अत्यधिक जनसंख्या के प्रभाव! Read this article in Hindi to learn about the effects of population growth.

संक्षेप में किसी भी समाज में अत्यधिक जनसंख्या के निम्नलिखित प्रभाव देखे जा सकते हैं:

(1) गरीबी का बढ़ना:

अत्यधिक जनसंख्या का सबसे स्पष्ट प्रभाव गरीबी की वृद्धि के रूप में दिखाई पड़ता है ।

(2) भुखमरी:

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अत्यधिक जनसंख्या का दूसरा प्रभाव देश में भुखमरी और अकाल के रूप में दिखाई पड़ता है । उदाहरण के लिये भारतवर्ष में पिछली शताब्दी में अनेक भयंकर अकाल पड़े जिससे लाखों लोगों की मृत्यु हुई ।

(3) जीवन के स्तर का नीचे गिरना:

अत्यधिक जनसंख्या का एक अन्य प्रभाव जीवन के स्तर के लगातार नीचे गिरने में दिखाई पड़ता है । भारतवासियों के जीवन का स्तर पिछले दिनों बराबर नीचे गिरता गया । यद्यपि प्रति व्यक्ति आय कुछ बड़ी है परन्तु उसकी तुलना में चीजों के दाम इतने अधिक बड़े है कि जीवन का स्तर पहले से नीचा हो गया है ।

नगरों की जनसंख्या बढ़ने से भीड़ बढ़ती जाती है । दिल्ली जैसे नगरों में जमीन का भाव हजारों रुपये गज तक हो गया । बम्बई कलकत्ता आदि बड़े-बड़े नगरों में लाखों परिवार एक कमरे के मकान में रहने पर मजबूर हैं । गन्दी बस्तियां अलग बढ़ती जाती है । इन गन्दी बस्तियों से केवल स्वास्थ्य ही नहों बिगड़ता बल्कि लोगों का नैतिक चरित्र भी गिरता है और अपराध की प्रवृति बढ़ती है ।

(4) स्वास्थ्य का स्तर नीचे गिरना:

अत्यधिक जनसंख्या से देश में महामारियाँ फैलती है और देश में स्वास्थ्य का स्तर नीचे गिरता है । अनुमान लगाया गया है कि भारत में प्रति वर्ष हैजे से दो लाख, तपेदिक से 5 लाख, चेचक से 71 हजार और प्लेग से 25000 लोग मरते हैं ।

(5) कृषि योग्य भूमि का बंटवारा:

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जनसंख्या की अत्यधिक वृद्धि से देश में कृषि योग्य भूमि का बटवारा होता जाता है और क्रमशः वे अनार्थिक जोतें बन जाती है । इससे देश में खेती की दशा खराब होती है और कृषकों का जीवन-स्तर नीचे गिरता है । इससे बहुत से लोग धीरे-धीरे गांव छोड़कर शहर में आने लगते है क्योंकि जमीन इतनी छोटी-छोटी बंट जाती है कि न तो उन पर पूरे परिवार के काम करने की जरूरत होती है और न उनकी उपज से पूरे परिवार का गुजारा ही हो सकता है ।

इसका एक उदाहरण भारतवर्ष में देखा जा सकता है । भूमि के इस प्रकार अत्यधिक अपखण्डन को रोकने के लिये भारत सरकार ने पिछले दिनों नये विधान बनाये हैं और भूमि का पुनर्गठन करने की कोशिश की है ।

(6) पारिवारिक विघटन:

अत्यधिक जनसंख्या से एक अन्य सामाजिक परिवर्तन पारिवारिक विघटन के रूप में दिखाई पड़ता है । अत्यधिक जनसंख्या निर्धनता बढाती है और स्वास्थ्य का स्तर नीचे गिराती है । इससे परिवार के सदस्यों में कटुता उत्पन्न होती है । सबके जीवन की सभी आवश्यकतायें पूरी नहीं हो पातीं । अतः पारिवारिक तनाव उत्पन्न होते हैं और परिवार का विघटन होने लगता है ।

(7) व्यक्तिगत विघटन:

अत्यधिक जनसंख्या से एक अन्य सामाजिक परिवर्तन व्यक्तिगत विघटन के रूप में दिखाई पड़ता है । निर्धनता अपराध उत्पन्न करती है । अत्यधिक जनसंख्या से स्त्रियों को भी पुरुषों के साथ बाहर काम करना पड़ता है । माता-पिता के घर से बाहर रहने से लड़के-लड़कियाँ आवारा हो जाते हैं । अत्यधिक जनसंख्या से जीवन का स्तर नीचे गिरता है ।

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घोर परिश्रम करने के बाद भी निम्न स्तर के लोग जीवन की आवश्यकतायें पूरी करने के साधन नहीं जुटा पाते इससे निराशा और हताशा बढती है । परिणामस्वरूप मद्यपान आदि दोष उत्पन्न होने लगते हैं गांव में जनसंख्या बढ़ने से लोग गाँव छोड़कर शहरों में आने पर मजबूर होते है परिवारों से दूर रहकर मजदूर शहरों में वेश्यागमन आदि दोषों में पड़ जाते है यदि परिवार को अपने साथ ले भी आये तो भी गन्दी बस्तियों में उनके साथ-साथ उनके परिवार के सदस्यों का भी नैतिक पतन होता है वस्तुओं के मूल्य बढते जाने से और तदनुसार आय के न बढ़ने में लोगों की चिन्तायें बढ़ती ही जाती है जिससे उनमें नाना प्रकार के मानसिक रोग उत्पन्न होने लगते हैं ।

(8) वैवाहिक विघटन:

अप्रत्यक्ष रूप से जनसंख्या की अत्यधिक वृद्धि विवाह पर बुरा प्रभाव डालती है और उसका क्रमशः विघटन शुरू हो जाता है । जनसंख्या अधिक बढ़ने से पारिवारिक सम्बन्ध ढीले पड़ते हैं, जिनका विवाह की स्थिरता पर भी प्रभाव पड़ता है आर्थिक कठिनाइयां बढती जाने से लोग देर से विवाह करते है और बहुत से तो विवाह करते ही नहीं ।

जीवन का स्तर गिर जाने से एक सामान्य स्थिति का पति अपनी पत्नी और बच्चों की आवश्यकताओं को पूरी करना बहुत कठिन पाता है । इससे पति-पत्नी के सम्बन्धों पर बुरा प्रभाव पड़ता है । पारिवारिक विघटन के समान व्यक्तिगत विघटन से भी वैवाहिक विघटन होता है ।

(9) सामाजिक विघटन:

पारिवारिक, वैयक्तिक और वैवाहिक विघटन से समाज का विघटन होने लगता है । समाज की सारी व्यवस्था ही बिगड़ जाती है । रीति-रिवाज तेजी से टूटने लगते है । लोगों में स्वार्थ चिन्ता, कटुता आदि बढ़ने लगते है । जिससे वे अपनी स्थितियों के अनुसार कार्य को भली प्रकार नहीं करते ।

नगरों की जनसंख्या बढ़ने से सामुदायिक भावना क्षीण होने लगती है । गांवों की जनसंख्या बढ़ने से लोग गाँव छोड़-छोड़ कर नगरों में आने लगते हैं । जनसंख्या की वृद्धि से होने वाले उपरोक्त सभी परिवर्तनों को भारतीय समाज में देखा जा सकता है । कुछ समाजशास्त्रियों के अनुसार जनसंख्या की वृद्धि का राज्य के स्वरूप पर भी प्रभाव पड़ता है ।

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