के उद्योगों में कैडमियम का बहुतायत से इस्तेमाल किया जाता है । इसका उपयोग पिगमेंटों और उत्प्रेरकों में भी किया जाता है ।
इसके अवशेष भी नदियों द्वारा अथवा औद्योगिक बहिःस्रावों के रूप में सागर में पहुंचते हैं । जैसाकि आप पढ़ चुके हैं, कुछ दशक पूर्व जापान में फैले इताइ-इताइ रोग का कारण कैडमियम संदूषित समुद्री जीवों का भक्षण था ।
जिन लोगों ने बड़ी मात्रा में उन जीवों को खाया था जिनके शरीर में कैडमियम यौगिकों की सांद्रता काफी अधिक थी, उनकी हड्डियाँ क्या हो गई थीं और उन्हें भूख लगनी बंद हो गई थी । साथ ही उनका परिसंचरण-तंत्र बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गया और रक्तचाप बहुत बढ़ गया ।
अनेक मरीजों के लिए ये लक्षण घातक सिद्ध हुए थे । पारे की भाँति ही हमारे शरीर को कैडमियम यौगिकों की जरूरत नहीं होती । इसलिए इन यौगिकों का जो अंश भी हमारे शरीर में पहुँचता है, वह हमारे लिए हानिकारक ही होता है ।
समुद्री जीव अपने पर्यावरण से विभिन्न मात्राओं में कैडमियम यौगिक सांद्रित कर लेते हैं । मछलियाँ अपने शारीरिक भार के अनुसार 113 मिली ग्राम प्रति किलोग्राम तक कैडमियम यौगिक सांद्रित कर लेती हैं जबकि सीपियाँ पर्यावरण की तुलना में 3.50 गुनी तक कैडमियम यौगिक संचित कर सकते हैं ।
यह संचय मुख्यतया गलफड़ों में होता है पर कैडमियम का तात्कालिक प्रभाव केकड़ों पर ही पड़ता है । इतनी मात्रा में कैडमियम संचित कर लेने पर वे तुरंत मर जाते हैं । समुद्री केकड़ों पर किए गए परीक्षणों से पता चला है कि जीव उस समय सबसे ज्यादा मात्रा में कैडमियम यौगिक ग्रहण करते हैं जब समुद्री पानी का ताप ऊंचा होता है पर लवणता कम ।
इस परिस्थिति में जीव के यकृत अग्न्याशय में कैडमियम की मात्रा अधिकतम हो सकती है । साथ ही वह जीव के गलफड़ों से यकृत अग्न्याशय को अधिकतम मात्रा में जाता है । कैडमियम यौगिक जीवों के श्वसन और फेफड़ों के वायुकोशों में ए.टी.पी. एज की क्रियाशीलता को भी कुप्रभावित करते हैं ।
कैडमियम मछलियों के अंडों के लिए घातक नहीं होता पर उनके पीनों के लिए अवश्य हानिकारक होता है । कैडमियम से प्रदूषित पानी में अधिक दिनों तक रहने पर मछलियों को घाव हो जाते हैं । पारे की भाँति ही यदि कैडमियम की पानी में बहुत कम मात्रा होती है तब भी वह जीव-जंतुओं के लिए हानिकारक हो सकती है ।
ऐसे पानी में रहने पर जीवों की प्रजनन क्षमता पर कुप्रभाव पड़ते हैं । उस पानी में, जिसमें कैडमियम क्लोराइड की मात्रा 25 भाग प्रति एक अरब भाग होती है बक ट्राउट मछली को 24 घंटे तक ही रखने पर उसे रक्तस्राव परिगलन हो गया । पर पारद यौगिकों के विपरीत कैडमियम यौगिक समुद्री जंतुओं के नर और मादा, दोनों, के लिए समान रूप से हानिकारक होते हैं । वैसे भी कैडमियम यौगिक पारद यौगिकों की तुलना में कम घातक समझे जाते हैं ।
3. सीसा (Lead):
सीसा उन धातुओं में से है जिन्हें मनुष्य आदिकाल से ही इस्तेमाल कर रहा है । ईसा के जन्म से 2500 वर्ष पूर्व ही, दक्षिण-पश्चिम एशियाई देशों में सीसे को इस्तेमाल किया जाने लगा था । पहली और दूसरी शताब्दियों में इसके उपयोग में बहुत अधिक वृद्धि हुई ।
उस समय रोमन साम्राज्य उन्नति की चरम सीमा पर था । तब सीसे के अनेक उपयोग ढूँढ़ लिये गए थे और जितनी अधिक मात्रा में उस समय इसका उपयोग होता था उतनी मात्रा में औद्योगिक क्रांति (अठारहवीं शताब्दी) तक कभी भी नहीं हुआ ।
औद्योगिक क्रांति के बाद सीसे के अनेक नए उपयोग सामने आए । आज वह मोटर वाहन, बैटरी निर्माण तथा अन्य अनेक उद्योगों में बड़े पैमाने पर इस्तेमाल हो रहा है । सीसे के कुछ यौगिक जल में घुलनशील होते हैं और कुछ अघुलनशील । ये यौगिक वर्षा और नदियों के पानी में घुलकर निलंबित होकर दोनों तरह से, सागर में पहुँचते हैं । समझा जाता है कि घुलनशील यौगिकों के रूप में 2,40,000 टन सीसा प्रति वर्ष सागर में पहुँचता है ।
साथ ही पेट्रोल के जलने से मुक्त हुए सीसे के यौगिक पवन के साथ उड़कर और वर्षा के साथ नीचे उतरकर सागर में गिरते हैं । इस प्रकार लगभग 2 लाख टन सीसा हर वर्ष सागर में पहुँच जाता है । सागर में पहुँचनेवाले सीसे के यौगिकों में चट्टानों, भूमि आदि में प्राकृतिक रूप से मौजूद यौगिक भी होते हैं और मानवीय कार्यों से उत्पन्न अवशेष भी ।
हजारों वर्ष तक प्राकृतिक स्रोतों से आनेवाले सीसे के यौगिकों की मात्रा मानवीय प्रक्रमों के फलस्वरूप आनेवाली मात्रा से बहुत अधिक रही थी पर पिछले कुछ दशकों में इसका उलटा हो गया है । नदियों के पानी में निलंबित होकर सागर तक प्रतिवर्ष पहुंचनेवाले 5 लाख टन सीसे के यौगिकों में से लगभग 99 प्रतिशत महाद्वीपीय शैल्फ में ही, नीचे बैठने लगते हैं । उनकी एक प्रतिशत मात्रा ही गहरे सागर तक पहुँचती है । वह भी वहाँ जाकर तली पर जम जाती है ।
जहाँ तक जल में घुलनशील यौगिकों का प्रश्न है, सागर में पहुँचते ही ऊपरी परतों में रहनेवाले जीव उन्हें ग्रहण करने लगते हैं । उन्हें पहले सूक्ष्मजीव खाते हैं । पर बाद में वे उन जीवों के शरीर में पहुंच जाते हैं जो सूक्ष्मजीवों का भक्षण करते हैं । उसके बाद ये यौगिक उन जीवों का भक्षण करनेवाले बड़े जीवों के शरीर में चले जाते हैं ।
और यह कम उस समय तक चलता रहता है जब तक ये मनुष्य के शरीर में नहीं पहुँच पाते । कभी-कभी इस क्रम में बाधा भी आ जाती है । यह बाधा उस समय आती है जब सीसे के यौगिकों से युक्त जीव को कोई बड़ा जीव खा लेता है और उसकी मृत्यु स्वाभाविक रूप से होती है ।
इस तरह के जीव का मृत शरीर तेजी से सागर की तली पर जा बैठता है । तली पर मृत शरीर के विघटन से सीसे के यौगिक मुक्त होकर तली की जमावटों में, मुख्य रूप से मैंगनीज-लौह अवक्षेपों में रासायनिक रूप से मिल जाते हैं ।
अनेक बार गहरे, उन्मुक्त सागरों में सीसे के यौगिकों की बड़ी-बड़ी जमावटें पाई जाती हैं । ये जमावटें सिलीकेट खनिजों के साथ होती हैं । ये मुख्य रूप से, पवनों के साथ उड़कर आनेवाले सूक्ष्मकणों के फलस्वरूप बनती हैं । इन जमावटों में सीसे-सिलिकन का अनुपात थल की चट्टानों और मृदा में पाए जानेवाले अनुपात से अधिक होता है ।
सीसे के यौगिकों के नदियों द्वारा सागर तक पहुँचने के बारे में अनेक वैज्ञानिकों ने शंकाएँ प्रकट की हैं । पर आजकल आमतौर पर यह माना जाता है कि उन औद्योगिक क्षेत्रों में से, जहां सीसे का बहुत अधिक उपयोग होता है, बहनेवाली नदियों के पानी में सीसे के यौगिक बहुत अधिक मात्रा में धुले होते हैं ।
इन नदियों के बिना छने पानी में आमतौर से लगभग 300 म्यू ग्राम प्रति लीटर सीसा पाया गया है जबकि सामान्य नदियों के पानी में उसकी मात्रा औसतन 5 म्यू ग्राम प्रति लीटर होती है । इसी प्रकार बड़े शहरों में, जहाँ बड़े-बड़े उद्योग हैं और बड़ी संख्या में मोटर वाहन चलते हैं, की धरती में सीसे की मात्रा कई सौ भाग प्रति दस लाख भाग तक पाई गई है जबकि भूमि में सामान्यत: 10 भाग प्रति दस लाख भाग से अधिक सीसा नहीं होता है ।
पर यह सीसा थल के भीतरी भागों में बहनेवाली नदियों द्वारा सागर तक नहीं पहुंच पाता । वह तो तट के निकट बसे औद्योगिक शहरों (उदाहरणार्थ बंबई) से निकलनेवाले उन बहिःस्रावों के माध्यम से, जो सागर में मिलनेवाले नालों आदि में गिरते हैं, वहाँ पहुंचता है ।
इसी तरह स्मैल्टरों, इसीनरेटरों और मोटर वाहनों से निकलनेवाले धुएँ तथा बहि:स्रावों के साथ सीसे के यौगिक भी बड़े शहरों के फुटपाथों आदि पर जम जाते हैं । ये यौगिक भी वर्षा के साथ बहकर नदी-नालों और अंतत: सागर तक पहुंच जाते हैं ।
समझा जाता है इस तरह से सीसे के कुल विश्व उत्पादन का लगभग एक प्रतिशत भाग सागर में जा पहुँचता है । सागर के गहरे (500 मीटर से अधिक गहरे) पानी में सीसे की मात्रा 0.02 से 0.04 म्यू ग्राम प्रति किलोग्राम होती है परंतु उथले पानी में 0.07 से 0.35 म्यू ग्राम प्रति किलोग्राम तक ।
उत्तरी गोलार्ध में औद्योगिक देश अधिक हैं । इसलिए वहाँ सागर के पानी में सीसे की औसत मात्रा भी अपेक्षाकृत अधिक है । सीसे के यौगिकों के एक गुण के फलस्वरूप सागर काफी हद तक उनसे प्रदूषित होने से बचा रहता है ।
उपचार के दौरान जब सीवेज में से आपंक दूर किया जाता है तब उसके साथ सीसे के यौगिकों की बड़ी मात्रा भी अलग हो जाती है । परंतु अधिकांश तटीय कसबों और छोटे शहरों में सीवेज उपचार की कोई उचित व्यवस्था नहीं होती ।
इसलिए इन स्थानों से सीसे के यौगिकों की अपेक्षाकृत अधिक मात्रा सागर में मिलती रहती है । मनुष्य द्वारा उन समुद्री जीवों के भक्षण से जिन्होंने अपने शरीर में सीसे के यौगिक संचित कर लिये हों, घातक रोग होने अथवा बड़े पैमाने पर मृत्यु होने के समाचार नहीं मिले हैं ।
पर सीसा और उसके यौगिक विषैले तो हैं ही । इसलिए सागर के जीवों पर उनके हानिकारक प्रभाव, विशेष रूप से उस समय जब उनकी मात्रा सागर में बढ़ती जा रही है, अवश्य पड़ते हैं । ये समुद्री जीवों में एंजाइमों की क्रियाओं को संदमित करते हैं और कोशिका-उपापचयन को हानि पहुंचाते हैं ।