Read this article in Hindi to learn about the changing role of public administration.
आधुनिक जटिल राज्यों में लोक प्रशासन की भूमिका का निर्धारण भी अत्यन्त जटिल विषय है । औधोगिक क्रांति जनित आधुनिक प्रवृत्तियों और कल्याणकारी-मानववादी विचारधारा ने राज्य को अहस्तक्षेप (Laissez-Faire) से हस्तक्षेप वादी भूमिका प्रदान की ।
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इससे राज्य और उसके प्रशासन का कार्यक्षेत्र, भूमिका और महत्व अत्यधिक विस्तृत होता चला गया । लेकिन 1980 के बाद नव लोक प्रबन्धन की विचारधारा ने संक्षेपणवाद (सीमित राज्य) और बाजारवाद (विस्तृत बाजार) के रूप में जो नवीन विचारधारा प्रतिपादित की उसने राज्य के हस्तक्षेप को न सिर्फ रोक दिया, उसकी दिशा ही उलट दी ।
आज बाजार का बोलबाला है और नवीन वैश्विक प्रवृत्तियां लोक प्रशासन के स्थान पर निजी प्रशासन पर समाज की निर्भरता को बढा रही है । ऐसे नाजुक समय में लोक प्रशासन की भूमिका का निर्धारण उसकी वर्तमान दशा और उससे अपेक्षित कार्य-व्यवहार के सन्दर्भ में ही किया जा सकता है ।
1. लोक कल्याणकारी राज्य में नवीन भूमिका:
हस्तक्षेप- वादी राज्य सर्वाधिक रूप से लोक कल्याणकारी राज्य की भावना का परिणाम रहा है । यह स्पष्ट है कि जब तक राज्य रहेगा, तब तक उसका यह उद्देश्य भी रहेगा । परिवर्तन होगा और हो रहा है तो इस उद्देश्य की प्राप्ति के तरीकों में ।
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अब तक लोक कल्याण के आदर्श की प्राप्ति हेतु सरकारी प्रशासन पर पूरी तरह निर्भर रही, लेकिन उसकी अनेक कम-अधिक विफलताओं ने और नवीन तकाजों ने राज्य को मजबूर कर दिया है कि इन आदर्शों की प्राप्ति हेतु न सिर्फ अपने प्रशासन को बाजार आधारित तन्त्र के अनुरूप ढाले, अपितु बाजार को भी इसमें सहयोगी बनाये ।
स्पष्ट है कि लोक कल्याण का राजकीय आदर्श यथावत है, लेकिन इसके लिये लोक प्रशासन का एकमात्र विकल्प मानने ले इंकार कर दिया गया है । साथ ही निजी क्षेत्र से भी इसकी प्राप्ति में योगदान आमंत्रित हो रहा है । स्वयं सेवी संस्थाओं का विस्तृत होता नेटवर्क तो इस दिशा में सबसे अहम आयाम सिद्ध होने जा रहा है ।
2. जन सेवी प्रशासन:
विकसित, विकासशील स ल लोक प्रशासक का धरे-धीरे जन नियन्त्रण में लाया जा रहा है। उससे अपेक्षा की जा रही है कि वह जनता को सेवक के रूप में विभिन्न सेवाएं दे ।
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3. प्रतिसंवेदी प्रशासन:
प्रशासन को जनता की मांगों, समस्याओं आदि के प्रति अधिक संवेदी होना जरूरी हो गया है । इससे तात्पर्य है परिवर्तन के अनुसार संगठनिक अनुकूलन । यह दो रूपों में होगा एक तो जनता की अपेक्षानुरूप नये-नये संगठनों का निर्माण और दूसरा ऐसे संगठनों को बन्द करना जो अब प्रासंगिक नहीं हैं ।
4. विशेषीकृत प्रशासन:
आज की सामाजिक, आर्थिक, प्रौद्योगिक आदि अनेक जटिलताओं से निपटने के लिए दक्ष प्रशासकों की जरूरत है । अतएव प्रशासन में विशेषज्ञों का अनुपात और प्रभाव बढ़ाया जाना बेहद जरूरी हो रहा है ।
5. मितव्यीय और कार्यकुशल प्रशासन:
शास्त्रीय विचारकों को पुन: याद किया जा रहा है । सार्वजनिक धन के पुन: व्यय पर अधिक जोर दिया जा रहा है । इसके लिये प्रशासनिक कार्यकुशलता बढ़ायी जा रही है और प्रशासन का आकार युक्तिसंगत स्तर तक सीमित किया जा रहा है ।
6. अत्याधुनिक प्रशासनिक प्रणालियां: ई-गर्वनेन्सः
साइबरनेटिक्स युग की अपेक्षाए न सिर्फ उच्च स्तर को छू रही है, अपितु उनमें निरन्तर परिवर्तन, परिवर्धन हो रहे हैं । इनके अनुकूल प्रशासन का बन रहना उसके स्वयं के अस्तित्व लिये भी जरूरी है । अतएव वह कम्प्यूटर, मोबाइल, इंटरनेट आदि से युक्त हो रहा है । आज का प्रशासन ई-गवर्नेन्स के रूप में तबदील हो रहा है ।
7. सुशासन:
यह शब्दावली आज शासन-प्रशासन म गज रही है । जनता भी इसका अर्थ समझ चुकी है । कार्यकुशल, मितव्यीय प्रशासन में निष्पक्षता, पारदर्शिता जवाबदयता के साथ जनसहभागीता को जोडकर जिस प्रशासन की अभिकल्पना की गयी है, उस सुशासन की तरफ लोक प्रशासन बढ रहा है । अच्छे शासन की महत्वपूर्ण कसौटी है जनता को वे सेवाएं उस रूप में प्रदान करना, जैसी वह चाहे और जब वह चाहे । इस हैतु उक्त विशेषताएं प्रशासन में सुनिश्चित की जा रही है ।