Read this article in Hindi to learn about the relations of civil servants with political executive.

सरकारी तंत्र को सुचारु रूप से कुशलता के साथ चलाने के लिए राजनीतिक कार्यपालिका और लोक सेवक के बीच यथोचित और सद्‌भावपूर्ण संबंधों का भारी महत्व है । राजनीतिक कार्यपालिका अपनी शक्ति समय-समय पर होने वाले चुनावों की प्रक्रिया के द्वारा जनता से प्राप्त करती है और संवैधानिक स्थिति के कारण उसका प्रयोग करती है ।

दूसरी ओर, लोकसेवक का चयन उसकी योग्यता के आधार पर होता है और उसको अपनी शक्ति प्रशासनिक पदों एवं तकनीकी विशेषज्ञता दोनों से प्राप्त होती है । जनता की प्रभुसत्ता (अर्थात सर्वोच्च शक्ति जनता के पास) के सिद्धांत पर आधारित जनतांत्रिक सरकार में लोकसेवक जनता का प्रतिनिधित्व करने वाली राजनीतिक कार्यपालिका के अधीन होते हैं ।

जैसा कि पीटर सेल्फ का मत है- राजनीतिक कार्यकारियों और लोकसेवकों के बीच परस्पर क्रिया कुछ विशेष रूपों में होती है । ये रूप भागीदारों के दो समूहों की विशिष्ट शैलियों तथा हितों का परिणाम होते हैं ।

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उन्होंने दोनों के बीच परस्पर क्रिया के चार क्षेत्र बताए हैं:

1. नीति निर्माण,

2. हितों की मध्यस्थता,

3. व्यक्तिगत और स्थानीय दावों का उपचार और

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4. राजनीतिक उत्तरदायित्व तथा प्रशासनिक विवेक के बीच संतुलन ।

उनके बीच की परस्पर क्रिया का आगे विश्लेषण करते हुए उन्होंने कहा- ”पहले दोनों मामलों में राजनीतिज्ञों का औपचारिक उत्तरदायित्व होता है । परंतु राजनीतिक निर्णयों के अनुपस्थित तत्वों की आपूर्ति प्रशासक करते हैं । तीसरे मामले में, विशेष निर्णयों को प्रभावित करने में राजनीतिज्ञों के अक्सर पैदा होने वाले हितों के विपरीत प्रशासक अपनी विशिष्ट पद्धतियों की एकरूपता बनाए रखते हैं । चौथा मामला दोनों समूहों की आवश्यकताओं और हितों के बीच संघर्ष के अपरिहार्य बिंदु का प्रतिनिधित्व करता है ।”

राजनीतिक कार्यपालिका ओर लोकसेवक के परस्पर संबंध तटस्थता एवं अनामिकता के दो सिद्धांतों से नियंत्रित होते हैं जिनकी व्याख्या नीचे की गई है ।

तटस्थता (Neutrality):

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अर्थ (Meaning):

तटस्थता का अर्थ है- राजनीतिक निष्पक्षता अथवा लोकसेवा की गैर-राजनीतिक प्रकृति; अर्थात लोक सेवकों को गैर-राजनीतिक रहकर और विभिन्न सत्ताधारी सरकारों का कार्य निष्पक्ष भाव से करना चाहिए और राजनीतिक कार्यपालकों को किसी भी राजनीतिक सरोकार के बिना स्वतंत्र और स्पष्ट सलाह देनी चाहिए । उनको वस्तुनिष्ठ, शांत, अराजनीतिक और निष्पक्ष व व्यावसायिक प्रशासक होना चाहिए जो अपना काम कुशलता, ईमानदारी, निष्ठा, निपुणता और समर्पण के साथ करता हो ।

मोहित भट्टाचार्य कहते हैं- ”तटस्थता का अर्थ एक प्रकार का राजनीतिक बंध्याकरण था अर्थात् राजनीति के प्रवाह में परिवर्तनों से नौकरशाही का अप्रभावित रहना । राजनीतिक नेतृत्व में परिवर्तन हो सकते हैं लेकिन स्वयं को समय की राजनीति से अलग रखते हुए नौकरशाह राजनीतिक मालिक को बिना चूके ‘तकनीकी’ सलाह देता रहेगा ।”

आर.बी. जैन के अनुसार- ”राजनीतिक तटस्थता का अर्थ केवल राजनीतिक गतिविधियों या लोक सेवा के किसी सदस्य की ओर से राजनीतिक पूर्वाग्रह की अनुपस्थिति नहीं, बल्कि यह भी है कि सरकार का राजनीतिक रूप रंग कुछ भी हो, नौकरशाही सरकार की इच्छा के अनुसार चलेगी ।”

ग्रेट ब्रिटेन:

‘लोकसेवा की तटस्थता’ अवधारणा एक परम्परा है जिसका विकास ब्रिटेन में हुआ था । वास्तव में तटस्थता का विचार ब्रिटिश लोक सेवा की कार्यपद्धति का लगभग दूसरा नाम बन गया है । ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री अर्ल-एटली ने इसे जनतंत्र का सबसे शक्तिशाली दुर्ग माना था । लोकसेवा में तटस्थता की इस परंपरागत अवधारणा की नींव लोकसेवकों की राजनीतिक गतिविधियों पर गठित मास्टरमैन कमेटी की रिपोर्ट (1949) ने रखी थी ।

इसमें कहा गया था- ”ब्रिटिश प्रशासक की जिस विशिष्टता को मान्यता मिली है और एक विशेष गुण के रूप में जिसकी प्रशंसा की गई है, वह उसकी राजनीतिक और अपने सार्वजनिक पद पर राजनीतिक पूर्वाग्रह से मुक्त उसका मस्तिष्क है ।”

तटस्थता की ब्रिटिश अवधारणा के घटकों की निम्न सूची एस. लाल ने तैयार की है:

1. सभी राजनीतिक पूर्वाग्रहों से लोकसेवक की मुक्ति में जनता का विश्वास;

2. चाहे कोई भी राजनीतिक दल सत्ता में क्यों न हो, लोकसेवकों से निष्ठावान सेवा प्राप्त करने के मामले में मंत्री का विश्वास ।

3. कर्मचारियों का ऊँचा मनोबल जोकि इस विश्वास पर आधारित है कि पदोन्नतियाँ या अन्य पुरस्कार राजनीतिक कारणों या पक्षपातपूर्ण गतिविधियों से नहीं, बल्कि केवल योग्यता से हासिल होते हैं ।

मास्टरमैन कमेटी ने कहा था कि- राजनीतिक निष्पक्षता की वर्तमान परंपरा में कोई कमजोरी ‘राजनीतिक’ लोकसेवा के निर्माण की ओर पहला कदम होगी । इस तरह की व्यवस्था जनहित और लंबे समय में स्वयं लोकसेवा के विरुद्ध होगी । तटस्थता की अवधारणा ब्रिटेन से शुरू होकर ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, भारत तथा अन्य देशों में फैल गयी ।

संयुक्त राज्य अमेरिका:

इस देश में लोकसेवा की तटस्थता के विचार को हूवर आयोग ने निम्न प्रकार से सामने रखा था:

1. लोक सेवाओं की सभी राजनीतिक गतिविधियों से दूर रहना चाहिए और राजनीति के मामले में अपनी तटस्थता को सुरक्षित रखना चाहिए ।

2. इसका अर्थ है कि उनको प्रशासन की उन नीतियों के प्रति भावनात्मक लगाव से बचना चाहिए जिनको न तो वे स्वीकार सकते हैं और न ही बदल सकते हैं । उनको नए नेताओं के साथ मेल-मिलाप से काम करना चाहिए ।

3. वरिष्ठ लोकसेवक आवश्यक रूप से उन राजनीतिक गतिविधियों से अलग रहेंगे जो निष्पक्ष रूप से सरकारी काम करने की उनकी क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं या उनको व्यक्तिगत रूप से किसी राजनीतिक पार्टी या उसकी नीतियों के निकट लाती हैं ।

4. लोकसेवक को प्रेस में कोई भी सार्वजनिक या निजी वक्तव्य नहीं देने चाहिए सिवाय उनके जिनकी प्रकृति औपचारिक हो । उसे राजनीतिक अथवा विवादास्पद सार्वजनिक भाषण नहीं देने चाहिए ।

अभिधारणा/मान्यताएँ (Assumptions):

लोकसेवा में तटस्थता की अवधारणा का समर्थन निम्न अभिधारणाओं/मान्यताओं के आधार पर किया जाता है:

1. बहुदलीय प्रणाली वाले उदारवादी जनतंत्रों में सरकार की विचारधारा समय-समय पर होने वाले चुनावों के कारण बदलती रहती है । इस स्थिति में सरकारी कामकाज को कुशलता से चलाने के लिए लोकसेवा की तटस्थता पहली शर्त है । इस प्रकार यह लोकसेवकों को बदलती हुई सरकारों का काम समान उत्साह और ईमानदारी से करना आसान करती है ।

2. नौकरशाही तटस्थता का विचार योग्यता प्रणाली की देन है जिसमें लोकसेवकों का चयन, वेतन, उनकी पदोन्नति और पद पर उनका बना रहना । उनके द्वारा प्रदर्शित उपयुक्तता पर आधारित है । अत: तटस्थता से एक निष्पक्ष और अराजनीतिक लोकसेवा मिलती है ।

3. जेराल्ड ई. कैंडेन के अनुसार तटस्थ नौकरशाही की अच्छाइयों अर्थात स्थायित्व, निरंतरता, व्यावसायिकता और विश्वसनीयता उसकी रूढ़िवादिता, विस्तारवादिता और यथास्थितिवाद जैसी बुराइयों की तुलना में कहीं अधिक भारी है ।

4. संयुक्त राष्ट्र संघ पुस्तिका के अनुसार- ”राजनीतिक तटस्थता योग्यता प्रणाली का अनिवार्य अंग है क्योंकि यह सुनिश्चित करती है कि पेशेवर अधिकारी अपने से संबंधित प्रत्येक मामले में सरकार को परामर्श और सहायता देने तथा उसकी आलोचना करने में पूर्णतया निष्पक्ष रहेंगे ।”

5. ‘तटस्थ नौकरशाही’ के विकल्प के रूप में ‘पद पुरस्कार नौकरशाही’ या ‘राजनीतिकृत नौकरशाही’ वांछनीय नहीं क्योंकि तटस्थ नौकरशाही स्थायी और योग्य है ।

6. मास्टरमैंन कमेटी के अनुसार- ”सार्वजनिक हित सरकारी संरचना के एक अनिवार्य अंग के रूप में लोकसेवा से राजनीतिक निष्पक्षता तथा उस निष्पक्षता में विश्वास की माँग करता है ।”

परंतु लोकसेवा की परंपरागत अवधारणा की आलोचना विभिन्न लेखकों ने इस प्रकार की है:

ब्रायन चैपमैन- “सार्वजनिक पद पर तटस्थता अंत में नैतिक भ्रष्टाचार की ओर ले जाती है । यदि सभी सरकारों की सेवा समान निष्पक्षता और वफादारी से की जाती है, तो उन जर्मन अधिकारियों की आलोचना का कोई आधार नहीं है, जिन्होंने हिटलर की सेवा अपनी पूरी सामर्थ्य के साथ की थी ।”

जवाहरलाल नेहरू- ”लोकसेवकों के मानसिक दृष्टिकोण का क्षरण होता जा रहा है ।”

इंदिरा गांधी- ”हमें ऐसे लोकसेवक चाहिए जो देश के विकास हेतु प्रतिबद्ध और कार्यों में व्यक्तिगत रूप से शामिल हों ।”

एप्पलबी- ”वर्तमान में पूरा प्रशासन राजनीतिक है क्योंकि इसे जनहितों के प्रति उत्तरदायी होना चाहिए ।”

हार्लेंड क्लेवलैंड- ”तटस्थता पर अत्यधिक जोर सम्पूर्ण सरकार को तटस्थता की ओर ले जाएगा ।”

राजनीतिकृत नौकरशाही (The Politicised Bureaucracy):

तटस्थ नौकरशाही की अवधारणा के कमजोर तथा अप्रचलित हो जाने (विशेष रूप से दूसरे विश्व युद्ध के बाद) के फलस्वरूप राजनीतिकृत नौकरशाही की माँग बढ़ गई ।

ओ.पी. द्विवेदी और आर. बी. जैन ने राजनीतिकृत नौकरशाही की व्याख्या करते हुए कहा है कि- ”यह ऐसी नौकरशाही है जो किसी न किसी सीमा तक, चेतन या अचेतन रूप से, मुख्यधारा के राजनीतिक दल या दलों से जुड़ी या उनसे प्रभावित होती या प्रभावित करती है; चाहे ऐसे दल सत्ता में हो या विरोधपक्ष में ।”

द्विवेदी और जैन ने नौकरशाही के राजनीतिकरण की सीमा के अनुसार उनको निम्न चार प्रवर्गों में बाँटा है:

1. अराजनीतिक नौकरशाही तटस्थ नौकरशाही के समान है जिसमें वह राजनीतिक गतिविधि में शामिल नहीं होती और गैर-राजनीतिक बनी रहती है ।

2. अर्द्ध-राजनीतिक नौकरशाही, राजनीतिक कार्यपालिका के प्रभाव में रहती है और दलीय नीतियों के आधार पर काम करती है । कार्मिक प्रशासन के मामलों में दल की दखलंदाजी सीमित होती है ।

3. प्रतिबद्ध नौकरशाही सत्ताधारी राजनीतिक दल की नीतियों और कार्यक्रमों के प्रति प्रतिबद्ध होती है । राजनीतिक गतिविधियों में लोकसेवक बढ़-चढ़कर भाग लेते हैं । कार्मिक प्रशासन के भर्ती, स्थानांतरण, पदोन्नति जैसे मामलों में दल का हस्तक्षेप बहुत अधिक होता है ।

4. पूर्णतया राजनीतिक नौकरशाही, स्वयं को शासक दल की विचारधारा के साथ जोड़ती है और इसके हितों की सेवा करती है । यह पूर्व सोवियत संघ जैसे एक दलीय सर्वसत्तावादी राज्यों में होती है । कार्मिक प्रशासन के मामलों में दल का असीमित और पूर्ण दखल होता है । वास्तव में राज्य नौकरशाही और दलीय नौकरशाही के ढांचे एक-दूसरे पर अधिव्याप्त रहते हैं ।

अनामिकता (Anonymity):

अनामिकता का अर्थ है कि लोकसेवक को दोष या प्रशंसा की परवाह किए बिना पर्दे के पीछे से काम करते रहना चाहिए । मोहित भट्टाचार्य कहते हैं- ”अनामिकता का अर्थ था कि लोकसेवक राजनीतिज्ञ को केवल पीछे से सलाह देगा और राजनीति के शोरगुल तथा उन्माद के सामने आने से बचा रहेगा ।”

अनामिकता का मानदंड अपेक्षा करता है कि मंत्री के अधीन कार्यरत लोकसेवक के कार्यों का जवाब संसद में मंत्री को देना है और इस प्रकार सांसदों की आलोचना से उसका बचाव करना है । इसका अर्थ है कि उसके अधीन काम कर रहे लोकसेवकों के सभी सही-गलत कार्यों की पूरी जिम्मेदारी मंत्री लेता है । मंत्री अपना मंत्रालय/विभाग चलाता है और उसकी गतिविधियों के लिए वह राजनीतिक तौर पर उत्तरदायी है । उसका मुख्य सरोकार नीति से है और नीति संबंधी निर्णयों पर वह अपने सचिव से सलाह लेता है ।

कार्यपद्धति का निर्धारण मंत्री करता है । नीति के अच्छे और बुरे परिणामों के लिए संसद में जवाबदेह केवल मंत्री होता है न कि सचिव । अत: अनामिकता का मानदंड मंत्रीय उत्तरदायित्व का प्रतिरूप है अर्थात अनामिकता का सिद्धांत मंत्रीय उत्तरदायित्व के सिद्धांत के साथ-साथ चलता है ।

भारत और ब्रिटेन ने सरकार की संसदीय प्रणाली को अपनाया है । इसका आधारभूत सिद्धांत सामूहिक उत्तरदायित्व का सिद्धांत है । यह सिद्धांत कहता है कि अपने कार्यों और नीतियों के लिए कार्यपालिका संसद के प्रति उत्तरदायी होगी ।

अत: मंत्रालय/विभाग के प्रत्येक गलत या सही कार्य के लिए मंत्री को संसद में उत्तर देना होगा और अपने अधीन काम कर रहे लोकसेवक को संसद की आलोचना से बचाना होगा । यहाँ यह उल्लेख किया जाना चाहिए कि अनामिकता का सिद्धांत लोकसेवक के कानूनी अथवा उचित कार्यों के मामले में लागू होता है, गैरकानूनी और अनुचित कार्यों के संबंध में नहीं ।

दूसरे शब्दों में, मंत्री को उस लोकसेवक का बचाव करना पड़ता है जिसने उसके निश्चित आदेशों को लागू किया है या मंत्री द्वारा अपनाई गई नीति के अनुसार काम किया है । लेकिन मंत्री के लिए ऐसे लोकसेवक के कार्यों का उत्तर देने की जरूरत नहीं जो अपने निजी स्वार्थों के लिए सत्ता के दुरूपयोग का या आपराधिक कार्यों अथवा अन्य अनुचित तथा गैरकानूनी कार्यों का दोषी है ।

इन तमाम मामलों में लोकसेवक व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी होता है और कानून के अंतर्गत उसे दोषी घोषित किया जा सकता है । लोकसेवा अनामिकता के मानदंड से शासित होती है, अत: यह संसद के प्रति नहीं, बल्कि राजनीतिक कार्यपालिका (मंत्री) के प्रति जवाबदेह है ।

चूंकि मंत्री संसद का जवाबदेह है इसलिए वह जोर देता है कि लोकसेवक की जवाबदेही उसके प्रति होगी । तटस्थता सिद्धांत की तरह आज के दौर में अनामिकता सिद्धांत को भी खंडित कर दिया गया है । भारत और इंग्लैंड दोनों में कुछ लोकसेवकों को नामित किया गया और उनको दोषी कहा गया ।

भारत में लोकसेवकों के कार्यकलापों के लिए मंत्री के उत्तरदायित्व का प्रश्न सर्वप्रथम 1957 में मूंधड़ा कांड में सामने आया था । इस मामले में राष्ट्रीयकृत जीवन बीमा निगम के 1.25 करोड़ रुपये एक निजी प्रतिष्ठान के शेयर खरीदने में खर्च कर दिए गए थे ।

जब यह मामला चिंता का विषय बन गया तो तत्कालीन वित्तमंत्री (टी.टी. कृष्णमाचारी) और प्रधान वित्त सचिव (एच.एम. पटेल) ने एक-दूसरे पर दोषारोपण किए थे । परिणामस्वरूप 1958 में भारत सरकार ने एक सदस्यीय आयोग नियुक्त किया, इसे एम.सी. छागला आयोग कहा गया । इसका काम मूंधड़ा सौदे के तथ्यों और औचित्य की जाँच करना था ।

अपनी रिपोर्ट में आयोग ने निर्णय दिया था संवैधानिक रूप से उसके सचिव द्वारा किए गए कार्यों के लिए मंत्री उत्तरदायी है । इस प्रकार छागला के आयोग ने मंत्रीय उत्तरदायित्व और लोकसेवा की अनामिकता के मानदंड के सिद्धांत का समर्थन किया । परिणामस्वरूप वित्तमंत्री ने त्यागपत्र दे दिया ।