Read this article in Hindi to learn about the meaning and effects of thermal pollution.

तापीय प्रदूषण (Meaning of Thermal Pollution):

उद्योगों में किसी-न-किसी प्रकार के हाइड्रोकार्बन ईंधन का दहन होता है । इस दहन से सिर्फ विषैली गैसें ही नहीं बनतीं, बल्कि ताप ऊर्जा के उत्सर्जन से तापमान में वृद्धि होती है । विद्युत उत्पादन में कोयले अथवा किसी अन्य ईंधन जैसे नाभिकीय ऊर्जा आदि का उपयोग करने पर अत्यधिक उष्मा उत्पन्न होती है इसको ‘वेस्ट उष्मा’ कहा जाता है ।

इसे शीतलक जल द्वारा कम करने का प्रयास किया जाता है । इस क्रिया में शीतलक से बाहर आने वाले जल का ताप अधिक हो जाता है । यह ताप प्रदूषण है इस जल से जलीय पारिस्थितिकी-तंत्र में उत्सर्ग होने पर जलीय जीव एवं वनस्पतियाँ मर जाती है । सामान्यतः अधिक हानि मछली-पालन में होती है ।

इसके अतिरिक्त यदि बिजली बनाने वाला पॉवर प्लांट एकाएक बंद हो जाए तो जल का ताप एक साथ कम हो जाता है । इसे तापशॉक कहते हैं । सामान्यतः मछलियां इसे सहन नहीं कर पातीं । इससे उस जल के जलीय जंतुओं पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है अनेक जीव समाप्त हो जाते हैं और मछलियां तथा अन्य जानवरों के लिए यह शून्य स्थल बन जाते है । उसकी चिमनी से निकलने वाली राख, जो अधिक ताप के कारण हानिकारक है और जहां बरसती है, वहां की वनस्पति पेड़-पौधों और फसलों को नष्ट कर देती है ।

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तापमान बढने से जल में घुली हुई ऑक्सीजन की मात्रा कम होने लगती है, जिससे जीवन के लिए परिस्थितियाँ प्रतिकूल होने लगती हैं । तापमान वृद्धि के प्रमुख उद्योगों के अलावा हरितगृह-प्रभाव, ओजोन-क्षरण, वैश्विक उष्मता एवं जलवायु प्रभाव भी हैं ।

तापीय प्रदूषण के प्रभाव (Effects of Thermal Pollution):

i. हरितगृह प्रभाव (Green House Effect):

जब हम तापमान वृद्धि में हरितगृह की बात कर रहे हैं तो यहां यह जानना आवश्यक है कि ‘हरितगृह’ आखिर है क्या ? ‘ग्रीन हाउस’ एक पुराना शब्द है, जिसमें शीशे की दीवारें और छत होती है तथा जिसमें उन पौधों को उगाया जाता है, जिन्हें अधिक ताप की आवश्यकता होती है ।

इसमें शीशे इस तरह के होते है कि सौर्यिक विकिरण को अंदर तो आने देते हैं, परत अंदर से ऊष्मा बाहर नहीं जाने देते । इस कारण ‘हरितगृह’ में ऊष्मा का संचय होता रहता है । पृथ्वी के संदर्भ में कार्बन डाइऑक्साइड तथा जल वाष्प, हैलोजनित गैसे जिन्हें ‘हरितगृह’ कहते है, ‘हरितगृह’ की तरह व्यवहार करती हैं ।

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ये गैसें सूर्य के विकिरण को पृथ्वी तक पहुंचने में बाधा उत्पन्न नहीं करतीं. बल्कि पृथ्वी से होने वाले बहिर्गामी दीर्घ तरंगों, खासकर अवरक्त किरणों को अवशोषित कर उन्हें भूतल पर पुन प्रत्यावर्तित कर देती हैं, जिस कारण धरातलीय सतह निरंतर गर्म होती रहती है उसके तापमान में वृद्धि होने की संभावना बढ जाती है ।

ii. वैश्विक तापमान (Global Warming):

ग्रीनहाउस प्रभाव और अन्य कई कारणों से संपूर्ण विश्व में देखी जा रही ताप-वृद्धि को वैश्विक तापमान कहा जाता है । लगातार बढती औद्योगिक गतिविधिया, शहरीकरण, आधुनिक रहन-सहन, धुआँ उगलती चिमनिया, निरंतर बढते वाहनों एवं ग्रीनहाउस गैसों के प्रभाव से पृथ्वी के औसत तापमान में जो निरंतर वृद्धि हो रही है, यह वैश्विक उष्णता एक ऐसी पर्यावरण समस्या है, जिससे सम्पूर्ण विश्व प्रभावित हो रहा है ।

हरितगृह गैसों का उत्सर्जन, धरती के तापमान में वृद्धि के कारण आने वाले सकट का अंदाजा पर्यावरणविदों व वैज्ञानिकों को तो है, परंतु आम आदमी इसे गंभीरता से नहीं ले रहा है विश्व-पटल पर ग्लोबल वार्मिग को लेकर गंभीर चिंतन के दौर चल रहे है वैश्विक तापमान में लगातार वृद्धि हो रही है ।

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बीसवीं सदी का अंतिम दशक अब तक सर्वाधिक गर्म दशक रहा पृथ्वी के बढते औसत ताप के चलते कल तक की कपोल-कल्पित संभावनाएं आज सच होने लगी हैं वैश्विक तापमान के कारण ग्लेशियर पिघल रहे हैं । गंगा के जल का स्रोत गंगोत्री हिमनद सहित हिमालय के ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं ।

तापमान बढने के कारण दक्षिणी धुव में महासागरों के आकार के हिमखड टूटकर अलग हो रहे है कुछ वर्ष पूर्व अटार्कटिक के लार्सन हिमक्षेत्र का 500 अरब टन का एक हिमशैल टूटकर अलग हो गया अनुमान लगाया जा रहा है यदि तापवृद्धि का वर्तमान दौर जारी रहा पो 21वीं सदी के अंत तक पृथ्वी के तापमान में 5.8 डिग्री सेंटीग्रेड तक हो सकती है । पर जमीं बर्फ तथा हिमनदों के पिघलने से समुद्र का जल-स्तर 5 मीटर तक बढ़ सकता है । परिणामस्वरूप मालदीप तथा जापान के अनेक द्वीपों सहित भारत व यूरोप के कई देशों के तटीय क्षेत्र पानी में डूब जाएंगे ।

iii. ओजोन क्षरण (Ozone Layer Depletion):

पिछले दो दशकों से ओजोन की परत में क्षय करने की मुख्य भूमिका क्लोरो-पलोरो कार्बन (CFC) एवं फ्रीऑन गैस (Fr-G) की है । ये सभी मानव निर्मित रसायनों के समूह हैं, जो वातानुकूलनों तथा रेफ्रीरेजटरों में शीतलन एजेंट की भांति प्रयुक्त होते हैं ।

सबसे पहले सन् 1930 के दशक में सी.एफ.सी. का प्रयोग आरंभ हुआ । सन् 1980 के दशक में यह निश्चित हुआ कि ओजोन कवच को क्षति पहुंचाने में क्लोरीन गैस का एक अणु ओजोन के एक लाख परमाणुओं को नष्ट कर सकता है ।

सन् 1985 में वैज्ञानिकों को ओजोन की परत में छिद्र का पता चला । दक्षिण ध्रुव के ऊपर ओजोन गैस की सांद्रता में बहुत कमी आई है । सन् 1989 में देखा गया कि अटार्कटिक के ऊपर ओजोन की परत में 40 किमी व्यास का छिद्र हो गया है ।

ओजोन मंडल में ताप की वृद्धि तेजी से होती है, जो 50 डिग्री से बढकर 70 डिग्री सेटीग्रेड तक हो जाती है । प्रकृति में ओजोन, ऑक्सीजन से बनता है । इन दोनों गैसों के बीच एक संतुलन बना रहता है । सी. एफ. सी. के क्लोरीन गैस द्वारा उत्पन्न प्रदूषण से अब यह संतुलन बिगडने लगा है, जिससे धरती पर कैंसर जैसे भयानक रोग, त्वचा के अनेक रोग, पेड-पौधे तथा दूसरे जीवों के लिए प्राणघाती स्थिति उत्पन्न कर रहे हैं । आवश्यकता है, ऐसे उपाय की, जिससे क्लोरो-पलोरो कार्बन का वायुमंडल में जाना रुक जाए ।