Read this article in Hindi to learn about:- 1. प्रणाली दृष्टिकोण का अर्थ (Meaning of System Approach) 2. प्रणाली दृष्टिकोण की विशेषताएं (Features of System Approach) 3. संगठन: एक व्यवस्था के रूप में (Organisation as a System) and Other Details.

प्रणाली दृष्टिकोण का अर्थ (Meaning of System Approach):

यह लोक प्रशासन का आधुनिकतम दृष्टिकोण है और मोटे अर्थ में सम्पूर्ण दृष्टिकोण भी । इसके पूर्व तक के दृष्टिकोण संगठन के किसी विशेष पक्ष के विश्लेषण तक ही सीमित रहे ।

यहजकोल द्रोर पहले विद्वान थे जिन्होंने सभी सिद्धान्तों में अन्त: सम्बन्धों को ढूंढा । लोक प्रशासन में व्यवस्था दृष्टिकोण अन्त: सैद्धान्तिक दृष्टिकोण है । इस दृष्टिकोण ने ही प्रचलित दृष्टिकोणों यथा शास्त्रीय, व्यवहारवादी, पारिस्थितिकीय, संरचनात्मक-कार्यात्मक आदि सभी के अन्त: संबंधों और उनमें निहित अर्थ को स्पष्ट किया है । इसे आधुनिक संगठन सिद्धान्त भी कहा जाता है ।

मूलत: जीव विज्ञान में 1920 के दशक में लुडविग वॉन बर्टनलेन्फी ने व्यवस्था दृष्टिकोण का प्रयोग किया था । 1950 के बाद विभिन्न विषयों के अध्ययनों में एकीकृत विकास की आवश्यकता ने ”व्यवस्था” उपागम का विकास किया । सामाजिक विज्ञानों में सर्वप्रथम समाजशास्त्र में टालकाट पारसंस ने अपनी पुस्तक ”द पोलीटिकल सिस्टम” (1953) में इसका प्रयोग किया था । लोक प्रशासन में सर्वप्रथम चेस्टर बर्नार्ड ने व्यवस्था सिद्धान्त को अपनाया और बाद में हरबर्ट साइमन ने इसका खूब विकास किया ।

प्रणाली दृष्टिकोण की विशेषताएं (Features of System Approach):

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i. सम्पूर्णता:

प्रणाली या व्यवस्था दृष्टिकोण का प्राथमिक चरित्र है- सम्पूर्णता । व्यवस्था विभिन्न उपभागों या अवयवों का एक सेट या समुच्चय होती है । यह सेट अपने आप में सम्पूर्ण होता है अर्थात् दूसरी व्यवस्था से अलग इसका अपना स्वतन्त् अस्तित्व होता । लेकिन इस सेट या व्यवस्था के जो उपभाग है, उनका स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं होता है ।

समाजशास्त्री टालकाट पारसंस ने अपने प्रसिद्ध जैविक सिद्धान्त में इसे समझाया है । इसके अनुसार मानव शरीर एक सम्पूर्ण व्यवस्था है । इसमें श्वसन तन्त्र, ग्रंथि तन्त्र जैसी अनेक उपव्यवस्था है । ये उपव्यवस्थाएं भी अनेक अंगों से मिलकर बनी है । जिस प्रकार अंगों का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं हो सकता, उसी प्रकार इन तन्त्रों का भी पृथक् कोई अस्तित्व नहीं है ।

इसी प्रकार प्रशासन भी एक सम्पूर्ण व्यवस्था है । इसकी अनेक उपव्यवस्थाएं है, जैसे विभिन्न विभाग, आयोग, अभिकरण आदि । यदि इन उपव्यवस्थाओं को मात्र अंगों या हिस्सों के रूप में देखें तो प्रशासन एक संगठन या संरचना भर प्रतीत होगा, जैसाकि संरचनात्मक (यांत्रिक) विचारकों ने देखा है ।

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यदि इन उपव्यवस्थाओं के अर्न्तसबंधों को देखे तो प्रशासन एक व्यवस्था के रूप में सामने आता है । और इस आधार पर विश्लेषण करें तो उक्त विभागों के स्थान पर प्रशासनिक संगठन की उपव्यवस्थाएं इस प्रकार प्रकट होगी- औपचारिक संगठन, अनौपचारिक संगठन, व्यक्ति, तकनीक और बाह्य वातावरण ।

ii. अन्तर्सबंधता और परस्पर निर्भरता:

यद्यपि उपव्यवस्थाओं का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं होता है तथापि वे परस्पर निर्भर होती है क्योंकि उनमें अन्तर्संबंध पाये जाते है । इसी प्रकार प्रशासन के भी किसी भाग में परिवर्तन अन्य भागों को प्रभावित करता है । उदाहरण के लिये पदसौपान के स्तर बढ़ाये जाऐगें तो अनौपचारिक समूहों की संख्या भी बढ़ जाएगी ।

iii. सामूहिक कार्य:

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प्रत्येक उपव्यवस्था का सम्पूर्ण व्यवस्था में निश्चित योगदान होता है, लेकिन यह योगदान व्यवस्था के कुल कार्य में विलिन हो जाता है । प्रत्येक उपव्यवस्था सम्पूर्ण व्यवस्था पर प्रभाव डालती है और उससे स्वयं भी प्रभावित होती है । लोक प्रशासन का उद्देश्य राष्ट्रीय विकास और सुरक्षा है जिसके लिये अनेक विभाग अपना-अपना करते ।

iv. सुप्रा व्यवस्था:

प्रत्येक व्यवस्था की सीमा (Boundary) होती है, जिसके माध्यम से वह अपने पर्यावरण से जुड़ी भी होती है और उसके साथ प्रतिक्रिया भी करती है । व्यवस्था के इस पर्यावरणीय परिवेश को सुप्रा व्यवस्था (Supra System) कहा जाता है ।

प्रशासन रूपी व्यवस्था का बाहरी पर्यावरण वस्तुत: राजनीति, अर्थव्यवस्था संस्कृति समाज प्रौद्योगिकी आदि है ये सब मिलकर प्रशासन के लिये सुप्रा व्यवस्था का निर्माण करते है । प्रशासन की व्यवस्था और इस सुप्रा व्यवस्था में परस्पर क्रिया-प्रतिक्रिया चलती रहती है ।

v. प्रशासन एक खुली व्यवस्था:

दो तरह की व्यवस्थाएं होती है-खुली और बन्द । यांत्रिक, भौतिक आदि बन्द व्यवस्थाएं है। उदाहरण के लिये परमाणु रिएक्टर्स या रेडियो सेट आदि । बन्द व्यवस्थाएं बाहरी वातावरण से न प्रभावित होती है और नहीं उन्हें प्रभावित करती है । इसके विपरित खुली व्यवस्थाएं बाहरी पर्यावरण से निरन्तर अनोन्य क्रिया करती है ।

प्रशासन ऐसी ही खुली व्यवस्था है । प्रशासन अपने बाहरी पर्यावरण (ऊपर वर्णित सुधा व्यवस्था) से निरन्तर संपर्क में रहता है और उससे अनुकूलन की कोशिश करता है । बाहर का दबाव प्रशासन को वैसी ही प्रतिक्रिया के लिये सक्रीय करता है ।

प्रत्येक खुली व्यवस्था के पांच तत्व या अंग होते है:

(i) आगत (Input)

(ii) प्रक्रिया (Process)

(iii) पर्यावरण (Environment )

(iv) पुनर्निवेशन (Feed Back) और

(v) निर्गत (Output) ।

व्यवस्था अर्थात् आगत और निर्गत की प्रक्रिया:

प्रत्येक व्यवस्था चाहे वह बन्द हो या खुली, आगत और निर्गत की एक प्रक्रिया होती है । खुली व्यवस्था में आगत (Inputs) के साथ पुनर्निवेशन (Feed back) भी शामिल होता है । उदाहरण के लिये कार में पेट्रोल आगत (Input) है और कार का दूरी तय करना निर्गत (Output) है ।

कार पर्यावरण से प्रभावित नहीं है । इसके विपरीत प्रशासन एक खुली व्यवस्था है । इसमें कार्मिक, धन, समय, स्टेशनरी और अन्य भौतिक संसाधन आगत (Input) के रूप में प्रयुक्त होते हैं और विभिन्न सेवाओं, कार्यों आदि के रूप में बाहर (Output) निकलते है ।

लेकिन जब बाहरी पर्यावरण की अपेक्षा बदलती है तो प्रशासन को अपने निर्गत को भी उसी अनुरूप बदलना पड़ता है । जैसे जनता रेलवे आरक्षण कहीं से भी और तत्काल चाहती है तो सरकार को कम्प्यूटर (Input) का इस्तेमाल करना पड़ा और तत्काल आरक्षण खिड़की खोलना पड़ी ।

vi. संतुलित अनुकूलन का सिद्धान्त:

प्रशासन की सुप्रा व्यवस्था के साथ प्रतिक्रिया संतुलित होनी चाहिये अन्यथा व्यवस्था में विघटन उत्पन्न होगा । मात्र छोटे से विवाद पर पूरे शहर में कर्फ्यू लगाना जरूरत से ज्यादा प्रतिक्रिया है जो व्यवस्था के औचित्य पर सवाल खड़ा करेगी ।

इसके विपरित पूरे शहर में दंगा-फसाद होने पर भी प्रशासन लाठी चार्ज, गोली चलाने जैसे कदमों के स्थान पर मात्र शांति की अपील करें, तो यह जरूरत से कम प्रतिक्रिया है और ऐसे में सिविल प्रशासन की व्यवस्था विफल हो जाएगी और अन्य व्यवस्था (CRPF या सेना) को स्थिति संभालने के लिए आना पड़ेगा ।

vii. प्रशासनिक उपव्यवस्था:

चेस्टर बर्नार्ड के अनुसार यह निम्न तत्वों से मिलकर बनी समाज की एक उपव्यवस्था है:

(i) औपचारिक संगठन- जानबूझकर कार्मिकों की संरचना स्थापित की जाती है । यह प्रशासन को प्रभावित करने वाला मात्र एक तत्व है।

(ii) अनौपचारिक संगठन- मनुष्यों के अंत: सामाजिक सम्बन्धों से निर्मित अनौपचारिक संगठन प्रशासनिक संगठन को प्रभावित करने वाला मात्र एक तत्व है ।

(iii) व्यक्ति- न सिर्फ अनौपचारिक संगठन में समूह के रुप में एक व्यक्ति अपने विचार, व्यवहार से संगठन में एक स्वतंत्र प्रभावकारी तत्व के में भी उभरता है ।

(iv) तकनीक या प्रौद्योगिकी- जो कार्य पद्धति या तकनीक संगठन अपनाता है उसके साथ अन्य तत्वों को तालमेल बैठाना पड़ता है । इससे भी संगठन प्रभाव पड़ता है ।

(v) बाह्य वातावरण- यह वस्तुत: संपूर्ण सामाजिक व्यवस्था की अन्य उपव्यवस्थाएं है जो प्रशासनिक संगठन को करती है । ये उपव्यवस्थाएं है, राजनीति, अर्थव्यवस्था, समाज और उसका सांस्कृतिक पर्यावरण ।

संगठन: एक व्यवस्था के रूप में (Organisation as a System):

यूं तो प्रत्येक संगठन सामाजिक व्यवस्था की एक उपव्यवस्था है, तथापि वह स्वयं भी अनेक उपव्यवस्थाओं या घटकों से निर्मित एक व्यवस्था है ।

सांगठनिक व्यवस्था की सामान्य उपव्यवस्थाएं प्रकार हो सकती है:

1. तकनीकी उपव्यवस्था, जो आगत को निर्गत में बदलती है ।

2. सहायक उपव्यवस्था जो कच्चा माल, मार्केटिंग आदि गतिविधियों को मदद करती है ।

3. रखरखाव उपव्यवस्था जो प्रक्रिया को दुरूस्त रखती है ।

4. सामाजिक-मनोवैज्ञानिक उपव्यवस्था जो कार्मिक व्यवहार और अंत: सामाजिक संबंधों की गति की का अध्ययन करती है ।

5. संरचनात्मक या औपचारिक उपव्यवस्था, जो संगठन में कार्य, पद, भर्ती आदि को निर्धारित करती है ।

6. अनुकूलन उपव्यवस्था जो संगठन को परिवेशीय परिवर्तनों के अनुकूल संगठन को ढलने में मदद करती है ।

7. प्रबंधन उपव्यवस्था, जो उक्त समस्त उपव्यवस्थाओं को अत: संबन्धित करती है ।

हिक्स और गुलिट ने व्यवस्था उपागम की 7 विशेषताएँ बतायी है:

1. गतिशीलता

2. बहुस्तरीय और बहुपक्षीय तंत्र

3. बहुप्ररित संभावनाएं

4. बहुशास्त्रीय उपागम

5. वर्णनात्मक

6. बहुत्वपूर्णता

7. अनुकूलनता

सी. वेस्ट चर्चमेन ने ”व्यवस्था उपागम” नामक अपनी पुस्तक में व्यवस्था उपागम के 5 तत्वों पर विचार किया है, जो प्रबन्ध के सन्दर्भ में है:

1. व्यवस्था के कुल उद्देश्य और व्यवस्था के निष्पादन की माप ।

2. वातावरण, जो व्यवस्था के लिए बाधा है ।

3. व्यवस्था के संसाधन जो कार्य निष्पादन में लगे है ।

4. व्यवस्था के अवयव तथा उनके लक्ष्य और कार्य ।

5. व्यवस्था का प्रबन्धन (नियमन और निर्णयन के पहलु) ।

अन्य योगदान:

(1) साइमन का निर्णय निर्माण मॉडल:

साइमन को व्यवस्था उपागम का सबसे प्रमुख योगदानकर्ता माना जाता है । साइमन ने न सिर्फ निर्णय निर्माण मॉडल में व्यवस्था उपागम का प्रयोग किया, अपितु मार्च के साथ मिलकर ”संगठन” (Organisation) नामक पुस्तक में व्यवस्था उपागम का विस्तृत विश्लेषण प्रस्तुत किया है ।

(2) वीनर का साइबर नेटिक्स मॉडल:

नास्बर्ट वीनर भी बर्नार्ड की भांति संचार को संगठन का सबसे अनिवार्य तत्व मानता है । संगठन की एकता के लिये वह संचार की आधुनिक प्रोधौगिकी की आवश्यकता प्रतिपादित करता है, जो बाहरी पर्यावरण में होने वाले परिवर्तनों की सूचनाएं संगठन को उपलब्ध कराती है । इसे ही वीनर ने साइबरनेटिक्स की संज्ञा दी ।

(i) साइबरनेटिक्स एक ग्रिक शब्द है, जिसका अर्थ है, Steers-ManA

(ii) वीनर ने ही सर्वप्रथम सांगठनिक व्यवस्था के विभिन्न तत्वों की स्पष्ट पहचान की । उसके अनुसार प्रत्येक व्यवस्था के इनपुट (आगत) को अंतर्वाही प्रक्रिया के प्रयोग द्वारा आउटपुर (निर्गत) में बदल दिया जाता है ।

(iii) लेकिन एक व्यवस्था का सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटक फीडबेक (पुनर्निवेश) है । इसका अर्थ है प्रतिक्रिया की जानकारी प्राप्त करना और प्रतिक्रिया के अनुरूप व्यवस्था के घटकों में परिवर्तन कर लेना ।

(iv) विकास के साथ संगठन में विघटन की प्रक्रिया भी चलती रहती है । इस विघटन को वीनर ने धनात्मक एन्ट्रापी की संज्ञा दी और कहा कि इस पर काबू पाने हेतु उतनी ही अत्याधुनिक संचार प्रोद्यौगिकी “साइबरनेटिक्स” की जरुरत पड़ती है, ताकि फीडबैक उपलब्ध हो सके ।

(v) फीडबैक को प्राप्त करने और उसका निर्णय में उपयोग करने के तरीके विकसित करने पड़ते हैं ।

(3) चेस्टर बर्नार्ड का सहकारी व्यवस्था मॉडल:

लोक प्रशासन में सर्वप्रथम चेस्टर बर्नार्ड ने प्रणाली या व्यवस्था दृष्टिकोण का प्रयोग किया । उन्होंने संगठन को ”सहकारी सामाजिक व्यवस्था” मानकर उसका विश्लेषण किया । बर्नार्ड के अनुसार यह सहकारी व्यवस्था इसलिए अस्तित्व में आती है क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति की अपनी जैविक, भौतिक, सामाजिक आदि सीमाएं होती है, इसलिए वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति अकेले नहीं कर सकता और समूह बनाकर उनका समाधान ढूंढता है ।

संगठन एक संपूर्ण व्यवस्था है और इसके विभिन्न भाग परस्पर आश्रित होते है । प्रत्येक भाग का अपनी जगह चाहे जो महत्व हो, संपूर्ण व्यवस्था के संचालन में उसकी भूमिका अन्य भागों के समान ही होती है ।

(4) फ्रेडरिग्स का सामान्य व्यवस्था उपागम:

फ्रेडरिग्स ने तुलनात्मक लोक प्रशासन के अध्ययन में जिस सामान्य व्यवस्था उपागम का प्रयोग किया है वह इस दृष्टि से अनुठा है कि उसमें संरचनात्मक-कार्यात्मक और पारिस्थितिकीय उपागम का सुंदर मिश्रण किया गया है । रिग्स ने प्रशासनिक उपव्यवस्था की कल्पना की जो अन्य उपव्यवस्थाओं यथा राजनीति, सांस्कृतिक (सांकेतिक) संचारिक, आर्थिक और सामाजिक से अनोन्य किया करती है ।

(5) फालेट की सामाजिक व्यवस्था:

फालेट ने संगठन को सामाजिक व्यवस्था की संज्ञा दी । 1920 और विशेष तौर पर 1930 के दशक में मेरी पार्कर फालेट ने अपने लेखन में व्यवस्था उपागम का प्रयोग किया । उन्हें शास्त्रीय और आधुनिक उपागमों को जोड़ने वाले पुल की संज्ञा दी जाती है ।

(6) सेल्जनिक:

फिलीप सेल्वनिक ने सरकार के साथ-साथ निजी क्षेत्र के बड़े-बड़े संगठनों के विश्लेषण में व्यवस्था उपागम को अपनाया है ।

(7) टेवीस्टाक संस्थान, इंग्लैण्ड:

मानव संबंधों पर कार्यरत टेवीस्टाक संस्थान, इंग्लैण्ड से बहुत सा साहित्य प्रचारित होता रहा है और उसमें से अनेक में व्यवस्था उपागम को अपनाया गया है।

(8) हेयर्स की ”माडर्न आर्गेनाइजेशन थ्योरी”:

इसमें व्यवस्था दृष्टिकोण की विशद व्याख्या की गयी है।

आलोचनात्मक मूल्यांकन (System Approach‘s Critical Evaluation and Its Importance):

1. यह दृष्टिकोण अंतर-संगठनात्मक सम्बन्धों व्याख्या नहीं करता है । कोई भी प्रशासनिक संगठन अकेला नहीं होता, अपितु अन्य संगठनों के सन्दर्भ में ही उसकी भूमिका होती है । व्यवस्था दृष्टिकोण एक प्रशासनिक संगठन की व्यवस्था मात्र को ही खंगालता है ।

2. यह विभिन्न व्यवस्थाओं के मध्य के अन्तर भी स्पष्ट नहीं करता ।

3. संगठन की जिस अवधारणा का प्रतिपादन व्यवस्था प्रणाली करती है, वह अत्यधिक अमूर्त (Abstract) अति अवधारणात्मक (Over Conceptual) और अस्पष्ट (Vague) है ।

4. यह कोई विशिष्ट उपागम नहीं है अपितु अन्य प्रचलित उपागमों का ही समिश्रण है ।

5. किसी व्यवस्था की उपव्यवस्थाओं का पता लगाना बेहद कठिन कार्य है और जरूरी नहीं कि सभी उपव्यवस्थाओं का पता चल ही जाये ।

6. इस उपागम का इस्तेमाल इसमें दक्ष विद्वान ही कर सकते है ।

7. व्यवहारिक परिस्थितियों में प्रत्यक्ष तौर पर लागू होने में यह उतना प्रासंगिक नहीं है ।

8. प्रशासन-पर्यावरण के परस्पर प्रभावों की कारण सहित व्याख्या नहीं करता और यह भी नहीं बता पाता कि कौन-सा तथ्य अधिक प्रभावी होता है ।

9. व्यवस्था उपागम विश्लेषण और संश्लेषण पर तो बल देता है लेकिन उसके लिए कोई निश्चित तकनीक या ढंग सुझाने में असफल रहा है ।

महत्व:

1. इसने ही संगठन को उसकी संपूर्णता में समझना का प्रयास किया और पूर्व के उपागमों के एकांगी पक्ष की कमियों को दूर किया ।

2. इसने विभिन्न प्रचलित उपागमों की कमियों के बावजूद उनकी उपयोगिता का एक ”सयुंक्त सन्दर्भ” प्रस्तुत किया ।

3. इसके द्वारा पर्यावरण-संगठन के परस्पर प्रभाव की अवधारणा प्रस्तुत की गयी, जो पारिस्थितिकीय उपागम का पूर्वाधार बनी ।

4. लोक प्रशासन में सैद्धान्तिक उपागमों की खामियों से उत्पन्न अभाव को दूर किया गया ।

5. इसके द्वारा प्रशासनिक संगठनों के वास्तविक और सम्पूर्ण विश्लेषण के द्वारा अनेक समस्याओं को सामने लाने में मदद मिली ।

6. इसके प्रयोग से प्रशासन की अवधारणा को विकसित होने का अवसर मिला ।

7. इसके द्वारा ही ”आकस्मिक प्रबन्धन” का मार्ग प्रशस्त हुआ ।