Read this article in Hindi to learn about the natural and artificial radioactive elements that pollute the ocean water.

प्राकृतिक रेडियोधर्मी पदार्थ (Natural Radioactive Elements):

प्रकृति में दो प्रकार के रेडियोधर्मी पदार्थ पाए जाते हैं । पहले प्रकार के पदार्थों में पृथ्वी के जन्म के समय उपस्थित रेडियोधर्मी पदार्थ तथा उनके विघटन के फलस्वरूप निर्मित पदार्थ शामिल हैं । दूसरे प्रकार के पदार्थ सुदूर अंतरिक्ष से आनेवाली कास्मिक किरणों की वायुमंडलीय तत्वों के साथ क्रियाओं के परिणामस्वरूप उत्पन्न हुए हैं ।

पृथ्वी के जन्म के समय उपस्थित आद्य रेडियोधर्मी पदार्थों की अर्द्ध आयु निश्चय ही बहुत अधिक थी । इसीलिए उनमें अब तक भी (लगभग 4.7 अरब वर्ष बाद भी) रेडियोधर्मिता मौजूद हैं । (अर्द्ध आयु वह समय है जिसमें किसी रेडियोधर्मी पदार्थ की दी गई मात्रा में से आधी विघटित हो जाती है । यह समय रेडियोधर्मी तत्व के अनुसार, सेकंड के एक बहुत छोटे अंश से लेकर अरबों वर्ष तक हो सकता है ।)

इन आद्य पदार्थों के क्षय से जो रेडियोधर्मी पदार्थ बने उनकी अर्द्ध आयु अपेक्षाकृत काफी कम, कुछ हजार वर्ष है और ये अब भी बन रहे हैं । इस प्रकार के रेडियोधर्मी पदार्थ अनेक किस्मों की चट्टानों में मौजूद हैं और उनके अपक्षयण के फलस्वरूप ही ये सागर तक पहुँचते हैं ।

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इस प्रकार की रेडियोधर्मित भूमि, पानी, वायु और हमारे शरीर में भी मौजूद है । यह ‘पृष्ठभूमि विकिरण’ कहलाती है । औसतन हर व्यक्ति पर, वर्ष भर में 100 से 125 मिली रैम रेडियोधर्मिता पृष्ठभूमि विकिरणों के रूप में पड़ती है । सागर के पानी में पाए जानेवाले अधिकांश प्राकृतिक रेडियोधर्मी पदार्थ तीन तत्वों से ही उत्पन्न हुए हैं ।

ये हैं:

(i) पोटैशियम (40K),

(ii) थोरियम (232Th) और

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(iii) यूरेनियम (238U) ।

इनमें भी सबसे अधिक योग पोटैशियम का ही है । उसके क्षय से ही 90 प्रतिशत से भी अधिक प्राकृतिक रेडियोधर्मी पदार्थ बने हैं । कास्मिक किरणें जब वायुमंडल में से गुजरती हैं तब वे नाइट्रोजन, ऑक्सीजन तथा अन्य गैसों से क्रिया करती हैं जिसके फलस्वरूप रेडियोधर्मी परमाणु बनते हैं । इस प्रकार बननेवाले परमाणुओं में सबसे अधिक मात्रा रेडियोधर्मी कार्बन और ट्रिटियम की होती है ।

वैसे उक्त क्रिया से रेडियोधर्मी बरेलियम सोडियम, सिलिकन, आयोडीन, रहेनियम, ओसमियम भी बनते हैं । इस प्रकार उत्पन्न रेडियोधर्मी पदार्थ सागर के अध्ययन में बहुत उपयोगी सिद्ध हुए हैं । उनसे जलधाराओं, सागर के विभिन्न स्तरों के पानी के आपस में मिलने तथा सागर की आयु निर्धारण के अध्ययनों में बहुत सहायता मिलती है ।

कृत्रिम रेडियोधर्मी पदार्थ (Artificial Radioactive Elements):

कृत्रिम रूप से रेडियोधर्मी पदार्थ तीन प्रकार से बन सकते हैं:

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(1) प्लूटोनियम और यूरेनियम जैसे भारी तत्वों के पारमाणविक नाभिकों के विखंडन से,

(2) स्थायी पारमाणविक नाभिकों पर न्यूट्रानों की वर्षा से (न्यूट्रान प्रेरण) और

(3) ट्रिटियम और ड्यूटेरियम जैसे हलके तत्वों के संयोजन (संगलन) से ।

कृत्रिम रेडियोधर्मी पदार्थों का निर्माण फ्रेडरिक जूलियट और आइरन जूलियट-क्यूरी ने 1932 में ही कर लिया था पर उन्हें सागरों में आने में 13 वर्ष का समय लगा । वर्ष 1945 में पहली बार वे सागरों में पाए गए ।

नाभिकीय विस्फोट:

सागरों में कृत्रिम रेडियोधर्मी पदार्थ मुख्य रूप से नाभिकीय विस्फोटों में उत्पन्न उस धूलि के रूप में पहुँचते हैं जो विस्फोटों के दौरान वायुमंडल में पहुंच जाती है और फिर धीरे-धीरे पृथ्वी पर गिरती है । इससे सहज ही यह अनुमान लगाया जा सकता है कि नाभिकीय विस्फोटों पर पूर्ण रूप से प्रतिबंध लग जाने पर सागर में कृत्रिम रेडियोधर्मी पदार्थों का गिरना काफी हद तक बंद हो जाएगा ।

पर नाभिकीय ऊर्जा के अधिकाधिक मात्रा में बिजली बनाने तथा उसे ओषधि आदि के रूप में इस्तेमाल करने के फलस्वरूप कृत्रिम रेडियोधर्मिता सागर में पहुंचती ही रहेगी, यद्यपि उसके आगमन के तरीके अवश्य बदल जाएंगे नाभिकीय विस्फोटों के दौरान बड़ी मात्रा में रेडियोधर्मी ‘मलबा’ उत्पन्न होता है । यह मलबा मुख्य रूप से धूलि के रूप में होता है और इसमें 200 से भी अधिक भिन्न-भिन्न किस्म के रेडियोधर्मी समस्थानिक हो सकते हैं ।

ये समस्थानिक धूलि के रूप में होते हैं । इसलिए विस्फोट में उत्पन्न प्रचंड झोंके के साथ वायुमंडल में ऊपर उठ जाते हैं । इनके धरती पर गिरने का तरीका बहुत जटिल होता है । साथ ही भिन्न-भिन्न समस्थानिकों के कणों के गिरने की दर अलग-अलग होती है । इनके गिरने के तरीके और दर पर विस्फोटित की जानेवाली युक्ति की किस्म, विस्फोट के तरीके उसकी भौगोलिक स्थिति (अक्षांश और ऊँचाई), मौसम, पवन वेग, वर्षा आदि के प्रभाव पड़ते हैं ।

रेडियोधर्मी धूलि में सबसे महत्त्वपूर्ण पदार्थ होते हैं लोहा (फैरस), स्ट्रांशियम और सीजियम के रेडियोधर्मी समस्थानिक । ये अधिकांश धूलियों में पाए जाते हैं । उनमें इनकी मात्रा सबसे अधिक होती है । इन समस्थानिकों की अर्द्ध आयु अपेक्षाकृत अधिक होती है और ये जैव रूप से अधिक सक्रिय होते हैं ।

धूलि में अन्य महत्वपूर्ण रेडियोधर्मी समस्थानिक होते हैं, मैंगनीज, जस्त, जिरकोनियम, निओबियम, रूथेनियम, रोहडियम, सीरियम आदि । अनेक बार अल्प अर्द्ध आयुवाले समस्थानिक भी, यदि वे विस्फोट स्थल के एकदम निकट किसी जीव द्वारा अवशोषित कर लिये जाते हैं तब, जीव-जंतुओं पर प्रभाव के संदर्भ में, महत्त्वपूर्ण होते हैं ।

धूलि के अनुपात को मोटे तौर पर तीन वर्गों में बाँटा जा सकता है:

(1) स्थानीय अवपात,

(2) क्षोभमंडलीय (ट्रोपोस्फीयरिक) अवपात और

(3) समताप-मंडलीय (स्ट्रेटोस्फीयरिक) अवपात ।

निश्चय ही विस्फोट के मलबे के बड़े कण ही स्थानीय अवपात का निर्माण करते हैं । भारी होने के कारण ये कण दूर नहीं जा पाते और घनी धूलि के रूप में विस्फोट स्थल के निकट ही गिर जाते हैं । अगर विस्फोट बहुत ऊँचाई पर नहीं किया जाता तब स्थानीय अवपात में मिट्टी और पानी के कण भी शामिल हो जाते हैं ।

बारीक धूलि क्षोभमंडल और समतापमंडल में पहुँच जाती है । क्षोभमंडल, में पहुँचनेवाली धूलि, आमतौर से पश्चिमी पवनों के साथ, पश्चिम से पूर्व की ओर बहती हुई, प्राय: दो-तीन सप्ताह में पृथ्वी के इर्द-गिर्द फैल जाती है । लगभग दो महीनों तक फैली रहने के बाद वह प्राय: उसी अक्षांश पर, जिस पर विस्फोट हुआ था, गिरने लगती है ।

इसके विपरीत समतापमंडल में पहुँच जानेवाली धूलि, उच्च वायुमंडल में काफी लंबे समय तक बनी रहती है । वह भूमध्य रेखा से ध्रुवों की ओर चली जाती है और अनेक महीनों के बाद क्षोभमंडल में से होती हुई, शीतोष्ण कटिबंध में गिरने लगती है ।

इसीलिए रेडियोधर्मी धूलि के गिरने के क्षेत्र 50° उत्तर और 50° दक्षिण अक्षांशों के निकट के क्षेत्र होते हैं । अधिकांश नाभिकीय परीक्षण संयुक्त राज्य अमेरिका और रूस द्वारा किए गए हैं । इसलिए कुल रेडियोधर्मी धूलि का लगभग 80 प्रतिशत भाग उत्तरी गोलार्ध में ही गिरा है । भारी वर्षा और हिमपात धूलि के अवपात में वृद्धि करते हैं ।