Read this article in Hindi to learn about the separation of accounts and audit.
वित्तीय प्रशासन में लेखाँकन और उसका परीक्षण दोनों अत्यन्त महत्वशाली है । लेखाँकन से आशय समस्त वित्तीय लेन-देन, आगत-निर्गत का लिखित हिसाब-किताब रखना है (मौद्रिक आधार पर) तथा लेखा परीक्षण का आशय है- इस लेखाँकन की जांच कर यह सुनिश्चित करना कि यह आय-व्यय निर्धारित योजना और अनुमति अनुसार हुआ या नहीं ।
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इन दोनों को एक संयुक्त एजेन्सी को सौंपा जाए या पृथक् एजेन्सीयों को, इसके अपने-अपने गुण-दोष है, यद्यपि भारत में अब यह पृथक्-पृथक् दायित्व है । सार्वजनिक धन के सही उपयोग को सुनिश्चित करना बेहद आवश्यक होता है । ऐसा उसके आय-व्यय लेखों की जांच करके ही हो सकता है ।
लेकिन लेखा परीक्षण का मूलाधार लेखाँकन होता है अर्थात् इस आय-व्यय का व्यवस्थित लेखा-जोखा । भारत में 1976 तक ये दोनों कार्य एक ही व्यक्ति ”नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक” के अधीन थे । पहले CAG ”नरहरि पटेल” ने इनके पृथक्करण की आवश्यकता जतायी थी । इसके पूर्व भुडीमेन कमेटी (1924) भी यह विचार दे चुकी थी ।
पृथक्करण के पक्ष में तर्क:
उपर्युक्त विचारों का आधार निम्नलिखित तर्क थे:
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1. लेखाँकन एक निष्पादकीय कार्य है, अतएव निष्पादन एजेन्सी ”विभाग” के अधीन हो, जबकि अर्ध संसदीय कार्य के रूप में ”लेखा परीक्षण” पृथक् हो ।
2. लेखाँकन के दायित्व से मुक्त ”लेखा परीक्षण” अधिक सक्षम और प्रभावशाली होगा ।
3. संयुक्त व्यवस्था अलोकतान्त्रिक है क्योंकि जो कार्यालय भुगतान की अनुमति देता है, वही उसका परीक्षण भी करता है ।
4. लेखाँकन की जवाबदारी संबंधित विभाग की होने पर, उन्हें अपने लेखों की सही जानकारी समय पर रहेगी और वे अपनी भूले भी सुधार सकेंगे ।
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5. लेखाँकन और लेखा परीक्षण पृथक् रहने पर दोनों ही शीघ्र हो सकेंगे ।
अन्तत: 1976 में दोनों कार्यों को पृथक् कर दिया गया । लेकिन आलोचकों का कहना है कि इससे प्रशासनिक खर्च बढ़ेगा और दोष निकालना कठिन हो जाएगा । फिर पूर्व व्यवस्था में कोई खामी नजर नहीं आयी थी ।
निष्कर्षत:
दोनों के पक्ष-विपक्ष में पर्याप्त तथ्य है । लेकिन जहां तक विभागीय मितव्यीयता कार्यकुशलता और लोचशीलता का सवाल है, पृथक्करण से ही यह अधिक सुनिश्चित होते है ।