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जल प्रदूषण कीटनाशकों का प्रयोग (Use of Pesticides):
अधिक उपज लेने के लिए कीटनाशकों के इस्तेमाल में हो रही बेतहाशा बढ़ोतरी ने एक ओर जहां इनकी मांग-बढ़ाने में प्रमुख भूमिका निभायी है, वहीं दवाओं को नहीं पचाने वाले कीड़ों की तादाद में भी वृद्धि हो रही है ।
8 से 26 गुना वृद्धि के चलते पहले से महंगे और तेज कीटनाशकों के एक नहीं, बीस-तीस बार छिड़काव के बावजूद उपज न बढ़ने से देश के कई राज्यों के कपास उत्पादक किसान आत्महत्या किये जाने की विवशता और नकली कीटनाशकों के प्रयोग से मुक्ति दिलाने के लिए पूर्व केंद्रीय कृषि मंत्री अजित सिंह ने नया कीटनाशक कानून लाने की बात कही थी ।
उनके अनुसार कीटनाशकों का न केवल ठीक तरीके से प्रयोग जरूरी है, बल्कि इसके बाद जमीन और मानव जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन भी जरूरी है । इसके लिए कीटनाशक प्रयोगशालाओं को बेहतर बनाने के प्रयास हेतु कीटनाशक उत्पादन कंपनियों को आगे आना चाहिए ।
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भारत में कीटनाशक कानूनों के तहत कीटनाशकों का पंजीयन, पैकिंग, लेबलिंग, आयात, उत्पादन, बिक्री तथा उपयोग की अनुमति दी जाती है । कीटनाशकों के रजिस्ट्रेशन से पहले एक केंद्रीय बोर्ड इनके दीर्घकालीन प्रभाव तथा सकट के समय इन्हें बेअसर करने के उपायों की परीक्षा करता है ।
लेकिन इन कानूनों में अन्य खतरों पर निगरानी और उनकी रोकथाम का कोई प्रावधान नहीं है । इसके अलावा कीटनाशकों का निर्यात करने वाले देशों पर भी कोई रोक नहीं है । देखा जाए तो हमारे यहां सन् 1960-80 के बीच के बीस वर्षों में कीटनाशकों की खपत 20 गुना बढ़ी ।
1984-85 में एक साल के दौरान तकरीबन एक लाख टन कीटनाशकों का इस्तेमाल हुआ । 80 के दशक में कीटनाशकों का उत्पादन 14 प्रतिशत बढ़ा । उत्पादन में 14 फीसदी की भारी बढ़ोत्तरी के बावजूद कीटनाशकों के आयात में भी इसी दौरान सात गुना की बढ़ोत्तरी हुई ।
1990 तक देश में कीटनाशकों की खपत एक अनुमान के तहत एक लाख चालीस हजार टन के करीब पहुंच गयी थी । विशेषज्ञों के अनुसार विस्तृत आंकड़े अभी प्राप्त नहीं हैं, फिर भी यह खपत बढ़कर शताब्दी के अंत तक करीब एक लाख 75 हजार टन के करीब पहुंच गयी ।
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कीटनाशकों की कुल खपत का दो-तिहाई हिस्सा कृषि क्षेत्र में ही खप जाता है । इसका भी 50 फीसदी हिस्सा पांच राज्यों पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में खप जाता है । हमारे यहां इस्तेमाल होने वाले 70 फीसदी कीटनाशक ऐसे हैं जिनका इस्तेमाल पश्चिमी देशों में निषिद्ध किया जा चुका है । कई देशों में इन कीटनाशकों का इस्तेमाल कम कर दिया गया है ।
80 के दशक में अमेरीका ने 30 प्रतिशत कीटनाशक दूसरे देशों को भेजे, जिन पर खुद अमरीका तक में इस्तेमाल पर पाबंदी लगी हुई थी । विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इन्हें अत्यंत जहरीला और नुकसानदेह बताया है । मलेरिया उन्मूलन जैसे कार्यक्रमों में इस्तेमाल होने वाले कई कीटनाशक इस श्रेणी में आते हैं ।
शरीर, जमीन और वनस्पति पर लंबे समय तक दुष्प्रभाव बनाये रखने वाली डी.डी.टी. जिसका हमारे यहां इस्तेमाल आम है, विश्व के अनेक देशों यहां तक कि अमरीका में इस पर सत्तर के दशक में प्रतिबंध लगा दिया गया था ।
गौरतलब है कि 60-70 के दशक में डी.डी.टी. के इस्तेमाल से अमरीका, एशिया और अफ्रीका में हजारों लोग बेमौत मारे गये थे और लाखों भयंकर बीमारियों की चपेट में आ गये थे । विडंबना यह है कि हमारे देश में डी.डी.टी. की खपत कृषि व सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यक्रमों में तकरीबन 10,000 टन है, जो 90 के दशक में तकरीबन 7,500 टन थी ।
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डी.डी.टी. से ढाई गुना तेज बीएचसी, 20 गुना तेज व जहरीला मिथाइल पैराथियान, तीन गुना तेज हेप्टाक्लोर, डाईब्रोमा-क्लोरोप्रोपेन (डीबीसीपी), हबीसाइड्स-2, फोर-डी आदि कीटनाशक जिन पर विदेशों में रोक है, हमारे यहां धड़ल्ले से इनका इस्तेमाल हो रहा है ।
बीएचसी के उत्पादन व इस्तेमाल पर अमरीका में प्रतिबंध है । मिथाइल पैराथियान की हमारे यहां सालाना खपत तकरीबन चार-साढ़े चार हजार टन है । यह एक करोड़ बीस लाख हेक्टेयर खेतों में छिड़का जाता है । हेप्टाक्लोरो की हमारे यहां खपत सालाना 200 टन के आस-पास है ।
डायब्रोमोक्लोरो प्रोपेन जिससे कैंसर और नपुंसकता के रोग होते हैं, का गेहूं व अन्य फसलों पर हमारे यहां खूब इस्तेमाल होता है । हर्बीसाइड्स-2, फोर-डी मुख्यत: ‘एजेन्ट आरेन्ज’ का ही एक यौगिक है । वियतनाम पर इसी एजेंट आरेन्ज का कहर अमरीकियों ने ढ़ाया था ।
इसके हमारे यहां कई कारखाने हैं, जिनमें सालाना तकरीबन डेढ़ हजार टन उत्पादन होता है । ईपीएन नामक कीटनाशक जिसका दुनिया में कहीं इस्तेमाल नहीं होता और संयुक्त राष्ट्र ने भी जिसे सूची से निकाल दिया है, का इस्तेमाल हमारे यहां धड़ल्ले से हो रहा है ।
1983 में भारत सरकार ने जिन कीटनाशकों को मंजूरी दी थी, ईपीएन उसमें शामिल था । इसके अलावा फास्वेल, डेल्ड्रिन तथा क्लोरडेन नामक अत्यंत जहरीले कीटनाशकों का इस्तेमाल हमारे यहां खुलेआम जारी है । कीटनाशकों के अधिक प्रयोग के कारण हमारे देश में स्वास्थ्य समस्या काफी सीमा तक बढ़ गयी ।
डी.टी.टी. के प्रभाव के कारण विभिन्न प्रकार की बीमारियां फैल गयी । विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार अब तो कीटनाशकों को पचाने वाले कीड़ों की तादाद में 18 गुना से ज्यादा वृद्धि हो जाने का नतीजा है कि महंगे और तेज कीटनाशकों का बीस-तीस बार छिड़काव होने के बाद भी कपास के उत्पादन में कोई खास बढ़ोत्तरी नहीं हुई है ।
मृदा की उर्वरा शक्ति पर इतना प्रतिकूल प्रभाव पड़ा कि कपास की खेती करने वाले कृषकों के व्यापक प्रयास के बावजूद भी फसल बर्बाद हो गयी परिणामत: वे आत्महत्या करने को विवश हो गए ।
कीटनाशकों के प्रयोग से जहर (Harmful Effects of Pesticide Use):
वर्तमान समय के कीटनाशक ‘धीमा जहर’ लोगों के आहार का स्थाई हिस्सा बन गया है, जिसके कारण हर साल लाखों लोग विभिन्न बीमारियों का शिकार हो रहे हैं । सन् 1990 में उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले में 150 लोगों की मौत कीटनाशक दवा से दूषित गेहूँ खाने से हो गयी थी ।
अनुमान है कि हर साल करीब छह हजार करोड़ रुपये की फसल खेत या भंडार घरों में कीट-कीड़ों के कारण नष्ट हो जाती है । इसी से निबटने के लिए कीटनाशकों का उपयोग बढ़ा ।
सन् 1950 में जहां इसकी खपत 2000 टन थी, आज लगभग 84 हजार टन कीटनाशक दवाएं भारत के पर्यावरण में हर साल घुल रही हैं । इसका एक तिहाई भाग विभिन्न सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यक्रमों के अन्तर्गत छिड़का जाता है । शेष खेतों में फसलों को कीट हमले से बचाने के लिए हैं ।
1960-61 में केवल 64 लाख हेक्टेयर खेतों में कीटनाशक डाले जाते थे । 1988-89 में यह बढ़कर 80 लाख हो गया और आज कोई डेढ़ करोड़ हेक्टेयर में जाने-अनजाने में जहर उपजाया जा रहा है । ये कीटनाशक पानी, मिट्टी, हवा, जन-स्वास्थ्य और जैव विविधता को बुरी तरह लील रहे हैं ।
इनके अंधाधुंध इस्तेमाल ने पारिस्थितिक संतुलन को बिगाड़ दिया है । कर्नाटक के मलनाड इलाके में गरीब, मजदूरों ओर हरिजनों में लकवे से मिलता-जुलता रोग सन् 1969-70 से फैला हुआ है । शुरू में लोगों की पिंडलियों ओर घुटनों के जोड़ों में दर्द हुआ, फिर रोगी खड़ा होने लायक भी नहीं रह गया ।
1975 में ही हैदराबाद के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूट्रिशन ने यह निर्देश दिया था कि ‘एंडमिक एमिलियन आर्थराइटिस ऑफ मलनाड’ नामक इस रोग का कारण ऐसे धान खेतों में पैदा हुए मछली, केकड़े खाना है, जहां कीटनाशकों का इस्तेमाल होता है ।
इसके बावजूद वहां के धान के खेतों में पैराथिया और एल्ड्रन का बेहिसाब इस्तेमाल जारी है । जबकि यह बीमारी लगभग एक हजार गांवों में फैल चुकी है । दिल्ली और आगरा जैसे शहरों में पेयजल सप्लाई के मुख्य स्रोत यमुना नदी के पानी में डी.डी.टी. ओर बीएचसी की मात्रा जानलेवा स्तर तक पाई जाती है ।
यहां उपलब्ध शाकाहारी और मांसाहारी दोनों किस्म की खाद्य सामग्री में भी इन कीटनाशकों की खासी मात्रा है । औसत भारतीय के दैनिक भोजन में लगभग 0.27 मि.ग्रा. डी.डी.टी. पाई जाती है । दिल्ली के नागरिकों के शरीर में कीटनाशक की मात्रा दुनिया भर में सबसे अधिक है ।
गेहूं में 1.6 से 17.4 भाग प्रति दस लाख, चावल में 0.8-16.4 भाग प्रति दस लाख, मूंगफली में 3.0-19.1 भाग प्रति दस लाख, आलू में 68.5 तक डी.डी.टी. की मात्रा मौजूद है । महाराष्ट्र में बोतल बंद दूध के 70 नमूनों में डी.डी.टी. और डाय एल्ड्रिन की मात्रा 4.8 से 6.3 भाग प्रति दस लाख तक पाई गई, जबकि मान्य मात्रा 0.66 भाग है ।
मुंबई में टंकी वाले दूध में डाय एल्ड्रिन की मात्रा 96 भाग प्रति 10 लाख से भी अधिक आंकी गई है । पिछले साल मुंबई से कोचीन जा रहे पानी के जहाज से फोडीडोल नामक कीटनाशक रिस गया था । फलस्वरूप जहाज में रखा आटा और चीनी दूषित हो गया था ।
जिसके प्रयोग के कारण केरल में 106 मौतें हुई थीं । रासायनिक कीटनाशकों के कारण पंजाब में कपास की फसल सफेद मक्खियों का शिकार हो रही हैं । राजस्थान में अजमेर के निकटवर्ती पुष्कर और पाल बिजला गांवों में गोभी की पूरी फसल नष्ट होने के पीछे भी कीटनाशकों के अनियोजित प्रयोग की बात सिद्ध हो चुकी है ।
अब टमाटर को ही लें । इन दिनों अच्छी उपज वाली इंडो-अमरीकी प्रजाति के ‘रुपाली’ और ‘रश्मि’ किस्म के टमाटरों का सर्वाधिक प्रचलन है । इन प्रजातियों को सर्वाधिक नुकसान हेलियोशिस आजिर्मजरा नामक कीड़े से होता है । टमाटर में सुराग करने वाले इस कीड़े के कारण आधी फसल नष्ट हो जाती है ।
इन कीड़ों को मारने के लिए बाजार में रोगर हॉल्ट, सुपर किलर, रेपलीन और चैलेंजर नामक दवाइयां मिलती हैं । इन दवाओं पर चेतावनी दर्ज होती है कि इस दवा का प्रयोग एक फसल पर चार-पांच बार से अधिक न किया जाए, लेकिन यह वैज्ञानिक चेतावनी इतने बारीक अक्षरों में और अंग्रेजी में दर्ज रहती है कि इसे पढ़ना आम किसान के बूते की बात नहीं होती ।
किसान अधिक फसल के लालच में इस दवा का छिड़काव 25 से 30 बार तक कर देते हैं । जिसके कारण टमाटर में काफी विषाक्तता आ जाती हैं । इस सन्दर्भ में भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. ओ.पी.लाल ने एक शोध रिपोर्ट में चेतावनी दी है कि बेहिसाब दवा छिड़कने से पैदा हुए टमाटर को खाने से मस्तिष्क, पाचन अंगों, किडनी, छाती और स्नायु तंत्रों पर बुरा असर पड़ता है ।
इससे कैंसर होने की संभावना रहती है । कीटनाशकों को मनमाने ढंग से दुरुपयोग करने की समस्या केवल टमाटर की दवाओं तक ही सीमित नहीं है । देश में मौजूद कीटनाशकों की कुल मांग का बमुश्किल 30 फीसदी ही यहां उत्पादन होता है ।
शेष दवाएं या तो विदेशों से आती हैं या फिर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के भारत स्थित कारखाने में तैयार की जाती हैं । जाहिर है कि ऐसे कारखानों में निर्मित दवाओं पर प्रयोग के निर्देश मात्र अंग्रेजी में छपे होंगे जिसके कारण फसल जहरीली हो जाती है ।
जैव विविधता जिसका संरक्षण निश्चित रूप से अनिवार्य है कीटनाशकों के प्रभाव से उन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है । गौरतलब है कि सभी कीट, कीड़े या कीटाणु नुकसानदायक नहीं होते हैं । इनकी बड़ी संख्या खेती-किसानी और मानव जाति के लिए उपयोगी भी होती है ।
लेकिन बगैर सोचे-समझे प्रयोग की जा रही दवाओं के कारण ‘पर्यावरण-मित्र’ कीट-कीड़ों की कई प्रजातियां जड़मूल से नष्ट हो गयी हैं । सनद रहे विदेशी पारिस्थितिकी के अनुकूल दवाइयों का भारत के खेतों में प्रयोग करने के पहले स्थानीय परिवेश के अनुरूप उनकी जांच का कोई प्रावधान नहीं है ।
विषैले और जनजीवन के लिए खतरा बन गए हजारों कीटनाशकों पर विकसित यूरोपीय देशों ने अपने यहां तो रोक लगा रखी है, लेकिन इस जहर को तीसरी दुनिया के देशों में उड़ेलने पर कोई पाबंदी नहीं है क्योंकि इससे उनके व्यावसायिक हित जुड़े होते हैं ।
जहां अमरीका सरीखे विकसित देश भारतीय मूल की वनस्पति नीम से निर्मित दवाओं से खेती उपचार को बढ़ावा दे रहे हैं, वहीं जड़ी-बूटियों का भंडार कहे जाने वाले हमारे देश में पारम्परिक कीटनाशकों को बिसरा कर जानलेवा रासायनिक दवाओं का प्रचलन चल निकला है ।
कतिपय नेताओं और उद्योगपतियों के आपसी स्वार्थ के चलते ऐसी दवाओं का उत्पादन जारी रखकर देश की अर्थव्यवस्था के मूल आधार खेती-किसानी की कमर तोड़ने का सुनियोजित षड्यंत्र बेखौफ जारी है ।
आज जरूरत है कि अंचल विशेष की परिस्थितियों और जरूरतों के अनुरूप क्षेत्रीय स्तर पर कीटनाशकों के उत्पादन ओर वितरण की योजना तैयार की जाए । इससे भी जरूरी है कि इन दवाओं को प्रयोग करने वाले अनपढ़ किसानों को इसकी सही तकनीकी मात्रा और प्रभावों-कुप्रभावों के बारे में शिक्षित किया जाए ।
कीटनाशक का प्रतिबंधित प्रयोग (Pesticide Restricted Experiment):
पर्यावरण सुरक्षा के लिए केन्द्र सरकार ने जून 1993 में 12 कीटनाशकों पर पूर्ण प्रतिबंध और 13 के इस्तेमाल पर कुछ पाबंदियों की औपचारिकता निभाई थी । प्रतिबंधित की गई दवाइयों में एक, ‘सल्फास’ के नाम से कुख्यात एल्यूमिनियम फॉस्फाइड भी है ।
डी.डी.टी., बी.एच.सी. जैसे बहुप्रचलित कीटनाशक भी सरकारी रिकार्ड में प्रतिबंधित हैं । ऐसी अन्य दवाएं हैं- डाय ब्रोमो क्लोरो फेलान (डी.वी.सी.पी.), पेंटा क्लोरो नाइट्रो बेंजीन (पी.सी.एम.बी.) पेंटा क्लोरो फनोन (पी.सी.पी.), हेप्टाक्लोर एल्ड्रिन पैराक्वाट डाई मिथाईल सल्फेट, नाईट्रोफेन और टेट्राडाइफेन ।
इन रसायनों के अवशेष फसलों पर रह जाते हैं, जो एक सीमा पार करने के बाद उसे भक्षण करने वालों के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डालते हैं । चूंकि सरकार ने इन पर पाबंदी तो लगा दी, लेकिन इनके स्थान पर प्रयुक्त सुरक्षित दवाओं के उत्पादन या प्रचार-प्रसार पर कोई ध्यान नहीं दिया, किसान इन्हें ही खरीदते आ रहे हैं ।
कीटनाशकों के गोदाम से होने वाली क्षति (Damage due to Pesticides):
तीसरी दुनिया के देशों के पास एल्ड्रिन, डी.डी.टी., डिएल्ड्रिन, एंड्रिन, एचसीएच, मेलेथिएयान ओर पेरेथिएन जैसी अत्यंत जहरीली कीटनाशक दवाओं का एक लाख टन से भी ज्यादा स्टॉक मौजूद है । चिंता की बात यह है कि यह स्टॉक जल स्रोतों के निकट है जो भूमिगत जल, सिंचाई तथा पेयजल में लगातार घुसपैठ करके इन देशों के रहने वाले लोगों के स्वास्थ्य पर कहर बरपा रहा है ।
पूरे विश्व में इस समय इस्तेमाल किए जा रहे 70 हजार रसायनों में कीटनाशकों दवाओं की संख्या उंगलियों पर गिनी जा सकने लायक हैं । लेकिन सच यह है कि इन कुछ कीटनाशकों से ही स्वास्थ्य और पर्यावरण को अन्य हजारों रसायनों के मुकाबले कहीं ज्यादा खतरा बना हुआ है ।
हर साल दुनिया में कीटनाशक विषाक्तता के चार लाख से 20 लाख तक मामलों में से अधिकतर भारत जैसे तीसरी दुनिया के देशों के किसानों के साथ होते हैं । वस्तुत: कीटनाशकों के प्रभाव के कारण प्रति-वर्ष 10 हजार से 40 हजार लोगों की मृत्यु होती है ।
जहाँ तक कीटनाशकों के प्रभाव की बात है तो 1986 में पंजाब में जून-जुलाई के महीने में ‘आर्गेनोफॉस्फेट’ नामक एक अत्यंत विषैली कीटनाशक दवा के असर से 12 मौतें हुईं और मरने वालों में किसान व कृषि मजदूर दोनों थे । आंध्र प्रदेश में 1985 के कृषि मौसम में गुंटूर और प्रकाशम जिलों में 10 कृषि गांवों के प्रत्येक समूह में कीटनाशक विषाक्तता के 75 मामले हुए ।
1977 में मलनाड, कर्नाटक में 200 से ज्यादा कृषि मजदूर खेतों में पकड़े गए केकड़ों को खाने के बाद विकलांग हो गए थे । पता चला कि इस जिले में चावल की खेती में कीटनाशक दवाओं का प्रयोग खूब खुलकर हुआ था और उनके अवशेष इन केकड़ों में पहुंच गए थे ।
औद्योगिक विष-विज्ञान अनुसंधान केंद्र, लखनऊ द्वारा स्थानीय केजी मेडीकल कॉलेज के न्यूरोलॉजी विभाग के सहयोग से किए गए अध्ययन में यह पाया गया कि कीटनाशक दवाओं का छिड़काव आदि करने वाले 20 फीसदी कृषि मजदूरों की आंखें क्षतिग्रस्त हो गई थीं ।
कीटनाशक विषाक्तता की स्थिति यह हो गई है कि बच्चा संसार में आंखें बाद में खोलता है, जहरीले कीटनाशकों के अवशेष मां के गर्भ में पहले ही उस तक पहुंचने लगते हैं ।
पंजाब में 75 फीसदी महिलाओं के दूध के नमूनों में डी.डी.टी. ओर बीएचसी के अवशेष बहुतायत में पाए गए । वर्ल्ड वॉच संस्था के मुताबिक, मां के दूध के जरिए बच्चे हर रोज सुरक्षित स्तर से 21 गुना अधिक खतरनाक रसायनों का विषपान कर रहे हैं ।
इसी तरह तमिलनाडु कृषि विश्वविद्यालय, कोयंबतूर की एक अध्ययन रपट की कहना है कि संपूर्ण राज्य में गायों और माताओं के दूध नमूनों में बीएचसी के अवशेष पाए गए हैं, जबकि अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार, दिल्लीवासियों के वसा ऊतकों में डी.डी.टी. की 4.7 पीपीएम की मात्रा मौजूद है ।
इधर एसएमएस कॉलेज, जयपुर के एक अध्ययन दल द्वारा 15000 नवजात बच्चों पर अध्ययन में पाया गया कि राज्य में उच्च विषाक्तता वाले कीटनाशकों की व्यापक खपत के कारण 45 बच्चे जन्मजात विकारों के शिकार थे और उनमें से 69 बच्चे से निर्बुद्धि पैदा हुए थे ।
भारत के दो कपास उत्पादक राज्यों के जिलों में कृषि मजदूरों के बच्चों में अंधेपन, कैंसर, विकलांगता और जिगर के रोगों आदि का पता चला है । पिछले 30 वर्षों से अधिक समय में दुनिया में कीटनाशक दवाओं का बाजार तेजी से बदला है और इस समय दुनिया में 23 अरब अमेरिकी डॉलर मूल्य का कीटनाशकों का सालाना व्यापार हो रहा है ।
अकेले भारत में हर साल कीटनाशकों पर 10 अरब रुपए खर्च किए जाते हैं । ‘क्रिश्चियन साइंस मॉनीटर’ के मुताबिक ब्राजील, भारत और मैक्सिको की गिनती विश्व में कीटनाशकों के सबसे बड़े बाजार के रूप में होती है, जबकि अमेरिका, जापान और पश्चिमी यूरोप इनके सबसे बड़े उत्पादक देश हैं ।
यह पश्चिमी देशों की व्यावसायिक नीति ही है कि जब उनके यहां अध्ययनों व अनुसंधानों में कीटनाशक दवाओं के खतरनाक नतीजे सामने आए और अपने यहां उन्होंने इसका इस्तेमाल बंद कर दिया तो अपने कल-कारखानों को चालू रखने के लिए उनकी निगाह तीसरी दुनिया पर जा टिकी ।
अपने मंसूबों में बे कामयाब हुए और तीसरी दुनिया के देश विश्व में पैदा होने वाली कुल कीटनाशक दवाओं में से 63 फीसदी की खपत कर रहे हैं । पांच वर्ष की अल्प अवधि में ही तीसरी दुनिया के देशों द्वारा इन दवाओं का आयात बिल 64 करोड़ डॉलर से बढ़कर करीब एक अरब डॉलर तक पहुंच गया ।
वर्ल्ड साइंटिस्ट के अनुसार- हरित क्रांति से भी कीटनाशक विषाक्तता का खतरा बढ़ा है क्योंकि हरित क्रांति के तहत अधिक पैदावार देने वाले गेहूं ओर चावल की नई किस्में रोगों ओर कीड़े-मकोड़ों की गिरफ्त में बहुत जल्दी आ जाती हैं ।
इसलिए बचाव के लिए उन्हें बड़ी मात्रा में उर्वरकों तथा कीटनाशकों की आवश्यकता पड़ती है, जिसमें विषाक्तता के खतरे भी साथ-ही-साथ बढ़ते हैं । चिंता की बात तो यह है कि ऊंची लागत के बाद भी इससे अपेक्षित लाभ नहीं मिल रहा है, हानि अवश्य हो रही है ।
कीटनाशक दवाओं के बेहिसाब प्रयोग के प्रत्युत्तर में अनेक कीट पतंगों ने उनके खिलाफ प्रतिरोधक शक्ति पैदा कर ली है । सन् 1938 में इन दवाओं के खिलाफ प्रतिरोधक शक्ति पैदा करने वाले कीट पतंगों की संख्या सिर्फ सात थी जबकि 1984 में उनकी संख्या बढ़कर 447 हो गई ।
इसी तरह 1970 तक अपतृणों में प्रतिरोधक शक्ति शून्य थी, लेकिन तृणनाशक दवाओं के अंधाधुंध इस्तेमाल के फलस्वरूप आज कम-से-कम 50 तरह के अपतृणों में रसायनों के खिलाफ प्रतिरोधक शक्ति पैदा हो गई है और वे छिड़काव के साथ ही उनके असर तो बेअसर कर देते हैं, लेकिन बदले में मनुष्य पर घातक असर छोड़ जाते हैं । कीटनाशकों के प्रयोग व प्रभाव के विषय में हमारी मौनवृत्ति चिंता का विषय है ।
यदि इस पर ध्यान दिया जाए तो अमोरका ने भारत द्वारा निर्यात किए गए चाय, काफी व अन्य कई खाद्यान्नों को जब कीटनाशकों से अधिक प्रभावित होने के कारण वापस कर दिया तो हमारे देश में गरीब तबके के लोगों निकायों द्वारा उस अनाज को क्यों वितरित कर दिया गया ? इस कार्य से भारतीय सरकार की स्वास्थ्य के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण स्पष्ट होता है ।
दुर्गापुर कृषि अनुसंधान केंद्र में 1984 में स्थापित अखिल भारतीय समन्वित अनुसंधान परियोजना (पीड़कनाशी अवशेष) में काम कर रही एसोसिएट प्रोफेसर ए. गुप्ता ने सब्जियों व अन्य खाद्य-पदार्थों में मिल रहे कीटनाशकों के अवशेषों पर गहरी चिन्ता जतायी है, बताया कि यदि समय रहते इस ओर कोई कारगर कदम नहीं उठाया गया तो इसके तीव्र दुष्परिणाम झेलने पड़ेंगे ।
उन्होंने बताया कि वे खाद्य-पदार्थों में कीटनाशकों के अवशेषों की बारीकी से जांच करते हैं तो कई बार उनका प्रभाव मानव की सहनशक्ति से 5-8 गुना अधिक तक पाया जाता है ।
इस अनुसंधान केंद्र में शस्य विज्ञान विभाग के प्रभारी एस.एस. भार्गव ने बताया कि कीटनाशक वस्तुत: विष की श्रेणी में आते हैं, जो फसलों में प्रयोग के बाद हानिकारक व लाभदायक कीटों में फर्क नहीं कर पाते, जिससे फसलों के लिए लाभदायक कीट (मित्र कीट) भी इसकी बलि चढ़ जाते हैं ।
उन्होंने फसलों के मित्र कीटों की कई प्रजातियों के लुप्त होने पर चिंता जताते हुए हानिकारक कीटों पर कारगर ढंग से रोकथाम के लिए समन्वित कीट प्रबंधन तकनीक अपनाने पर जोर दिया ।
इसके तहत कीटों को हानि के स्तर तक पहुंचने से पहले ही मित्र कीटों द्वारा रोका जाता है । भार्गव ने बताया कि कीटनाशकों के अंधाधुंध प्रयोग से मृदा की उर्वराशक्ति के साथ-साथ पर्यावरण परिस्थितिकी असंतुलन भी बढ़ता है ।
उन्होंने बताया कि आज कम क्षेत्रफल में अधिक उपज की लालसा में किसान फसलों पर बेतहाशा कीटनाशकों का प्रयोग करने लगे हैं जिससे उत्पादन लागत में भी लगातार वृद्धि हो रही है तथा हानिकारक कीटों ने इनके विरुद्ध प्रतिरोधक क्षमता बना ली है जिससे अब कीटनाशक भी उनके सामने बौने साबित होने लगे हैं ।
खाद्यान्न वाली फसलों में कीटनाशक का उपयोग शुरुआती दौर में होता है, जिसका प्रभाव उसकी कटाई तक लगभग समाप्त हो जाता है, लेकिन सब्जियों वाली फसल में कीटनाशकों के अवशेष आए बगैर नहीं रहते । कृषि विभाग विभिन्न फसलों पर कीटनाशी के प्रयोग के पश्चात् उपज के उपयोग की प्रतीक्षा अवधि निकालता है ।
प्रतीक्षा अवधि का मतलब यह है कि जैसे बैंगन की फसल में कीटों को मारने के लिए किसान यदि मिथाइल डिमेटोन 25 ई. सी. का प्रयोग करता है तो उसे बैंगन बाजार में लाने से पहले कीटनाशक छिड़काव के बाद 9 दिन का इंतजार करना पड़ेगा, तब जाकर उसका प्रभाव मानव शरीर के लिए हानि के स्तर से नीचा होगा ।
इसे विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी कानूनी तौर पर स्वीकृत कर रखा है । लेकिन होता यह है कि किसान उसे कीटनाशक के प्रयोग के तत्काल बाद या दो-तीन दिन में बाजार में लाकर बेच देते हैं, जिससे कीटनाशक उनके द्वारा हमारे शरीर को तरह-तरह की बीमारियों का घर बना देते हैं ।
हमारे यहां किसान को इस प्रतीक्षा अवधि का पालन कराने के लिए कोई कानून भी नहीं और नागरिकों का स्वास्थ्य उन किसानों के हाथों में होता है, जो कीटनाशकों के दुष्प्रभाव से अक्सर अनभिज्ञ होते हैं ।
कृषि विभाग हालांकि किसानों को समय-समय पर इसका प्रशिक्षण देता रहता है, लेकिन इसके परिणाम आशातीत नहीं हैं । चौंकाने वाली बात तो यह है कि किसान गोभी के फूल में चमक लाने के लिए इसे मैलाथियान नामक कीटनाशक के घोल में डुबाकर ही मण्डी में ले आते हैं, जिसका अवशेष दो-तीन दिन तक इसमें रहता है ।
गंगा नगर क्षेत्र कपास की फसल में कीटनाशकों के प्रयोग में अग्रणी है । कपास में कीटनाशकों के प्रयोग से इसका अवशेष उनके बीजों में रह जाता है । जब कपास के बीज गायों व भैंसों को खिलाए जाते हैं, तो इन कीटनाशकों के प्रवेश गाय-भैंस के दूध के प्रयोग से मानव शरीर में भी हो जाता है और कीटनाशकों के अवशेष मां के दूध से नवजात शिशु के शरीर में प्रवेश कर जाते हैं ।
कृषि विभाग ने ऑरगेनो क्लोरीन श्रेणी के कीटनाशक जैसे- बी. एच. सी., डी. डी. टी., एल्ड्रिन, एच. सी. एच., हेप्टाक्लोर कोरडिन के लम्बी अवधि (2 से 15 वर्ष) तक वातावरण में प्रभाव रहने को देखते हुए इनके प्रयोग पर रोक लगा दी है तथा दीमकनाशी एल्ड्रिन का कानूनी तौर पर उत्पादन वर्षों पूर्व ही बंद किया जा चुका है, लेकिन आज भी इनके अवशेष हमारे खाद्य-पदार्थों एवं पेयजल में सर्वाधिक पाए जाते हैं, क्योंकि स्वास्थ्य विभाग मलेरिया उन्मूलन के लिए गंदी नलियों, शहर या आबादी वाले क्षेत्रों के आस-पास स्थित पोखरों या कुण्डों तथा गंदगी के ढेरों में हर वर्ष टनों डी.डी.टी. का प्रयोग करता रहा है, जिसके अवशेष 10 से 15 वर्ष तक वातावरण में रहते हैं ।
डी.डी.टी. वाष्पीकृत होकर वातावरण में मिल जाता है या पानी में घुलकर भूमिगत जल में मिल जाता है, जिसे हम पेयजल के रूप में काम में लाते हैं । इसके अलावा डी.डी.टी. पोखरों व छोटे तालाबों में काम लेने पर पानी के पौधों में चला जाता है, जिन्हें मछली खाती हैं ।
चूंकि बी.एच.सी. व डी.डी.टी. वसा में घुलनशील होते हैं, इसलिए सह मछली के शरीर में वसा में मिल जाते हैं और इसकी मात्रा लगातार बढ़ती जाती है । इन मछलियों पर यह हमारे शरीर में जाकर बीटा आइसोमर बनाते हैं जो कैंसर जैसे रोगों का कारण बन जाते हैं ।
सूत्र बताते हैं कि कभी-कभी तो इस तरह की मछलियों में डी.डी.टी. का अंश 25 पी.पी.एम. तक पाया जाता है, जबकि हमारी सहन शक्ति केवल 3 पी.पी.एम ही होती है ।
कृषि विशेषज्ञों का कहना है कि हम अधिकतर पका हुआ भोजन खाते हैं, इससे कीटनाशकों का प्रभाव सम्पूर्ण तो नहीं, 70 से 80 फीसदी तक कम हो जाता है, परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि हम कीटनाशकों के प्रयोग के प्रति लापरवाह रहें क्योंकि यदि इसका प्रबंधन नहीं किया जाता तो निकट भविष्य में इसके परिणाम और भी खतरनाक होंगे ।
विषैले पानी का कारोबार (Trade of Toxic Water):
विभिन्न महानगरों में पेय पदार्थों के रूप में विष मिलने पर सरकार ने जाँच समिति का गठन किया, जिसका परिणाम शून्य रहा । ऐसी ही या इससे कुछ बड़ी जांच करीब 19 साल पहले बैठाई गई थी । विषय था- कीटनाशक रसायनों के घातक प्रभाव से देश में होने वाली मौतें ।
उत्तर प्रदेश, बिहार, गुजरात और महाराष्ट्र जैसे प्रांतों में कीटनाशकों से हुई सामूहिक मौतों ने संसद के गलियारों में सनसनी फैला दी थी । संसद में लगातार उठने वाली विरोधी आवाजों को शांत करने के लिए सरकार ने 14 अगस्त 1984 को अधिसूचना जारी कर एक समिति का गठन किया ।
समिति का काम ऐसे कीटनाशक रसायनों का पता लगाना था, जो अपने घातक नुकसान के चलते विकसित देशों में प्रतिबंधित कर दिए गए थे । इसका काम ऐसे घातक रसायनों पर प्रतिबंध की संभावनाओं पर भी विचार करना था । सभी पहलुओं पर गंभीरता से विचार करने के लिए एक उप समिति भी गठित की गई थी ।
जांच के बाद समिति ने जो निष्कर्ष पेश किए, वे चौंकाने वाले ही नहीं, बल्कि कीटनाशक रसायनों के विष से भी ज्यादा घातक थे । नुकसान पर अध्ययन करने के लिए बनी समिति ने कीटनाशकों के लाभ का दस्तावेज तैयार कर डाला था ।
इस दस्तावेज में कहा गया कि बढ़ती हुई आबादी का पेट भरने के लिए इनका इस्तेमाल आवश्यक है । इस दस्तावेज कीटनाशक में किसी के बीमार पड़ने तक की खबर नहीं है, मौत तो दूर की बात है ।
गौरतलब है कि पिछली सदी के साठ और सत्तर के दशक तक अकेले डी.डी.टी. के जहर से अमेरिका, एशिया और अफ्रीका महाद्वीप में हजारों की तादाद में लोगों के मरने और लाखों की संख्या में लोगों के घातक बीमारियों से ग्रस्त होने की अधिकृत जानकारी प्रकाश में आ चुकी थी ।
अमेरिका में बहुत पहले ही डी.टी.टी. पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया जा चुका था । भारत में व्यावसायिक मानसिकता ने जहरीले रसायनों के खतरे को कई गुना बढ़ा दिया है । सच तो यह है कि संपूर्ण खाद्यान्न, फल, सब्जियां, दूध, दही, घी, धरती की गहराई में छिपा पानी हमारे चारों तरफ की हवा, मिट्टी, तालाब और नदियों का पानी, माताओं का दूध, यानी सब कुछ जहरीला हो चुका है ।
फलों में अंगूर ओर सेब, दूध से निर्मित वस्तुओं में घी ओर गेहूं के आटें में कीटनाशक विष का सर्वाधिक अवशिष्ट होता है । भूसा और चारे के द्वारा जहरीले रसायनों का अवशेष गाय, भैंस एवं अन्य दुधारू जानवरों में दाखिल होता है ।
ऐसा कोई खाद्य पदार्थ नहीं बचा है, जिसमें कीटनाशक रसायनों का जहर न घुला हो । हर क्षण हर चर और अचर जीव विषपान कर रहा है । ऐसे समय में व्यक्ति का जीवन निश्चित रूप से प्रभावित हुआ है । विडंबना यह है कि विकसित देशों की अपेक्षा विकासशील देशों में ऐसे जहर की मात्रा बहुत ज्यादा है ।
मिसाल के तौर पर, एक अमेरिकी के प्रति एक किलोग्राम भोजन में मात्र साढ़े छह मिलीग्राम डी.डी.टी. एवं 1.1 ग्राम एचसीएच का अंश पाया जाता है, जबकि एक आम भारतीय के भोजन में 238.1 मिलीग्राम डी.डी.टी. एवं 124.4 मिलीग्राम एचसीएच का अंश मौजूद होता है ।
एक निष्कर्ष के मुताबिक, एक आम भारतीय मां के दूध में डी.डी.टी. की मात्रा नुकसान की सीमा से लगभग 244 गुना अधिक होती है । चिकित्सा विज्ञानियों एवं विश्व स्वास्थ्य संगठन का मानना है कि तीसरी दुनिया में होने वाले ढेर सारे रोगों एवं अनपेक्षित मौतों के मूल में जहरीले कीटनाशकों की घातक भूमिका है ।
पिछले चालीस वर्षों से कीटनाशकों से होने वाली धीमी मौतों का सिलसिला जारी है । देश के किसी सरकारी कार्यालय में इस बात का हिसाब नहीं है कि कीटनाशक जहर के इस्तेमाल से अब तक कितने लोगों की मौत हुई है । न जाने कितने भ्रूण माताओं के पेट में ही कीटनाशकों के शिकार हो चुके हैं ।
सदियों-सहस्राब्दियों से धरती और मनुष्य के मित्र के रूप में चले आ रहे न जाने कितने पशु-पक्षी गायब हो चुके हैं । कितनी घातक बीमारियों ने आम-जीवन में स्थायी भाव बना लिया । राष्ट्र के नीतिनिर्धारकों तथा उच्चाधिकारियों की इसके प्रति उदासीनता बनी रही ।
भारत की इन्हीं नीतियों का परिणाम है कि विदेशी कम्पनियां प्रतिबंधित कीटनाशकों को भारत में बेच रही हैं । वर्ष 1948 में ही अमेरिका में डी.डी.टी. को प्रतिबंधित कर दिया गया था, लेकिन भारत सरकार ने कीटनाशक कानून (1968) एवं 1974 की एक अधिसूचना द्वारा 324 कीटनाशक रसायनों को मंजूरी दे दी ।
आश्चर्य की बात है कि ये सारे रसायन विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा बेहद जहरीले घोषित किए जा चुके थे इनमें डी.डी.टी., बीएचसी, एल्ड्रिन, क्लोर्डेन, हेप्टाक्लोर, इंडोसल्फान, मिथाइल पैराथियान जैसे कई रसायन हैं, जो काफी पहले अमेरिका समेत करीब-करीब सभी विकसित देशों में प्रतिबंधित हैं ।
इसका अर्थ बहुत साफ है । हमारी सरकारें देशवासियों के जीवन और उनके स्वास्थ्य के साथ मौत का खेल खेल रही हैं । देश में होने वाली क्षति से उन पर विशेष प्रभाव नहीं पड़ता है । वे देश को विदेशी प्रतिबंधित माल का कचराघर बनाने से बाज नहीं आएंगे ।
यूनियन कार्बाइड ने इतना बड़ा हादसा किया, पर उसका क्या हुआ ? जहर घोषित कर दिए गए कीटनाशक रसायनों से बोतल का पानी साफ किया जा रहा है और वह भी देश की राजधानी में । रस्म पूरा करने के लिए एक ओर जांच सही ।
यह जांच इन्सानी जिंदगी के साथ कितना न्याय करेगी, यदि करेगी भी, तो कितने व्यापक दायरे में, कहा नहीं जा सकता । उसकी जांच पानी से क्या बाहर भी निकल सकेगी ? यदि सब कुछ मानवीय रहा, तो इस बात की क्या गांरटी कि सरकार उसे कागज का टुकड़ा समझकर अपनी पूर्ववर्ती सरकारी की तरह कचरेदान के हवाले न कर दे ।
जल प्रदूषण में कीटनाशकों का बढ़ता प्रयोग (Increasing Use of Pesticides in Water Pollution):
वर्तमान समय में समेकित कीट प्रबंधन प्रक्रिया को अपनाना अनिवार्य है । प्रमुख अनाजों तिलहनों एवं दलहन फसलों पर कीटों एवं रोगों का प्रबोधन करने के लिए कीट निगरानी तथा गन्ना, चावल, कपास, चना आदि जैसी अभिज्ञान फसलों पर कीटों की संख्या को कम करने के लिए परजीवियों और परभक्षियों के उपयोग से जैविक नियंत्रण करना शुरू किया ।
कीटनाशियों के गुणवत्ता नियंत्रण को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गई । इसके अतिरिक्त, बीज-विकास संबंधी नई नीति के तहत वनस्पति संगरोध पद्धति को और अधिक प्रभावी बनाने तथा संगरोध संबंधी अनुमति को समयबद्ध बनाने के लिए एकमुश्त आय तैयार करने के भरसक प्रयास किए जा रहे हैं ।
कृषि निगरानी सेवा ओर कृषि तथा सहकारिता विभाग के सहयोग से 40 से अधिक केंद्रीय वनस्पति रक्षण और केंद्रीय निगरानी केंद्रों के एक नेटवर्क के जरिए उपलब्ध कराई जा रही है । इसने धान, गेहूं तिलहन, दलहन, कपास, गन्ना आदि जैसी आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण फसलों पर सर्वेक्षण का आयोजन किया ।
खरीफ मौसम के दौरान इन सर्वेक्षणों के माध्यम से लगभग 6.05 लाख हेक्टेयर नमूना क्षेत्र की जांच की गई और रबी मौसम के दौरान पुन: 4.5 लाख हेक्टेयर क्षेत्र का सर्वेक्षण करने का लक्ष्य रखा गया । विशेष खाद्यान्न उत्पादन कार्यक्रम के अंतर्गत अभिज्ञात किए गए जिलों में कृषि मॉनीटरिंग संबंधी कार्य में और अधिक तेजी लाई गई ।
इन सर्वेक्षणों से कृमियों और रोगों के प्रकोप उनके विकास की प्रारंभिक अवस्था में पता लगाने में मदद मिली, जिससे हरियाणा में ‘टाइस ब्लास्ट’ और ‘व्हाइट बेक्ड प्लांट हॉप्पर’ पश्चिमी बंगाल ओर असम में ‘राइस हिस्पा’ आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु में ब्राउन प्लांट हॉप्पर और आंध्र प्रदेश में मूंगफली पर लीफ माइनर ‘रस्ट’ और टिक्का रोग तथा तमिलनाडु कर्नाटक और उत्तर प्रदेश में मूंगफली पर ‘जैसिड्स’ तथा ‘एफिड्स’, गुजरात, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, पंजाब और हरियाणा में कपास पर ‘जैसिड्स’, ‘एफिड्स’ और ‘व्हाइट फ्लाई’ हरियाणा, उत्तर प्रदेश, पंजाब और बिहार में ‘गन्ना पाईटिला’ व ‘टॉबोटर’ जैसे कृमियों से आवश्यकता पर आधारित वनस्पति रक्षण उपायों को अपनाने में सहायता मिली है ।
वनस्पति रक्षण की रासायनिक पद्धतियों के प्रयोग पर कम-से-कम निर्भर रहने के लिए जैविक साधनों के इस्तेमाल पर अधिक बल दिया गया, ताकि फसलकृमियों तथा खरपतवारों का कारगर प्रबंध किया जा सके ।
पर्यावरण संरक्षण के उद्देश्य से विदेशी एवं देशी परजीवियों और परभक्षियों, जो कीटों-कृमियों एवं खरपतवारों के प्राकृतिक शत्रु हैं, को 20 प्रजातियों का 11 केंद्रीय जैविक नियंत्रण केंद्रों ओर एक परजीवी संवर्धन इकाई में बड़ी मात्रा में संवर्धन किया गया ताकि इन्हें बड़े पैमाने पर खेतों में छोड़ा जा सके ।
अब तक करीब 7,250 लाख परजीवियों तथा परभक्षियों के छोड़े जाने से विभिन्न राज्यों की अभिज्ञात फसलों में हेलिओथिस, चावल तनाभेदक, लीफ फोल्डर, गन्ना बोरर, स्केल कीट, पाइरिला, कपास बॉलवोर्म्स, बूली एफिइस तथा अंगूर मीलीबग जैसी मुख्य फसलकृमियों की संख्या को उन क्षेत्रों में प्रभावी ढंग से नियंत्रित कर लिया गया जहां ये परजीवी या परभक्षी छोड़े गए थे ।
सभी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डों, बंदरगाहों और भूमि सीमाओं पर स्थित 26 वनस्पति संगरोध एवं धूमीकरण केन्द्रों द्वारा अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के माध्यम से विनाशकारी कीट एवं कृमि अधिनियम 1914 तथा अंतर्राष्ट्रीय वनस्पति रक्षण समझौता के प्रावधानों और रोगों के चोरी छिपे प्रवेश पर सतर्कता रखी जा रही है ।
इस वर्ष खपत हेतु 6,035 और बीजों ओर पौधे सामग्रियों के लिए 384 आयात परमिट जारी किए गए । इन केंद्रों ने विदेशी कृमियों और रोगों के विद्यमान अथवा न होने का पता लगाने के लिए विभिन्न देशों से आयातित लगभग 25,097 गाठों, 8,92,238 मी. टन एवं 6,53,640 विभिन्न पौधों एवं पौध सामग्रियों की खेपों की जांच की गई ।
इन केंद्रों ने लगभग 7,07,679 मीट्रिक टन और 4,93,729 पौध सामग्रियों और पौधों तथा कपास की गांठों का पादप स्वच्छता संबंधी प्रमाणीकरण भी किया । कीटनाशी अधिनियम, 1968 और उसके अंतर्गत बनाए गए नियमों के प्रावधानों के तहत गठित की गई पंजीकरण समिति ने अब तक अनेक बैठक की ।
कीटनाशी अधिनियम के अंतर्गत स्थापित की गई केंद्रीय कीटनाशी प्रयोगशाला फरीदाबाद में कीटनाशियों के संबंध में उनकी जैव प्रभावोत्पादकता, विषाणुता, गुणवत्ता और पैकेजिंग की विशिष्टताओं की जांच की गई ।
वर्तमान समय में कीटनाशियों (तकनीकी ग्रेड की सामग्री) की प्रत्याशित मांग एक लाख मीट्रिक टन से अधिक आकलित की गई है । देशी उत्पादन संतोषजनक था । कीटनाशियों और उनकी कच्ची सामग्री की उपलब्धता की निरंतर समीक्षा की गई तथा अपेक्षित कार्यवाई की गई ।
सामान्य रूप से प्रयोग में लाए जाने वाले और देश में विनिर्मित साल कृमिनाशियों (बीएचसी, डी.डी.टी., मैलाथियम, फैनीट्रोथियन, मिथाइल, पैटाथियन, डाई मेथोएट और एंडोसल्फान) की उपलब्धता की स्थिति में और सुधार लाने और उन्हें बढ़ाए जाने के लिए विभिन्न राज्यों तथा संघ राज्य क्षेत्रों के लिए भारत सरकार की 50 प्रतिशत वितरण की योजना के अंतर्गत 15,579 मीट्रिक टन (तकनीकी ग्रेड) का आवंटन किया गया ।
वनस्पति संगरोध विनियम भारत सरकार द्वारा सितंबर 1988 में घोषित नई बीज विकास नीति के परिणामस्वरूप ‘पौध, फल एवं बीज’ भारत में आयात का विनियम आदेश 1989 के द्वारा संशोधित कर दिए गए हैं । उक्त आदेशों को प्रभावी बनाने के लिए प्रावधान रखने के उद्देश्य से अनुवर्ती कार्यवाई शुरू की गई है ।
आयातित फूलों, सब्जियों, निर्मुक्ति पहले बीजों के उगने पर परीक्षण (ग्रो-आन-टेस्ट) के संबंध में नई बीज विकास नीति में लिखी शर्तों को देखते हुए नई दिल्ली और मुंबई के वनस्पति रक्षण केंद्रों पर पोलिहाउस शुरू किए गए हैं, जबकि अन्य स्थानों जैसे कलकत्ता, मद्रास, अमृतसर में भी पोलिहाउस शुरू किए जा रहे हैं ।
केन्द्रीय वनस्पति रक्षण प्रशिक्षण संस्थान, हैदराबाद ने कर्मचारियों को प्रशिक्षण देने के राज्य के प्रयासों को बढ़ाने के लिए वनस्पति रक्षण के विभिन्न पहलुओं पर कई दीर्घावधि एवं अल्पावधि प्रशिक्षण पाठ्यक्रमों का आयोजन करना जारी रखा ।
अब तक संस्थान अपने ही अहाते में 18 प्रशिक्षण कार्यक्रम और राज्यों में छह अंतर्राज्यीय कार्यक्रम अर्थात् महाराष्ट्र, उड़ीसा, मध्य प्रदेश, गुजरात प्रत्येक में एक-एक तथा तमिलनाडु में दो कार्यक्रम आयोजित किए ।
इनमें चार विशेष प्रशिक्षण कार्यक्रम शामिल हैं, यानी कीटनाशियों की गुणवत्ता, नियंत्रण और कृमि निगरानी नामक प्रत्येक विषय पर एक कार्यक्रम । इनमें लगभग 900 कर्मचारियों को प्रशिक्षण दिया गया है ।
वर्तमान समय की मांग के अनुसार जो कार्यक्रम प्रस्तावित हैं, उनमें मुख्य रूप से खरीफ और रबी फसलों पर कृमि संबंधी मॉनीटरिंग के लिए 10 लाख हेक्टेयर क्षेत्र का नमूना सर्वेक्षण, राजस्थान, गुजरात और हरियाणा के अनुसूचित रेगिस्तानी क्षेत्रों में टिड्डी सर्वेक्षण तथा उनका नियंत्रण, प्रमुख फसल कृमियों तथा खरपतवारों के जैव नियंत्रण के लिए लगभग आठ हजार लाख परजीवियों और परभक्षियों का व्यापक रूप से संवर्धा तथा उन्हें क्षेत्र में नियुक्त करना ।
केंद्रीय वनस्पति रक्षण प्रशिक्षण संस्थान, हैदराबाद में वनस्पति रक्षण प्रौद्योगिकी के विभिन्न पहलुओं पर राज्य के कर्मचारियों के लिए प्रशिक्षण पाठ्यक्रमों का आयोजन करना तथा तीव्र विषाक्तता के लिए 25 कृमिनाशियों के नमूना, जैव प्रभावोत्पादकता के लिए 80 नमूनों, गुणवत्ता, नियंत्रण के लिए 2500 नमूनों तथा पैकेजिंग और लेबल संबंधी मापकों के लिए 200 नमूनों की जांच करना आदि शामिल हैं ।
अर्थात् सरकार के तमाम प्रयास हैं कि कृषि क्षेत्र की, कीटनाशकों पर बढ़ती निर्भरता को कम-से-कम किया जाए, ताकि इससे फसलों की हानि और मनुष्य के स्वास्थ्य पर पड़ रहे प्रतिकूल प्रभाव को रोका जा सके । कीटनाशकों के बढ़ते दुष्प्रभाव के कारण भारत सरकार विभिन्न प्रकार के प्रयास कर रही है, परन्तु कीटनाशकों के खपत में किसी प्रकार की कमी नहीं आ रही है ।
कीटनाशकों के दुष्प्रभाव (Side Effects of Pesticides):
उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले रायपुरा जंगला गांव में 15-16 अप्रैल 1990 को तिलकोत्सव भोज में विषाक्त भोजन खाने से सौ से ज्यादा लोगों की मौत से देश में कीटनाशकों के इस्तेमाल और कीटनाशक कानून लागू करने के सरकारी रवैए पर अनेक सवाल उठ खड़े हुए ।
इस दर्दनाक हादसे के कारणों का सही-सही जानकारी पूरी जांच के बाद ही चलेगा पर शुरुआती छानबीन में इसके लिए अत्यंत घातक पैराथिन ओर इथेन नामक कीटनाशकों को जिम्मेदार माना गया है ।
उल्लेखनीय इन दोनों कीटनाशकों के उत्पादन और इस्तेमाल पर सभी पश्चिमी देशों में रोक लगी हुई है । संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रतिबंधित ईएनपी का तो दुनिया में कहीं इस्तेमाल नहीं होता मगर अपने देश में सरकार की रजामंदी से 1983 से इसका उत्पादन व इस्तेमाल हो रहा है ।
इस समय डेढ़ सौ से ज्यादा लोगों की मौत के बाद ही बहस में रासायानिक कीटनाशकों की संदिग्ध उपयोगिता पर सवालिया निशान लग गया । इन सवालों की उपेक्षा हरित क्रांति के झंडाबरदार सरकार के कंप्यूटरी कृषि विशेषज्ञ आखिर तक करेंगे ?
बस्ती जिले का हादसा कीटनाशकों के सीधे आपराधिक अथवा दुरुपयोग का नमूना है, मगर देश में हरित क्रांति के पैरोकारों ने कृषि को रासायनिक खाद और कीटों पर निर्भर बना कर हमारे भोजन में विषाक्त कर जो अपराध किया है- वह क्या कम गंभीर है ?
हरित क्रांति के बाद कृषि रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों पर पूरी तरह निर्भर होकर रह गई है । इसका नतीजा यह है कि खाने के लिए अनाज की पैदावार तो बढ़ गई है, मगर जो अनाज जीवनदायी माना जाता है, वही उर्वरकों व कीटनाशकों के कारण गुणवत्ता में निम्न स्तर का होकर अस्वास्थ्यकर ओर जानलेवा तक होने लगा है ।
आज अनाज, फल, सब्जियां, दलहन, तिलहन, दूध ओर मांस-मछली तक सभी में विषाक्त तत्वों की भरमार है जो एक धीमी मौत की ओर हमें धकेल रही है । इसके बावजूद रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का इस्तेमाल न केवल जारी है, बल्कि तेजी से बढ़ भी रहा है ।
आंकड़ें बतलाते हैं कि 1960 से 1970 के दौरान अपने देश में कीटनाशकों की खपत में 20 गुना इजाफा हुआ है । इस दौरान कीटनाशकों के उत्पादन में 14 फीसदी बढ़ोतरी हुई और आयात भी इस बीच सात गुना बढ़ा ।
एक अनुमान के अनुसार 1989-90 में देश में कीटनाशकों की खपत 1 लाख 20,000 टन है । इस तादाद का दो-तिहाई भाग कृषि में इस्तेमाल होता है । इसका भी 50 फीसदी भाग पंजाब, गुजरात, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और तमिलनाडु में प्रयोग होता है ।
एक अनुमान के अनुसार पिछले 20 सालों में कीटनाशकों का इस्तेमाल करके करीब 10 प्रतिशत फसल को बर्बाद होने से बचा लिया गया । लेकिन जिस अनुपात में इन कीटनाशकों का जहर भोजन के जरिए देशवासियों के शरीर में पहुंचा है और उससे जो हानि हुई व हो रही है, उसे देखते हुए दस फीसदी फसल को बर्बाद होने से बचाने की उपलब्धि बहुत महंगी है ।
जन और धन की इस व्यापक हानि के सामने दस फीसदी फसल की बर्बादी का जोखिम सस्ता ही ठहरेगा । कीटनाशकों के प्रयोग से होने वाली मृत्यु का विवरण नहीं है । कीटनाशक मिले भोजन और असावधानीवश कीटनाशकों के संपर्क में आने के कारण जहां हजारों लोग मौत के मुंह में समाए हैं, वहीं विभिन्न कीटनाशकों से पैदा बीमारियां भी आम होती जा रही हैं ।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार विश्व में भारत उन देशों में तीसरे नंबर पर है जहां कीटनाशक हादसे ज्यादा होते हैं । इन कीटनाशकों के असर से कितने लोग बीमार पड़ते हैं यह जानना मुश्किल है, क्योंकि बीमारी को कीटनाशकों से जोड़कर उनकी शिनाख्त करना लंबी प्रक्रिया है ।
अपने देश में विभिन्न सरकारी ओर गैर-सरकारी संस्थाओं के सर्वे के नतीजों पर नजर डालें तो कीटनाशकों की घातक भूमिका भयावह रूप में सामने आती है । इनके अनुसार दिल्ली और उसके निकटवर्ती इलाकों से मंडियों में आई सब्जियों-फलों आदि में 20 प्रतिशत ज्यादा कीटनाशकों का असर होता है ।
30 प्रतिशत सब्जियों-फलों में खतरनाक अनुपात में पाया जाता है । इसी प्रकार महाराष्ट्र में 70 फीसदी दूध के नमूनों में डी.डी.टी. का प्रतिशत 4.8 से 6.3 भाग प्रति दस लाख और डेल्ट्रीन का प्रतिशत 1.9 से 6.3 पीपीएस (पाटर्स पर मिलियन) है । गौरतलब है कि ये दोनों रसायन 0.66 पीपीएम तक ही सुरक्षित माने जाते हैं ।
कुछ साल पहले विश्व स्वास्थ्य संगठन ने देश के विभिन्न भागों से इकट्ठे किए गए अनाज, दूध, दालों, अंडे ओर मांस के नमूनों का परीक्षण किया तो पाया कि 50 प्रतिशत से ज्यादा चीजों में कीटनाशकों का असर है ।
कीटनाशकों से जुड़ा अफसोसजनक पहलू यह भी है कि भारत जैसे विकासशील देशों में इस्तेमाल होने वाले 70 प्रतिशत कीटनाशक ऐसे हैं जिनके इस्तेमाल पर विकसित देशों में प्रतिबंध लगाया जा चुका है या उनका बहुत कम इस्तेमाल होता है ।
डी.डी.टी. अपने यहां बहुत अधिक मात्रा में प्रयोग होता है पर अन्य अनेक देशों में यह प्रतिबंधित है । विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार जमीन, वनस्पति और शरीर पर इसका बहुत लंबे समय तक घातक असर बना रहता है । मगर अपने देश में कृषि क्षेत्र में इसकी खपत 3500 टन ओर मलेरिया उन्मूलन आदि कार्यक्रमों में 4000 टन है ।
इस समय की बीएचसी, मिथाइल पैराथियान, हेप्टाक्लोर, डाई ब्रोमो क्लोरो प्रोपेन, एजेंट आरेंज, फास्वेल, डेल्ड्रिन, क्लोरडेन आदि ऐसे कीटनाशक है, जिन्हें प्रतिबंधित करने के बाद भी इनके प्रयोग पर किसी तरह की कमी नहीं आ रही है । कीटनाशकों के घातक इस्तेमाल को रोकने के लिए अपने यहां कीटनाशक कानून मौजूद हैं, मगर उस पर सख्ती से अमल की न तो इच्छा शक्ति है और न ही पर्याप्त व्यवस्था । इसी का नतीजा है कि कीटनाशक हमारे शरीर और जीवन में जहर घोल रहे हैं और ‘सबके लिए स्वास्थ्य के’ नारे लगाने वाली सरकार घोड़े बेच कर सो रही है ।
कीटनाशकों के घातक असर का अहसास करने के लिए सरकार को अभी कितनी भोपाल-त्रासदियों का इंतजार है ? इस तरफ सरकार को ध्यान आकर्षित करना चाहिए नहीं तो मानव जीवन के स्वास्थ्य पर घातक प्रभाव पड़ेगा ।