Read this article in Hindi to learn about the structural functional approach to public administration.

इस उपागम को संगठनात्मक-कार्यात्मक उपागम भी कहते हैं । इसका पहला प्रयोग मानव विज्ञान में मौलिनावस्की और रैडविलफ ब्राउन ने बीसवीं शदी के प्रारंभ में किया था । धीरे-धीरे यह सभी विज्ञानों के विश्लेषण के लिये एक आवश्यक उपागम बन गया । लेकिन यह सम्पूर्ण उपागम नहीं है क्योंकि इसका इस्तेमाल संरचनाओं और उनके कार्यों के विश्लेषण तक सीमित है ।

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इस उपागम व्यापक स्वरूप व्यवस्था उपागम के रूप में आया है । संरचनात्मक-कार्यात्मक उपागम का उपयोग करने वाले प्रमुख है- टालकाट पारसंस (समाजशास्त्र) और फ्रेडरिग्स (लोक प्रशासन) । अन्य विद्वानों में ग्रेब्रिएल आलमाण्ड, डेविड, इप्टर, राबर्ट मर्टन आदि शामिल है ।

संरचनात्मक-कार्यात्मक उपागम वस्तुत: शस्त्रीय विचारकों ने संरचना पर तथा व्यवहारवादियों ने कार्यों या व्यवहार पर जोर दिया । संरचनात्मक-कार्यात्मक उपागम इन दोनों को नये स्वरूप में प्रस्तुत करता है- प्रत्येक संरचना का एक विशिष्ट कार्य व्यवहार होता है । यह व्यवहार अपनी सामाजिक व्यवस्था के लिये ”मानक” (Standard) होता है ।

इस प्रकार इस उपागम में दो तत्व है- एक संरचना. दूसरा कार्य । संरचनाएं दो प्रकार की हो सकती है- निश्चित या मूर्त जैसे विभाग, अभिकरण आदि और विश्लेषणात्मक जैसे सत्ता संरचना । सभी संरचनाए इसलिए अस्तित्व में है क्योंकि वे कुछ कार्य करती या कार्य करने के लिये बनायी गयी है ।

लेकिन संरचना और उसके कार्यों के बीच कोई स्पष्ट और प्रत्यक्ष सम्बन्ध हो, जरूरी नहीं है । उदाहरण के लिए सभी समान संरचनाएं एक जैसे कार्य भी कर सकती है और अलग-अलग कार्य भी कर सकती है । कोई संरचना बहुत से कार्य संपादित कर सकती है और इसी प्रकार एक ही कार्य अनेक संरचनाओं के द्वारा सम्पन्न होते दिखायी दे सकते है ।

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स्पष्ट है कि जहां तक इस उपागम के कार्यात्मक पहलू का प्रश्न है, एक ”कार्य” विशेष दो या अधिक संरचनाओं के मध्य अन्तनिर्भर सम्बन्धों को जन्म देता है। कार्य वस्तुत: किसी संरचना का परिणाम है और जिससे पता चलता है कि व्यवस्था में उपस्थित अन्य संरचनाओं को वह कहां तक प्रभावित कर रहा है ।

इस उपागम ने अब तक के इन मतों का खण्डन किया है कि:

1. समान संरचनाए, अलग-अलग वातावरण में भी समान कार्य सम्पन्न करती है । और

2. कोई संरचना-विशेष अनुपस्थित है तो उसके द्वारा सम्पन्न होने वाले कार्य भी अनुपस्थित होंगे ।

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दूसरे शब्दों में कहे तो वातावरण का प्रभाव संरचना और उसके कार्यों पर आता है और यह निष्कर्ष इस उपागम को परिस्थितिकीय उपागम के निकट लाता है, लेकिन अधूरे रूप से, क्योंकि यह नहीं बताया गया कि संरचना और कार्य भी वातावरण को प्रभावित करते है । यह भी स्पष्ट किया गया कि संरचना विशेष की अनुपस्थिति में भी उससे संबंधित कार्य अन्य संरचनाओं द्वारा सम्पन्न हो सकती है ।

उपर्युक्त निष्कर्षों के सन्दर्भ में कहा जा सकता है कि सरंचनात्मक-कार्यात्मक उपागम संरचना और उनके कार्यों को एक ”व्यवस्था” के रूप में देखता है और इस कारण से यह उपागम ”व्यवस्था उपागम” के अत्यधिक निकट है लेकिन उसकी अपेक्षा संकुचित है । तुलनात्मक लोक प्रशासन के अपने अध्ययन में फ्रेडरिग्स ने संरचनात्मक-कार्यात्मक उपागम का प्रयोग सर्वप्रथम 1957 में तब किया था, जब वाल्डों ने दो वर्ष पूर्व इसकी उपयोगिता बतायी थी ।

यह जानते हुए भी कि संरचना और कार्य सभी समाजों में एक जैसी नहीं होती, अन्य विद्वानों की भांति फ्रेडरिग्स ने भी इन्हे निर्धारित करने का प्रयास किया । रिग्स ने प्रत्येक समाज (संरचना) की पांच कार्यात्मक विशेषताएं बतायी-राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक (सांकेतिक) आर्थिक और संचारिक ।

रिग्स ने विकासशील देशों की प्रशासनिक व्यवस्था को स्पष्ट करने के लिये विकसित, विकासशील और पिछड़े राष्ट्रों के प्रशासन की तुलना इस उपागम के साथ पाशल्लाहकाय और सामान्य व्यवस्था उपागम के आधार पर की ।

रिग्स ने इस तुलना के आधार पर विकासशील देशों के समाज को ऐसे “प्रिज्मेटिक समाज” की संज्ञा दी जिसके हर क्षेत्र (राजनीति, प्रशासन, आर्थिक सभी) में अनेक संरचनाएं तो स्थापित हो गयी है लेकिन कार्यों के मध्य प्रभावी एकीकरण नहीं हो पाया है ।

मार्क्सवादी उपागम:

मार्क्सवादी विचारकों ने संगठन का विलेषण एक शोषणवादी उपकरण के रूप में किया है । संगठन जिन कार्मिकों की पदसोपानिक व्यवस्था होती है मार्क्सवाद के अनुसार वो अंतर्संबंधों के स्थान पर अलगाव का कारण होती है । कार्मिक अपने संगठन से, कार्य से और अंतत: अपने आप से विच्छेदित हो जाते है और इसलिए रिजे कहते है कि “पदसोपान कार्यकुशलता नहीं कुण्ठा का आधार होता है ।”

मार्क्सवाद के अनुसार श्रम विभाजन कि पूरी अवधारणा ही गलत है क्योंकि यह कार्य को उच्च और नीच में बांट देती है जिसमें उच्च कार्य को करने से संबंधित समूह को अधिक अधिकार सुविधा मिल जाते है जबकि अधीनस्थ स्तर को इनसे वंचित होना पड़ता है ।

अत: श्रम विभाजन से कार्यगत विशेषीकरण नहीं अपितु सामाजिक विभेदीकरण होता है इससे संगठन में टीम भावना नहीं अपितु संघर्ष की भावना पनपती है । इसी प्रकार विशेष कार्य के लिये विशेष प्रशिक्षण और विशेष योग्यता आदि भी व्यक्ति के विकास को रोक देती है ।

जैसा कि कार्ल मार्क्स को उद्धत किया जाता है कि परीक्षाओं का स्वरूप इस प्रकार बनाया जाता है कि संगठन के महत्वपूर्ण पदों पर सिर्फ अभिजातीय वर्ग ही पहुंच सके इससे अयोग्य अभिजातीय भी संगठन में आते है और इन्हीं की अयोग्यता को दूर करने के लिये प्रशिक्षण लाया जाता है ।

मार्क्सवाद संगठन की कार्यकुशलता बढ़ाने के लिये निम्नलिखित बातों पर बल देता है:

1. समस्तरीय ढांचे जो जनता का प्रतिनिधित्व करें ।

2. व्यक्ति को कार्य चुनने की स्वतंत्रता ।

3. सभी कार्यों का समान महत्व इसलिए समान वेतन और सुविधाएं ।

इस प्रकार मार्क्सवादी विचारक संगठन के वर्तमान स्वरूप को पूरी तरह नकार देते है और सामाजिक आर्थिक शोषण का हथियार मानते है । जहां शोषण है वहां समृद्धि-संवृद्धि नहीं आ सकती, अत: वह संगठन के विकल्प पर बल देते है ।

परंतु इसमें सबसे बड़ी कमी, किसी व्यवहारिक विकल्प के सुझाव का अभाव । आज संगठन का युग है और उसी बल पर सभ्यता प्रगति कर रही है अत: मार्क्सवादी संगठन विश्लेषण आर्थिक आधुनिक युग में सीमित प्रासंगिकता रखता है ।