सिविल सेवा और समाज में इसकी भूमिका | Read this article in Hindi to learn about:- 1. लोकसेवा का अर्थ और विशेषताएँ (Meaning and Features of Civil Society) 2. विकासशील समाजों में भूमिका (Role in the Developing Societies).
लोकसेवा का अर्थ और विशेषताएँ (Meaning and Features of Civil Society):
आधुनिक राज्य में लोक प्रशासन का एक महत्वपूर्ण पक्ष है- कार्मिक प्रशासन । हर्मेन फाइनर का यह कथन सही है- ”लोक प्रशासन का संप्रभु कारक कर्मचारी है ।”
कार्मिक प्रशासन को ‘जनशक्ति प्रबंधन’, ‘कार्मिक प्रबंधन’, ‘श्रम कल्याण प्रबंधन’ इत्यादि भी कहते हैं । परंतु ‘कार्मिक प्रशासन’ शब्द का अर्थ अधिक व्यापक है । इसका सरोकार सरकार में कार्मिकों या कर्मचारियों के वर्गीकरण, भर्ती, प्रशिक्षण, पदोन्नति, पारिश्रमिक, अनुशासन और सेवानिवृत्ति सुविधाओं से है ।
लोकसेवा का अर्थ निम्नलिखित वक्तव्यों से स्पष्ट होता है:
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ब्रिटिश टॉमलिन आयोग (1929-31)- “लोकसेवा के अंतर्गत राजशाही के वे सेवक आते हैं (राजनीतिक अथवा न्यायिक पदाधिकारियों के अतिरिक्त) जिनको नागरिक (असैनिक) पद पर सेवा में रखा जाता है और जिनके वेतन का भुगतान पूर्णत: और प्रत्यक्ष तौर पर संसद द्वारा स्वीकृत धन से किया जाता है ।” हर्मेन फाइनर- “लोकसेवा, स्थायी, वैतनिक तथा कार्यकुशल अधिकारियों की व्यावसायिक संस्था है ।”
एनसाइक्लोपीडिया ऑफ ब्रिटानिका- “लोकसेवा एक गैर-राजनीतिक क्षमता के साथ एक राज्य के नागरिक मामलों में नियोजित पेशेवर एवं पूर्णकालिक अधिकारियों का एक निकाय है ।” ई.एन.ग्लेडन- “लोकसेवा से अपेक्षा की जाती है कि वह निष्पादन से चयनित, प्रशासनिक रूप से कार्यसक्षम, राजनीतिक तौर पर तटस्थ और समाज के प्रति सेवा की भावना से ओतप्रोत हो ।”
लोकसेवा की विशेषताएँ निम्न हैं:
(i) इसमें सैनिक, न्यायिक और पुलिस सेवाओं के लोग शामिल नहीं होते ।
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(ii) इसमें वे लोग भी शामिल नहीं होते हैं जो राजनीतिक पदों पर या राज्य के लिए अवैतनिक पद पर काम करते हैं ।
(iiii) यह अव्यवसायिक राजनीतिज्ञों के विपरीत व्यावसायिक प्रशासकों की संस्था है ।
(iv) निष्पक्ष चयन अर्थात् इसके सदस्यों का चयन पार्टी के आधार पर निर्वाचित होने वाले राजनीतिज्ञों के विपरीत खुली प्रतियोगिता के द्वारा होता है ।
(v) उनको नियमित रूप से राज्य के द्वारा भुगतान किया जाता है । लोकसेवा में रहते हुए लोकसेवकों को निजी लाभ का प्रोत्साहन प्राप्त नहीं होता ।
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(vi) इसके सदस्य सार्वजनिक सेवा को जीवनभर के कैरियर के तौर पर लेते हैं, अत: यह एक कैरियर सेवा है ।
(vii) लगातार प्रशिक्षण और कार्य अनुभव के कारण ये अपने व्यवसाय के विशेषज्ञ बन जाते हैं, इस अर्थ में इसके सदस्य कार्यकुशल होते हैं ।
(viii) यह श्रेणी क्रम सिद्धांत के आधार पर संगठित होती हैं जिसमें आदेश निचले पद से सबसे ऊपर की ओर पिरामिड की तरह एक कड़ी में फैलते हैं ।
(ix) तटस्थता अर्थात् इसके सदस्य अलग-अलग राजनीतिक सरकारों का कार्य तटस्थता पूर्वक करते हैं ।
(x) अनामिकता अर्थात् यह बिना किसी प्रशंसा अथवा निंदा के काम करती है ।
लोकसेवा का विकासशील समाजों में भूमिका (Role of Civil Service in the Developing Societies):
भारत जैसे विकासशील समाजों में लोक सेवा अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है ।
इसके निम्नलिखित कार्यकलाप हैं:
नीति कार्यान्वयन:
राजनीतिक कार्यपालिका द्वारा तय की हुई नीतियों का कार्यान्वयन लोकसेवा का सबसे महत्त्वपूर्ण और बुनियादी कार्य है । कल्याणकारी राज्य के लक्ष्यों, अर्थात सामाजिक समानता, आर्थिक विकास इत्यादि (भारत में संविधान के निदेशक सिद्धांतों के अनुसार) को प्राप्त करने के लिए लोकसेवक कानूनों और नीतियों को लागू करते हैं ।
नीति निरूपण:
राजनीतिक कार्यपालिका का कार्य है- नीति निरूपण और नीति निर्धारण । लेकिन इसमें लोकसेवकों की भूमिका सक्रिय होने लगी है । नीति निर्माण में सूचना उपलब्ध कराकर वे मत्रियों की सहायता करते हैं तथा उनको सलाह देते हैं । राजनीतिक कार्यपालक गैर-पेशेवर होते हैं, अत: वे नीतियों की जटिलताओं को समझ नहीं सकते हैं और इसलिए उनको पेशेवर लोकसेवकों की विशेषज्ञ सलाह पर निर्भर होना पड़ता है ।
प्रदत्त विधि निर्माण:
इस अर्द्ध-विधायी कार्य को लोकसेवकों द्वारा किया जाता है । समय की कमी, काम के दबाव और विधि-निर्माण की बढ़ती हुई जटिलताओं के कारण विधायिका कानूनों की रूपरेखा तैयार करती है और इसके विवरण तैयार करने का अधिकार कार्यपालिका को सौंप देती है ।
इस प्रकार विधायिका द्वारा अधिनियमित मूल कानून की सीमा में उप-कानूनों, नियमों एवं विनियमों के निर्माण का कार्य लोकसेवक करते हैं । प्रदत्त विधि निर्माण को कार्यकारी विधि निर्माण या अधीनस्थ विधि निर्माण भी कहा जाता है ।
प्रशासनिक अधिनिर्णय:
इस अर्द्ध-न्यायिक कार्य को लोकसेवकों द्वारा किया जाता है । राज्य और नागरिकों के बीच विवादों का निपटारा लोकसेवक करते हैं । इस कार्य के लिए न्यायाधीश लोकसेवकों के साथ प्रशासनिक अधिकरण स्थापित किए जाते है । भारत में आयकर अपील अधिकरण, औद्योगिक अधिकरण, किराया अधिकरण और रेलवे दर अधिकरण इत्यादि ऐसे अधिकरणों के कुछ उदाहरण हैं । ये अधिकरण सामान्य न्यायालय प्रणाली से बाहर काम करते हैं ।
उपरोक्त के साथ-साथ लोकसेवक निम्न कार्य भी करते हैं:
(i) प्रशासनिक नियोजन ।
(ii) सार्वजनिक उपक्रमों का प्रशासन ।
(iii) संसद तथा इसकी समितियों के प्रति मंत्रियों के उत्तरदायित्वों को पूरा करने में उनकी सहायता करना ।
(iv) राज्य के वित्तीय कार्यों का संचालन करना ।
(v) संगठन और उपायों द्वारा प्रशासन में सुधार लाना ।
(vi) जनसंपर्क ।
नौकरशाही के प्रकार (Types of Bureaucracy):
अपनी पुस्तक दि एडमिनिस्ट्रेटिव स्टेट (प्रशासनिक राज्य) में एफ. एम. मार्क्स नौकरशाही को चार स्तरों में वर्गीकृत करते हैं:
1. अभिभावक,
2. जातिगत,
3. संरक्षण और
4. योग्यता मूलक ।
1. अभिभावक नौकरशाही:
इस प्रणाली में लोकसेवकों को न्याय और सामाजिक कल्याण का अभिभावक माना जाता है । उनका चुनाव उसकी शिक्षा के आधार पर होता है और फिर उनको सही आचरण का प्रशिक्षण दिया जाता है ।
मार्क्स ऐसी नौकरशाही के दो उदाहरण देते हैं- प्राचीन चीनी नौकरशाही (काल के उदय तक- 960 ए.ई.) और सत्रहवीं तथा अठारहवीं शताब्दी (1640-1740 ए.ई.) के दौरान प्रशिक्षण नौकरशाही । कन्फ्यूशियस की शिक्षाओं के प्रभाव में चीन के प्राचीन नौकरशाहों ने अनुकरणीय जीवन प्रदर्शित किया ।
मार्क्स के शब्दों में- ”क्लासिकी के अनुसार नौकरशाही उचित आचरण में प्रशिक्षित विद्वान अधिकारी वर्ग था ।” परंतु मार्क्स यह भी कहते हैं कि इस प्रकार की नौकरशाही में परंपरावादी, रुढिवादी, आडंबरपूर्ण और शाब्दिक बनने की संभावना रहती है ।
2. जातिगत नौकरशाही:
मार्क्स के अनुसार इस प्रकार की नौकरशाही नियंत्रक स्थितियों में बैठे हुए व्यक्तियों के वर्ग संयोजन से पैदा होती है । इस प्रणाली के अंतर्गत केवल उच्च जातियों और वर्गों के लोग ही लोकसेवक बन सकते हैं । उदाहरण के लिए प्राचीन भारत में प्रशासनिक पदों पर केवल ब्राह्मण और क्षत्रिय ही नियुक्त किए जाते थे । मार्क्स कहते हैं कि इस तरह की नौकरशाही एक अन्य रूप में उच्च पदों के लिए योग्यता को ऐसी व्यवस्थाओं से जोड़ने से भी प्रकट होती है जो जाति या वर्ग को वरीयता देती हैं ।
उदाहरण के लिए कुछ समय पहले तक ब्रिटिश लोकसेवा के सदस्य कैंब्रिज और ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालयों के स्नातकों में ही बनाए जाते थे । ये धनी (कुलीन तंत्रीय) परिवारों के होते थे । विलोबी ने इसका वर्णन कुलीतंत्रीय कार्मिक प्रणाली के रूप में किया है ।
3. संरक्षण नौकरशाही:
इस प्रणाली के अंतर्गत, लोकसेवा में भर्ती व्यक्तिगत कृपा या राजनीतिक पुरस्कार पर आधारित होती है । इसको ‘पदपुरस्कार पद्धति’ (Spoil System) भी कहते हैं । इस परंपरा की शुरूआत संयुक्त राज्य अमरीका में हुई थी । 19वीं सदी के पूर्वार्द्ध तक यह इंग्लैंड में भी प्रचलित थी ।
4. योग्यता मूलक नौकरशाही:
लोकसेवा का यह सबसे प्रचलित प्रकार है जिसने संरक्षण नौकरशाही का स्थान लिया है । इस प्रणाली में लोकसेवकों का चयन और नियुक्ति केवल उनकी योग्यता के आधार पर ही की जाती है । सरकारी नौकरियों को प्रतिभा के लिए खोल दिया जाता है ।
मार्क्स के शब्दों में- ”योग्यता मूलक नौकरशाही वस्तुगत मानदंडों, विशेषतया प्रवेश के सिद्धांत से नियंत्रित होती है जो लिखित परीक्षा के परिणाम द्वारा अनुप्रमाणित निर्धारित योग्यता पर आधारित होता है । अत: नियुक्त होने के पश्चात सफल प्रत्याशी किसी प्रायोजक या संरक्षक के व्यक्तिगत रूप से ऋणी नहीं होते ।”
योग्यता प्रणाली के निम्न तत्व हैं:
i. खुली प्रतियोगी परीक्षा द्वारा भर्ती,
ii. पद का आजीवन कार्यकाल अर्थात् सदव्यवहार के दौरान कार्यकाल,
iii. सेवा के दौरान प्रशिक्षण कार्यक्रम,
iv. पद स्थिति का वर्गीकरण,
v. वेतन और भत्तों के प्रति तार्किक उपागम,
vi. योग्यता सिद्धांत आधारित पदोन्नति अर्थात योग्यता एवं उपलब्धियाँ,
vii. सेवानिवृत्ति कार्यक्रम ।
नौकरशाही की बुराइयाँ (Evils of Bureaucracy):
कल्याणकारी रुझान रखने वाले आधुनिक राज्यों में नौकरशाही की भूमिका और शक्ति में भारी बढ़ोतरी हुई है । प्रशासन में अपनी परंपरागत भूमिका के साथ-साथ यह विधायी और न्यायिक क्षेत्रों में भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने लगी है । नौकरशाही की बढ़ती हुई भूमिका तथा उसके हाथों में शक्तियों के केंद्रीयकरण की आलोचना अनेक प्रतिष्ठित आलोचकों ने की है ।
लार्ड हेवर्ट:
ब्रिटेन के इस विख्यात न्यायविद् ने प्रदत्त विधि निर्माण तथा प्रशासनिक अधिनिर्णय के कार्यों को लोकसेवक द्वारा लिए जाने की आलोचना की है । उनका मत है कि नौकरशाही के हाथों शक्तियों के ऐसे केंद्रीयकरण से नागरिकों की स्वतंत्रता को खतरा पैदा हो जाएगा । इस घटना को उन्होंने ‘नई तानाशाही’ की संज्ञा दी ।
सी.के. एलन:
प्रदत्त विधि निर्माण में वृद्धि का वर्णन उन्होंने ‘नौकरशाही की जीत’ के रूप में किया क्योंकि इससे नौकरशाही मजबूत होती है ।
एच.जे. लास्की:
हेवर्ट की तरह इनका भी विश्वास है कि नौकरशाही के हाथों में शक्ति एवं सत्ता के केंद्रीयकरण से लोगों के अधिकारों के प्रति समुचित सम्मान में कमी आती है । उन्होंने कहा कि ”नौकरशाही सरकार की वह व्यवस्था है जिसका नियंत्रण अधिकारियों के हाथ में इतनी पूर्णता के साथ होता है कि उनकी शक्ति आम नागरिक की स्वतंत्रताओं को खतरा पैदा कर देती है ।”
रैम्जे म्योर:
अपनी लोकप्रिय पुस्तक ‘हाउ ब्रिटेन इज गवर्नड’ (ब्रिटेन का शासन कैसे चलता है) में उन्होंने लोकसेवकों की बढ़ती हुई ताकत पर हमला किया है । उन्होंने कहा- ”हमारी सरकार की प्रणाली में नौकरशाही की ताकत बेहद ज्यादा है, चाहे वो प्रशासन में हो, विधि निर्माण में हो अथवा वित्त में । जनतंत्र के आवरण में यह फ्रेंकिन्स्टेन के दैत्य की तरह पली और बढ़ी है जो कभी-कभी अपने जन्मदाता को ही नष्ट करती प्रतीत होती है…..हमारी सरकार की प्रणाली में यह सबसे महत्त्वपूर्ण और सक्षम तत्त्व बन गई है, हालांकि कानून की दृष्टि से इसके पास कोई औपचारिक सत्ता शायद ही होती है………नौकरशाही मंत्रालय के उत्तरदायित्व के लबादे के नीचे पनपती है….लेकिन मालिक बन जाने पर यह विनाशकारी हो जाती है ।”
पार्किंसन:
1955 में पार्किंसन ने लोकसेवा के विस्तार की व्याख्या करते हुए एक नियम प्रतिपादित किया था । इसको आमतौर पर ‘नौकरशाही का उभरता पिरामिड’ कहते हैं । यह नियम कहता है कि लोकसेवा की संख्या और इसके आकार में तथा काम की मात्रा में बढ़ोतरी का एक-दूसरे से कोई संबंध नहीं है ।
दूसरे शब्दों में, नौकरशाही इस अर्थ में अपने आपको बनाए रखने की क्षमता रखती है कि लोकसेवकों में दिन-प्रतिदिन अपनी संख्या बढ़ाने की प्रवृत्ति होती है । जिसका काम के बोझ से कोई संबंध नहीं होता । पार्किंसन के अनुसार इसका कारण यह है कि वे ”एक-दूसरे के लिए काम निकालते हैं ।”
अत: नौकरशाही में अपने काम को बढ़ाने और अपने लिए नए कार्य पैदा करने की प्रवृत्ति होती है । परंतु नौकरशाही का एक सकारात्मक पक्ष भी है । इसने लोक प्रशासन को अधिक कार्यकुशल, विशेषज्ञिकृत, तर्कसंगत, पूर्वानुमेय तथा अवैयक्तिक बनाया है ।
विलियम ब्रेवरिज का यह कथन सही है कि- ”जनतंत्र को अगर अपने कामकाज का पता है तो उसे नौकरशाही से डरने की कोई आवश्यकता नहीं है ।” हरबर्ट मॉरिमन के अनुसार- ”नौकरशाही संसदीय जनतंत्र की कीमत है ।”