Read this article in Hindi to learn about:- 1. व्यवहारवादी उपागम का अर्थ (Meaning of Behavioural Approach) 2. व्यवहारवादी उपागम की विशेषताएं (Features of Behavioural Approach) 3. योगदान और प्रभाव (Contribution and Effects) and Other Details.
व्यवहारवादी उपागम का अर्थ (Meaning of Behavioural Approach):
व्यवहारवादी विचारधारा संगठन में प्रशासनिक व्यवहार के वास्तविक अध्ययन से संबंधित है । जिस प्रकार मानव संबंध उपागम सांगठनिक मानव का अध्ययन सामाजिक मानव के रूप में करता है, उसी प्रकार व्यवहारवाद सांगठनिक व्यवहार को सामाजिक व्यवहार के रूप में विश्लेषित करता है । संगठन का व्यवहारवादी अध्ययन अनुभव आधारित, वैज्ञानिक और वास्तविक है । शास्त्रीय विचारधारा के समान व्यवहारवाद भी प्रशासन के औपचारिक सिद्वांतों के विकास का पक्षधर है, जिससे कि वह विज्ञान बन सके। लेकिन इन सिद्धांतों का निर्माण किस प्रकार के अध्ययन से हो इसमें वह शास्त्रीय विचारकों से भिन्न है । शास्त्रीय विचारधारा का संबंध मनुष्यों के पारस्परिक औपचारिक संबंधों से है जबकि मानव संबंध विचारधारा का अनौपचारिक सामाजिक संबधों से । वही व्यवहारवाद का संबंध मनुष्य के आतरिक मूल्यों से है ।
व्यवहारवादी उपागम औपचारिक संगठन को भी महत्व देता है लेकिन उसका बल है कि ”मनुष्य के अंतरमन को जानना भी उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना कि संगठन की आंतरिक व्यवस्था को ।” इस प्रकार व्यवहारवाद शास्त्रीय और मानव संबंध विचारधाओं के मध्य एक पुल का काम करता है ।
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द्वितीय चरण की प्रतिक्रिया जहां एक ओर मानव संबंध के रूप में प्रकट हुई, वही चेस्टर बर्नाड और साइमन ने व्यवहारवाद के माध्यम से औपचारिक ढांचे की नई संकल्पना प्रस्तुत की । द्वितीय विश्व युद्ध के बाद व्यवहारवाद स्थापित हुआ । इस समय इसके प्रमुख प्रर्वतक हुये हरबर्ट साइमन ।
इन्होंने ”प्रशासनिक व्यवहार-एक निर्णय निर्माण प्रक्रिया” (1947) नामक पुस्तक में व्यवहारवाद का विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया । साइमन के अनुसार संगठन में जिन सिद्धांतों की बात हुई है, वे इसलिये अवैज्ञानिक है क्योंकि उनमें मनुष्य के वास्तविक व्यवहार को आधार नहीं बनाया गया है ।
1950 के आस-पास व्यवहार को विकास की सर्वोत्तम अनुकूल परिस्थितियां मिली । यह युग तुलनात्मकता का था । साइमन के साथ साथ ढहल और बाद में फ्रेडरिग्स, वीडनर, हैडीं, रफैली, ब्लाउन मर्टन आदि ने व्यवहार को अपने अध्ययनों में अत्यधिक उपयोगी पाया ।
अत: व्यवहारवाद के उदय और विकास के कारणों को इस तरह रेखांकित किया जा सकता है:
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1. परंपरागत दृष्टिकोण की यांत्रिकता और अमानवियता ।
2. संगठन का वास्तविक विश्लेषण करने में परंपरागत दृष्टिकोण की सीमाएं ।
3. मानव संबंध आंदोलन का उदय और उसकी प्रेरणाएं ।
4. पारंपरिक दृष्टिकोणों जैसे वैज्ञानिक प्रबंध, शास्त्रीय विचारधारा, नौकरशाही आदि की सीमाओं को उजागर करने में मानव संबंध विचारधारा की स्वयं की सीमाएं ।
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5. लोक प्रशासन के स्वरूप को मिलने वाली क्षेत्रीय-सांस्कृतिक संकीर्णताओं की चुनौतियां जिससे उसकी सार्वभौमिक पहचान पर खतरा आया ।
6. लोक प्रशासन को एक व्यवहारिक विशुद्ध विज्ञान बनाने के लिये नवीन वैज्ञानिक प्रविधियों की जरूरत ।
7. बर्नार्ड, साइमन, रिग्स जैसे विद्वानों के व्यवहारवाद संबंधी शोध परक अध्ययन ।
व्यवहारवादी उपागम की विशेषताएं (Features of Behavioural Approach):
व्यवहारवाद में ईस्टन, साइमन, ब्लाउ, मर्टन आदि ने इसकी विशेषताओं को विकसित किया है ।
1. नियमितता- व्यवहार की विभिन्नताएं होती है लेकिन उनकी नियमित आवृत्ति होती है ।
2. क्रमबद्ध वैज्ञानिकता- व्यवहारवाद अध्ययन में वैज्ञानिक विश्लेषण प्रयुक्त करता है ।
3. मूल्य निरपेक्षता- यह प्रशासन को विज्ञान बनाने के लिए उसे मूल्य निरपेक्ष आधार प्रदान करना चाहता है अर्थात् तथ्यों पर अधिक बल देता है ।
4. अनुभव पर जोर- प्रशासक अपने अनुभव से मानव व्यवहार का पूर्वानुमान करने की स्थिति में होते हैं ।
5. यर्थाथवाद- यह संगठन के अनौपचारिक व्यवहार के अध्ययन पर बल देता है ।
6. औपचारिक संगठन का पूरक न कि विरोधी- ये उसका विकल्प नहीं है अपितु उसकी कमी को पूरा करता है ।
सामान्य रूप से इसकी विशेषताएं ये मानी जाती है:
(1) व्याख्यात्मक एवं विश्लेषणात्मक अध्ययन:
इसमें क्या है ”जैसी वास्तविकता का अध्ययन किया जाता है, न कि ”क्या होना चाहिए” जैसी निर्देशात्मक स्थितियों का । यह वर्तमान का अध्ययन है, न कि भविष्य का उपचार ।
(2) इसलिए वास्तविक न कि आदर्शात्मक:
इसमें वर्तमान और वास्तविक स्थितियों का अध्ययन कर संगठन की कार्यप्रणाली को समझने का प्रयास किया जाता है । दूसरे शब्दों में यह आदर्शात्मक निर्देश प्रदान करने में विश्वास नहीं करता ।
(3) अत: सूक्ष्म अध्ययनों पर बल:
विश्लेषण के लिए जरूरी होता है कि संगठन के छोटे-छोटे भागों का अध्ययन किया जाए।
(4) वैज्ञानिक पद्धति और दृष्टिकोण:
व्यवहारवाद संगठनात्मक विश्लेषण और अध्ययन के लिये वैज्ञानिक प्रविधियों का उपयोग करता है । उसका बल प्रशासन को सामाजिक विज्ञान बनाने का है और इसके लिये जरूरी है कि संगठनों के अवैज्ञानिक, भाव मूलक दृष्टिकोण का त्याग किया जाये । इसके स्थान पर गणितीय संक्रियाओं, सांख्यिकीय पद्धतियों, पर्ट, सीपीएम जैसी विधियों का प्रयोग किया जाता है ।
(5) अनुभवमूलक:
वैज्ञानिकता को पुष्ट करने के लिये भावमूलकता के स्थान पर अनुभवमूलकता व्यवहारवाद प्रयुक्त करता है । अनुभव पद्धति से ही मानवीय व्यवहार की आवृत्तियों और विशेषताओं को जाना जा सकता है ।
(6) मूल्य निरपेक्ष दृष्टिकोण:
व्यवहारवाद एक तार्किक दृष्टिकोण है । इसमें वस्तुनिष्ठ मूल्यों, कल्पनाओं, मानवीय विवरणों के लिये कोई स्थान नहीं है । वैज्ञानिकता और अनुभवाश्रितता इसे क्रियात्मक दृष्टिकोण बनाती है ।
(7) अंतर्वैषयिक दृष्टिकोण:
व्यवहारवाद संगठनात्मक विश्लेषण हेतु अंतर्वैषयिक दृष्टिकोण अपनाता है । संगठन के व्यवहार को समझने के लिए सामाजिक व्यवहार, कानूनी प्रक्रिया राजनीतिक प्रणाली आदि विभिन्न परिवेश को समझना भी जरूरी है, जो संबंधित सामाजिक विज्ञानों जैसे समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, विधि आदि की सहायता से ही संभव है ।
(8) परंपरावादी दृष्टिकोण की पूरक:
यह विचारधारा पारंपरिक उपागम को पूर्णत: नकारती नहीं है और न ही उसका विकल्प है अपितु उसमें सुधार है, उसकी कमियों को दूर करती है।
(9) यह अनौपचारिक सम्बन्धों और अनौपचारिक संचार को महत्व देती है ।
(10) सांगठनिक व्यवहार की गतिशीलता पर अधिक ध्यान देती है ।
सांगठनिक व्यवहार पर प्रभाव के कारक (Factors Affecting of Behavioural Approach):
संगठन में व्यवहार निर्णय से निर्धारित होता लेकिन निर्णय भी अनेक सांगठनिक प्रभावों से निर्धारित होता है ।
(a) सत्ता:
चेस्टर बर्नार्ड ने सांगठनिक व्यवहार के निर्धारण में सत्ता को प्रमुख स्थान तो दिया लेकिन जोर देकर कहा कि वास्तविक सत्ता अधीनस्थों के पास रहती है। ऊपर के आदेशों का पालन जब अधीनस्थ करते है तभी वे आदेश सत्ता युक्त होते है ।
(b) निष्ठा:
संगठन के सदस्य अपने को किसी समूह के साथ जोड़कर रखते है और समूह के हितों को ध्यान में रखकर ही निर्णय लेते है । इस प्रकार व्यवहारात्मक चयन (व्यवहार को प्रभावित करने वाला निर्णय) समूह-निष्ठा से प्रभावित और सीमित होता है । यदि समूह और संगठन के हितों में विरोधाभास है तो सदस्य का दृष्टिकोण संगठन के व्यापक हितों के स्थान पर अपने समूह के संकुचित दृष्टिकोण से ही संचालित होगा ।
(c) सूचनातंत्र:
निर्णय प्रक्रिया के लिए सूचना और संचार महत्वपूर्ण तत्व होते है । जो संगठन संचार की प्रभावी प्रणाली विकसित कर लेता है वह व्यवहारात्मक चयन को सीमित करने में सफल हो जाता है । इससे निर्णय और उसके क्रियान्वयन में भी निकटता आ जाती है ।
(d) प्रशिक्षण:
प्रशिक्षण संगठन के सदस्यों को संतोषप्रद निर्णय लेने में सक्षम बनाता है । यह सदस्यों को उचित चयन-प्रक्रिया में प्रशिक्षित करता है ।
(e) कार्यकुशलता:
संगठन के प्रत्येक सदस्य से कार्यकुशल होने की अपेक्षा रहती है । इससे सदस्यगणों के निर्णयों की सीमा तय हो जाती है ।
व्यवहारवाद का योगदान और प्रभाव (Contribution and Effects of Behaviour):
व्यवहारवाद ने लोक प्रशासन को सैद्धांतिक और व्यवहारिक दोनों तरीके से प्रभावित किया:
1. इसने लोक प्रशासन में वैज्ञानिक और प्रबंधकीय पद्धतियों का अधिकाधिक प्रयोग किया ।
2. इसने निर्देशात्मक और काल्पनिक आदर्शात्मक अध्ययनों के खोखलेपन को उजागर किया तथा लोक प्रशासन को विश्लेषणात्मक, वैज्ञानिक आधार प्रदान किया ।
3. व्यवहारवाद ने ही लोक प्रशासन के एकाकीपन को तोड़ा और उसे न सिर्फ राजनीति अपितु समाजशास्त्र, विधि, मनोविज्ञान जैसे विभिन्न सामाजिक विज्ञानों के साथ अंतर्सबंधित किया । इस प्रकार अपने युग (लोक प्रशासन के चतुर्थ चरण) को अंत: अनुशासनात्मक युग की पहचान प्रदान की । इससे लोक प्रशासन का विषय अधिक विकसित और दृढ़ हुआ ।
4. लोक प्रशासन को मात्र सैद्धांतिक के स्थान पर व्यवहारिक विषय बनाने में सर्वाधिक योगदान दिया ।
5. प्रशासन में मानवोन्मुखी प्रबंध की जो जरूरत मानव संबंध ने प्रतिपादित की थी, उसे नयी दृष्टि और ठोस धरातल दिया ।
6. प्रशासन को विशुद्ध सामाजिक विज्ञान बनाने की दिशा में व्यवहारवाद का योगदान सर्वाधिक आया ।
7. उसने ही लोक प्रशासन को सांस्कृतिक संकीर्णता की आधी में खोने से बचाया और उसके स्वरूप पर घिर आये संकट के बादलों को छांटने के प्रयास किये और ऐसे प्रयासों को दिशा भी दी ।
8. इसने परिकल्पनाओं के परीक्षण की परा-सांस्कृतिक और परा-राष्ट्रीय वैज्ञानिक पद्धति अपनायी । इससे तुलनात्मक लोक प्रशासन के जन्म और विकास को बल मिला ।
9. व्यवहारवाद ने ही लोक प्रशासन में निर्णयन, नेतृत्व, संचार, अभिप्रेरणा आदि को स्थापित किया । वस्तुत: ”संचार” और ”निर्णयन” व्यवहारवादियों द्वारा ही लोक प्रशासन के महत्वपूर्ण सिद्धांत बने ।
10. ”निर्णय-मॉडल” (साइमन मॉडल) को तो शास्त्रीय ढांचे के विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया गया ।
11. व्यवहारवाद ने वैज्ञानिक रूप से यह तथ्य रेखांकित किया कि प्रशासनिक प्रक्रिया मानवीय भावना, विचार-बोध और पर्यावरण से अत्यधिक प्रभावित होती है ।
12. सारांशत: इसने लोक प्रशासन के अध्ययन के केंद्र बिंदु की दिशा ही बदल डाली । वह औपचारिक कानूनी ढांचे से व्यवहारिक ढांचे की तरफ उन्मुख हो गयी ।
व्यवहारवादी उपागम की समीक्षा (Review of Behavioural Approach):
व्यवहारवादी उपागम ने परंपरावादियों की आदर्शात्मक, अव्यवहारिक सांगठनिक व्याख्या की कमियों को पूरी स्पष्टता के साथ प्रकट किया । यही नहीं उसने मानवीय व्यवहार संबंधित अनेक सांगठनिक पहलुओं को भी उजागर किया । फिर भी व्यवहारवाद संगठन की अनेक समस्याओं के समाधान तक नहीं पहुंच पाया ।
उसकी निम्नलिखित आधारों पर आलोचना की जाती है:
1. अवधारणात्मक अपूर्णता:
इसकी सबसे बड़ी कमी है- बाह्य परिवेशीय या पर्यावरणीय प्रभाव की उपेक्षा । यह संगठन के बाहरी पर्यावरण और उनके परस्पर संबंधों की उपेक्षा करता है । यह संपूर्ण उपागम के स्थान पर संगठन की एक मनोवृत्ति भर को प्रकट करता है और इसीलिए प्रशासन की अनेक समस्याओं पर इसका ध्यान ही नहीं जाता, उनके समाधान की तो बात ही दूर है ।
2. अराजनीतिक दृष्टिकोण:
पारंपरिक दृष्टिकोण की भाँति व्यवहारवाद भी अराजनीतिक दृष्टिकोण अपनाता है । जबकि बाद के अध्ययनों ने इसे खारिज कर दिया क्योंकि प्रशासन मोटे तौर पर राजनीतिक व्यवस्था का ही भाग होता है । राजनीतिक मूल्य ही प्रशासनिक संगठनों के स्वरूप, सीमा आदि को निर्धारित करते है । यही कारण है कि उत्तर व्यवहारवाद (1970 का दशक) में राजनीतिक दृष्टिकोण अपनाया गया ।
3. मूल्य तटस्थता:
व्यवहारवादी उपागम की एक और कमी उसका मूल्य निरपेक्ष दृष्टिकोण है । यह उपागम मूल्यों का अध्ययन करता है लेकिन निर्णय में मूल्यों को कम कर तथ्यगत तार्किकता को ही महत्व देता है । यह साधनों (तथ्य) को महत्व देकर साध्य (मूल्य) की उपेक्षा करता है ।
लियो स्ट्रास ने व्यवहारवाद को उस ”प्रत्यक्षवादी स्वरूप” की संज्ञा दी जिसके लिये मूल्य-मुक्त ज्ञान जरूरी होता है । क्रिश्चियन बे के अनुसार- ”व्यवहारवाद का अंतिम परिणाम ”नैतिक रूप से तटस्थ साहित्य” है, जो न सिर्फ रूढ़िवादी है अपितु सामाजिक तौर पर अप्रासंगिक भी ।”
4. वैज्ञानिक पद्धति की सीमाएं:
यह उपागम संगठन के विश्लेषण में वैज्ञानिक पद्धतियों के प्रयोग पर बल देता है । मानव व्यवहार की परिवर्तनशीलता, जटिलता और रहस्यमयता के कारण उसका विशुद्ध वैज्ञानिक अध्ययन संभव नहीं है । वस्तुत: व्यवहारवाद में विज्ञान और व्यवहारवाद के बीच एक द्वन्द पाया जाता है ।
5. व्यापक दृष्टिकोण का अभाव:
इस दृष्टिकोण की दृष्टि अत्यंत संकुचित है क्योंकि यह सूक्ष्म अध्ययनों पर जोर देता है । इससे संगठन के व्यापक परिप्रेक्ष्यों की उपेक्षा होती है ।
6. वृहद संगठनों के अध्ययन में सीमाएं:
यह सूक्ष्म अध्ययनों पर जोर देता है और इसलिए लोक प्रशासन जैसे वृहदाकार संगठनों के अध्ययन में कम उपयोगी है ।
7. मानक सुझावों का अभाव:
”क्या है” पर आधारित व्यवहारवाद ”क्या होना चाहिए” की उपेक्षा करता है । अर्थात् वर्तमान समस्याओं का वर्णन करता है, लेकिन उनके ”मानक समाधान” नहीं देता । प्रशासनिक कार्य प्रणाली में सुधार हेतु यह कोई सुझाव नहीं दे पाता ।
8. अनेक विरोधाभासों का गुच्छा:
व्यवहारवाद में अनेक विरोधाभास साथ-साथ चलते है ।
जैसे:
(a) मानवीय व्यवहार की संगठन में महत्वपूर्ण भूमिका मानता है फिर भी वैज्ञानिक पद्धति पर जोर देकर मानवीय व्यवहार की प्रकृति की अनदेखी कर देता ।
(b) एक तरफ तो सांगठनिक मानव की तुलना आर्थिक मानव से की गयी है, दूसरी और मानवीय व्यवहार को प्रभावित करने वाले भौतिक और ऐतिहासिक कारकों की उपेक्षा कर दी गयी ।
(c) मूल्यों को निर्णय का आवश्यक भाग मानते हुए भी ऐसे तार्किक निर्णयों पर बल दिया गया जिनमें मूल्यों का प्रभाव कम हो सके । फिर भी यह व्यवहारवाद ही था जिसने संगठन को यांत्रिकता से बाहर निकाला । उसने इस दिशा में मानवसंबंधियों के कार्यों को पूर्णता तक पहुंचाया । व्यवहारवाद ने ही संगठन के अध्ययन को यांत्रिक सिद्धांतों तथा संरचनाओं से ऊपर की स्थिति प्रदान की ।
उत्तर व्यवहारवाद (Satisfactory Behaviour):
(1) व्यवहारवाद की दो कमियों ने उत्तर व्यवहारवाद के लिए मुख्य रूप से अवसर उपलब्ध कराएं:
i. मूल्यों की उपेक्षा और
ii. वैज्ञानिक विधियों (साधन) पर अधिक बल ।
(2) अर्थात् साध्य की उपेक्षा कर साधन पर अधिक बल देने के कारण व्यवहारवाद आलोचित हो रहा था । नवलोक प्रशासन वादियों ने लोक प्रशासन के इस सकट की तरफ गंभीरता से ध्यान आकृष्ट किया था । इसके प्रभाव से व्यवहारवाद ने अपने को संशोधित कर लिया ।
(3) उत्तर व्यवहारवाद के प्रवर्तक डेविड ईस्टन के अनुसार उत्तर व्यवहारवाद में दो मुख्य बाते है:
i. यह वास्तविक समस्याओं पर अधिक ध्यान देता है ।
ii. मूल्य तटस्थता पर उतना बल नहीं देता ।
(4) इसमें साधनों (प्रविधियों) से अधिक महत्वपूर्ण साध्य को माना जाता है । यदि हीगल की शब्दावली लोक प्रशासन में इस्तेमाल करें तो कह सकते है कि पारंपरिक दृष्टिकोणवाद था तो व्यवहारवाद उसका प्रतिवाद अंतत: इनके अंतर्विरोध से निकला ”उत्तर व्यवहारवाद” संवाद है ।