Read this article in Hindi to learn about:- 1. पद वर्गीकरण की अर्थ और परिभाषाएं (Meaning and Definition of Classification) 2. पद वर्गीकरण का आधार (Basis of Classification) 3. पद्धतियाँ (Methods) and Other Details.
पद वर्गीकरण की अर्थ और परिभाषाएं (Meaning and Definition of Classification):
इससे यह लाभ होता है कि प्रत्येक वस्तु के गुणों या विशेषताओं को पृथक्-पृथक् आंकने की झंझट नहीं करनी पड़ती । वर्ग आधारित वस्तुओं की पहचान स्पष्ट और आसानी से हो जाती है । वर्गीकरण की इस लाभपूर्ण विशेषता को ‘लोक सेवा’ में भी अपनाया गया ।
सरकार देश में सबसे बड़ी ‘नियोजक’ होती हैं । उसको पास लाखों कार्मिक विभिन्न पदों पर काम करते हैं । एक जैसे अनेक पद होते हैं, जिनके लिए एक ही विज्ञापन अपेक्षित होता हैं, जिनका एक समान वेतनमान होता हैं और एक जैसे कार्य-उत्तरदायित्व होते हैं । इन समान आधारों वाले पदों के लिए यह उपयुक्त होगा कि वे एक विशेष वर्ग में समूहबद्ध कर लिए जाएं ।
चूँकि पदों के उभयनिष्ठ समान लक्षण ”कार्य और उत्तरदायित्व” ही मुख्य रूप से होते हैं, अत: पदों का वर्गीकरण मुख्य रूप से इसी आधार पर किया जाता है । वस्तुत: हम कार्य के अनुसार पदों को निर्भित करते है, तत्पश्चात् उसकी योग्यता, वेतनमान का निर्धारण किया जाता हैं । ‘वर्गीकरण’ होने से ही कार्मिक प्रशासन की अन्य समस्याओं के भी समाधान मिलते हैं । विलोबी के अनुसार सार्वजनिक सेवाओं के वर्गीकरण एवं मानवीकरण पर ही सम्पूर्ण कार्मिक संरचना आधारित हैं ।
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अर्थ:
पद वर्गीकरण से आशय है, समान पदों को एक ही की में रखना । लोकसेवा में एक ही कार्य या सेवा या श्रेणी से संबंधित भी अनेक कार्मिक होते है, अतएव इनका समान प्रकृति के आधार पर समूहीकरण या वर्गीकरण भर्ती, वेतन, प्रशिक्षण आदि क्रियाकलापों को सरल, स्पष्ट और त्वरित बना देता है ।
बढ़ते लोक सेवा के आकार ने स्थापना व्यय (कार्मिकों पर व्यय) बहुत बढ़ा दिया हैं । अत: यह आवश्यक है कि इस व्यय का वस्तुनिष्ठ आकलन किया जाये । वर्गीकरण से ही यह संभव हैं ।
परिभाषाएं:
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एल. डी. व्हाइट- ”सम्पूर्ण रूप में वर्गीकरण योजना वह कंकाल तन्त्र हैं, जिस पर सेवाओं की जरूरतें निर्मित होती हैं ।”
एम. मार्क्स- ”वर्गीकरण का अर्थ हैं, कर्तव्यों-उत्तरदायित्वों की समानता के आधार पर पदों को समूहबद्ध करना ।”
डिमॉक- ”पद वर्गीकरण से अर्थ हैं, तुलनात्मक मुश्किलों और उत्तरदायित्वों के आधार पर पदों को छांटना और उनका पदसौपानिक अवस्था में श्रेणी करण करना ।”
पद वर्गीकरण का आधार (Basis of Classification):
वर्गीकरण की प्रत्येक योजना का मूलाधार ‘पद’ होता है । समान पदों को एक साथ रखने पर ही ‘वर्ग’ जन्म लेता हैं । एम.पी. शर्मा ने वर्गीकरण के तीन प्रमुख वर्ग बताये हैं- सेवा, श्रेणी, स्तर । सेवा भौगोलिक आधार पर (अखिल भारतीय या प्रान्तीय) तथा अधिकार या शक्ति के आधार पर (उच्च प्रशासनिक सेवा या अधिनस्थ सेवा) निश्चित होती हैं । श्रेणी भी पदों की शक्तियों के आधार पर उच्च (प्रथम या द्वितीय) या निम्न (तृतीय या चतुर्थ) हो सकती हैं । अधिक वेतन वाला पद उच्च सार का कहलाता है, जबकि कम वेतन वाला निम्न पद ।
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श्रेणी के भीतर अनेक वेतन स्तर हो सकते हैं । पदों को इन सेवाओं, श्रेणियों या स्तरों में उनकी स्थिति, अधिकार-उत्तरदायित्व की मात्रा, कार्य की प्रकृत्ति और अपेक्षित योग्यता के आधार पर समूहीकृत किया जाता है । अमेरिका में पद वर्गीकरण का प्रत्येक वर्ग ऐसे पदों से बनता है, जिनके समान कर्तव्य और उत्तरदायित्व होते है ।
पद वर्गीकरण की पद्धतियाँ (Methods of Classification):
पद वर्गीकरण को सभी देशों ने अपनी लोक सेवा का आधार बनाया है, लेकिन स्वयं पद वर्गीकरण के आधार सभी देशों में एक समान नहीं है ।
मोटे तौर पर दो प्रमुख आधार वर्गीकरण के दृष्टव्य होते हैं:
(1) स्थिति वर्गीकरण ।
(2) कर्तव्य या योग्यता वर्गीकरण ।
(1) स्थिति या स्तरीय वर्गीकरण (Runic Classification):
इसमें पदों का वर्गीकरण उनकी स्थिति या स्तर के आधार पर किया जाता है। इसमें काम का नहीं अपितु कार्मिकों का वर्गीकरण होता है । वस्तुत: यह सेवा और श्रेणी आधारित वर्गीकरण है, जिसमें पद का वेतन और उसका पदसोपान में स्तर दोनों ही इस बात पर निर्भर होते हैं कि वह किस सेवा और श्रेणी का पद हैं ।
वेतन और स्तर निर्धारण का कार्यों एवं उत्तरदायित्वों से संबंध नहीं होता । स्पष्ट हैं कि यह वर्गीकरण “समान कार्यों के लिए समान वेतन” के सिद्धान्त का अनुगमन नहीं करता । ब्रिटेन, जर्मनी, भारत, पाकिस्तान, मलेशिया, लाओस, फ्रान्स आदि देशों में वर्गीकरण की यहीं पद्धति प्रचलित है ।
लाभ:
स्तरीय या स्थिति वर्गीकरण की पद्धति वही प्रयुक्त होती है, जहां सेवा में सामान्यज्ञों का बोलबाला है ।
इसके अधोलिखित लाभ हैं:
1. यह कर्तव्य निरपेक्ष होती है अर्थात कार्यों में परिवर्तन का इस वर्गीकरण पर प्रभाव नहीं होता हैं । कार्मिक के कार्यों को जब चाहे बदला जा सकता हैं । इससे कार्यों का नवीनीकरण करने में आसानी होती हैं । कार्मिक के कार्यों में नवीनता आने से उसका उत्साह बना रहता है ।
2. यह जितनी समझने में आसान है, उतनी ही लागू करने में भी आसान है । मात्र सेवा या श्रेणी प्रदान करना होती हैं, कर्तव्यों की पहचान करने जैसा जटिल कार्य इसमें नहीं करना पड़ता ।
3. यह लोक सेवा की वृत्तीय संकल्पना (Career) के अनुकूल है । अत: योग्य और प्रतिभावान लोगों को आकर्षित करती हैं और सेवाओं में गतिशीलता प्रोत्साहित होती हैं ।
4. पद के स्थान पर ”सेवानिष्ठा” को प्रोत्साहित करती हैं ।
5. विशेषज्ञों की तुलना में सामान्यज्ञों को प्राथमिकता अर्थात व्यापक दृष्टिकोण की स्वीकृति ।
6. कार्य संचालन में सदैव नवीनता प्राप्त होने के अवसर मिलते है, जिससे कार्मिकों में गतिशीलता बनी रहती है ।
दोष:
स्तरीय वर्गीकरण के दोष इतने गम्भीर हैं, कि अधिकांश देशों में इसके स्थान पर ”पदयी वर्गीकरण” को अपनाया गया है । श्रम संघों ने भी ”समान कार्यों के लिए समान वेतन” के सिद्धान्त का उल्लंघन करने के कारण इसे एक सिरे से अस्वीकार कर दिया ।
इसके दोष अधोलिखित हैं:
1. समान कार्य के लिए समान वेतन के सिद्धांत का विरोध करती है ।
2. किसी भी स्थिति वाले पद के कर्तव्यों और अपेक्षित योग्यता की स्पष्ट व्याख्या नहीं होती ।
3. कार्मिकों के चयन, नियुक्ति के लिए सेवा शर्तों के उपयुक्त मापदण्ड निर्धारित नहीं हो पाते ।
4. विशेषज्ञों ओर परिणामस्वरूप विशेषीकरण दोनों के प्रतिकूल प्रणाली ।
5. यह पद के कार्यों को महत्व नहीं देती । फलत: कार्मिक के कार्य, निष्पादन का मूल्यांकन अपुरस्कृत रह जाता है ।
6. कार्मिक प्रशासन के आधारों यथा भर्ती, प्रशिक्षण, हस्तांतरण, पदोन्नति के लिए आवश्यक वैज्ञानिक मानकों को इस पद्धति में स्थापित करना मुश्किल है ।
7. योग्यता और कार्यकुशलता को महत्व नहीं ।
उपरोक्त दोष नागरकुटटी समिति (प्रशासनिक सुधार आयोग की एक अध्ययन समिति) ने भी गिनाए हैं ।
(2) पद या कर्तव्य वर्गीकरण (Positions or Duty Classification):
इसे योग्यता वर्गीकरण भी कहा जाता है । पदीय वर्गीकरण का मूल तत्व हैं- कार्य, उत्तरदायित्व और योग्यता की समानता । वे सब पद जिनके एक समान कार्य और दायित्व होते हैं, एक ही वर्ग में समूहीकृत कर लिए जाते हैं । अमेरिका, कनाडा, फिलीपिंस, ताईवान में यह प्रणाली शुद्ध रूप में प्रचलित है ।
वर्गीकरण की यह पद्धति अधिक वैज्ञानिक हैं । चुंकि प्रत्येक प्रकार के वर्गीकरण का आरंभ बिन्दु ”पद” होता है, अत: इसको केन्द्र में रखकर किया जाने वाला वर्गीकरण तब अधिक औचित्यपूर्ण हो जाता हैं, जब ”पद” के कार्य, उत्तरदायित्व, योग्यता जैसी महत्वपूर्ण विशेषताओं को आधार बनाया जाता हैं ।
पदीय वर्गीकरण का मूल तत्व यह हैं कि प्रत्येक पद के निश्चित कर्तव्य और दायित्व होते है, और उन्हें सम्पन्न करने हेतु विशिष्ट योग्यता अपेक्षित होती है । पद वर्गीकरण समान कार्य के लिए समान वेतन के सिद्धांत को लागू करने की मांग का परिणाम रहा है । इस वर्गीकरण का आरंभ पद से होता हैं, जैसा कि ग्लेनस्टाल ने कहा है “वर्गीकरण योजना में पद कच्चे माल के समान है और उससे निर्मित वर्ग क्रियाशील इकाई है ।”
परिभाषाएं:
साइमन के शब्दों में- “पद वर्गीकरण से आशय है कि वे सभी पद, जिनके समान कर्तव्य और दायित्व हो- भर्ती, भत्ते, प्रतिफल आदि को लेकर एक ही वर्ग में रखे जाये ।”
ग्लेन स्टाल के शब्दों में- ”पद वर्गीकरण में दायित्व एवं कर्तव्य का वही स्थान है जो दीवार में ईंटों का ।” ऐसे सभी पदों को जिनके कर्तव्य, दायित्व समान हैं, एक वर्ग (श्रेणी) में रख लिया जाता हैं इस वर्ग से ही पद की पहचान बनती है ।
समर्थक विद्वान- हरमन फाइनर, एल.डी. व्हाइट:
विशेषताएं:
1. एक श्रेणी के सभी पदों के लिए एक नाम का उपयोग ।
2. समान पदों के लिए समान भर्ती और प्रशिक्षण प्रणाली ।
3. कार्यों में एकरूपता, प्रत्येक वर्ग की विशिष्ट कार्य आधारित पहचान ।
4. एक श्रेणी के लिए एक समान योग्यता और वेतनमान ।
5. एक वर्ग के सभी पदों के कर्त्तव्यों, उत्तरदायित्वों और योग्यताओं की व्याख्या ।
लाभ:
1. कार्मिक को उसके कार्य दायित्व का बोध कराने में सफल ।
2. लोक सेवा में योग्यता पर अधिक बल ।
3. कार्मिकों के कार्यों का वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन संभव ।
4. समान कार्य के लिए समान वेतन के सिद्धांत का पालन ।
5. भर्ती का व्यापक क्षेत्र सुलभ ।
6. भर्ती, पदोन्नति, बजट आदि के लिए सर्वाधिक अनुकूल ।
7. उच्च विशेषीकरण संभव ।
दोष या सीमाएं:
पदीय वर्गीकरण पद्धति भी दोषमुक्त नहीं है । यद्यपि ये दोष इस पद्धति के दोष नहीं है, अपितु इसके मार्ग की अड़चने हैं । एक बार स्थापित होने के बाद मात्र तभी कठिनाइयाँ आती है, जब वर्तमान पद के कर्तव्यों, दायित्वों में परिवर्तन जरूरी हो या नये पद सृजित किये जाना हो ।
1. इस पद्धति को स्थापित करना ही सबसे बड़ी समस्या है । प्रत्येक पद के कर्तव्यों और दायित्वों की पहचान, उनकी स्पष्ट व्याख्या और समान पदों की छंटनी, यह सब बेहद श्रम साध्य तो हैं ही, व्यवहारिक रूप से मुश्किल भी है विशेषकर कर्तव्यों की स्पष्ट व्याख्या ।
2. यदि पद के कर्तव्यों में जरा भी हेर-फेर हो तो, प्रथम तो कार्मिक इसका विरोध करते है, दूसरे वर्गीकरण को पुन: समायोजित करना पड़ता है ।
3. पद वर्गीकरण स्थापित करना व्यय साध्य एवं विलंबकारी ।
4. विशेषज्ञों को महत्व जिससे सामान्यज्ञ नाराज हो सकते हैं ।
5. विकासशील देशों के लिए कम उपयुक्त क्योंकि इन देशों में प्रशासकों को विविध कार्य करने पड़ते हैं और उनमें निरंतर परिवर्तन होता रहता है ।
6. निश्चित योग्यता पर आधारित अर्थात् अतिरिक्त योग्यता को महत्व नहीं ।
भारत में पद वर्गीकरण (Classification in India):
भारत में ब्रिटिश काल से ही कार्मिक प्रशासन में वर्गीकरण शुरू हो गया था । 1769 में गवर्नर क्लाइव के समय दो वर्ग थे- कनवेंटेड और अनकनवेंटेड । सेवाओं के भारतीयकरण की मांग पर गठित एचीसन आयोग (1886) ने सेवाओं के 3 वर्ग सुझाये- इंपिरिअल सेवाएं, प्रांतीय सेवाएं और अधीनस्थ सेवाएं ।
इंसलिगटन आयोग (1912-13) ने सिफारिश की थी कि इंपिरिअल सेवाओं के नीचे केन्द्रीय सेवा प्रथम और द्वितीय वर्ग की स्थापना हो । लेकिन विश्व युद्ध होने से यह काम टल गया और अंतत: 1926 में जाकर ये नाम चलन में आये ।
लेकिन राष्ट्रीय जागरण ने सरकार को मजबुर किया और प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ही इंपिरिअल के स्थान पर भारतीय या केन्द्रीय सेवा का संबोधन अनौपचारिक रूप से होने लगा । भारत मंत्री द्वारा भर्ती की जाने वाली सेवाओं को भारतीय सेवा और गवर्नर जनरल द्वारा भर्ती की जाने वाली सेवाओं को केन्द्रीय सेवा कहा जाने लगा ।
वर्तमान में भारत में सेवाओं का वर्गीकरण उन नियमों के अंतर्गत किया जाता है जो मूलत: 1930 में बनाये गये थे तथा जिनका संशोधन समय-समय पर किया जाता रहा है । इन नियमों को लोकसेवा वर्गीकरण, नियंत्रण तथा अपील नियमों के नामों से पुकारा जाता है ।
वर्तमान काल में यह वर्गीकरण इस प्रकार है:
1. अखिल भर्तीय सेवाएं,
2. केन्द्रीय सेवाएं प्रथम श्रेणी (ग्रुप-1),
3. केन्द्रीय सेवाएं द्वितीय श्रेणी (ग्रुप-2),
4. प्रादेशिक या राज्य सेवाएं,
5. विशेषज्ञ सेवाएं,
6. केन्द्रीय सेवाएं तृतीय श्रेणी (ग्रुप-3),
7. केन्द्रीय सेवाएं चतुर्थ श्रेणी (ग्रुप-4) तथा
8. केन्द्रय सचिवालय सेवाएं प्रथम, द्वितीय-तृतीय और चतुर्थ श्रेणी (ग्रुप-1, ग्रुप-2, ग्रुप-3, ग्रुप-4) ।
गजट के आधार पर:
भारत में ”गजट” में प्रकाशन के आधार पर एक और वर्गीकरण देखने को मिलता है- राजपत्रित और गैर राजपत्रित । प्राय: प्रथम और द्वितीय श्रेणी के पद राजपत्रित होते हैं । प्राय: प्रथम और द्वितीय श्रेणी के कुछ पद ही राजपत्रित होते हैं, सभी नहीं ।
समीक्षा:
भारत में वर्तमान वर्गीकरण अवैज्ञानिक, औपनिवेशिक और अव्यावहारिक कहा जाता हैं । इसने लोक सेवा में वर्गभाव की उत्पत्ति की हैं, और वेतन आयोग द्वितीय के शब्दों में- ”इसने वर्गों और सेवाओं के मध्य एक दीवार खड़ी कर दी हैं, और हम इसके उन्मूलन की अनुशंसा करते हैं, जिससे कि सभी लोक सेवक अपने को एक सामान्य सेवा का सदस्य अनुभव करें ।”
एक विवाद इस बात को लेकर हैं, कि भारत की लोक सेवा में कर्तव्य वर्गीकरण लागू किया जाना चाहिए या नहीं । प्रशासनिक सुधार आयोग (A.R.C.) ने कर्तव्य वर्गीकरण पद्धति को लागू करने की सिफारिश की थी । वस्तुत: यह सामान्यज्ञ (I.A.S.) और विशेषज्ञों (इंजीनियर आदि) के मध्य विवादग्रस्त है ।
सामान्यज्ञ वर्तमान स्थिति वर्गीकरण को बनाने रखने के इसलिए पक्षधर हैं, क्योंकि इससे उनकी सर्वोच्चता बरकरार रहती है । माहेश्वरी अवस्थी के शब्दों में- ”तत्काल कोई अंतिम निर्णय कठिन हैं । मूल व्यवस्था जिसकी जड़ गहरे पैठ चुकी हैं, को उन्मूलित करना असंभव है । ….. संभव हैं कि वर्तमान स्थिति वर्गीकरण को संशोधित करना बुद्धिमतापूर्ण हो ।”
भारत में वर्गीकरण की आलोचना (Criticism of Classification in India):
1. अवैज्ञानिक ।
2. मात्र वेतन आधारित (स्थिति वर्गीकरण न कि पद वर्गीकरण) ।
3. परंपराओं पर आधारित जिनमें एक जैसे कार्य करने पर भी वेतन में भारी अंतर ।
4. ग्रेडो की संख्या बहुत अधिक- 33 ग्रेड ।
5. सेवाओं में संबंध नहीं ।
6. सेवाओं में जाति भेद । एपीलबी ने भारतीय लोक सेवा में वर्गों को जातियों की संज्ञा दी थी ।