Read this article in Hindi to learn about:- 1. भारत में व्यावसायिक आबंटन का परिचय (Introduction to Occupational Distribution in India) 2. श्रम शक्ति के व्यावसायिक वितरण के लक्षण (Features of Occupational Distributional of Working Force) and Other Details.

भारत में व्यावसायिक आबंटन का परिचय (Introduction to Occupational Distribution in India):

जनसंख्या का व्यवसायिक आबंटन किसी अर्थव्यवस्था द्वारा एक विशेष समय के भीतर प्राप्त विकास और विविधीकरण की मात्रा को प्रतिबिम्बित करता है । हमारे देश के प्रकरण में श्रम शक्ति का व्यवसायिक आबंटन भारतीय अर्थव्यवस्था में प्रचलित पिछड़ेपन की उच्च मात्रा दर्शाता है । क्रियाशील जनसंख्या बहुत धीमी गति से बढ़ रही है ।

वर्ष 1901 से 1981 के दौरान, आरम्भिक क्षेत्र में व्यवसायिक आबंटन बहुत स्थिर रहा अर्थात् 70 प्रतिशत जनसंख्या प्रारम्भिक क्षेत्र अर्थात् कृषि में व्यस्त रही, क्रिगाशील जनसंख्या का 28 से 30 प्रतिशत भाग ही द्वितीयक और तृतीयक क्षेत्रों में कार्यरत था ।

यद्यपि, अन्तिम दशक में कुछ महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुये । यह स्वतन्त्रता के पश्चात आर्थिक आयोजन के दौरान उचित रोजगार नीति अपनाये जाने के कारण हुआ ।

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क्रियाशील जनसंख्या का उद्योग अनुसार वितरण (Industry wise Distribution of Working Population):

क्रियाशील जनसंख्या का उद्योग अनुसार वितरण तालिका 7.8 में दिया गया है । स्वतन्त्र भारत में, आर्थिक आयोजन के आरम्भ के पश्चात औद्योगिकीकरण और व्यवसायिक ढांचे में परिवर्तन क्रियाशील शक्ति के एक भाग को कृषि से द्वितीय और तृतीयक क्षेत्रों की ओर स्थानान्तरित किया गया । वर्ष 1951 से 1971 के दौरान आरम्भिक क्षेत्र में श्रम शक्ति का अनुपात 72.1% पर टिका रहा ।

दो दशकों में निर्माण और सेवा क्षेत्र में भारी निवेश के बावजूद, दोनों संयुक्त रूप में कुल श्रम शक्ति के 28% पर स्थिर बने रहे । इस प्रकार निर्माण क्षेत्र में श्रम शक्ति में नाम-मात्र की वृद्धि थी । इससे भाव है कि इन दो क्षेत्रों ने श्रम-शक्ति के 1/4 भाग को भी पर्याप्त रोजगार उपलब्ध नहीं करवाया ।

वर्ष 1971 से 2001 के दौरान आरम्भिक क्षेत्र में व्यस्त कृषि शक्ति के अनुपात में वर्ष 1971 में 72.1 प्रतिशत से 56.7 प्रतिशत तक की सीमान्त कमी हुई । एक अन्य स्पष्ट परिवर्तन यह देखा गया कि कृषकों का अनुपात जो 1951 में 50 प्रतिशत था वर्ष 1991 में घट कर 38.4% रह गया तथा इसी समय के दौरान कृषि श्रमिकों का भाग 20 प्रतिशत से बढ़ कर 26% हो गया । यह समृद्ध किसानों के हाथों में भूमि का बढ़ता हुआ केन्द्रीकरण तथा छोटे एवं सीमान्त किसानों का भूमिहीन कृषि श्रमिकों में परिवर्तन दर्शाता है ।

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दूसरी ओर द्वितीयक क्षेत्र में व्यस्त श्रम शक्ति का अनुपात वर्ष 1971 से 2001 की अवधि में सीमान्त रूप में बढ़ कर 11.2% से 17.5 प्रतिशत हो गया । तृतीयक क्षेत्र के प्रकरण में इसने थोड़ी-सी वृद्धि दिखाई है, यह वर्ष 1971 में 16.7% था जो 1991 में बढ़ कर 20.5% तक और पुन: 2001 में 25.8 प्रतिशत तक बढ़ गया ।

श्रम शक्ति के व्यावसायिक वितरण के लक्षण (Features of Occupational Distributional of Working Force):

भारत में क्रियाशील जनसंख्या के वितरण के मुख्य लक्षणों का वर्णन नीचे किया गया है:

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(i) वर्ष 1951 से 1971 तक आरम्भिक क्षेत्र में कार्यशील जनसंख्या का अनुपात लगभग वही था । अतः अधिकांश श्रम-शक्ति आरम्भिक क्षेत्र में व्यस्त थी । वर्ष 2011 तक आरम्भिक क्षेत्र में घटती रही है ।

(ii) वर्ष 1971 के पश्चात कार्यशील जनसंख्या का अनुपात पर्याप्त रूप में कम हुआ अर्थात् 72.1 प्रतिशत से 2001 में 56.4% व 2०11 50.2%

(iii) वर्ष 1981 से 2011 तक, द्वितीयक तथा तृतीयक क्षेत्रों को विस्तृत करने के प्रयास किये गये परन्तु इनके बावजूद आरम्भिक क्षेत्र में श्रम शक्ति की प्रतिशतता ऊंची रही 1 वर्ष 2011 में द्वितीयक क्षेत्र में 20.4 प्रतिशत थी ।

(iv) वर्ष 1951 से 2011 तक आर्थिक आयोजन के बावजूद श्रम शक्ति का बड़ा भाग प्रारम्भिक क्षेत्रों में व्यस्त रहा जिससे स्पष्ट है कि भारतीय अर्थव्यवस्था एक पिछड़ी हुई अर्थव्यवस्था है ।

(v) भारत में, निवेश की भारी-भरकम खुराकों के बावजूद श्रम शक्ति के व्यवसायिक वितरण में कोई महत्वपूर्ण परिवर्तन नहीं देखे गये ।

(vi) भारत का एक पक्षीय व्यवसायिक विकास है एवं धीरे-धीरे टी Tertiary क्षेत्र में वृद्धि हो रही है ।

निष्पादन धीमा क्यों है? (Why is Performance Slow?):

अब, एक आवश्यक प्रश्न यह उठता हे कि व्यवसायिक वितरण का निष्पादन धीमा क्यों है । अन्य शब्दों में, कार्यशील जनसंख्या के आरम्भिक क्षेत्र से द्वितीयक और तृतीयक क्षेत्र में धीमे स्थानान्तरण के लिये कौन- से कारक उत्तरदायी हैं ।

कारकों का वर्णन नीचे किया गया है:

1. ग्रामीण विकास के लिये कोई गम्भीर प्रयत्न नहीं किये गये हैं । सबसे बड़ा तथा आवश्यक कारण यह है कि भारतीय योजना-निर्माताओं ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था के विकास के लिये गम्भीर प्रयत्न नहीं किये, बेकार पडी विस्तृत श्रम-शक्ति के उपयोग का प्रयत्न नहीं किया गया । वास्तव में कृषि क्षेत्र के विकास के लिये साधनों का ठीक उपयोग नहीं किया गया ।

2. भूमि सुधारों की असफलता- भूमि सुधार, ग्रामीण क्षेत्र में परिवर्तन लाने में असफल रहे । ये सुधार छोटे तथा सीमान्त कृषकों के बीच भूमि के स्वामित्व का प्रसार नहीं कर सके ।

3. सरकारी सुविधाएँ लाभप्रद प्रमाणित नहीं हुई- व्यावसायिक ढाँचों में परिवर्तन न होने का एक अन्य कारण यह है कि सरकारी सुविधाएं जैसे सस्ती साख सुविधाएं विपणन और वित्तीय सहायता आदि ने केवल समृद्ध किसानों को ही लाभ पहुंचाया । निर्धन और सीमान्त किसान बड़े तथा समृद्ध किसानों की दया पर ही रहे ।

4. लघु उद्योगों का कोई विकास नहीं हुआ । दूसरी पंचवर्षीय योजना से पूंजी गहन तकनीकों को विकसित करने की ओर अधिक ध्यान दिया गया । यह उद्योग श्रम-गहन तकनीकों में अधिक रोजगार सम्भावनाएं उत्पन्न नहीं कर पाये । इस कारण देश की श्रम शक्ति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा ।

5. तत्परता का अभाव- श्रमिकों एवं सीमान्त किसानों में तत्परता के अभाव ने देश में व्यावसायिक ढांचे में परिवर्तन के मार्ग में बाधा डाली है । इसके कारण कृषि क्षेत्र में भारी निर्भरता तथा अदृश्य बेरोजगारी ने जन्म लिया है ।

व्यवसायिक ढांचे में परिवर्तन की सम्भावना (Scope for Changes in the Occupational Structure):

उपरोक्त अध्ययन स्पष्टता से दर्शाता है कि भारत के व्यवसायिक ढांचे में कुछ छोटे परिवर्तनों को छोड कर, यह वास्तव में 20वीं शताब्दी से स्थिर ही रहा है । इन संकेतों पर, यह दावा करना कठिन है कि भविष्य में तीव्र परिवर्तनों की आशा है । इस सम्बन्ध में दो मत हैं ।

पहले मतानुसार, कुछ परिवर्तन इसलिये हुए क्योंकि शुद्ध राष्ट्रीय आय और प्रति व्यक्ति आय में चार दशकों के आर्थिक आयोजन के दौरान वृद्धि हुई है । अन्य लोगों का विचार है कि व्यवसायिक ढांचा लगभग वैसा ही है, जैसा कि यह अंग्रेजों के राज के अन्तिम वर्षों में था जब कोई आर्थिक वृद्धि नहीं थी । यहां विशेष ध्यान इस बात पर दिया गया है कि व्यवसायिक ढांचे में परिवर्तनों को कौन रोकता है ।

इसके लिए उत्तरदायी कारण निम्नलिखित हैं

(क) विकास की व्यापक रणनीति रोजगार के पर्याप्त अवसर उपलब्ध करवाने में असफल रही जिससे की श्रम शक्ति को प्रारम्भिक क्षेत्र से द्वितीयक और तृतीयक क्षेत्रों में स्थानान्तरित किया जा सके ।

(ख) निर्वाह किस्म की कृषि ने, भूमि के लिये अनुकूल श्रमिकों के स्थान पर अधिक श्रमिकों की खपत है । बढ़ती हुई जनसंख्या की यह स्थिति मुख्यतः कृषि पर अधिक निर्भरता के कारण है ।

(ग) भारतीय कृषि अत्याधिक परम्परावादी हे जहां श्रमिक की उत्पादकता कम है । निःसन्देह, कुछ सीमा कृषि तकनीकें अपनाई गई हैं, परन्तु साधनों के अभाव तथा अन्य संस्थागत त्रुटियों के कारण ये पूरे मैं आरम्भ नहीं की जा सकीं ।

(घ) औद्योगीकरण की गति बहुत धीमी है । विकास युक्तियाँ पूंजी-गहन होने के कारण केवल उच्च तक सीमित रही हैं ।

(ङ) लोगों का उदासीन रवैया भी अर्थव्यवस्था के ढांचे में परिवर्तन में बाधा बना है ।

भारत में व्यावसायिक आबंटन सुधार के लिए सुझाव (Suggestions for Improvement of Occupational Distribution in India):

व्यवसायिक ढांचे में परिवर्तन लाने के लिए महत्वपूर्ण सुझाव दिये गये हैं:

(i) स्वरोजगार के संवर्धन के लिए, विशेषता गैर-कृषि क्षेत्र में विभिन्न कार्यक्रम तैयार करने की आवश्यकता है,

(ii) कृषि उत्पादकता को बढ़ाया जाये,

(iii) जनसंख्या के नियन्त्रण के लिए प्रभावी उपाय किये जायें,

(iv) ग्रामीण क्षेत्रों में विशेषता कुटीर एवं लघु उद्योगों में श्रम-गहन उद्योगों पर बल दिया जाये,

(v) ग्रामीण विकास योजनाओं के लाभ कमजोर वर्गों को प्राप्त होने चाहिए,

(vi) गैर-कृषि क्षेत्र को विकसित किया जाये ताकि श्रम-शक्ति में नया प्रवेश पाने वालों का समावेश सके ।

व्यवसायिक ढांचे के सम्बन्ध में सरकारी नीति (Government Policy Regarding Occupational Structure):

भारत के व्यवसायिक ढांचे के सम्बन्ध में सरकारी नीति-लघु एवं कुटीर उद्योगों के तीव्र विकास, परिवहन बैंकिग तथा व्यापार आदि के विकास से सम्बन्धित है । व्यवसायिक ढांचे के असन्तुलन को ठीक करने के लिये वाडिया मर्चेन्ट ने सुझाव दिया है कि देश में छोटे एवं मध्यम स्तर के उद्योगों का विकास किया जाये ।

इन उद्योगों की ग्रामीण क्षेत्रों में स्थापना को प्राथमिकता दी जाये । वी. के. आर. वी. राव का मत है की कृषि से लोगों को हटाने के स्थान पर, भविष्य में, कृषि में, रोजगार के अधिक अवसर उत्पन्न करने के प्रयत्न किये जाने चाहियें । निकट भविष्य में, श्रमिकों को चाहिए कि निर्माण उद्योगों की ओर भागने के स्थान पर सेवा क्षेत्र अर्थात् यातायात, पैट्रोल पम्प, होटल, टैक्सी सेवा, परचून बिक्री, सिलाई कार्य, ट्राई-कलीन, स्वचालित वाहनों की मुरम्मत आदि सेवाओं में प्रवेश करें ।

आर्थिक विकास एवं व्यवसायिक संरचना का परस्पर है । भारत के व्यवसायिक ढांचे में परिवर्तन लाने के लिए आवश्यक है कि देश में जनसंख्या की वृद्धि दर को कम किया जाये और कृषि क्षेत्र को विकसित किया जाये । बड़े एवं छोटे स्तर के उद्योगों का विस्तार किया जाये । औद्योगीकरण को कृषि विकास के साथ ठीक तरह समन्वित किया जाये । भारत को चाहिये कि श्रम गहन तकनीकों पर अधिक बल दे तथा इसी से अर्थव्यवस्था की भलाई के लिये व्यवसायिक ढांचे में परिवर्तन हो सकता है ।