Read this article in Hindi to learn about:- 1. व्यवस्था उपागम का मूल अवधारणा (Basic Concept of Systems Approach) 2. एक व्यवस्था के रूप में संगठन (Organisation as a System) 3. व्यवस्था उपागम का उदय और विकास (Rise and Growth of Systems Approach) 4. व्यवस्था उपागम की आलोचनात्मक मूल्यांकन (Critical Evaluation of Systems Approach).
व्यवस्था उपागम का मूल अवधारणा (Basic Concept of Systems Approach):
वेबस्टर ने व्यवस्था को- “एक जैविक पूर्णता या एकता की रचना के लिए संबंधित या जुड़ी चीजों के समुच्चय या व्यवस्थापन” के रूप में भाषित किया है ।”
टालकॉट पार्सस ने व्यवस्था को उस अवधारणा के रूप में परिभाषित है- ”जो संबंध की बोधगम्य नियमितताओं को समेटने वाले अंगों, संघटकों और प्रक्रियाओं के बीच अंतरनिर्भरताओं के जटिल समूह के साथ-साथ अन्य जटिल समूह और उसके परिवेश की ओर भी संकेत करती है ।”
रमेश के. अरोड़ा के अनुसार- ”व्यवस्था की अवधारणा के अध्ययन में – (i) व्यवस्था के अंगों, (ii) अंगों के बीच संबंधों और (iii) व्यवस्था और उसके परिवेश के बीच संबंधों का अध्ययन शामिल है ।” इस प्रकार, एक जटिल व्यवस्था वह है जिसमें कई अंग होते हैं । व्यवस्था के ये अंग उपव्यवस्थाएँ कहलाते हैं । ये उपव्यवस्थाएँ अपनी सक्रियता में अंतरसंबंधित और अंतरनिर्भर होती हैं और पूरी व्यवस्था की सक्रियता में योगदान करती हैं ।
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व्यवस्था की सुपरिभाषित सीमाएँ होती हैं जिनके जरिए ये अपने परिवेश से संबंध रखती हैं । किसी व्यवस्था का बाह्य परिवेश उसकी उपरि व्यवस्था (Supra-System) कहलाती हैं । किसी भी व्यवस्था के पाँच मूल अंग होते हैं- आगत, प्रक्रिया, निर्गत, फीडबैक और परिवेश, जैसा कि चित्र 3.1 में दिखलाया गया है ।
व्यवस्था परिवेश से आगत लेती है और रूपांतरण प्रक्रिया के बाद परिवेश में ही निर्गत भेज देती है । इसके अलावा, एक व्यवस्था अपने आपको परिवेश की जरूरतों के अनुसार बदलती भी रहती है । इसमें फीडबैक मदद करता है । इस प्रकार, व्यवस्था और उसके परिवेश के बीच संतुलन बना रहता है ।
व्यवस्थाएँ दो श्रेणी की होती हैं- खुली व्यवस्था और बंद व्यवस्था । सामाजिक और जैविक व्यवस्थाएँ खुली व्यवस्थाएँ होती हैं और यांत्रिक और भौतिक व्यवस्थाएँ बंद व्यवस्थाएँ होती हैं । खुली व्यवस्थाएँ पारगम्य सीमाओं वाली होती है और परिवेश के साथ लगातार संबंध बनाए रखती है ।
इसके विपरीत बंद व्यवस्थाओं की सीमाएँ अपारगम्य होती हैं और वे अपने परिवेश के साथ घुलती-मिलती नहीं है । खुली व्यवस्थाएँ अधिक आंतरिक विभेदीकरण, विशिष्टीकरण और विस्तार के साथ विकसित होती हैं और संगठन के उच्चतर स्तर की ओर बढ़ती हैं । दूसरी ओर बंद व्यवस्थाएँ अव्यवस्था असंगठन और आत्मविनाश की ओर बढ़ती हैं, जो ‘सकारात्मक एंट्रॉपी’ हैं ।
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व्यवस्था से जुड़ी अन्य अवधारणाएँ हैं:
1. साहचर्य यानी पूर्णता (गेस्टाल्ट),
2. समास्थिति यानी गतिशील संतुलन,
3. साइबरनेटिक्स अर्थात् फीडबैक प्रणाली,
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4. संघटन यानी अखंडता,
5. समवैयक्तिकता यानी समान गुण,
6. समअंतिमता यानी समान परिणाम,
7. एंट्रॉपी यानी व्यवस्था के विखंडित होने की प्रवृत्ति की माप ।
एक व्यवस्था के रूप में संगठन (Organisation as a System):
संगठन खुली सामाजिक व्यवस्था की श्रेणी में आता है और वह सभी चारित्रिक विशेषताएं दर्शाता है जिनकी पहले चर्चा की जा चुकी है । कई उपव्यवस्थाओं वाली सामाजिक व्यवस्था के रूप में संगठन को चित्र 3.2 में दर्शाया गया है ।
किसी संगठन की विभिन्न उप-व्यवस्थाओं की व्याख्या निम्न है:
(i) तकनीकी उपव्यवस्था का सरोकार यांत्रिक प्रक्रियाओं से है, अर्थात् आगत को निर्गत में बदलने से ।
(ii) समर्थक उपव्यवस्था कच्चा माल उपलब्ध कराने, प्रचार जैसी सांगठनिक गतिविधियों का समर्थन करती है ।
(iii) रख रखाव उपव्यवस्था आवश्यक मानव कौशलों की आगत को सुनिश्चित करती है ।
(iv) अनुकूलन उपव्यवस्था, योजना इकाइयों जैसे परिवेशीय परिवर्तनों पर प्रतिक्रिया करने में संगठन की मदद करती है ।
(v) मनोवैज्ञानिक-सामाजिक उपव्यवस्था मानव व्यवहार और अंतर वैयक्तिक संबंधों की गतिकी का प्रतिनिधित्व करती है ।
(vi) संरचनात्मक उपव्यवस्था का सरोकार संगठन में औपचारिक संबंधों से होता है अर्थात् यह कार्य और पदों को निर्धारित करती है ।
(vii) प्रंबधन उपव्यवस्था आंतरिक और बाह्य संबंधों (परिवेश के साथ) को नियंत्रित करने के लिए विभिन्न उप-व्यवस्थाओं को जोड़ती है ।
सी.वेस्ट चर्चमैन ने अपनी पुस्तक दि सिस्टम्स एप्रोच में निम्न पाँच विचारणीय बिंदुओं की ओर ध्यान खींचा है जिनका संबंध प्रबंधन के व्यवस्था उपागम से है:
(i) व्यवस्था का कुल उद्देश्य और उसके प्रदर्शन का मापन ।
(ii) व्यवस्था का परिवेश एक बाधा के रूप में कार्य करता है ।
(iii) निष्पादन के अंतर्गत लाए गए व्यवस्था के संसाधन निष्पादन के अंतर्गत ।
(iv) व्यवस्था के अंग (उपव्यवस्थाएँ) और उनके लक्ष्य व कार्य ।
(v) व्यवस्था का प्रबंधन (जैसे- नियमन और निर्णय निर्माण पहलू) ।
व्यवस्था उपागम का उदय और विकास (Rise and Growth of Systems Approach):
अधूरे क्लासिकीय और मानव संबंध उपागम से सर्वथा भिन्न ‘व्यवस्था-उपागम’ संगठन को एक पूर्ण दृष्टि देता है, अर्थात् संगठनों के अध्ययन के लिए एक स्थूल प्रतिमान । इस प्रकार यह संगठन के पुराने सिद्धांतों के सीमित परिप्रेक्ष्य और अभिमुखीकरण का नतीजा है ।
क्लासिकीय उपागम ने आंतरिक औपचारिक ढाँचे और तकनीक पर बल दिया, जबकि मानव संबंध व्यवहारवादी उपागम ने संरचना, तकनीक और संगठन-परिवेश संबंध को किनारे कर सामाजिक-मनोवैज्ञानिक कारकों पर जोर दिया ।
दूसरी ओर, व्यवस्था उपागम ने सांगठनिक परिघटना को इसकी पूर्णता में और एकीकृत रूप से व्याख्यायित और वर्णित किया । संगठनों के अध्ययन का व्यवस्था उपागम मुख्यत: 1950 के बाद विकसित हुआ । इसे आधुनिक संगठन सिद्धांत के रूप में भी जाना जाता है ।
व्यवस्था उपागम के विकास में मुख्य योगदान निम्न हैं:
(i) एक जीवविज्ञानी लुडविग वॉन बर्टलानफी ने सामान्य व्यवस्था सिद्धांत का विकास किया । उन्होंने उन मूल तत्वों का वर्णन किया जिस पर व्यवस्था उपागम आधारित है ।
(ii) एम.पी.फॉलेट ने 1920 के दशक के उत्तरार्द्ध और 1930 के दशक के पूर्वार्द्ध के लेखन में संगठन के व्यवस्था उपागम को अपनाया । उन्होंने संगठन को एक सामाजिक, व्यवस्था कहा ।
(iii) व्यवस्था उपागम से संगठन की पहली व्यापक व्याख्या चेस्टर बर्नार्ड ने की । उन्होंने संगठन को एक ‘सहकारी’ सामाजिक व्यवस्था कहा ।
(iv) नॉर्बर्ट वीनर ‘साइबरनेटिक्स’ (एक यूनानी शब्द जिसका अर्थ है नाविक) के क्षेत्र में अग्रणी थे । उन्होंने आगत, प्रक्रिया, निर्गत, फीडबैक व परिवेश वाली एक व्यवस्था के रूप में संगठन को एक स्पष्ट मार्गदर्शन दिया ।
(v) व्यवस्था उपागम के सांगठनिक सिद्धांत और विश्लेषण में मुख्य योगदान करने वाले हरबर्ट साइमन हैं । उनका निर्णय निर्माण मॉडल व्यवस्था उपागम पर आधारित है । मार्च के साथ लिखी उनकी रचना ऑर्गनाइजेशंस इस क्षेत्र में सबसे महत्वपूर्ण योगदान है ।
(vi) हेअर की रचना मॉडर्न ऑर्गनाइजेशन थ्योरी भी व्यवस्था उपागम के क्षेत्र में एक प्रतिनिधिक कृति है ।
(vii) फिलिप सेल्जनिक ने सरकारी व अन्य विशाल जटिल संगठनों के अध्ययन में व्यवस्था उपागम का अनुसरण किया ।
(viii) दि टैविस्टॉक इंस्टीट्यूट ऑफ ह्यूमैन रिलेशंस (इंग्लैंड) ने व्यवस्था उपागम का प्रयोग कर संगठनों पर काफी मात्रा में साहित्य सृजन किया ।
क्लासिकीय बनाम व्यवस्था (Classical Vs Systems):
सांगठनिक चिंतन के दो स्कूल है- क्लासिकीय उपागम और व्यवस्था उपागम । क्लासिकीय उपागम में तीन स्वतंत्र चिंतन धाराएँ हैं- वैज्ञानिक प्रबंधन (एफ.डब्ल्यू.टेलर), नौकरशाही मॉडल (वेबर) और क्लासिकीय सिद्धांत या प्रशासनिक सिद्धांत (फेयॉल, गुलिक व अरविक) ।
ये तीनों अनौपचारिक संबंधों और परिवेश की उपेक्षा की हद तक संगठन के औपचारिक ढाँचे पर जोर देते हैं । इसीलिए क्लासिकीय उपागम को सार्वभौमिक डिजाइन सिद्धांत के नाम से भी जाना जाता है । दूसरी ओर व्यवस्था उपागम संगठन के औपचारिक ढाँचे के अलावा अनौपचारिक संबंधों और परिवेश पर भी विचार करता है । अत: इसे स्थितिगत डिजाइन सिद्धांत के नाम से भी जानते हैं ।
क्लासिकीय उपागम और व्यवस्था सिद्धांत को सांगठनिक विश्लेषण के बंद व्यवस्था सिद्धांत (बंद मॉडल) और खुली व्यवस्था सिद्धांत (खुला मॉडल) के रूप में भी जाना जाता है । इन दोनों के बीच के विशिष्ट अंतरों का तालिका 3.2 में संक्षिप्त उल्लेख किया गया है ।
व्यवस्था उपागम की आलोचनात्मक मूल्यांकन (Critical Evaluation of Systems Approach):
व्यवस्था उपागम की निम्न आधारों पर आलोचना की जाती है:
(i) इसकी आलोचना संगठन के अध्ययन के अमूर्त, अति अवधारणात्मक और धुँधले उपागम के रूप में की जाती है । आलोचक कहते है कि संगठनों को समझने के लिए व्यवस्था सिद्धांत द्वारा दी गई अवधारणात्मक रूपरेखा बेहद अमूर्त है ।
(ii) आलोचक कहते हैं कि यह सिद्धांत व्यावहारिक स्थितियों में सीधे लागू नहीं होता ।
(iii) इस उपागम की इस आधार पर भी आलोचना होती है कि यह विश्लेषण और संश्लेषण की कोई तकनीक या औजार नहीं देता ।
(iv) कहा जाता है कि व्यवस्था उपागम न तो व्यवस्थाओं के अंतर को पहचानता है और न ही मेल-जोल और अंतरनिर्भरताओं की प्रकृति के बारे में बताता है । उपरोक्त सीमाओं के बावजूद ‘व्यवस्था उपागम’ ने सांगठनिक सिद्धांत में मूल्यवान योगदान दिए है ।
वे इस प्रकार हैं:
(i) इसने सांगठनिक चिंतन की क्लासिकीय, नव-क्लासिकीय और आधुनिक अवधारणाओं को जोड़ा और संश्लेषित किया है ।
(ii) संगठन-परिवेश संबंध की इसकी अवधारणा बाद में एफ. डब्ल्यू. रिग्स द्वारा प्रतिपादित परिवेशीय उपागम की पूर्वगामी बनी ।
(iii) इसने ‘आकस्मिकता प्रबंधन’ (परिस्थितिजन्य प्रबंधन में) को बढ़ावा दिया ।