Read this article in Hindi to learn about the relationship between minister and civil servants in India.
अर्थ (Meaning):
भारत में प्रचलित संसदीय प्रणाली की सरकार में कार्यपालिका के दोनों रूपों को स्वीकार किया गया है अर्थात राजनीतिक कार्यकारी और स्थायी कार्यकारी । राजनीतिक कार्यकारियों की श्रेणी में प्रधानमंत्री, कैबिनेट मंत्री, राज्यमंत्री और उपमंत्री आते हैं ।
दूसरी ओर, स्थायी कार्यकारियों की श्रेणियों में लोक सेवक; अर्थात सचिव अपर सचिव, संयुक्त सचिव, उप सचिव और अन्य व्यावसायिक प्रशासक आते हैं । किसी मंत्रालय/विभाग में कार्यरत लोक सेवाओं का राजनीतिक प्रमुख मंत्री होता है और प्रशासनिक प्रमुख सचिव ।
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राजनीतिक कार्यपालक (कार्यकारी) को सत्ता आवधिक चुनावों के माध्यम से जनता से प्राप्त होती है और वह उस सत्ता का प्रयोग अपनी संवैधानिक स्थिति के अनुसार करता है । स्थायी कार्यकारी का चयन उसकी योग्यता और प्रवीणता के आधार पर होता है वह शक्ति अपनी प्रशासनिक पदस्थिति और तकनीकी कुशलता से प्राप्त करता है ।
सरकार की प्रणाली जनता की प्रभुसत्ता के सिद्धांत (जनता के हाथ में सर्वोच्च शक्ति) पर आधारित है इसलिए स्थायी कार्यपालिका-राजनीतिक कार्यपालिका से नीचे हैं क्योंकि वह (राजनीतिक कार्यपालिका) जनता का प्रतिनिधित्व करता है । मोहित भट्टाचार्य ने इस संबंध में ठीक ही कहा है कि ”संसदीय प्रणाली की सरकार में मंत्री की सर्वोच्चता और सचिव की अधीनस्थता स्वतः सिद्ध है ।”
संगत भूमिका (Relative Roles):
संसदीय सरकार में सुचारु और कुशल कार्य निष्पादन के लिए मंत्री (अर्थात राजनीतिक या अस्थायी कार्यपालक) और सचिव (लोक सेवक या स्थायी कार्यपालक) के मध्य उचित और सुसंगत तालमेल अति आवश्यक है ।
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मंत्री (अर्थात् गैर-आधिकारिक) निम्नलिखित कार्यों के लिए जिम्मेदार होता है:
1. नीति निर्धारण
2. महत्वपूर्ण मामलों पर निर्णय
3. नीतियों के कार्यान्वयन कार्य पर निगरानी
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4. महत्वपूर्ण प्रशासनिक मुद्दों पर निर्णय लेने के लिए
5. उच्च पदों पर नियुक्ति करने के लिए
6. उचित और वैध जन शिकायतों के समाधान हेतु प्रशासन में दखल देने
दूसरी ओर लोक सेवक (आधिकारिक) निम्नलिखित कार्यों के लिए जिम्मेदार है:
1. नीतियों और निर्णयों को कार्यान्वित करने
2. नीति निर्धारण कार्य के समय आवश्यक सूचनाएं और तथ्य तथा नीतिपरक निर्णय देने
3. अधीनस्थ कार्यों की देखरेख और उन्हें निर्देश देने
5. प्रशासन की निरंतरता बनाए रखने
फफनर ने राजनीतिक कार्यकारी और सिविल सेवक के बीच भेद को बहुत ही अच्छे ढंग से इस प्रकार विवेचित किया है:
मंत्रि और लोक सेवक के मध्य के संबंध निम्न सिद्धांतों में नियंत्रित हैं:
1. दोनों को अपने कार्यभारों को निभाते समय संवैधानिक प्रावधानों और संसदीय कानूनों का अनुसरण करना चाहिए ।
2. नीति निर्धारण का अंतिम प्राधिकार मंत्री का है ।
3. लोक सेवक को मंत्री की तमाम नीतियों और उसके निर्णयों को पूरी निष्ठा से कार्यान्वित करना चाहिए भले ही वे नीतियाँ और निर्णय लोक सेवक के परामर्श से अलग हों ।
4. लोक सेवक को पूरी आजादी है कि वह मंत्री को बिना किसी भय के स्पष्ट सलाह दे सकें ।
5. लोक सेवक को तटस्थता, निष्पक्षता और अनामिकता के सिद्धांत का पालन करना चाहिए । तटस्थता का आशय है कि किसी लोक सेवक को गैर राजनीतिक होना चाहिए तथा सत्ताधारी विभिन्न सरकारों में बिना किसी राजनीतिक भेदभाव के कार्य करना चाहिए ।
निष्पक्षता का अर्थ मोहित भट्टाचार्य के शब्दों में यह है- ”सामाजिक दबाव और ऊँच-नीच के स्वभाव में बदलाव की अनदेखी करने हुए पक्षपात रहित होकर कार्य करना ।” अनामिकता का तात्पर्य है कि लोक सेवक को मंच की पीछे से प्रशंसा अथवा निंदा की परवाह किए बगैर कार्य करना चाहिए ।
व्यवहार में संबंध (Relationship in Practice):
व्यवहार में मंत्री और लोक सेवक के बीच का संबंध परस्पर मतभेदों, विवादों बेचैनी और शंकाओं से घिरा रहता है । इसके कुछ महत्वपूर्ण उदाहरण ये हैं मंत्री और लोक सेवक के बीच परस्पर मतभेद की घटना स्वतंत्रता के बाद पहली बार वर्ष 1957 में ‘मूंधड़ा सौदा’ के मामले में हुई । इसमें राष्ट्रीयकृत जीवन बीमा निगम की 1.25 करोड़ रु. की राशि निजी क्षेत्र के शेयरों की खरीद के लिए व्यय की गई ।
जब इस मामले ने जोर पकड़ा तो तत्कालीन वित्त मंत्री (टी.टी. कृष्णभाचारी) और प्रधान वित्त सचिव (एच.एम.पटेल) ने दोष एक दूसरे पर मढ़ा । फलस्वरूप भारत सरकार ने तथ्यों और मूंधड़ा सौदे के औचित्य की जाँच के लिए वर्ष 1958 में एम.सी. छागला की अगुवाई में एक सदस्यीय आयोग की नियुक्ति की ।
छागला आयोग ने अपने रिपोर्ट में उल्लेख किया कि ”संवैधानिक तौर पर मंत्री उस कार्य के लिए जिम्मेदार है जिसे उसके सचिव ने किया है । मंत्री महोदय न तो सचिव के कुकृत्य का आश्रय ले सकते है और न ही अपने कार्य को नकार सकते हैं ।”
अतः छागला अभोग ने मंत्री की जवाबदेही के सिद्धांत और लोक सेवक के अनामिकता के मानक को सही करार दिया । फलस्वरूप वित्त मंत्री ने त्यागपत्र दे दिया । पुन: वर्ष 1966 में, तत्कालीन गृह मंत्री (गुलजारी लाल नंदा) ने अपने गृह सचिव (एल.पी.सिंह) के असहयोगपूर्ण रवैये की शिकायत प्रधानमंत्री से करते हुए यह अनुरोध किया कि एल.पी. सिंह की जगह कोई नया गृह सचिव नियुक्त किया जाए । प्रधानमंत्री ने नंदा के अनुरोध को स्वीकार नहीं किया । फलस्वरूप गुलजारी लाल नंदा ने त्यागपत्र दे दिया ।
पुन: वर्ष 1971 में रेल मंत्री (के. हनुमंतैया) को रेलवे बोर्ड के तत्कालीन अध्यक्ष (बी.सी. गांगुली) के दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ा । रेल मंत्री और रेलवे बोर्ड के अध्यक्ष के बीच कई मुद्दों पर विशेषतः रेलवे में वित्तीय प्रशासन के मुद्दे पर मतभेद था । सरकार द्वारा बी.सी.गांगुली की सेवाएँ समाप्त कर दिए जाने पर उन्हें काफी अपमानजनक परिस्थितियों में जाना पड़ा ।
वर्ष 1987 में भारत के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कृषि सचिव (सी.एस.शास्त्री) ग्रामीण विकास सचिव (डी.बंधोपाध्याय) और विदेश सचिव (ए.पी.वेंकटेशन) के साथ दुर्व्यवहार किया था । वर्ष 1993 में गृह सचिव ने गृहमंत्री की कार्यशैली के कारण मतभेद होने पर अपने पद से त्यागपत्र दे दिया था ।
परस्पर मतभेद के कारण (Reasons for Conflict):
1. मंत्री आमतौर पर लोक सेवकों की स्वतंत्र स्पष्ट और निष्पक्ष सलाह को प्रोत्साहित नहीं करते । इससे परस्पर समझ और सहयोग की भावना को ठेस लगती है । प्रशासनिक सुधार आयोग का कथन है ”बहुत से मंत्रियों में अपने सचिव या सहायक की स्वतंत्र और निष्पक्ष सलाह को मानने के प्रति अनिच्छा का भाव होता है ।”
2. मंत्री और लोक सेवक के बीच राजनीतिक संबंध बनने के कारण लोक सेवा का राजनीतिकरण ।
3. मंत्रियों द्वारा अपनी अनुशासनात्मक शक्तियों का प्रयोग कर लोक सेवकों को स्थानांतिरत और निलंबित किए जाने के कारण लोक सेवकों द्वारा ठीक कार्य न किया जाना ।
4. मंत्रियों और लोक सेवकों में गुटबाजी, दलीय प्रतिद्वंदिता और जातिवाद की भावना का व्याप्त होना ।
5. ‘एक प्रबल दलीय प्रणाली’ (अर्थात् कांग्रेस) का अंत और फलस्वरूप राजनीतिक अस्थिरता का माहौल । इससे परस्पर विश्वास बनाए रखना आसान नहीं रहा ।
6. मंत्रियों और लोक सेवकों को अपनी-अपनी भूमिका के बारे में उचित समझबूझ का अभाव । मंत्रियों द्वारा प्रशासक के दिन-प्रतिदिन के कार्य में आमतौर दखल देना और लोक सेवकों द्वारा महत्वपूर्ण मामलों को मंत्रियों की जानकारी में न लाया जाना ।
7. मंत्रियों की असफलता का आरोप लोक सेवकों के मत्थे मढ़ा जाना । छागला आयोग ने इस संदर्भ में कहा है कि ”मंत्री की जिम्मेदारी के सिद्धांत के दो आयाम हैं । अपने प्राधिकार के क्षेत्र में मंत्री को पूर्ण स्वायत्तता प्राप्त है । सिद्धांतत: मंत्री को अपने सेवकों द्वारा किए गए कार्य की पूरी जिम्मेदारी लेनी चाहिए ।”
8. लोक सेवकों द्वारा अपनी सामाजिक और निजी मंडली में मंत्रियों की आलोचना किए जाने के कारण मंत्रीगण की भी वैसी ही प्रतिक्रिया होनी ।
9. लोक सेवकों का मंत्रियों की कठिनाइयों और समस्याओं के प्रति संवदेनशील न होना । लोक सेवक उन मंत्रियों की राजनीतिक भूमिका को नजरअंदाज करते हैं, जो व्यक्तियों और समूहों दोनों के हितों का छगन रखने की कोशिश करते है ।
10. मंत्री और लोक सेवक, ऐतिहासिक भूमिका, सामाजिक पृष्ठभूमि, व्यावसायिक प्रतिबद्धता, मानसिक योग्यता और दृष्टिकोण आदि की दृष्टि से एक दूसरे से भिन्न हैं ।
प्रशासनिक सुधार आयोग की सिफ़ारिशें (ARC Recommendations):
इन आयोग ने मंत्रियों और लोक सेवकों के संबंध को संतुलित रखने के लिए निम्नलिखित सिफ़ारिशें कीं:
1. ऐसे मामलों में जहाँ सरकार की नीति स्पष्ट नहीं हो या नीति से कुछ विचलन अथवा किसी महत्त्वपूर्ण विषय पर मंत्रियों और सचिव में मतभेद हो वहाँ सभी प्रमुख निर्णयों को कारण बताते हुए संक्षेप में लिखित में ला देना चाहिए ।
2. मंत्रियों को निर्भीकता का वातावरण तैयार करना चाहिए । उन्हें अपने नीतियों और आदेशों को कार्यान्वित करने में सचिवों का आवश्यक मार्गदर्शन करना चाहिए ।
3. प्रधानमंत्री को मंत्रिमंडल और केंद्रीय कार्मिक एजेंसी के माध्यम से लोक सेवकों में किसी मंत्री विशेष से व्यक्तिगत और अहितकर संबंध को रोकने की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए ।
4. लोक सेवकों द्वारा किए गए घोर अन्याय, उसकी गंभीर चूक अथवा कुप्रशासन के मामलों के सिवाय मंत्रियों को रोजमर्रा के प्रशासन में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए ।
अगर किसी नागरिक का अनुरोध या उसकी शिकायत किसी नियम, कार्यविधि अथवा नीति में संशोधन की माँग करती है, तो समस्या का समाधान करने के लिए सिर्फ संशोधन करना चाहिए । किसी व्यक्तिगत मामलों में उपकार करने के लिए नियमों में ढील नहीं देनी चाहिए ।
5. सचिवों तथा अन्य लोक सेवकों को मंत्रियों की कठिनाइयों के प्रति अधिक संवेदनशीलता प्रदर्शित करनी चाहिए और उनको बेहतर ढंग से समझाना चाहिए । उनको छोटे-मोटे समायोजनों तथा मूल सिद्धांतों से समझौता करने वाले अथवा ऐसे कार्यों के बीच अंतर करना चाहिए जो सेवाओं की कार्यकुशलता और उनके मनोबल पर भारी या स्थायी प्रभाव डाल सकते हों ।
6. मंत्री के प्रति सचिव का आधिकारिक संबंध निष्ठा का तथा सचिव के प्रति मंत्री का रिश्ता विश्वास का होना चाहिए ।