Read this article in Hindi to learn about the effects of radioactive pollution.
1. जीव पर प्रभाव (Effects on Fauna):
समुद्री जीव-जंतुओं को अपने विकास-क्रम के दौरान थलीय जीवों से कहीं कम रेडियोधर्मिता के दुष्प्रभाव सहन करने पड़े हैं । इसका मुख्य कारण है पानी का रक्षक प्रभाव । पर इसी रक्षक प्रभाव के फलस्वरूप विरोधाभास उत्पन्न हो गया है ।
यद्यपि जब सागर में जीवों का पदार्पण हुआ वे रेडियोधर्मिता से प्रभावित होते रहे है परंतु पिछले दशकों में ही ये प्रभाव, नाभिकीय विस्फोटों और रेडियोधर्मी कचरे के सागर में निपटान के फलस्वरूप बहुत गंभीर हो गए हैं । रेडियोधर्मिता में वृद्धि होने से जीवों में कायिक परिवर्तन और उत्परिवर्तन अपेक्षाकृत अधिक शीघ्र और अधिक गंभीर होने लगे हैं । पर इन दुष्प्रभावों का सही मूल्यांकन करना हमेशा आसान नहीं होता ।
ऐसा उस समय विशेष रूप से होता है जब प्राकृतिक पर्यावरण में जंतुओं पर बहुत थोड़ी मात्रा में लंबे समय तक रेडियोधर्मी विकिरणें पड़ती रहती हैं । वैसे नाभिकीय विस्फोट स्थलों के नजदीक भी इन दुष्प्रभावों को स्पष्ट रूप से ज्ञात नहीं किया जा सकता ।
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अनेक बार ऐसे स्थलों के नजदीक मछलियाँ और अन्य जंतु रेडियोधर्मिता से नहीं वरन् विस्फोट के शॉक से भी मर जाते हैं । वैसे भी जिन जीवों पर रेडियोधर्मी विकिरणें पड़ती हैं वे भी उसी जगह और उसी समय नहीं मरते । विकिरणों से प्रभावित होने के बाद वे विस्कोट स्थल से काफी दूर जा सकते हैं और काफी दिनों तक जिंदा भी रह सकते हैं ।
साथ ही यह भी हो सकता है कि रेडियोधर्मिता के प्रभावस्वरूप मछलियाँ या अन्य जंतु इतने कमजोर हो जाएं कि उन भक्षी जीवों द्वारा, जिनसे वे आमतौर से अपनी रक्षा कर लेते हैं, खा लिये जाएं । वर्ष 1958 में मार्शल द्वीप समूह पर किए गए नाभिकीय परीक्षण (विस्कोट) के बाद बड़ी संख्या में शाकाहारी मछलियाँ मरी पाई गईं ।
बाद में पता चला कि उन्होंने ऐसी समुद्री खरपतवार बड़ी मात्रा में खा ली थी जिसमें काफी तादाद में रेडियोधर्मी आयोडीन सांद्रित हो गई थी । कालांतर में इन शाकाहारी मछलियों का भक्षण मांसाहारी मछलियों ने कर लिया और वे भी रेडियोधर्मी आयोडीन के आधिक्य से मर गईं ।
इस बारे में विचित्र बात यह है कि साधारणतया जंतु अपने शरीर में अधिक मात्रा में रेडियोधर्मी आयोडीन सांद्रित नहीं कर पाते क्योंकि वह बहुत जल्दी विघटित हो जाती है, उसकी अर्द्ध आयु मात्र 8 दिन है । वह समुद्री पानी में सामान्य आयोडीन की उपस्थिति में शीघ्रता से तनुकृत हो जाती है ।
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परीक्षणों में यह पाया गया है कि सरल जंतु जटिल जंतुओं की अपेक्षा रेडियोधर्मी विकिरणों के प्रति अधिक रोधी होते हैं । साथ ही आपस में संबंधित वंशों के जीवों में भी, विकिरणों के प्रति संवेदनशीलता अलग-अलग होती है ।
जैसे-जैसे प्राणी जटिल होता जाता है रेडियोधर्मिता की घातकता बढ़ती जाती है । सरल प्राणी अधिक रेडियोधर्मिता सहन कर सकते हैं, जटिल प्राणी कम । मनुष्य के लिए रेडियोधर्मिता की 100 रोंतजन मात्रा भी घातक हो जाती है जबकि प्रोटोजोआ 1,00,000 रोंतजन रेडियोधर्मिता सहन कर लेता है ।
रेडियोधर्मिता की घातक मात्रा अलग-अलग वंशों के जीवों के लिए ही नहीं वरन् एक ही वंश के जीवों के लिए भी भिन्न-भिन्न हो सकती है । साथ ही एक जीव की विभिन्न अवस्थाओं- अंडा, भ्रूण, शैशव और प्रौढ़ावस्था में भी रेडियोधर्मिता की घातकता अलग-अलग होती है ।
आमतौर से जीवों की रेडियोधर्मी विकिरणों के प्रति संवेदनशीलता बढ़ती आयु के साथ घटती जाती है । दूसरे शब्दों में, समुद्री जीवों के, गैमीट और अंडे बहुत थोड़ी-सी रेडियोधर्मिता से ही मर जाते हैं । जैसे-जैसे उनकी आयु बढ़ती जाती है वे अधिकाधिक मात्रा में रेडियोधर्मिता सहन कर लेते हैं ।
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अनेक बार रेडियोधर्मिता से जीवों की मृत्यु नहीं होती वरन् उनके शरीर में विकृतियां उत्पन्न हो जाती हैं । रेनबो ट्राउट के अंडों पर रेडियोधर्मी विकिरण डालने के बाद, उन अंडों से जो बच्चे निकले उनके शरीर में अनेक विकृतियाँ पाई गईं ।
ये विकृतियाँ अंडों पर डाली गई रेडियोधर्मिता की मात्रा के अनुपात में पाई गईं । साथ ही सबसे अधिक हानि उन ऊतकों को पहुँची जो बढ़ रहे थे और तेजी से विभाजित हो रहे थे । विकिरणित जनकों से उत्पन्न बच्चों के शरीर का विकास भी सामान्य जनकों की संतति की तुलना में काफी मंद होता है ।
समुद्री पर्यावरण में रेडियोधर्मिता से प्रदूषित हो जाने पर जीवों पर लगातार, अपेक्षाकृत अधिक मात्रा में, रेडियोधर्मिता के प्रभाव पड़ते हैं । ये प्रभाव जीवों की सबसे संवेदनशील अवस्था में कायिक और प्रजनन अवस्था में आनुवंशिक परिवर्तन कर सकते हैं ।
इस संबंध में किए गए प्रयोगों में रेडियोधर्मिता के संभाव्य प्रभावों के बारे में स्पष्ट परिणाम प्राप्त नहीं हो पाते क्योंकि प्रयोगों में प्राकृतिक वातावरण की तुलना में अपेक्षाकृत काफी कम अवधि के लिए रेडियोधर्मी विकिरणों की काफी ज्यादा मात्रा जीवों पर डाली जाती है ।
प्राकृतिक वातावरण में जीवों पर काफी लंबी अवधि तक रेडियोधर्मिता की बहुत अल्प मात्रा पड़ती है । इनसे भी जीवों पर बहुत धीमे, पर दीर्घगामी, प्रभाव पड़ सकते हैं । इन प्रभावों का सही मूल्यांकन करना बहुत कठिन होता है । जीवों पर रेडियोधर्मिता के परिणामों को सागर के पानी का ताप और लवणता जैसे कारक भी प्रभावित करते हैं । अगर इनमें अंतर हो जाता है तब जीव विशेष की सहनशीलता में भी अंतर आ जाता है ।
2. मनुष्य पर प्रभाव (Effects on Humans):
सागर की रेडियोधर्मिता मनुष्य के लिए उस समय सबसे ज्यादा हानिकारक होती है जब रेडियोधर्मी पदार्थ तटीय सागरों और ज्वारनदमुखों में उपस्थित होते हैं । सागर के ये क्षेत्र ही मनुष्य के लिए सबसे उपयोगी हैं । अधिकांश देशों में इन्हीं क्षेत्रों के निकट बड़े शहर स्थित हैं और बहुत घनी आबादी है ।
इसीलिए तट के निकटवर्ती क्षेत्रों में अनेक परमाणु बिजलीघर स्थापित किए गए हैं । इन बिजलीघरों से निकलनेवाले रेडियोधर्मी व्यर्थ पदार्थों को अनेक बार निकट के सागर में फेंक दिया जाता है । इन क्षेत्रों की रेडियोधर्मिता को बढ़ाने में नदियों द्वारा लाई गई रेडियोधर्मों गाद भी योग देती है । यह गाद अनेक बार गहरे, उन्मुक्त सागर तक नहीं पहुँच पाती । वह ज्वारनदमुखों और उथले सागरों में ही पड़ी रह जाती है ।
इन्हीं क्षेत्रों (आमतौर से महाद्वीपीय शैल्फों से ही सबसे अधिक मछलियां पकड़ी जाती हैं और इन्हीं क्षेत्रों में समय-समय पर उन्मुक्त सागर से झींगे, केकड़े, शैलफिश, फिनफिश आदि आते रहते हैं । तट के अपेक्षाकृत उथले सागर से ही (सागर से प्राप्त किए जानेवाले) खनिजों और पेट्रोलियम का 90 प्रतिशत भाग प्राप्त होता है ।
समुद्री रेडियोधर्मी प्रदूषण के प्रभाव मनुष्यों पर बाह्य और आंतरिक, दोनों स्रोतों से पड़ते हैं । बाह्य स्रोत से पड़नेवाले प्रभाव संदूषित पानी में नहाने, तैरने, नाव चलाने, मछली पकड़ने आदि से अथवा उन तटों पर आराम करने से जिन पर प्रदूषित पानी कभी-कभी आ जाता है, पड़ते हैं ।
उन्मुक्त सागर में काफी समय बिताने से भी कभी-कभी नाविकों पर रेडियोधर्मिता के प्रभाव पड़ जाते हैं । उन स्थानों पर भी मछुआरों, नाविकों, तैराकों आदि पर अपेक्षाकृत अधिक रेडियोधर्मी विकिरण पड़ते हैं जहाँ नाभिकीय रिएक्टर स्थित होते हैं ।
अधिकांश व्यक्तियों के लिए बाह्य स्रोतों से प्राप्त होनेवाली रेडियोधर्मिता की मात्रा संदूषित खाद्य और जल के सेवन से प्राप्त होनेवाली मात्रा (आंतरिक स्रोत) की तुलना में काफी कम होती है । वैसे रेडियोधर्मी विकिरणों से प्रदूषित खाद्य आदि के सेवन से भी आमतौर से, मनुष्य को घातक मात्रा में रेडियोधर्मिता नहीं मिलती ।
अधिकांशत: वह मात्रा हानिकारक भी नहीं होती । आमतौर से मनुष्यों को रेडियोधर्मिता की घातक मात्रा उसी समय मिलती है जब वे नाभिकीय विस्फोट के दौरान विस्फोट-स्थल के नजदीक होते हैं अथवा नाभिकीय रिएक्टर की दुर्घटना के शिकार हो जाते हैं ।
उदाहरण के रूप में वर्ष 1954 में अमेरिका द्वारा बिकिनी-इनीवेटक द्वीप में किए गए नाभिकीय विस्फोट तथा चेरनोबिल नाभिकीय रिएक्टर की दुर्घटना का उल्लेख किया जा सकता है । इनमें काफी लोग हताहत हुए थे ।
भोजन या पानी के साथ ग्रहण किए गए कुछ रेडियोधर्मी समस्थानिकों से शरीर की रासायनिक संरचना में परिवर्तन आ जाते हैं । फलस्वरूप कोई गंभीर बीमारी, यहाँ तक कि मृत्यु भी, हो सकती है । रेडियोधर्मी स्ट्रांशियम शरीर में पहुँचकर कैल्सियम का स्थान लेने का प्रयत्न करता है, जिसके परिणामस्वरूप अस्थि-विकृतियां और कैंसर हो सकता है । रेडियोधर्मी आयोडीन से थायराइड कैंसर हो सकता है ।
3. आनुवंशिक प्रभाव (Effects on Genes):
रेडियोधर्मी प्रदूषण के फलस्वरूप समुद्री जीवों में होनेवाले आनुवंशिक प्रभावों के बारे में भी वैज्ञानिकों को समुचित जानकारी नहीं है । मनुष्यों पर होनेवाले आनुवंशिक प्रभावों के बारे में तो जानकारी और भी सीमित है । इस बारे में ड्रोसोफिला और चूहों पर किए गए प्रयोगों से ही अनुमान निकाले गए हैं ।
उनके अनुसार मनुष्यों पर आनुवंशिक प्रभावों के लिए 100 रैम या उससे अधिक शक्ति की रेडियोधर्मी विकिरणें जरूरी होंगी जबकि आमतौर पर उन पर 5 रैम शक्ति की विकिरणें ही पड़ती हैं । वैसे चिकित्सकों ने लगभग 240 रेडियोधर्मी समस्थानिकों के संदर्भ में ‘अधिकतम अनुमेय सांद्रता’ (मैक्सीमम परमिसिबल कांसेंट्रेशन) ज्ञात की है ।
इस संबंध में इंटरनेशनल कमीशन ऑन रेडियोलॉजिकल प्रोटेक्शन (अंतरराष्ट्रीय रेडियोधर्मी सुरक्षा आयोग) और नेशनल कमेटी फॉर रेडिएशन प्रोटेक्शन (विकिरण सुरक्षा के लिए राष्ट्रीय समिति) ने बहुत महत्त्वपूर्ण काम किया है । अधिकतम अनुमेय सांद्रता मानव शरीर के किसी अंग में किसी रेडियोधर्मी समस्थानिक विशेष की संचित हो सकनेवाली उस अधिकतम मात्रा पर आधारित होती है जो हानि नही पहुंचाती ।