Read this article in Hindi to learn about:- 1. प्रशासनिक विधि का अर्थ (Meaning of Administrative Law) 2. प्रशासकीय कानून का दार्शनिक आधार (Philosophical Basis of Administrative Law) 3. क्षेत्र (Areas) 4. विकास (Development).

प्रशासनिक विधि का अर्थ (Meaning of Administrative Law):

लोक प्रशासकों को अपने कार्यों के संपादन में विभिन्न निर्णय करने होते हैं । ये निर्णय विकल्पों पर आधारित होते हैं । इन विकल्पों में से एक का चुनाव वे अपने विवेक से करते हैं । इस विवेक का वे मनमाना प्रयोग नहीं कर सकते अर्थात कुछ कानून ऐसे निर्मित किये गये हैं जो उनके इस विवेक की सीमा को निर्धारित करते हैं । ये कानून ही प्रशासनिक विधि कहलाते हैं ।

अपने व्यापक अर्थ में प्रशासनिक विधि या कानून शासन, प्रशासन के सभी अंगों से संबंधित सभी कानूनों का संग्रह है । लेकिन इस रूप में सामान्य कानून और प्रशासनिक कानून में भेद नहीं रह जाता है, अतः प्रशासनिक कानून का अर्थ संकुचित अर्थ में ही लोक प्रशासन में प्रचलित है । इसका अर्थ है – लोक प्रशासको के विवेक की शक्ति के स्वरूप और सीमा का निर्धारण करने वाला कानून ।

परिभाषाएं:

ADVERTISEMENTS:

जेनिंग्स- प्रशासकीय कानून शासन से संबंधित नियम है । इनके द्वारा अधिकारियों के अधिकारों एवं कर्तव्यों का ज्ञान होता है । स्ट्रांग- प्रशासकीय कानून ऐसे नियमों का संग्रह है जो नागरिकों के प्रति प्रशासकीय अधिकारियों के पद, दायित्व, अधिकार और उनके क्रियान्वयन के नियमों का नियमन करता है ।

प्रशासकीय कानून का दार्शनिक आधार (Philosophical Basis of Administrative Law):

फ्रांस को प्रशासकीय विधि और न्यायलय की व्यवस्था का स्त्रोत माना जाता है वहां राजतंत्र के जमाने से ही सरकारी अधिकारियों के लिए अलग कानून था । डायसी ने इसका क्रमबद्ध विकास कान्सूलेट संविधान (1795-नेपोलियन) से माना है । यह वहां अब भी परिवर्तित स्वरूप में मौजूद है ।

प्रशासकीय कानून के दो दार्शनिक आधार है:

1. रोम का वैधानिक दर्शन जिसमें राज्य को साध्य और व्यक्ति को साधन माना जाता है ।

ADVERTISEMENTS:

2. मांटेस्क्यू का शक्ति पृथक्करण सिद्धांत जिसमें कार्यपालिका के अधिकारियों को न्यायपालिका से पृथक रखा गया है ।

फ्रांस में यह धारणा है कि सामान्य न्यायाधीश सरकारी कर्मचारियों के विरूद्ध होते हैं, तथा उनकी कठिनाइयों को नहीं समझते अतः वहां सरकारी कर्मचारियों के लिए पृथक कानून प्रचलित है । फ्रांस में प्रशासकीय कानून लिपिबद्ध नहीं है अपितु मात्र परंपराओं पर आधारित है जिस तरह ब्रिटेन में सामान्य कानून की स्थिति है ।

प्रशासकीय कानून के क्षेत्र (Areas of Administrative Law):

फिफनर के अनुसार,

1. प्रशासकीय अधिकारियों की शक्तियों, उनके कर्तव्यों की व्याख्या करने वाले संविधान, चार्टर और अध्यादेश ।

ADVERTISEMENTS:

2. प्रशासनिक अधिकारियों और अभिकरणों द्वारा निर्मित अधिनियम ।

3. इनके द्वारा दिये गये आदेश, निर्णय ।

4. उपरोक्त से संबंधित न्यायिक निर्णय ।

प्रशासकीय कानून विकास के कारण (Development of Administrative Law):

फिफनर के अनुसार, उपर्युक्त क्षेत्र में प्रशासनिक कानूनों की संख्या निरंतर बढ रही है । यद्यपि इसका अस्तित्व और महत्व प्राचीनकाल में भी रहा, जहां अधिकारियों को राजाज्ञा द्वारा उनके अधिकारों, दायित्वों से संबंधित ‘विवेक’ सौंपा जाता था, तथापि आधुनिक युग की जटिलताओं ने इसे सरकार में अत्यन्त आवश्यक प्रकार्य बना दिया है । इसके अद्‌भूत विकास का राब्सन ने ”अभिनव वृद्धि” कहा है ।

इसके विकास के कारण इस प्रकार है:

1. औद्योगिक क्रांति:

औद्योगिक क्रांति ने राज्य को सामाजिक आर्थिक जीवन में नागरिक कल्याण हेतु अत्यधिक हस्तक्षेप के लिए बाध्य किया । इन चुनौतियों से निपटने हेतु प्रशासन को अनेक स्वविवेकीय शक्तिया सौंपना अनिवार्य हो गया, फलस्वरूप प्रशासकीय विधि का अत्यधिक विस्तार हुआ और हो रहा हैं ।

2. शीघ्रगामी कार्यविधि:

प्रशासनिक कानून की व्याख्या करने या उनको लागू करने वाले न्यायाधिकरणों की कार्य विधि सामान्य न्यायालयों की तुलना में अधिक शीघ्रगामी होती हैं ।

3. लोचदार:

सामान्य न्यायालयों के विपरीत प्रशासकीय न्यायालय और अधिकारी स्थानीय परिस्थितियों से अधिक अच्छे सें अवगत होते है तथा उसके अनुसार निर्णय कर पाने की भी स्वतन्त्रता उन्हें होती है । इस लोचशीलता ने प्रशासकीय विधि को अधिक लोकप्रिय बनाया हैं ।

4. विशेषज्ञों तथा वैज्ञानिकों का सहयोग:

प्रशासन को अनेक वैज्ञानिक और तकनीक प्रकृति के कार्यों का नियमन करना होता है । प्रशासकीय विधि के तहत इनका निर्णय नियमन विशेषज्ञों को सौंपकर उनका अच्छा प्रबन्धन या निपटारा किया जा सकता है जो सामान्य न्यायालयों में संभव नहीं होता ।

5. प्रयोगात्मक व्यवहारिक विधि:

प्रशासकीय विधि जड़ नहीं होती है और उसे लागू करके परिणाम देखकर, उसमें तदनुरूप सुधार, संशोधन होते रहते हैं ।

6. स्वविवेकीय छूट समय की जरूरत:

लोक प्रशासन में अधिकारियों को अपने कर्तव्यों दायित्वों के उचित संपादन हेतु स्वाववेकीय शक्तियाँ देना आवश्यक होता है ताकि जहां सामान्य विधि मौन हो, वहाँ वे अपने स्वविवेक से समस्या का उचित समाधान कर सके ।

7. प्रशासन की निरंकुशता पर रोक:

जहाँ प्रशासनिक विधि अधिकारियों/अभिकरणों को विवेक की शक्ति सौंपती है, वही उसकी सीमा का भी निर्धारण करती है, ताकि इस विवेक का मनमाना या जन विरूद्ध प्रयोग न हो सके ।

8. व्यापक हितों की पूर्ति:

प्रशासनिक कानून का उद्देश्य सामाजिक हितों की पूर्ति होता है । वह न तो प्रशासनिक अधिकारियों को अनुचित कार्य की प्रेरणा देता है, न ही जनता को लोकहित का उल्लंघन करने देता है । राब्सन के अनुसार प्रत्येक प्रशासनिक कानून की यह प्रबल इच्छा रहती है कि वह सामाजिक हितों के साथ सामाजिक न्याय की भी पूर्ति करें ।

वस्तुतः प्रशासनिक विधि विस्तृत होते सरकारी दायित्वों को पूरा करने का एक प्रयोगात्मक उपकरण है जो रूढ़िवादिता को तोड़ने, वैज्ञानिकता को सुनिश्चित करने तथा विभिन्न सामाजिक-आर्थिक हितों की पूर्ति करने के लिए एक लोचदार, प्रगतिशील प्रशासन की विधि सम्मत व्यवस्था है ।

इसने कार्यपालिका शक्ति का न्याय एवं विधि के क्षेत्र में विस्तार किया है । इस आधार पर प्रशासनिक विधि की भर्त्सना भी की जाती है और कहां जाता है कि प्रशासनिक विधि ने एक निरंकुश शासन तन्त्र का विकास कर नागरिकों की स्वतन्त्रता को सीमित किया है । विशेषकर ”कानून की असमानता” के आधार पर प्रशासकीय विधि को अधिक आलोचना का शिकार होना पड़ा । डायसी ने इसे विधि के शासन का उल्लंघन माना ।

लेकिन विधि के शासन का यह अतिक्रमण प्रशासन को सुगम बनाने और व्यापक जनहितों की पूर्ति के उद्देश्य से होता है । डायसी स्वयं ने इसे एक आवश्यक बुराई माना है क्योंकि आधुनिक जटिलताओं से निपटने में प्रशासनिक क़ानूनों ने सरकार को अत्यधिक समर्थ बनाया है, उससे उत्पन्न बुराइयों की तुलना में यह ”फेक्टर” ही इनकी लोकप्रियता का मूलाधार हैं ।

आलोचना:

1. डायसी ने इसे विधि के शासन का उल्लंघन माना ।

2. लार्ड हेवार्ट ने इसे निरंकुशता का संज्ञा दी ।

यद्यपि डायसी ने भी स्वीकारा है कि नई आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रशासकीय कानून आवश्यक है ।

भारत में प्रशासनिक कानून का स्थिति अन्य देशों का तरह भारत में भी इसका विकास हुआ है । औद्योगिक अधिनियम 1947, न्यूनतम मजदूरी अधिनियम 1948, कारखाना एक्ट 1881, फेरा और फेमा जैसे अनेक कानूनों की भारत में बाढ सी आ गई है ।